करीब पांच सालों बाद अपने गांव रानीखेत जाने का मौका लगा। पहले राम नगर गए। वहां से ताड़ीखेत फिर वहां से जीप में बैठकर गांव की ओर। यह रास्ता पिछले सात-आठ सालों से वहां के लिए बना है, नहीं दो आठ-दस किलोमीटर पैदल जाना ही होता था। जीप में कुछ बातें चल रही थीं। इसी बीच एक सज्जन ने मेरा नाम और पता पूछा। उसके बाद वह जोर से हंसे और बोले पांच साल पहले आपने मुझे पहचाना और पांच साल बाद मैं आपको पहले पहचान रहा हूं। असल में यह सज्जन मेरे बचपन के दोस्त राम सिंह रौतेला के बड़े भाई हैं। राम सिंह फौज में है और अभी असम में पोस्टेड है। मैं और राम सिंह पांचवीं क्लास तक साथ पढ़े हैं। उसके बाद हमारी मुलाकात नहीं हुई। भाई-बहनों के जरिये कुशल क्षेम पूछते रहते हैं। इस यात्रा के दौरान राम सिंह के बड़े भाई पान सिंह मिले। पांच साल बाद मैंने उन्हें पहचान लिया। पता नहीं कैसे। राम सिंह की शक्ल भी उनकी तरह होगी, ऐसा मेरा अनुमान है। पान सिंह जी की पत्नी अभी ग्राम सभापति हैं। आजकल चुनाव चल रहे हैं। अब वह सीट महिला से बदलकर जनरल हो गई है। इसलिए पानसिंह जी चुनावी तैयारी में हैं। हमारे गांव में भी मेरे बचपन के दोस्त की पत्नी ग्राम सभापति थीं, अब खुद वह दोस्त दिनेश इसके लिए कोशिश कर रहा है। जीप में बैठे-बैठे बातों का सिलसिला जारी था। इस बीच मैंने पूछा, अरे यह सडक़ डामर की कब हो गई। जीप में बैठे सब लोग मेरी तरफ विस्मित नजरों से देखने लगे। पान सिंह ने कहा, कच्ची सडक़ को पक्की हुए तो तीन साल से ज्यादा समय हो गया है। मैंने कहा, अरे मैं तो पांच सालों बाद आ रहा हूं। तभी पान सिंह ने चर्चा छेड़ी पलायन की। बोले, अब तो पलायन इस हद तक हो चुका है कि गांव के गांव वीरान हैं। यदि यह सडक़ 20 साल पहले आ गई होती तो निश्चित रूप से पलायन का यह रूप समझ में नहीं आता। पहले मुझे सडक़ से पलायन के इस रिश्ते की बात समझ में नहीं आई। हालांकि हमारा परिवार भी गांव में नहीं रहता। मेरे ताऊजी का परिवार दिल्ली में 60 साल पहले आकर बस गया था। मेरे भाई साहब 1975 में लखनऊ आ गए थे। 1980 में मैं भी लखनऊ आ गया था। नौ साल पहले माताजी के निधन के बाद अब गांव आने का सिलसिला भी हम लोगों का बहुत कम हो गया है। मैंने पूछा कि ऐसा क्यों। सडक़ से पलायन का क्या ताल्लुक। पान सिंह ने स्पष्ट किया कि कुछ लोग बहुत पहले चले गए, उनकी बात छोड़ दीजिए। हालांकि रिटायर होने के बाद यहां कई लोगों ने बसना चाहा पर पैदल चलने के डर से यहां कोई आ नहीं पाया। उसके बाद कुछ युवाओं ने अपना रोजगार शुरू करने की कोशिश की तो सडक़ न होने से उन्हें दिक्कतें हुईं। उन्होंने करीब दर्जनभर ऐसे उदाहरण बताए जिनमें हमारे गांव के ही युवा महज 10 या 20 किलोमीटर दूर जाकर या तो कोई व्यवसाय चला रहे हैं या फिर नौकरी कर रहे हैं। स्वयं पान सिंह का परिवार ताड़ीखेत में शिफ्ट हो गया है। मैंने इस बात पर मंथन किया। वाकई सडक़ का भी पलायन से ताल्लुक है। यदि सडक़ें अच्छी हों तो काम और अच्छे हो सकते हैं। सडक़ का पलायन से उतना ही गहरा नाता है जितना आंदोलनों का सडक़ से।
केवल तिवारी
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