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Wednesday, April 10, 2019

वृंदावन-मथुरा की वह यादगार यात्रा



वृंदावन में हम सब लोग। फोटो खींचने वाला बच्चा बाद में दिखेगा
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव। नमो भगवते वासुदेव। राधे-राधे। भगवान कृष्ण की पूजा-अर्चना में अक्सर गुनगुनाये जाने वाले इन वाक्यों/शब्दों के साथ ही साझा करता हूं उस यात्रा का वर्णन जिसका कार्यक्रम अचानक बना। ऐसे अचानक जैसे कि हम अक्सर कहते हैं कि बुलावा आया होगा। पहले प्रोग्राम बना सपरिवार चलना है। फिर हुआ अभी नहीं, दूसरी बार। फिर सारा कार्यक्रम अमृतसर का बना और आखिरकार पहुंचे वृंदावन और मथुरा। विस्तार से जिक्र करने के लिए आइये चलते हैं सिलसिलेवार ढंग से-
31 मार्च की सुबह सवा सात बजे का समय। भास्कर जोशी (मेरे ब्रदर इन लॉ) के मोबाइल की घंटी बजी। फोन था उनके पड़ोसी सीबी अग्रवाल साहब का। हेलो कहते ही पहला सवाल, ‘कहां पहुंचे।’ जवाब दिया गया, ‘बस वृंदावन की तरफ मुड़ चुके हैं।’ ‘आ जाओ, अभी हमने भी परिक्रमा शुरू नहीं की है।’ अग्रवाल साहब ने अगली बात कही और फोन काट दिया। मैं, मेरा बेटा कार्तिक, भास्कर की पत्नी प्रीति और उनका बेटा भव्य साथ थे। बच्चों को छोड़कर सभी बड़ों ने कहा, चलो अच्छा है साथ ही परिक्रमा और दर्शन हो जाएंगे। हम लोग मुश्किल से 10 मिनट में वृंदावन पहुंच गये। पास में ही एक हाउसिंग सोसाइटी के बाहर अग्रवाल साहब सपरिवार खड़े थे। उन्होंने पहले कार पार्क करवाई और हम सब चल पड़े। चलते-चलते ही नमस्कार हुई। मन में एक अनूठी उमंग थी। भास्कर लोग पहले भी आ चुके थे। अग्रवाल साहब तो थे ही यहीं के और महीने में एक या दो बार यहां आते रहते हैं। हम लोगों ने फैसला किया था कि पैदल ही परिक्रमा पूरी करेंगे। उस दिन एकादशी थी और शायद इसकी वजह से भी भीड़ अच्छी खासी थी। 47 साल की उम्र में यह पहला मौका था जब में वृंदावन, मथुरा आया था। भास्कर लोग फरीदाबाद रहते हैं। वहां तक अक्सर आता-जाता रहता हूं। उनसे वृंदावन और मथुरा जाने की बात भी होती रहती थी। इस बार भी बात की तो भास्कर ने कहा कि व्यस्तता तो है। मार्च का महीना है। आ जाना देख लेंगे। हां-ना करते-करते पहुंच ही गये और शानदार यात्रा रही। बेहद यादगार।
ये हैं भव्य जोशी। इन्होंने ही ऊपर वाली फोटो खींची।

वह स्थानीय बोली और मंदिर-मंदिर दर्शन
अग्रवाल साहब अपनी पत्नी और बेटी-बेटे के साथ थे और हम सब लोग। सबसे पहले मैंने खुशी जताई कि चलिए आज मैं भी आप लोगों के साथ दर्शन कर लूंगा। उनकी पत्नी बोली, सब ‘राधा की कृपा है।’ फिर कहा, धन्यवाद तो कुक्कू (मेरा बेटा कार्तिक) का है। असल में उससे ही मैंने वादा किया था कि परीक्षा के बाद कहीं चलेंगे। पहले शिमला का बना, फिर अमृतसर का। अमृतसर में होटल बुकिंग तक हो गयी। वाघा बॉर्डर के लिए दिल्ली से राजीव ने पास की भी व्यवस्था कर दी, लेकिन दर्शन तो बांके बिहारी और राधारानी के होने थे सो हुए। हम लोग जब परिक्रमा कर रहे थे अग्रवाल साहब किसी से पूछते, ‘कौन को लाला है’ यानी किसके बेटे हो। हर जगह उनके पहचान वाले मिले। काफी मदद मिली। वहां कोई वाहन चालक पास मांगता है तो वह भी ‘राधे-राधे’ कहता है।

रसखान और मीरा की भी रचनाएं आईं
परिक्रमा के दौरान कई बार ऐसा दौर आया जब हम कभी रसखान को तो कभी सूरदास को याद करते। एक जगह हमें कुछ गायें दिखीं। मैंने बेटे से कहा रसखान ने लिखा है, ‘जो पशु हों तो कहा वश मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मझारन।’ मेरे साथ सुरबद्ध होकर अग्रवाल साहब बोले, ‘मानुष हों तो वही रसखान, बसों ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।’ ऐसे ही बीच-बीच में पाहन हों तो वही गिरि को। फिर एक जगह सुदामा-कृष्ण को लेकर वह रचना भी याद आई जिसमें कहा गया है, ‘शीश पगा न झगा तन पे प्रभु जाने को आही बसे केहि ग्रामा...’ कुछ ही देर में मीरा का वह पद आया, ‘बसों मेरे नैनन में नंदलाल।’

अग्रवाल साहब की निष्काम मदद
इस सबके बीच अग्रवाल साहब और उनके परिवार की निष्काम मदद ने मुझे बेहद प्रभावित किया। भास्कर तो उनके पड़ोसी हैं, लेकिन मेरे साथ भी उनका अपनत्व। सचमुच मैं तो ऐसा नहीं हो सकता। वह अपने घर भी ले गये। खाना भी खिलाया। परिक्रमा के दौरान भी खर्च किया। हम लोगों को कोई खर्च नहीं करने दिया। शाम तक हम थक चुके थे, वे भी थके थे। इसके बावजूद वे हमें इस्कान मंदिर, मथुरा जन्मभूमि आदि स्थानों पर ले गये। पर उन्होंने मेरा एक धन्यवाद तक लेने से इनकार कर दिया। उनके दोनों बच्चों के व्यवहार में भी उनके संस्कार झलकते हैं। हरे कृष्ण।
भास्कर की सेल्फी में समाये सब लोग।

लालकिले और नेशनल साइंस सेंटर की भी एक यात्रा
दो दशक तक दिल्ली रहने के बावजूद मैं कभी ऐतिहासिक लालकिले के अंदर नहीं गया। इस बार बेटे ने जिद की तो उसे और भव्य को लेकर चला गया। सचमुच वहां का विहंगम नजारा देखने लायक था। हाल ही में बना नेताजी सुभाष मेमोरियल भी लाजवाब था। इस दौरान मासूम भव्य के कई सवालों और उसके बाद की प्रतिक्रियाओं से बहुत प्रसन्न हुआ। पहले वह बच्चा सवाल करता, जब उसे पूरी कहानी समझायी जाती तो उसका मासूम सा सवाल फिर आता, ‘मैं समझा नहीं।’ इस दौरान वह बेहद थक गया। मुझे भी उस पर दया आयी। पहले दिन करीब 15 किलोमीटर पैदल चला आज फिर यही हाल। उसे बाहर लाया। मेट्रो पकड़कर पहले प्रगति मैदान तक गये फिर दूसरी तरफ के गेट तक ऑटो से। वहां नेशनल साइंस सेंटर में दोनों बच्चों ने जो एंजॉय किया, वह लाजवाब था। वहां दो छोटी-छोटी मूवी देखी। उस दौरान बच्चे ने अंतरिक्ष के संबंध में कई जानकारियां भी साझा की। सुबह 10 बजे के निकले हम लोग रात साढ़े आठ बजे घर पहुंचे। पूरी यात्रा अच्छी रही। अगले दिन मैं और बेटा कार्तिक चंडीगढ़ आ गये। इस यात्रा के सभी साथियो को बहुत-बहुत साधुवाद। 
लालकिले मैं और भव्य (ऊपर) और बेटे कार्तिक के साथ।

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