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Tuesday, December 20, 2022

‘सुखद-समृद्धि’ की ओर हरियाणवी विरासत

 केवल तिवारी 

यहां बेबाकी है। बेतकल्लुफी है। माटी से जुड़े रहने की ‘जिद’ है। आसमान में ‘उड़ने’ का हौसला है। परिवर्तन की गवाही है। सांस्कृतिक लिहाज है। आधुनिकता का खुलापन है। यह हरियाणा है। इस हरियाणा के सांस्कृतिक समृद्धि की झलक पिछले दिनों कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में आयोजित ‘रत्नावली’ कार्यक्रम में दिखी। संस्कृति की विभिन्न विधाओं में ‘लट्ठ गाड़ने’ वाले हरियाणावी देश-विदेशों में छा चुके हैं। खेलों में परचम लहरा रहा युवा वर्ग संस्कृति को सहेजने में जुटा है। विस्मृत की जा चुकी चीजों पर शोध कर रहा है। तभी तो जाने-माने कलाकार युवाओं को संदेश देते हैं, ‘सपनों का पीछा करो और ईमानदारी से आगे बढ़ो।’ 

गत 28 से 31 अक्तूबर तक कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय की रौनक कुछ अलग ही रही। प्रवेश करने से पहले ढोल की गूंज सुनाई देने लगती थी। रंग-बिरंगा परिसर और वहां सजे विभिन्न स्टॉल। कोने पर ही पगड़ी पहनने की होड़। बगल में ही दामण, लहंगा, चुनरी, हसली और कमरमंद का स्टॉल। बाहर के नजारे से जरा अंदर पहुंचे तो ऑडिटोरियम की दर्शक दीर्घा में हर कोई झूमने को मजबूर। झूमे भी क्यों ना। कभी रसिया, कभी लूर तो कभी समूह नृत्य। कलाकार जिन गीतों पर थिरके और संग-संग दर्शक झूमे जरा उन पर गौर फरमाइये- ‘दामन बावन गज का, मैं मटक चलूंगी’,‘रुत आई बंसत बहार की मेरा चुंदड़ उड़ उड़ जा’,‘तेरे बिन आवे न चैन’, ‘चलो री सखी मंगल गा लो’ ‘यू म्हारा हरियाणा’, ‘बसेरे आए रे बसेरे’, ‘यशोदा मईया करो कमाल, रसिया हम खेले फागन में’, ‘ऐसो कियो कमाल, बलम घर पडवा दे’‘ब्रज में होरी मोरी रसिया’, ‘होली खेलो कृष्ण मथुरा की गली’ मुख्य ऑडिटोरियम के बगल में दूसरे हॉल में सुनाई दीं कविताएं। कुल 26 महाविद्यालयों के काव्य प्रतिभागियों ने अलग ही माहौल बनाया। प्रथम, द्वितीय तो प्रतियोगिता की परिणति है, लेकिन दर्शकों के लिए तो हर क्षण आनंदित होने का था। इन कविताओं ने सबको मोह लिया। कविताओं के साथ ही कॉलेज विद्यार्थियों की हरियाणवी वेशभूषा और ‘सभी नै राम-राम’ का संबोधन सबको भा गया।  

दैनिक ट्रिब्यून की शुरुआती कवरेज


मजाकिया अंदाज, कटाक्ष के साथ संवाद 

रत्नावली समारोह में भले ही ज्यादातर कार्यक्रम प्रतियोगी स्वरूप में थे, लेकिन जीत-हार और प्रथम-द्वितीय की बात को दरकिनार रखा जाये तो इनके प्रस्तुतीकरण रहा लाजवाब। मजाकिया अंदाज और कटाक्षभरे संवाद। सिस्टम पर भी चोट और बात भी पते की। देखिये कुछ संवाद, ‘रै बालको! थम भी क्या याद करोगे, थारते कोरोना के सीजन में बिना पेपर दिए पास किया। इसते बत्ती ओर के चाहो हो, छह-छह साल में जो पास न होए, कोरोना मैं म्हारी दी छूट मै उनका कलेश कट गया।’ इस संवाद का जवाबी अंदाज देखिए, ‘इन बालकां का तो भला हो गया, पर उनके पेट पै लाठी लगी जो पिसे दे कै पास कराकै अपना टब्बर पालैं ते।’ अब थोड़ा सियासत में मजाकिया छौंक। देखिए संवाद-  

‘एक नेता बोल्या म्हारे तै वोट दो, म्हारे तै वोट मिलण तै देश नै इतना ऊंचा ले जैंगे.... अर इतनी ऊंचा... इतनी ऊंचा.... बस न्यूं समझ ल्यों ऊंचे तै भी ऊंचै। दूसरा नेता बोल्या-रोक दै मित्र इतनी ऊंचे तू देश नै लेग्या, ओड़े ऑक्सीजन का टोटा पड़ जैगा... अर ऑक्सीजन का टोटा दूर करना थारै बस का सोदा कोनै।’ कोरोना काल में ऑक्सीजन संकट पर यह गहरी चोट थी। ऐसे ही अनेक कार्यक्रम हुए जिनमें हंसी-मजाक के संदेश भी था। यही तो है हरियाणा और हरियाणवियों का अंदाज।  


रघुवेंद्र मलिक : संजीदा कलाकार हरियाणवी धरोहरों से प्यार 

राघवेन्द्र मलिक जी


जाने-माने कलाकार रघुवेंद्र मलिक की संजीदगी हमें अनेक मंचों पर देखने को मिलती रही है। कई फिल्मों में अपनी सशक्त भूमिका से दर्शकों का दिल जीतने वाले मलिक हरियाणवी धरोहरों को भी संजोने का काम कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि उनकी इच्छा इन धरोहरों को संजोकर रखने की है। यानी एक संग्रहालय बनाने की ताकि हरियाणा की आने वाली पीढ़ियों के मन से ये विस्मृत न हो जायें। कर्यक्रम से इतर उन्होंने कुछ चित्र दिखाए। चित्र उन धरोहरों के जो उनके पास हैं। इनके नाम देखिए परात, दोही, बोहिया, दरांत, पलिए, कुंडी, सिप्पी, लोटा, कटोरदान, छाज, छालणी, मूसल, हारी, तेलड़ी, दीपदान, लोढणी, छिक्का, खुरपी, तुंबा, खुरेहरा, बीजणा, फरमे, ठप्पे, लालटेन, डोलवगैरह-वगैरह।रघुवेंद्र ने कहा, ‘ये सभी चीजें हमारे रोजमर्रा की जरूरतोंमें शामिल रहा करती थीं।’ हरियाणा में इनमें से कुछ चीजें भले ही समय के साथ लुप्त हो गई हों, लेकिन अभिनेता रघुवेंद्र के पास इनका संकलन है और वह यह काम जारी रखे हुए हैं। उक्त सामानों के अलावा खेती-बाड़ी के लिए भी कई ऐसी चीजें थी जिनमें से शायद अब बहुत कुछ ना हो और लोगों को तो उनका पता ही ना हो जैसे दो सींगा चार सींगा जेली, गडासी, हालस, सांटा, जुआ, फरसा, गोपिया, नकेल, हल, हलस वगैरह-वगैरह। घर-परिवार की जिन चीजों को महिलाएं तैयार करती थीं, उनका संग्रह भी उनके पास हैं। इनमें शामिल हैं घागरा, ओढ़नी, झूला, टोपी, बटुए, बिंदरवाल, मोड़, तागड़ी, ईढ़ी, खेस, खरड़, पालना, दरी, मुड्डे, झुनझुना, चौपड़ आदि। मनोरंजन की सामग्री में संगीत से जुड़े कुछ वाद्य यंत्रों का भी उन्होंने जिक्र किया जैसे सारंगी, ग्रामोफोन, नगाड़ा, बीन, बांसली,डफ, तासावगैर-वगैरह। मलिक ने हरियाणवी फिल्मों पर भी बात की और उम्मीद जताई कि आज के युवा निश्चित रूप से स्थानीय सिने संसार को आगे ले जाएंगे।  


चार बार हुई शादी कैसे टूट सकती है : राजेंद्र गुप्ता 

कलाकारों और कार्यक्रम के संयोजक महासिंह पूनिया के साथ राजेंद्र गुप्ता।


संजीदा अभिनेता राजेंद्र गुप्ता से अनेक बातें हुईं। लेकिन जैसे ही उनसे प्रेम के संबंध में पूछा गया तो आसपास खड़े युवा ऐसे चौकन्ने हुए मानो उनके जवाब के लिए ‘इरशाद’ कर रहे हों। उन्होंने शुरुआत में कहा, ‘जब मैं 1963 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय का छात्र था, लड़कियों की तरफ देखते हुए भी डरता था। वह वक्त कुछ और था।’ जवाब से जुड़ा सवाल, ‘आपने भी तो प्रेम विवाह किया, कैसे हुआ सबकुछ और कैसा अनुभव है जीवन में?’ बोले- ‘कैसे हुआ तो मैं भी नहीं जानता। फिल्मी सी कहानी है। नाटक अंधा युग की शूटिंग के दौरान दो दिन की मुलाकात के बाद तीसरे दिन बातचीत हुई और पहले मंदिर में चुपचाप शादी की। घर आए तो घरवालों ने हिंदू रीति-रिवाज से शादी कर दी। फिर कुछ संबंधियों ने कहा कोर्ट मैरिज करेंगे। वह भी हुआ। उसके बाद ससुराल भोपाल जाकर उनके रीति रिवाज यानी ईसाई धर्म के अनुसार विवाह हुआ। यानी चार बार शादी की रस्में।’ फिर हंसते हुए बोले- ‘चार बार हुई शादी कैसे टूट सकती है।’ एक समृद्ध व्यापारी का बेटा फिल्मों में कैसे, पूछने पर उन्होंने कहा, ‘व्यापार के लिए संवेदनाओं को कुचलना पड़ता है क्योंकि उसका पहला ध्येय मुनाफा है, वह मेरे से नहीं हुआ। रसायन शास्त्र की पढ़ाई में भी मन कम लगा और जहां लगा वहां आज हूं।’ उन्होंने कहा कि हरियाणवी सिनेमा को और समृद्ध बनाने के लिए हर किसी को अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभानी होगी।   

चीजों को संभालना, बेहतरी के परिवर्तन को होगा स्वीकारना 


कलाकारों ने माना कि समय के साथ-साथ कुछ चीजें लुप्तप्राय हुई हैं तो कुछ में परिवर्तन हुआ है। फैशन से जुड़े लोगों ने जहां माना कि दामण, कमरबंद और ऐसे ही अन्य चीजों में इनोवेशन हुई है और दावा किया कि नये रूप में इन्हें स्वीकारा जा रहा है। इसी तरह हरियाणवी सांग में बहुत मोडिफिकेशन हुआ है और लूर नृत्य में शोध हुए हैं। कलाकार नाम सिंह सांझी कहते हैं, 'सांग तो आठ-नौ घंटे तक चलता था। लोग भी इतने धैर्यवान थे कि डटे रहते थे, लेकिन समय के साथ आज इसे पहले दो-तीन फिर एक घंटे तक का करना पड़ा।' 'कलाकार संदीप ने कहा कि लंबे सांग में दर्शक गायब हो जाते हैं। हमने युवाओं के मन को पढ़ा और इसमें परिवर्तन किया।' उन्होंने कहा, 'छोटा सांग बड़े वर्ग को जोड़ेगा।' इसी तरह कई कलाकारों ने रसिया और अन्य नृत्यों के बारे में भी कहा कि इसमें परिवर्तन हो रहा है और युवाओं की भागीदारी सुखद अनुभूति है। 

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कलाकृतियों में भी रंगों का गजब संयोजन 

रत्नावली उत्सव में कला प्रतियोगिताएं भी हुईं। एक ओर जहां मझे हुए कलाकारों की पेंटिग्स की प्रदर्शनी चली तो दूसरी ओर नौजवानों ने कला के प्रति अपनी रुचि का इजहार किया। इनमें ज्यादातर प्रतिभागियों ने चटख रंग का प्रयोग किया था। वॉटर पेंटिंग, स्टिकर्स आर्ट्स, बुक मार्क्स, राइजिंग की-चेन, ईयर रिंग्स, इंक वर्क व मुख्य रूप से एल्कोहलिक इंक मार्क्स की पेंटिंग को देखते-देखते दर्शकों का हुजूम प्रतियोगिता के तौर पर बन रही चित्रकारी पर भी अटक जाता। पास में ही बने सेल्फी पाइंट पर भी लोगों का जमावड़ा देखा गया। खासतौर पर युवा वर्ग का। चरखी दादी की रीना कहती हैं, ‘सेल्फी क्लिक करने का ट्रेंड और अलग ही स्वैग है।’ 

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और छा गए यशपाल शर्मा 

पूरी मस्ती में यशपाल शर्मा


कार्यक्रम के अंतिम दिन यानी 31 अक्तूबर को जाने-माने अभिनेता यशपाल ने समां बांध दिया। पहले उन्होंने दर्शक दीर्घा में बैठे युवा वर्ग से सीधा संवाद किया और उनकी फिल्म दादा लखमी चंद की बात शुरू होते ही युवाओं की तालियों से सभागार गूंज उठा। इस फिल्म के प्रोमो भी समारोह परिसर में चल रहे थे। इस फिल्म में जहां वह लीड रोल में हैं, वहीं उन्होंने इसे निर्देशित भी किया है। उन्होंने इसकी तैयारी में पांच साल लगाए। उनकी इस फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ हरियाणवी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता है। उल्लेखनीय है कि दादा लखमी फिल्म पंडित लखमी चंद के संगीतमयी यात्रा पर आधारित है। जिसको हाल में ही ‘राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार’ से नवाजा गया। बताया गया कि फिल्म लगभग 300 लोगों की 6 साल की कड़ी मेहनत का परिणाम है। पंडित लखमी चंद सोनीपत के गांव जाटी से थे

Monday, December 19, 2022

सार्थक प्रयास का समारोह, जोश-जज्बा, अपनों से मिलन और खबर-वबर

केवल तिवारी 
वे जोश से लबरेज थे। कोई उत्तराखंड की वादियों से आया था तो कोई वसुंधरा से। खचाखच भरे हॉल में अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। बहुत दिनों से तैयारी जो की थी। दो दिन दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में घूमने और उसकी चर्चा करने का लुत्फ अलग था। कार्यक्रम शुरू होने से पहले ही दिल्ली के आईटीओ स्थित हिंदी भवन में, मैं भी पहुंच चुका था। कुछ देर इन्हीं बच्चों से बतिया लिया जाये, यही सोचकर बच्चों से पूछा, ठंड नहीं लग रही, बोले बिल्कुल नहीं। मुझे जानते हो, चार बच्चों ने कहा हां। गजब। सिर्फ एक या दो बार सार्थक प्रयास के पुस्तकालय गया होऊंगा और बच्चों को याद है। बाद में जब इनका कार्यक्रम देखा तो समझ गया कि ठंड नहीं लग रही सवाल के जवाब में इनका जवाब इतना जोशीला क्यों था? गणपति बप्पा मोरया प्रस्तुति देखकर तो तालियों की ऐसी गड़गड़ाहट हुई कि बस उसे बयां करना मुश्किल है।



खैर… कार्यक्रम शुरू होने को अभी कुछ वक्त बाकी था, तभी चारूदा आए और बोले, ‘हिटो चहा पी ल्हीनू’ चाय पीने गए तो वहां सुशील बहुगुणा जी, उत्तराखंड से बच्चों की टीम लेकर आए पवन तिवारी जी, आकाशवाणी में वरिष्ठ प्रोड्यूसर एमएस रावत जी, सार्थक प्रयास से शुरू से जुड़े रवि जी, राजेन्द्र भट्ट जी समेत कई बंधु-बांधव मिले। मंच संचालन की जिम्मेदारी इस बार हंसा जी के अलावा सिद्धांत सतवाल को मिली थी। सार्थक प्रयास को हर परिस्थिति में आगे ले जाने में लगे उमेश पंत जी तो कभी यहां तो कभी वहां भागते नजर आ रहे थे। यह कार्यक्रम बहुत लंबे समय बाद हो पा रहा था। इससे पहले कोविड काल की बहुत सी दुश्वारियां झेलीं। इस दुश्वारियों के दौरान सार्थक प्रयास की सार्थक पहल भी देखी। साथ ही यह भी कुलबुलाहट हुई कि जब सबकुछ सामान्य चल पड़ा है तो कुछ नया हो जिसमें कुछ पुरानापन छिपा हो। इसी दौरान पंत जी का फोन आया कि वार्षिकोत्सव की तिथि तय कर दी गयी है। मैं नियत तिथि के दिन सुबह 6 बजे की बस से दिल्ली की ओर रवाना हो गया। एक बजे आईएनएस बिल्डिंग पहुंचा। मीडिया के कुछ मित्रों से मिला। कुछ को मैसेज किया। शाम को सांस्कृतिक कार्यक्रम में शामिल हुआ। कैसा लगा, बताने की जरूरत नहीं। शाम को मित्र जैनेंद्र सोलंकी जी, धीरज ढिल्लों जी और संजय जी के साथ कुछ वक्त बिताया। और फिर हो गयी वापसी। इस कार्यक्रम के लिए जो खबर तैयार थी उसे हू ब हू नीचे दे रहा हूं। साथ ही कार्यक्रम की कुछ तस्वीरें और अखबारों में मिली कवरेज की कुछ झलकियां। देखिए, समझिए। सार्थक प्रयास में भागीदार बनिए। अभी भी और भविष्य में भी।

हुनर को मिला मंच और सपनों को लगे पंख 
सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था सार्थक प्रयास के वार्षिकोत्सव पर बच्चों ने दी प्रस्तुति, 
'दृष्टि का हुआ लोकार्पण' 
नई दिल्ली। सचमुच प्रतिभा किसी की मोहताज नहीं होती। यह बात एक बार फिर साधनविहीन बच्चों ने सही साबित की। इन बच्चों को जब मंच मिला तो इन्होंने एक से बढ़कर एक ऐसे कार्यक्रम प्रस्तुत किए कि सभागार में बैठा हर व्यक्ति तारीफ किए बगैर नहीं रह पाया। मौका था सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था ‘ *सार्थक प्रयास’ के 12वें स्थापना दिवस का। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के हिन्दी भवन में संस्था के बच्चों ने विभिन्न सांस्कृतिक प्रस्तुतियां दीं। इस अवसर संस्था की वार्षिक स्मारिका ‘दृष्टि’ का लोकार्पण भी किया गया। इस समारोह में अल्मोड़ा जनपद के चैखुटिया और वसुंधरा के बच्चों ने बहुत उत्साह और आत्मविश्वास से अपनी प्रस्तुतियों से लोगों का मन मोह लिया। संस्था के अध्यक्ष उमेश चंद्र पन्त ने बताया कि , ‘सार्थक प्रयास’ पिछले 12 वर्षों से आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर बच्चों के शिक्षा की व्यवस्था के अलावा उनमें रचनात्मकता के साथ आत्मविश्वास पैदा करने के लिए लगातार काम कर रहा है। संस्था ने अपनी सामाजिक यात्रा के इन पड़ावों में कई तरह से जरूरतमंद लोगों की मदद की है। गाजियाबाद के वसुंधरा क्षेत्र के झुग्गी-झोपड़ी के बच्चों का पढ़ाने से शुरू हुई इस मुहिम ने बाद में आपदा और कोविड-19 तक हर समय आम लोगों की तकलीफों के साथ खड़े रहकर मदद की है। उत्तराखंड मे 2010 में आई आपदा और केदारनाथ में 2013 की आपदा में संस्था ने प्रभावित लोगों कर मदद की। राहत कार्यो में भी अपनी भूमिका निभाई। पिछले दो-तीन सालों में कोविड के समय दवाओं के वितरण, लोगों को उनके घर पहुंचाने और जरूरतमंद लोगों तक राशन पहुंचाने का काम किया। अभी संस्था वसुंधरा, चौखुटिया और केदार घाटी में 150 के लगभग बच्चों के शिक्षा की व्यवस्था करती है। इन तीनो जगहों पर पुस्तकालयों की स्थापना कर बच्चों की रचनात्मकता को बढ़ाने का काम भी कर रही है। ‘सार्थक प्रयास’ के 12वें स्थापना दिवस पर बच्चों द्वारा प्रस्तुत सांस्कृतिक कार्यक्रमों की सभी ने प्रशंसा की। इस मौके पर अल्मोड़ा जनपद के चैखुटिया से आये बच्चों ने सरस्वती वंदना, कुमाउनी लोकगीतों, लोकनृत्यों और नृत्य नाटिका से दर्शकों का मन मोह लिया। वसुंधरा के बच्चों ने राजस्थानी लोकगीत-नृत्य, नुक्कड़ नाटक, थीम सांग प्रस्तुत किये। इस मौके पर संस्था की वार्षिक स्मारिका ‘दृष्टि’ लोकार्पण किया। स्मारिका का इस बार ‘प्रकृति, मानव और कोविड’ विषय पर केन्द्रित थी। इससे पहले संस्था के बारे में एक डाॅक्यूमेंटरी भी दिखाई गई। कार्यक्रम के पहले दिन चालीस बच्चों को दिल्ली के विभिन्न ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण कराया गया। दिल्ली मेट्रो में सफर के अलावा बच्चों ने इंडिया गेट, वार मैमोरियल, राष्ट्रपति भवन के अलावा आकाशवरणी का भ्रमण किया। कार्यक्रम का संचालन हंसा अमोला और सिद्धांत सतवाल ने किया। अंत मे रवि शर्मा ने सभी मेहमानों का धन्यवाद दिया। कार्यक्रम में चारु तिवारी, पवन तिवारी, सुषमा पन्त, राजेन्द्र भट्ट और संस्था के बहुत से गणमान्य लोग उपस्थित थे।









Wednesday, December 14, 2022

40 के भी नहीं हुए थे… फिर भी चले गए… अलविदा नानू

 केवल तिवारी

नानू। आचार्य नवीन चंद्र पांडेय। ऐसे ही तो संबोधित करता था तुमको। तुम्हारा वह मामा कहना कानों में गूंजता है अभी भी। कोई लाग लपेट नहीं। कोई ‘जी’ नहीं। सिर्फ मामा। और कभी-कभी अरे मामा कहना। पिछले कुछ समय से तुमसे घनिष्ठता बढ़ गयी थी। फिर उस शनिवार रात जिंदगी और मौत से जूझते हुए तुम लखनऊ पीजीआई में थे और मैं यहां चंडीगढ़ में सिर्फ प्रार्थना कर पा रहा था। 

एक पूजा में व्यस्त। अब बस यादें।


शनिवार रात आए थे तुम सपने में। कहा था मामा आपको उज्जैन महाकालेश्वर मंदिर ले जाऊंगा। मैंने तैयारी कर ली है। मैं पहुंच रहा हूं आप फिर आना। रविवार सुबह-सुबह पत्नी को सपने के बारे में बताया। उसने भी कहा, लगता है नानू अब धीरे-धीरे रिकवर हो जाएगा। धवल और भावना को लेकर हम चले गए शिव-शनि मंदिर। वहां एक गुरुजी के आश्रम में भी जहां में पिछले एक हफ्ते से रोज जा रहा था। दोपहर को लौटने लगे तो सूचना आई। सबकुछ सन्नाटा। पता नहीं क्या लगा? ड्राइव कर रहा था। भावना बोली कार आराम से चलाओ। पहले घर पहुंचो। लगा बड़ा सा ज्वार-भाटा पिछले एक हफ्ते से आ रहा था और अचानक सब थम गया। खौफनाक सन्नाटा। मरघट जैसा। मरघट ही पहुंच गए। क्या करता, क्या कहता? एक दोस्त को फोन किया। लखनऊ अर्जेंट जाना है। कुछ लोगों से बात की। सबने कहा, हड़बड़ी मत करो, अंतिम दर्शन नहीं कर पाओगे। पंकज से बात करने की भी हिम्मत नहीं हुई। एक मैसेज डाल दिया। अगले दिन तत्काल में रिजर्वेशन मिला। पहुंचा लखनऊ। 

आसमान टूटने से बेखबर बच्चियां मेरे साथ।


तुम्हारे बगैर वह सड़कें अनजानी सी लग रही थीं। घर में लग रहा था सब रो-रोकर थक चुके हैं। कुछ आसूं बहाए। तुम्हारी दोनों बेटियां कुछ समझ नहीं पा रही थीं। वह मेरे साथ खूब हंसी बोलीं। दीदियों का चेहरा देख, परिवार में सबकी स्थिति देख दिल दहल उठा। ज्योति तो जैसे पत्थर बन गयी। कुछ देर उसके साथ भी बैठा।

तभी मुझे अपने बारे में खयाल आया। कैसे संभाला होगा मेरी मां ने। बताते हैं कि जब पिताजी गुजरे थे तो मैं दो साल का था। भाई साहब नौवीं में पढ़ते थे। शीला दीदी और प्रेमा दीदी भी छोटी ही थीं। फिर तुलना करते-करते ठिठक गया। बातचीत में कहा, पिताजी का निधन 67 वर्ष में हुआ था। चलो कुछ तो जी गये थे। पिताजी को मेरे बचने की कोई उम्मीद नहीं थी। वह माताजी से ऐसा ही कह भी गए थे। नानू तुम तो अभी 40 के भी नहीं हो पाए थे। चले गए हो अब तो। सपनों में ही आओगे। क्या कहूं अब। मैं लिखकर ही अपने दिल की बात कह पाता हूं। क्योंकि इग्नोरेंस हमेशा झेला है। यहां भी यही बात तुमसे। खुश रहना। अलविदा।