केवल तिवारी
मेरे ब्लॉग के इस अंश के शीर्षक की पहले पांच अक्षर या यूं कहें कि शुरुआती पंक्ति ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में न्यूजरूम के मेरे साथी राजेन्द्र धवन जी की पुस्तक 'मैं सागर खारा, तुम नदी मीठी' की कविता 'तेरा क्या नाम लिखूं' से ली गई है। असल में धवन जी से मेरा परिचय उतना ही पुराना है, जितना समय मुझे दैनिक ट्रिब्यून में आए हुए हो गये। यानी यह मुलाकात अब डेढ़ दशक की ओर अग्रसर है। उस वक्त दो-चार लोगों को छोड़ मेरा वास्ता ज्यादा लोगों से नहीं था। संभवतः राजेन्द्र धवन जी से भी सिर्फ हेलो, हाई तक ही। धवन जी उन चंद लोगों में शामिल हैं जो अभिवादन के लिए सामने वाले का इंतजार नहीं करते। मैंने यहां अजीब आग्रह, दुराग्रह देखे हैं, लेकिन राजेन्द्र धवन जी उन सबसे इतर। वह अपनी उस कविता की मानिंद हैं, जिसमें उन्होंने लिखा है, मेरे से तू इंसान की बात मत कर…धवन जी की यह पुस्तक मिल गयी थी करीब महीनेभर पहले, इसे पढ़ भी लिया था, लेकिन कुछ लिखने का मौका आज यानी साप्ताहिक हवकाश सोमवार 22 सितंबर को ही मिला।
किताब में छोटी, बड़ी अनेक कविताएं हैं। कवि एवं गीतकार इरशाद कामिल ने बहुत बेहतरीन और सारगर्भित भूमिका लिखी है। उन्होंने लिखा है, ‘अगर हां की आशा न हो तो नहीं को स्वीकार करना समझदारी है।’ वह आगे लिखते हैं, ‘अगर नहीं पता की कविता क्या है तो यह जानने का प्रयत्न आवश्यक है की कविता क्या नहीं है। कविता आपके डेली डायरी नहीं है कविता कोई शिकायत पत्र नहीं है कविता आपके रोज का विज्ञापन नहीं है। न आपकी कुंठाओं का आलेख न आपकी ग्रंथियां का उल्लेख न आपकी मानसिकता पर लेख। यह उन बातों को रखने का माध्यम भी नहीं है जो बातें किसी के सामने कहने की आपकी हिम्मत नहीं होती। यह बंद कमरे में किसी पर चीखने जैसा काम भी नहीं है। विशेषत: उस पर चीखने जैसा जो वहां उपस्थित ही न हो।’
भूमिका के बाद मैंने कवि की ‘अपनी बात’ को भी पूरी तरह पढ़ लिया। पुस्तक में लिखी गई विभिन्न कविताओं से लगता है जैसे कवि को मोहब्बत है, कवि का दिल टूटा है, कवि को बेपनाह प्यार हुआ है। कवि अपनी बात कहने में बहुत आनंदित हैं, लेकिन लिखने का तात्पर्य सिर्फ अपने ऊपर गुजरी बातें ही नहीं होतीं जैसा कि खुद राजेंद्र धवन जी ने ‘अपनी बात’ में लिखा है, ‘यह भी सच है कि साहित्य में कही लिखी हर बात सच नहीं होती, कई बार लेखक कल्पनाओं का सहारा लेते हैं जैसे चांद को साहित्यकारों ने सुंदरता का प्रतीक बना दिया है लेकिन चाद न तो स्त्री है और न ही किसी का मामा। दुनिया के सात अजूबों में शामिल ताजमहल मोहब्बत की निशानी है तो मकबरा भी है।’
जब कोई गीत, गजल या कविता हम सुनते-पढ़ते हैं तो उसके मायने हर किसी के लिए अलग होते हैं। हर पंक्ति के मायने हर किसी के लिए अलग हो सकते हैं। एक जगह कवि लिखते हैं, जो कमाया उतना ही खर्च किया हिसाब जिंदगी का यूं बराबर किया। एक अन्य जगह उनकी पंक्ति की खूबसूरती देखिए, ‘गुनाह तुमने भी किया था मेरे जितना, तू पाक साफ तो मेरा कसूर क्यों?’
राजेंद्र धवन जी की इस किताब में उत्तर आधुनिक युग की कवित्त शैली है तो तुकबंदी भी, कहीं शायराना अंदाज़ है तो कहीं बहती धारा सी आनंदित करने वाली शैली। इतना बेहतरीन लिखने वाले राजेंद्र धवन जी से कभी भी इस संबंध में बात ही नहीं हुई। यानी छुपे रुस्तम जैसे धवन साहब ने एक जगह लिखा है, ‘खूबी नहीं कोई मुझ में बस किस्मत का खा रहा हूं लिखा नहीं कोई गीत किसी और का गुनगुना रहा हूं।’ पुस्तक में कुल 70 कविताएं हैं। एक से बढ़कर एक। धवन जी की यह रचनाधर्मिता ऐसे ही चलते रहें। हार्दिक शुभकामनाएं।
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मुझे अपनी पुस्तक भेंट करते राजेन्द्र धवन |
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