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Friday, April 30, 2021

ये क्या किया बिपिन... वादे तोड़ गया... खुश रहना मेरे दोस्त, सारे गमों से दूर रहना



केवल तिवारी

ये क्या किया बिपिन। क्या होगा उन सपनों का जो मैंने तुम्हारे साथ भविष्य के लिए देखे थे। पता है सुबह से इस वीडियो के दसियों बार देख चुका हूं। तू पूछ रहा है, चाचा कहां हो, ऊपर पहुंच गये। मैं कहां पहुंचा ऊपर, तू पहुंच गया। वहां पहुंच गया जहां मैं तुझे देख नहीं सकता, तुझे छू नहीं सकता। अभी तो बस रो रहा हूं। मैं रो रहा हूं, भावना रो रही है और बच्चे रो रहे हैं। कुक्कू ज्यादा भावुक होकर रो रहा है। बिपिन तू हर बात पे कहता था, अरे चाचाजी आपके भतीजे काहे के लिए हैं। क्या तू जवाब दे सकता है इस बात का कि इसीलिए है ये भतीजा कि चाचा बनकर चला गया। माना कि मुझसे बड़ा था, लेकिन इतना बड़ा थोड़े था कि ऐसे ही चला जाएगा। तीन दिन पहले वीडियो कॉल में तूने थम्स अप किया था और कहा था कि जल्दी मिलेंगे। अब कब मिलेंगे। इतने भले लोगों के साथ ऐसा क्यों होता है। सुबह-सुबह दीपू बिटिया का फोन आया। बड़बाज्यू पापा चले गये। मैं जोर से चिल्लाया, क्या कह रही हो। फिर पता नहीं कैसे मुंह से निकला, खुद को संभालो। बोली क्या संभालें बड़बाज्यू पापा चले गये। मैं अवाक। बोली कार्डियेक अटैक आ गया था। बात खत्म। फोन पटका और सिर धुनने लग गया। रह-रह कर तुम याद आ रहे थे। कभी तुम्हारी फोटो देखी, कभी तुम्हारी वीडियो। कभी तुम्हारे साथ हुई व्हाट्सएप चैट पर नजर डाली। सब रो रहे हैं। इतना अभागा हूं कि मैं तुम्हारे अंतिम संस्कार में भी नहीं जा पा रहा हूं। बाद में प्रकाश का भी फोन आया। उसने कहा बिपिन भाई चला गया। मैं रो रहा था, उसे लगा शायद मैं समझा नहीं, बोला, बिपिन भाई चला गया। मैं रोता ही रहा। बोला बाद में फोन करूंगा। फिर तो कई लोगों के फोन आये। कुछ मैंने उठाये, कुछ भावना को पकड़ा दिये। सोचने लगा क्या अब कभी गांव जा पाऊंगा। वो गांव अब तुम्हारे बिना कैसा लगेगा? क्या कभी वसुंधरा जा पाऊंगा। वो वसुंधरा अब तुम्हारे बिना कैसा लगेगा?

बार-बार सोच रहा हूं, क्या मेरी प्रार्थना में कोई कमी रह गयी थी। घर ग्वेल देवता के नाम उच्याण रखा था। सुबह-शाम तुम्हारे नाम की पूजा कर रहा था। कल साईं मंदिर और बाबा बालकनाथ मंदिर गया था। भगवान ने कई मुश्किल दौर से मुझे निकाला है। सब याद है बिपिन कैसे कहते थे, चाचा जी चिंता मत करो हम हैं ना। कभी जब बताता था कि नौकरी पर संकट है तो कैसे तुमने कहा था, परेशान मत होओ, रोज देवी कवच पढ़ा करो। मैं रोज देवी कवच पढ़ता था। जब मुश्किल हालात में पिछले साल मेरा कांट्रेक्ट रिन्यू हुआ तो तुमने कितनी खुशी व्यक्त की थी। कार लेकर तुम्हारे पास आया तो तुमने खुश होकर मेरे मित्रों को पार्टी दी थी। क्या-क्या याद करूं। जब बीना और बच्चों के बारे में सोच रहा हूं तो मन कांप उठ रहा है। घर के किसी कोने में तुम्हारे कपड़े टंगे होंगे। कहीं तुम्हारी चप्पलें होंगी। कहीं डायरी होगी और वह पूजाघर जिसमें ना जाने बच्चों ने कितनी बार प्रार्थनाएं की होंगी। काल का ऐसा कुचक्र चल रहा है कि असमय ही लोगों को उठा ले रहा है।

लेकिन बिपिन तू मरा नहीं है। इसलिए तुझे श्रद्धांजलि भी दूं तो कैसे। कैसे कहूं कि भगवान तुम्हारी आत्मा को शांति दे। तू तो पुण्यात्मा था। पूरे परिवार को एक करने वाला। तुझे मिलना होगा जल्दी बिपिन। हमारे ही बीच कहीं आकर या फिर मुझे बुलाकर। पूरे परिवार, समाज के लिए इतना नेक काम करने वाला कहीं न कहीं ईश्वर के किसी नेक काम में इस वक्त लग गया होगा। बिपिन तू हमारे दिलों में जिंदा है और जिंदा रहेगा। वहीं से तेरी आवाज आती रहेगी तब तक जब तक हम भी परमात्मा में विलीन नहीं हो जाते। एक-एक बातें याद आ रही हैं। आसूं आ रहे हैं। लिखते-लिखते लग रहा था तुझसे बात कर रहा हूं। बात ही तो कर रहा हूं। अब क्या? कभी सपने में आना, कभी क्या अक्सर ही आ जाना। थोड़ी बातें कर लिया करेंगे। ठीक है मेरे भतीजे... तू तो दोस्त था यार, फिर कह रहा हूं जल्दी चला गया। खुश रहना मेरे दोस्त, सारे गमों से दूर रहना।


Wednesday, April 28, 2021

अविचल पंथी के पथ में खट्टे-मीठे अहसास

 पुस्तक समीक्षा

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केवल तिवारी

आज के समय में ज्यादातर लोगों के लिए वह दिनचर्या कल्पना से भी परे है जब कोई वार्षिक परीक्षा के लिए हर सोमवार को राशन-पानी, सूखी लकड़ियां लेकर घर से दूर जाता हो, कुछ मित्रों के साथ हफ्तेभर रहकर पढ़ाई के साथ-साथ भोजन-पानी की व्यवस्था करता हो और शनिवार को फिर घर आता हो। एडवेंचर के लिए तो कोई ऐसा कर सकता है, लेकिन रुटीन में यह कितना दुष्कर है, इसे वही समझ सकता है, जिसने ऐसा झेला है।

राजनीति में पंचायत सदस्य से लेकर मुख्यमंत्री, फिर केंद्रीय मंत्री तक का सफर तय करने वाले शांता कुमार ने पूरे जीवन में कई दुश्वारियां झेलीं। कभी आर्थिक तंगी की, तो कभी राजनीतिक पैंतरेबाजी की। तमाम मुसीबतों के साथ शांत स्वभाव से जीवन पथ पर आगे चलती रहने वाली हिमाचल प्रदेश की जानी-मानी हस्ती शांता कुमार ने लेखन और अध्ययन को अपना मित्र बनाकर रखा। खुद को या आसपास किसी को दुखों से घिरा देखा तो कभी कवि हृदय से स्वर फूट पड़े, सत्ता मिली तो हर वह प्रयास किया, जिससे लोगों की तकलीफें कम हों। यह अलग बात है कि अपने दुखों को सीधे-सीधे कहीं बयां नहीं किया। सक्रिय राजनीति से दूर होने के बाद जीवन संध्या की वेला पर उन्होंने ‘निज पथ का अविचल पंथी’ नाम से आत्मकथा लिखी। बेहद सरल और सहज अंदाज में उन्होंने बचपन से लेकर अब तक (86 वर्ष की आयु) अपने जीवन के तमाम पड़ावों को सामने रखा है।

बेहद भावुक अंदाज में चित्रों के साथ आत्मकथा की शुरुआत की गयी है। पत्नी के बगैर घर को ईंट-पत्थरों की दीवार बताते हुए शांता कुमार लिखते हैं, ‘5:30 बजे अलार्म बजा। ...मैं उठा। चाय वाले कमरे में गया। चाय बनाई। सामने देखा, दो कप पड़े थे। एक मेरा और एक वह तुम्हारा प्यारा... फिर दो कप चाय बनाई। दोनों कपों में डाली... आंसू निकले... फिर ख्याल आया, वायदा किया है तुमसे कि हिम्मत से जीऊंगा।’ हर कदम शांता कुमार के साथ रहने वाली उनकी जीवनसंगिनी संतोष इस किताब को जल्दी पूरा करने के लिए कहती थीं और कुछ समय पहले दोनों का 60 बरस का साथ छूट गया।

शांता कुमार का शुरुआती जीवन ठीकठाक रहा, लेकिन पिताजी के निधन के बाद स्थिति खराब हो गयी। मां ने कैसे घर को संभाला, उसका भावपूर्ण वर्णन किताब में किया गया है। किशोरावस्था से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आने वाले शांता कुमार ने देशसेवा को ही अपनी जिंदगी का उद्देश्य बना लिया। इसके लिए घरवालों से झूठ तक बोला। देश और समाज के लिए समर्पित शांता कुमार मास्टरी की नौकरी महज 17 दिन में ही छोड़कर चले गये और कश्मीर के मुद्दे पर जेल भेज दिये गये। पहले फिल्म ‘मेला’ देखने जाना, फिर देशभक्ति के नारे लगाना और गिरफ्तार हो जाना। पूरे प्रकरण का उन्होंने इस तरह वर्णन किया है कि पढ़ते-पढ़ते पाठक के मन-मस्तिष्क में चलचित्र सा चलने लगता है। हिमाचल प्रदेश से दिल्ली आना, फिर यमुनापार इलाके में संघ के प्रमुख के तौर पर जिम्मेदारी संभालने का दौर बहुत रोचक और कड़े परिश्रम वाला रहा। दिल्ली प्रवास के दौरान ही एक स्वयंसेवक सोमनाथ के विवाह के बाद चाय पार्टी में अटल बिहारी वाजपेयी जी को बुलाने की जिम्मेदारी का लेखक ने रोचक चित्रण किया है। उस वक्त कार्यालय प्रमुख जगदीश चंद माथुर जी के समक्ष अटलजी ने कहा, ‘माथुर जी मुझे और आपको न तो विवाह का कोई अनुभव है और न ही होने की संभावना है। ऐसी विवाह पार्टी में हमारा क्या काम?’ बाद में अटलजी उस पार्टी में गये। संघ के लिए कामकाज के दौरान ही शांताकुमार की भेंट संतोष से हुई। लेखक लिखते हैं, ‘...हम दोनों को लगा कि हमारा यह संबंध कुछ समय का नहीं, जीवन भर का है। हमने जीवनसाथी बनने का निर्णय कर लिया।’ संघ के वरिष्ठ नेताओं से किए वादे के मुताबिक दो साल बाद शादी करना, परिवार में शुरुआती संकट और फिर धीरे-धीरे जनसंघ में सक्रिय होना और इसी दौरान राजनीति का दूसरा रूप देखना भी लेखक के लिए कभी रोचक तो कभी व्यथित करने वाला रहा। इमरजेंसी लगने के दौरान लेखक की जेल यातना दर्दभरी दास्तान है। पठनीय है। भारतीय राजनीति में जय प्रकाश नारायण का उदय फिर मृत्यु के समय उनकी व्याकुलता और लेखक का उनसे मिलना भी बहुत ही मार्मिक है।

हिमाचल प्रदेश के जनमानस तक शांता कुमार के संघर्षों और उसूलों की बात चर्चा का विषय बनना और बाद में मुख्यमंत्री पद तक पहुंचना वास्तव में अकल्पनीय-सा लगता है। सत्ता मिलने के बाद पद लोलुपों का चारों ओर से दबाव बढ़ना और इसी बीच जनहित के कड़े फैसले लेने का जिक्र लेखक ने प्रवाहमयी अंदाज में किया है। जोड़-तोड़ और गठजोड़ के आगे सिद्धांत न छोड़ने का ही परिणाम था कि शांता कुमार की कुर्सी चली गयी। वह लिखते हैं, ‘मुख्यमंत्री बनने पर हम सबने अपने आपको भुलाया नहीं था। हवा में नहीं उड़े थे। इसलिए फिर से पुराना जीवन शुरू करने में कोई भी कठिनाई नहीं हुई।’ एक राजनीतिक सहयोगी से उन्होंने कहा, ‘मैं नहीं बदला, इसमें मुझे इतना सुख मिला है जो बदलने वालों को सब कुछ प्राप्त करके भी नहीं मिलेगा। यही मेरी संपत्ति है।’ प्रदेश की बागडोर दोबारा संभालने पर शांता कुमार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कदम उठाये और अपने कई अफसरों पर निशाना साधा। उनकी कार्यशैली पर उत्तर भारत के जाने-माने समाचारपत्र ‘ट्रिब्यून’ ने 20 दिसंबर, 1990 को अपने संपादकीय में लिखा, ‘यदि देश में राजनीतिक साहस के कार्य के लिए कोई वीरता पुरस्कार हो तो वह इस बार हि.प्र. के मुख्यमंत्री शांता कुमार को मिलना चाहिए...।’

प्रदेश से राष्ट्रीय राजनीति और उसमें अटल जी से अनेक बार प्रशंसा और बाद में कुछ दबावों के चलते अटलजी द्वारा इस्तीफा लिए जाने जैसे कुछ प्रसंग हैं, जिनसे शांता कुमार काफी व्यथित हुए। स्वामी विवेकानंद को अपना आदर्श मानने वाले शांता कुमार ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहते हुए भी अनेक कड़े फैसले लिए। आंध्र प्रदेश के लिए योजनाओं के मद में 90 की जगह 190 करोड़ अनुदान पर सख्त हुए शांता कुमार तत्कालीन अध्यक्ष वेंकैया नायडू को अखर रहे थे। वह लिखते हैं, ‘राष्ट्रीय अध्यक्ष मुझसे वैसे ही नाराज थे। मैंने प्रदेश को मिलने वाला 100 करोड़ वार्षिक रोक दिया था।’ इसी संदर्भ में वह आगे लिखते हैं, ‘एक दिन सुबह अटल जी का फोन आया। कहा-मुझे दुख है परंतु तुम अब वह कागज दे ही दो। मैं समझ गया मुझसे त्यागपत्र मांगा जा रहा है।’

राजनीति के अपने अनुभवों को लिखते-लिखते भावुक शांता कुमार लिखते हैं, ‘देश की पूरी राजनीति का अवमूल्यन हो चुका है। राजनीति केवल सत्ता के लिए है, सत्य के लिए नहीं। इस अवमूल्यन में हमारी पार्टी आशा की अंतिम किरण है। यदि वह भी गलत से समझौता कर लेगी तो देश के भविष्य का क्या होगा?’ इसी संदर्भ में वह लिखते हैं, ‘मुझे सबसे बड़ा अफसोस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं से है। ...वर्षों का विश्वास हिल गया। आज की बदल रही भाजपा तो बहुत आगे पहुंच गई है। मूल्य आधारित राजनीति के आदर्श के कारण जिस पार्टी को जनता ने विश्व की सबसे बड़ी पार्टी बनाया, आज वह पूरी तरह से नैतिक मूल्य नहीं, केवल और केवल सत्ता आधारित पार्टी बन गयी है। विधायकों के क्रय-विक्रय में भी उसे शामिल होते देख मेरे जैसों को तो शर्म आती है। सोचता हूं-जहां भी होंगे दीनदयाल उपाध्याय जैसे नेता आंसू ही बहाते होंगे।’ जीवन में कई उतार-चढ़ाव देख चुके शांता कुमार अपनी किताब में बॉलीवुड के दिग्गज शत्रुघ्न सिन्हा समेत अनेक लोगों से मित्रता की रोचक बातों का वर्णन करते हैं। विदेश यात्राओं का वर्णन करते हैं। और हमेशा ईश्वर को धन्यवाद देते हैं। कश्मीर से धारा 370 के हटने को साहसिक कदम बताते हुए किताब पूरी करते-करते शांता कुमार भावुक अपील करते हैं, ‘मेरे जीवन की एक ही अंतिम इच्छा है कि मेरी पार्टी भारतीय जनता पार्टी राजनीति के प्रदूषण से बचे।’

हमेशा अपने सिद्धांतों पर अडिग रहने वाले शांता कुमार सरीखे लोगों से राजनीति दल ऊंचाइयों को छूते हैं। शांता कुमार की यह आत्मकथा बहुत रोचक है। उन्होंने बेबाकी से जितना निजी पन्नों को खोला है, उतनी ही सूझबूझ से अपनी पार्टी की कमियों और अच्छाइयों को उजागर किया है। अपने जीवन में अब तक कई पुस्तकें लिख चुके शांता कुमार की यह किताब भी हर वर्ग के व्यक्ति के लिए पठनीय है।

पुस्तक : निज पथ का अविचल पंथी लेखक : शांता कुमार प्रकाशक : किताब घर प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 464 मूल्य : रु.


साभार - दैनिक ट्रिब्यून



Tuesday, April 20, 2021

धीरेश ने की बात और बुजुर्गों की आई याद

आज सुबह मित्र धीरेश का फोन आया। संदर्भ था, फेसबुक पर मेरे साथ एक फोटो साझा होने की। मैंने हंसते हुए कहा कि मैं तो फेसबुक करीब दो साल से देख ही नहीं रहा हूं। वैसे इसमें थोड़ा सा झूठ शामिल था। फेसबुक पर कमेंट, लाइक या कोई पोस्ट डालना मैंने बंद कर रखा है, लेकिन ऑफिस का ऑनलाइन काम काफी देखता हूं। जैसे दैनिक ट्रिब्यून का ट्विटर हैंडल, ऑनलाइन समाचार आदि। इसी संदर्भ में कभी कबार दैनिक ट्रिब्यून के फेसबुक पेज को देखने के लिए अपने अकाउंट को पहले लॉगइन करना पड़ता है। उस दौरान कभी-कभी किसी पोस्ट पर नजर पड़ जाती है। साथ ही कुछ फ्रेंड रिक्वेस्ट भी। अगर प्रोफाइल लॉक न की हो और जानकार लग रहा/रही हो तो मैं रिक्वेस्ट को एक्सेप्ट कर लेता हूं। लेकिन कमेंट न करने, पोस्ट न डालने जैसे मसलों पर डटा हुआ हूं। खैर... बात का ट्रैक बदल गया। बेशक धीरेश ने फेसबुक पर मेरी फोटो से बात की शुरुआत की थी, लेकिन फिर उन्होंने मेरी माताजी को याद किया। मुझे बहुत अच्छा लगा। कुछ मित्र हैं जो बातों बातों में मेरी माताजी को याद कर लेते हैं। धीरेश ने कहा, ‘उनमें बहुत अपनापन था, गोरी-चिट्ठी। उनकी याद अक्सर आती है।’ मैंने जवाब दिया, ‘हां कुछ बच्चे मेरी मां को मलाई अम्मा कहते थे, लेकिन जहां तक अपनेपन की बात है यह तो उस दौर के सभी बुजुर्गों में होती थी।’ थोड़ी सहमति, असहमति के बीच मैंने मित्र धीरज ढिल्लों के पिताजी के एक किस्से को साझा किया। उन दिनों हम लोग कौशांबी के हिमगिरि अपार्टमेंट में रहते थे। मित्र सुरेंद्र पंडित हम सब लोगों को एक करने वाले थे। एक दिन धीरज के पिताजी अपने कुछ संगी-साथियों या जानकारों के साथ कौशांबी आये। नीचे गाड़ी में बाकी लोग बैठे रहे, अंकल जी नौवीं मंजिल 911 में हम लोगों से मिलने आये। मैंने कहा, ‘अंकल बैठो चाय बनाता हूं।’ उन्होंने कहा नहीं चाय नहीं पीनी है, अभी जल्दी में हूं। वह बाकी साथियों से बात करने लगे। मैंने एक बार फिर जोर देकर कहा, ‘अंकल चाय फटाफट बन जाएगी।’ अंकल जी तुरंत बोले, ‘फिर ऐसा कर 6 कप चाय बनाके फटाफट नीचे ले आ।’ मुझे उस वक्त थोड़ा अटपटा लगा। मैं चाय बनाकर ले गया। धीरज और अन्य मित्र भी मेरे साथ नीचे तक गये। बाद में मैंने इस वाकये पर विचार किया। फिर सोचा कितना अपनापन था उनका यह कहने में कि फटाफट नीचे ले आ। उन्होंने मुझे भी धीरज ही माना। इस वाकये को मैंने धीरेश के साथ जब आज मंगलवार 20 अप्रैल, 2021 को साझा किया तो हम दोनों हंस पड़े। फिर कहा कि हां वैसा अपनत्व कुछ कम हो गया। परिस्थितियां ऐसी हो गयी हैं, हम बदल गये हैं या फिर समय, कुछ पता नहीं। खैर ऐसे कई वाकये हैं। मित्र धीरज ढिल्लों की माताजी के स्नेह की झप्पी में कभी नहीं भूल पाऊंगा। बात 2008 की है। लखनऊ में मेरी माताजी का निधन हो गया था। तेरहवीं के बाद हम लोग लौटे। सुबह-सुबह ट्रेन आ गयी थी। हमारे फ्लैट की चाबी धीरज जी के यहां रखी थी। मैं, भावना और बेटा रिक्शे से उतरकर कुछ बोलते हुए आये। माताजी को अहसास हो गया कि हम आ गये हैं। उन्होंने दरवाजा खोला और सबसे पहले मुझे गले लगाया और उसी वक्त मेरी रुलाई छूट गयी। आंटी ने आसूं पोछते हुए कहा, ‘मैं हूं तेरी मां जैसी। रोना नहीं है। पहले कुछ देर यहां सुस्ताओ फिर ऊपर अपने फ्लैट पर जाना।’ आंटी के हाथ के पराठों का जिक्र तो हम घर पर अक्सर करते हैं। ऐसे ही सुरेंद्र पंडित जी के पिताजी के साथ हमारी अक्सर चर्चा होती थी। जैनेंद्र सोलंकी जी के पिताजी हों या वैभव शर्मा के पिताजी, राजेश डोबरियाल के माता-पिता हों या कोई अन्य मित्र के माता-पिता अनेक लोगों के साथ अनेक किस्से याद हैं। उनके अनुभव सुनने का लुत्फ ही कुछ और था। यहां तो उनका जिक्र है जो मित्र कौशांबी में रहते थे। इनके अलावा भी अनेक मित्रों के माता-पिता के साथ हुई बातें मेरी डायरी में दर्ज है। मसलन, बहादुरगढ़ राहुल के माता-पिताजी के साथ कई बार कई मुद्दों पर बात हुई है, दिल्ली के मनोज भल्ला, लखनऊ के भजनलाल, दिल्ली के ही अवनीश चौधरी, लोहाघाट केे श्रीनिवास ओली।नामों की सूची लंबी बनेगी। मित्र धीरेश का धन्यवाद कि पुरानी बातें फिर याद करा दीं। हर मित्र के साथ की कई बातें मेरी डायरी में दर्ज हैं। कुछ किस्सों पर हम लोग खूब हंसे भी हैं। कुछ मैंने छिपाई, कुछ बताईं। आज भी फिर कुछ पुरानी डायरियों को खंगालने लगा। बातोंबातों में धीरेश के साथ कथित बड़े साहित्यकारों, पत्रकारों और उनकी चेलागिरी पर भी चर्चा हुई। मन कर रहा था, आमने-सामने बैठकर बतियाया जाये। कुछ धीरेश पर नाराजगी जताई जाये और कुछ वह हंसहंसकर हमें चिढ़ाये। दुआ है कि जल्दी यह खौफनाक समय निकले और हम मित्रगण मिल बैठें। हम सब कुछ सुनाएं और कुछ सुनें। अंत में बता दूं कि जिस फेसबुक फोटो से चर्चा की शुरुआत हुई, वह लेखिका दीप्ति अंगरीश के साथ मेरी फोटो थी। कुछ दिन पूर्व वह चंडीगढ़ आई थीं, जाते-जाते एक फोटो खींच ली। बात खत्म करते-करते मुनव्वर राणा साहब का शेर याद आ रहे हैं जो मैं अक्सर दोहराता रहता हूं-

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है, मां जब गुस्सा होती है तो रो देती है।