अनुभवों को साझा करते हरीश जोशी (बाएं)। साथ में हैं संपादक राजकुमार सिंह (बीच में) एवं समाचार संपादक हरेश वशिष्ठ |
अपनी पत्नी के साथ भावुक जोशीजी। |
पुरबा बता दे, कहां की हवा है। सागर से पूछो दरिया कहां है।
अंधेरे बहुत फैल जाएं तो समझो, उठो अब कि अपना सवेरा हुआ है।
वाकई यह मौका भी तो एक सवेरा ही होने जैसा है। कौन कहता है कि विदाई की घड़ी एक शाम जैसी होती है। बल्कि अब तो नयी जिम्मेदारियां, नए फलक पर आपको नये रूप से चलना है। हां, यह भी सत्य है कि दफ्तर के लिए आपके लिए एक शाम शुरू हो गयी है जैसे बशीर बद्र साहब ने लिखा है-
थके-थके पेडल के बीच चले सूरज, घर की तरफ लौटी दफ्तर की शाम।
जोशी जी! बेशक इस पूरी चर्चा, प्रकरण में मैं स्वयं सागर में एक कटोरा पानी जैसा हूं, लेकिन जितना वक्त भी आपके साथ गुजरा प्रेरणादायक रहा। इस पर मैं यही कह सकता हूं-
आपके आभार की लिपि में प्रकाशित
हर डगर के प्रश्न हैं मेरे लिए पठनीय
कौन सा पथ कठिन है...
मुझको बताओ
मैं चलूंगा।
असल में जोशी जी की विदाई का यह नजारा उस समय ज्यादा भावुक हो गया, जब हम सभी न्यूज रूम के साथी उन्हें छोड़ने गेट तक आये। वहां उनकी पत्नी, बेटी-बेटा इंतजार कर रहे थे। श्रीमती जोशी ने कहा, 'इन्हें फर्क पड़े न पड़े हमें तो बहुत पड़ने वाला है। ट्रिब्यून को लेकर एक बल मिलता था। एक गर्व का अहसास होता था कि जोशीजी ट्रिब्यून में सीनियर जर्नलिस्ट हैं।' उनके इस कथन पर सभी ने कहा अभी भी जोशी जी ट्रिब्यून से जुड़े रहेंगे। लेखन से। कुछ और काम से। लेकिन इस दौरान अब तक बहुत 'मजबूत' दिख रहे जोशी जी की आंखें छलक आयीं। उनका भावुक अंदाज मानो कह रहा हो-
मेरे गीत तुम्हारे पास सहरा पाने आएंगे, मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएंगे।
ये सच है कि पांवों ने बहुत कष्ट उठाये, पर पांव किसी तरह से राहों पे तो आये।
... फिरता हूं कई यादों को सीने से लगाये।
इसके बाद माहौल लगातार भावुक हुआ जा रहा था। सबने जोशी जी और उनके परिवार के लोगों को नमस्कार कहा। और साथ में यह भाव रखा जैसे कह रहे हों-
कभी दिन की धूप में झूम के, कभी शब्द के फूल को चूम के।
यूं ही साथ-साथ चलते रहें, कभी खत्म अपना सफर न हो।
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