indiantopbligs.com

top hindi blogs

Saturday, March 31, 2018

‘बड़ेपन के बोझ’ में दबे बड़े भाई साहब


आम बोलचाल में हम कई बार कह देते हैं, ‘फलां बड़ा आदर्शवादी बनता है।’ कभी-कभी हम यह भी करते हैं या महसूसते हैं कि कोई व्यक्ति सप्रयास अपनी हंसी छिपा रहा है या उसे दबा रहा है। हम अपने मन के ‘बच्चे’ को मार देते हैं। कोई लाख ऐसे व्यक्ति को बुरा कहे, लेकिन मैं तो इसके पीछे कई कारण देखता हूं। कभी असमानता, कभी घरेलू परिस्थितियां और कभी ‘बड़े होने का दंश।’ जी हां! बड़े होने का दंश। मुंशी प्रेमचंद की कहानी के किरदार ‘बड़े भाई साहब की जैसी स्थिति।’ क्या हम-आप भी नहीं चाहते कि घर में बड़ा बच्चा जिम्मेदारी समझे। क्या ऐसा नहीं होता कि कई बार छोटों की गलती पर बड़े को डांट पड़ जाती है। जनाब! बड़ा बनना वाकई कठिन होता है। छोटों-बड़ों सबके लिए बड़ा। प्रेमचंद की इस कहानी ‘बड़े भाई साहब’ में भाई साहब बहुत बड़े नहीं हैं। लेकिन उनके अंदर ‘बड़ेपन का बोझ’ बहुत है। मुझे इसीलिए यह किरदार पसंद है कि बड़ेपन के बोझ तले दबे न जाने कितने लोगों को मैंने देखा है। उनके अंदर कभी-कभी ‘जगते बच्चे’ को देखा है। छोटों के सामने आदर्श प्रस्तुत करने की उनकी ‘क्रांतिकारी गतिविधियों’ को भी देखा है। उनकी मजबूरियों को महसूस किया है। इच्छाओं को दबाना आसान बात नहीं है। बड़ा बनना इतना सरल नहीं है। आदर्श प्रस्तुत करना एक दुरुह कार्य है। आज के परिप्रेक्ष्य में ही देखिये, छोटों को समझाएंगे रेड लाइट जंप मत करना और जब अपनी बारी आती है तो चारों ओर देखते हैं और निकल लेते हैं फर्राटे से। प्रेमचंद साहब की इस कहानी में छोटा भाई तो वैसा ही है, जैसे बच्चे होते हैं। वह डांट खाता तो घर चले जाने का मन होता। पढ़ने के लिए हर बार नयी तैयारी करता। टाइम टेबल बनाता, लेकिन जल्दी ही बच्चों की तरह सब धरा रह जाता और वही खेल-कूद, इधर-उधर। कहानी में असली किरदार तो ‘बड़े भाई साहब’ हैं। यह अलग बात है कि शायद वह यह नहीं समझते कि चुप रहकर या खुद सही काम कर दूसरों के सामने आदर्श प्रस्तुत करना ज्यादा कारगर होता है, उपदेश तो सब दे लेते हैं। इस कहानी में भी बडे भाई साहब उपदेश बहुत देते हैं, लेकिन ‘सटीक’ तर्कों के साथ। कहानी में एक ही हॉस्टल में दो भाई रहते हैं। छोटा, मस्तमौला है। खेलकूद में रमा रहता है। खिलखिलाकर हंसता है। डांट खाता है, लेकिन उस डांट का बहुत लंबे समय तक उस पर असर नहीं रहता। यानी वह सचमुच बच्चा है। बड़े भाई साहब भी साथ हैं। यूं तो वह बहुत बड़े नहीं हैं। छोटे भाई से महज तीन क्लास आगे। लेकिन वह गंभीर हैं। हंसी-मजाक नहीं करते। छोटे को अधिकारपूर्वक डांटते हैं। कर्त्तव्य की याद दिलाते हैं। बड़े भाई साहब भी बच्चे ही हैं, लेकिन वह ‘बड़े’ हैं। मेरे पसंद के किरदार। क्या करें अगर उनकी गंभीरता ओढ़ी हुई है? क्या करें अगर जबरदस्त मेहनत के बावजूद वह फेल हो रहे हैं? उन्हें अहसास तो है ना कि घरवाले उन पर कितना खर्च कर रहे हैं। वह अपने छोटे भाई को उसके कर्त्तव्य तो सही से बताते हैं ना। उसका खयाल तो रखते हैं ना। एक जिम्मेदार व्यक्ति तो हैं ना। वह अपने छोटे भाई से कहते हैं, ‘इतने मेले-तमाशे होते हैं, मुझे तुमने कभी देखा जाते हुए?’ बड़े भाई साहब के पास अनुभवों की खान है। बेशक छोटे भाई तमाम मस्ती के बावजूद पास हो जाते हैं और बड़े भाई फेल। लेकिन बड़े साहब इसका तर्क देते हुए कहते हैं, ‘महज इम्तहान पास कर लेना कोई चीज नहीं, असल चीज है बुद्धि का विकास।’ तमाम मेहनत के बावजूद बड़े भाई साहब फेल हो जाते हैं और खेलकूद में व्यस्त रहने वाला छोटा भाई पास हो जाता है। छोटे के मन में तो आता है कि अब भाई साहब को आईना दिखा दूं कि ‘कहां गयी आपकी घोर तपस्या। मुझे देखिये, मजे से खेलता रहा और दर्जे में अव्वल भी हूं।’ पर ऐसा हो नहीं पाता। छोटा असल में छोटा ही है। बड़ों के सामने ऐसा बोल पाने की हिम्मत कहां? लेकिन बड़े भाई साहब न सिर्फ देखते या समझते हैं, बल्कि मन को भी ताड़ लेते हैं, तभी तो कहते हैं, ‘देख रहा हूं इस साल दरजे में अव्वल क्या आ गये, तुम्हारे दिमाग ही खराब हो गये। भाईजान! घमंड तो बड़े-बड़ों का नहीं रहा। इतिहास में रावण का हाल तो तुमने पढ़ा ही होगा। उनके चरित्र से तुमने कौन सा उपदेश लिया? या यूं ही पढ़ गये?’ बडे भाई साहब के पास अपने फेल हो जाने पर अध्यापकों की ‘गलतियों का चिट्ठा’ है तो छोटे के पास होने और आने वाले समय की ‘कठिनाइयों का अनुभव’ भी। भाई साहब बेचारे फेल होते चले जाते हैं और छोटा है कि ‘आवारागर्दी’ (बड़े भाई साहब की नजरों में) के आवजूद पास होता चला गया। दूसरी बार भी छोटे के पास होने और खुद के फेल होने पर भाई साहब थोड़ा नरम पड़ गये। डांट में वह धार नहीं रही। लेकिन छोटा न बिगड़े, इसका पूरा खयाल था। इस बात का भी अगर कुछ ‘बुरा’ किया तो छोटे पर असर गलत पड़ेगा। वह पढाई में तल्लीन ही रहे। खेलने-कूदने न जाते। भाई को भी यदा-कदा समझाते कि घरवाले हम पर कितना खर्च कर रहे हैं। एक दिन छोटे भाई का बड़े भाई साहब से उस समय सीधे आमना-सामना हो गया जब एक कटी पतंग लूटने छोटा बेतहाशा दौड़ रहा था। बडे साहब संभवत: बाजार से लौट रहे थे। वहीं छोटे का हाथ पकड़ लिया। गुस्सा होते हुए बोले, ‘उन बाजारी लड़कों के साथ धेले के कनकौए के लिए दौड़ते तुम्हें शर्म नहीं आती?’ तुम्हें इसका लिहाज नहीं कि अब नीची जमात में नहीं हो, बल्कि आठवीं जमात में आ गये हो और मुझसे केवल एक दर्जा नीचे हो। एक जमाना था लोग आठवीं जमात पास करके नायब तहसीलदार हो जाते।... एक तुम हो आठवीं दरजे में आकर भी बाजारी लड़कों के साथ कनकौए के लिए दौड़ रहे हो।’ बड़े भाई साहब छोटे को उसकी बढ़ती कक्षा और उसकी जिम्मेदारियों को तो समझा जा रहे हैं, साथ ही उन्हें यह भी अहसास है कि वह खुद मात्र एक क्लास आगे हैं। इसका भी तर्क है उनके पास। तभी तो कहते हैं, ‘निस्संदेह तुम अगले साल मेरे समकक्ष हो जाओगे और शायद एक साल बाद मुझसे आगे भी निकल जाओगे। लेकिन मुझमें और तुममें पांच साल का अंतर है उसे तुम क्या, खुदा भी नहीं मिटा सकता। मैं तुमसे पांच साल बड़ा हूं और रहूंगा। समझ किताब पढ़ने से नहीं आती अनुभव से आती है। अम्मा और दादा को हमें समझाने का हमेशा अधिकार रहेगा।’ यहीं पर बड़े भाई साहब और भी दुनियादारी की कई बातें छोटे को बताते हैं। कहते-कहते थप्पड़ दिखाते हैं और बोलते हैं, ‘मैं चाहूं तो इसका भी इस्तेमाल कर सकता हूं।’ छोटा भाई भी जैसे यहां कुछ ‘बड़ा’ हो गया। कहता है, ‘आप सही कह रहे हैं, आपका पूरा अधिकार है।’ यही तो बड़े भाई साहब का कमाल है। यहीं पर तो वह बात दिखती है जिसके लिए यह चरित्र मुझे बहुत अच्छा लगता है। भाई साहब छोटे को गले लगा लेते हैं और कहते हैं, ‘मैं कनकौए उड़ाने को मना नहीं करता। मेरा जी भी ललचाता है, लेकिन करूं क्या? खुद बेराह चलूं तो तुम्हारी रक्षा कैसे करूं? यह कर्त्तव्य भी तो मेरे सिर है।’ दोनों भाइयों के बीच यह संवाद चल ही रहा था कि तभी एक कटी पतंग आती है। बाकी बच्चे छोटे पड़ जाते हैं। बड़े भाई साहब थोड़े लंबे हैं और लपककर डोर पकड़ लेते हैं और हॉस्टल की तरफ दौड़ पड़ते हैं। छोटा भी पीछे-पीछे भागता है। शायद बड़े भाई साहब के अंदर का ‘बच्चा’ यहां जग गया। शायद उन्होंने सोचा हो, छोटे को बहुत उपदेश दे दिया। बहुत हो गया छोटे-बड़े का खेल। अब तो दोनों भाइयों को दोस्त बनकर रहना होगा। सचमुच इस कहानी में जिम्मेदारियों का बोझ महसूस करते हुए सारा काम करने वाले ‘बड़े भाई साहब’ मुझे बहुत पसंद हैं।
किरदार का यह चित्रण दैनिक ट्रिब्यून के किरदार कॉलम में छपा है। क्लिक करें-
http://dainiktribuneonline.com/2018/04/%E0%A4%AC%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%87%E0%A4%AA%E0%A4%A8-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%9D-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%A6%E0%A4%AC%E0%A5%87-%E0%A4%AC%E0%A4%A1/

बदलाव का संदेश है ईस्टर

बदलाव का संदेश है ईस्टर


12903583CD _JESUS1
केवल तिवारी
जीने का संदेश। नवजीवन का वातावरण। खुशियां बांटने का मौसम। सबको समान समझने की सीख। ज्ञान फैलाने की जरूरत। उजाले की तरह, जिसे समेटा नहीं जा सकता। यही तो हैं ईस्टर पर्व की शिक्षाएं। ईसा मसीह जी उठे थे। जी उठना यानी प्रकृति का एक खूबसूरत संदेश। नव कोपलें। नव पुष्प। ठीक वैसे ही जैसे कहा गया है, ‘सतरंगी परिधान पहनकर नंदित हुई धरा है। किसके अभिनंदन में आज यह आंगन हरा-भरा है।’ प्रभु का अभिनंदन है। विश्वास है। विश्वास जो स्वस्थ रहने का हो। विश्वास नयापन लाने का हो। विश्वास दुखों से उबरने का हो। बुराई से दूर रहने का हो। अच्छाई के काम को तो खत्म किया ही नहीं जा सकता। ईसा मसीह को सूली पर लटकाने, फिर उनके जी उठने और 40 दिनों तक लोगों को प्यार का संदेश बांटने का यही तो मतलब है। असल में ईस्टर का पर्व जीवन के बदलाव का प्रतीक है। जीवन है तो उजाला है। उजाला समेटा नहीं जा सकता। उसे तो फैलाना है। जितना संभव हो। यही कारण है कि ईस्टर पर सजी हुई मोमबत्तियां अपने घरों में जलाना तथा मित्रों में इन्हें बांटना एक प्रचलित परंपरा है। इसका मतलब है हम रोशन हों, आपको भी रोशनी मिले। रोशनी नव उत्पाद की। रोशनी ज्ञान की।
ईसाई धर्म की कुछ मान्यताओं के अनुसार ईस्टर शब्द की उत्पत्ति ईस्त्र शब्द से हुई है। कहा जाता है कि ईस्त्र वसंत और उर्वरता की एक देवी थी। वसंत का मतलब पूरी प्रकृति में नयापन। कहा यह भी जाता है कि ईस्त्र देवी की प्रशंसा में पूरे अप्रैल माह में उत्सव होते थे। यूरोप के ईस्टर उत्सवों में आज भी उस उत्सव परंपरा की झलक मिल जाती है। संभवत: ईस्टर महापर्व का नाम कुदरत के इस नयेपन के कारण भी पड़ा। कुदरत में नयापन लाने के लिए सूरज की रोशनी भी तो जरूरी है। ईस्टर संडे को होता है। रविवार को। सूरज का दिन। ईसा मसीह के जी उठने की याद में दुनियाभर में ईसाई समुदाय के लोग ईस्टर संडे मनाते हैं। कहा जाता है कि ईसा मसीह के चमत्कारों से डरकर रोमन गवर्नर ने उन्हें यरूशलम के पहाड़ पर सूली पर चढ़ा दिया था। मौत के बाद उन्हें कब्र में दफनाया गया। तीन दिन बाद कुछ महिलाएं उन्हें श्रद्धांजलि देने पहुंचीं। जब वह मकबरे के पास पहुंचीं तो समाधि का पत्थर खिसका था। समाधि खाली थी। समाधि के अंदर दो देवदूत दिखे, उन्होंने ईसा मसीह के जिंदा होने का शुभ समाचार दिया। यानी ऐसा वाकया जो बना अगाध श्रद्धा, अटूट विश्वास और प्रेम का प्रतीक।
सुबह का इंतजार यानी परिवर्तन की दरकार
12903608CD _EASTER1ईस्टर के मौके पर रातभर लोग कई कार्यक्रमों में भाग लेते हैं। प्रार्थनाएं की जाती हैं। बधाइयां दी जाती हैं। बेहतरीन सुबह की। नयेपन की। मान्यता है कि ईसा मसीह ने जी उठने के बाद 40 दिन हजारों लोगों को दर्शन दिए। प्यार का पैगाम दिया। वह आये ही प्यार और सत्य बांटने के लिए। ईसा मसीह का संदेश था परमेश्वर ने हम सबको मिलकर रहने का संदेश दिया है। ईस्टर संडे को ईसाई समुदाय के लोग गिरजाघरों में इकट्ठा होते हैं। ईसा मसीह के जी उठने की खुशी में प्रभु भोज में भाग लेते हैं। एक-दूसरे को प्रभु ईशु के नाम पर शुभकामनाएं देते हैं। हैप्पी ईस्टर।
खुशी बांटने के अलग-अलग तरीके
प्रभु यीशू का संदेश था प्रेम का। खुशी का। खुशियों को बांटने की जब बात आयी तो समय-समय पर उसके तौर-तरीकों में परिवर्तन होता चला गया। वैसे तो ईस्टर के दिन खाने काे बहुत कुछ बनता है, लेकिन इन सब में ईस्टर एग की अपनी खास जगह है। यह अंडे के आकार में बना चाॅकलेट होता है जो अंदर से खोखला होता है। माना जाता है कि यह ईसा मसीह के मकबरे का सूचक है। आज बदलते समय में ईस्टर एग एक बड़े कारोबार में तब्दील हो गया है। इसकी प्रतियोगिताएं भी होने लगी हैं। किसका ईस्टर एग कितना बड़ा। क्रिससम के मौके पर जिस तरह बच्चे सेंटा का इंतजार करते हैं, उसी तरह ईस्टर के दिन ईस्टर बनी का इंतजार करते हैं। यह बनी लोगों के घर जाकर ईस्टर एग या अन्य गिफ्ट पहुंचाता है। कहा जाता है कि इस रस्म की शुरुआत जर्मनी से हुई थी।  नोट : यह लेख दैनिक ट्रिब्यून में छपा है आप http://dainiktribuneonline.com/2018/03/%E0%A4%AC%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B5-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6-%E0%A4%B9%E0%A5%88-%E0%A4%88%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%B0/ पर क्लिक कर सकते हैं।

समुद्र चले संग-संग

समुद्र चले संग-संग


यात्रा-वृत्तांत/महाबलीपुरम

dsc_0191-2 (1) copyकेवल तिवारी
इस सफर पर समुद्र की बात होती है। इस सफर पर समुद्र का ही साथ होता है। कोई इसे मंदिरों का शहर कहता है और कोई रिसाेर्ट्स का। कहे कोई कुछ भी, लेकिन यह जगह है बहुत अनूठी। जब आप यहां के सफर पर होते हैं तो लगता है समुद्र आपके संग-संग चल रहा है। उत्तर भारत से गए हों तो थोड़ी सी भाषा की दिक्कत पेश आएगी, लेकिन यहां के नजारों में आप इतने खो जाएंगे कि ऐसी दिक्कतें हावी नहीं होतीं। यह सफर है चेन्नई से महाबलीपुरम का।
दक्षिण भारत के कुछ इलाकों को देखने की ललक बचपन से रही। मौका लगा इस बार की सर्दियों में। मैंने और हमारे एक मित्र ने सपरिवार चलने का कार्यक्रम बनाया। कार्यक्रम काफी लंबा-चौड़ा बना। समय कम था। फिर भी तय हुआ कि पहले चेन्नई तो चलते ही हैं। मैं अपने परिवार के साथ चंडीगढ़ से दिल्ली तक जन शताब्दी से गया। वहां से रात में हम दो परिवार तमिलनाडु एक्सप्रेस से चेन्नई तक गये। दूसरे दिन सुबह सवा सात बजे ट्रेन के पहुंचने का समय था। लेकिन ट्रेन करीब 8 घंटे लेट हो गयी। ट्रेन जब दिल्ली से चली तो आगरा पहुंचते-पहुंचते कोहरे की ऐसी चपेट में आई कि बस लेट होती ही चली गयी।
10-truly-incredible-submerged-ruins-to-explore-7 copy‘चेन्नई एक्सप्रेस’ जैसा अनुभव
गाड़ी में भोपाल से एक महिला एवं उनका सात साल का बेटा हमारी ही सीट के साथ बैठे। बैठते ही थोड़ी सी बात हुई, जिसका जवाब महिला ने यूं दिया, ‘वी आर कमिंग फ्रॉम भोपाल, एक्चुअली वी आर फ्रॉम चेन्नई।’ बच्चा उनका एकदम चुप था। हम लोग समझ गए, ये हिन्दी नहीं जानते। हम लोग अपनी बातों में मशगूल हो गये। बीच-बीच में हम उस बच्चे (नाम इथेन) से अंग्रेजी में कहते रहते कि हमारे बच्चों के साथ खेल लो। इस बीच मेरी पत्नी की तबीयत थोड़ी बिगड़ गयी। हम लोग आपस में बात कर ही रहे थे कि वह महिला बोलीं, ‘मेरे पास दवा है। इन्हें सादे पानी के साथ दे दो। इन्हें अभी खाना खिलाने की जबरदस्ती न करें। ठीक होने पर वह खुद ही खाना मांग लेंगी।’ महिला को धाराप्रवाह हिन्दी बोलते देखकर हम दंग रह गये। उसके बाद तो पता चला कि जो बच्चा चुपचाप बैठा है, वह चार भाषाएं जानता है। हिन्दी, इंग्लिश, तेलगु और मलयाली। इस बीच पास बैठी एक आंटी से भी बातचीत शुरू हो गयी। जल्दी ही वह बच्चों की सीनियर गार्जन बन गयीं। बातचीत में उन्होंने बताया कि उनकी तो ट्रेन में इतने लोगों से दोस्ती हुई है कि कई लोग उनकी बेटी और बेटे की शादी तक में घर आये हैं। चेन्नई स्टेशन पर उतरते वक्त हम सबने मिलकर एक-दूसरे का सामान उतारा। इथेन तो रोने लगा कि मेरे घर चलो। उससे झूठ बोलना पड़ा, ‘हम लोग शाम तक पहुंच जाएंगे।’ बाद में महिला ने अपना फोन नंबर दिया और कहा कि अगर चेन्नई में कोई दिक्कत हो तो आप लोग फोन करना। आंटी भी अपना पता दे गयीं।
ptorepotperमरीना बीच पर अम्मा-अम्मा
चेन्नई पहुंचकर मैंने अपनी भांजी के पति अनुज को फोन किया। वहां पहुंचकर कुछ देर आराम किया और शाम को हम लोग मरीना बीच के लिए निकल गये। यह मानकर चले थे कि बीच पर थोड़ी देर समुद्र के नजारे देखकर वापस आ जाएंगे। वहां पहुंचे तो देखा माजरा ही अलग था। पुलिस ने बेरीकेड लगाकर कई गेट बनाए थे। हर गेट पर लाइन। हमने एक-दो लोगों से पूछा कि बीच के लिए कहां से एंट्री है, कोई कुछ बता नहीं पा रहा था। फिर एक पुलिसकर्मी से पूछा तो पता लगा सारी लाइन अम्मा की समाधि पर जाने के लिए लगी है। हम लोग भी लाइन में लग गये। वहां देखकर दंग रह गये कि पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता के निधन को एक माह से ऊपर हो गया, फिर भी लग रहा था कि जैसे कल की ही बात है। अंदर पहुंचे तो पहले वहां के पूर्व सीएम अन्नादुरई की समाधि, फिर एमजी रामचंद्रन की, उसके बाद जयललिता की। पास में ही ‘अम्मा भजन’ चल रहा था। लोग फूल लेकर आए थे। कोई समाधि से लिपट-लिपट कर रो रहा था। कोई अम्मा-अम्मा कहकर मूर्छित सा हुआ जा रहा था। पुलिस वाले बड़ी मुश्किल से स्थिति को संभाल रहे थे। समाधि से बाहर निकलते ही कोई पोंगल (खिचड़ी) बांट रहा था कोई पानी और कोई अम्मा की तस्वीर।
lgkldfkgldfइडली, सांभर और चटनी
चेन्नई एक रात रुककर अगले दिन महाबलीपुरम जाने का कार्यक्रम था। अनुज की मकान मालकिन आईं। बुजुर्ग महिला। हम लोगों से अंग्रेजी में ही बात हुई। उन्होंने कहा, ‘अनुज इज लाइक माइ सन।’ तुरंत अनुज ने भी जवाब दिया, ‘एंड शी इज माई अम्मा।’ उसके बाद वह इडली, सांभर और इमली की चटनी लेकर आ गयीं। सबकुछ बहुत ही स्वादिष्ट। मैंने उनसे कहा बहुत सॉफ्ट इडली है। अम्मा ने बताया कि वह रोटी इतनी साॅफ्ट नहीं बना सकतीं। उसके बाद उन्होंने हमें कुछ रूट प्लान समझाया। नाश्ता कर हम लोग महाबलीपुरम के लिए रवाना हो गये।
Shore temple Mahabalipuram copyपौंडि वाली बस से महाबलीपुरम 
कैब से हम लोग जिस बस स्टॉप पर उतरे, वहां से बसों का कुछ आइडिया नहीं आ पाया। इसी बीच हमसे कई टैक्सी वाले आकर पूछते कि कहां जाना है। वे लोग समझ गए थे कि हम स्थानीय नहीं हैं, इसलिए दो-तीन शब्दों में पूछ लेते। कभी कहते ‘पौंडि और महाबलीपुरम। सेम रेट, एज बस।’ तभी एक सज्जन हमारे पास आए। उन्होंने हमसे पूछा-कहां जाना है। फिर वह वहीं खड़े हो गए। थोड़ी देर बाद एक बस आयी पोंडिचेरी परिवहन की। उन सज्जन ने हमें उसमें बिठा दिया। इस बीच उन्होंने बताया कि वे पोंडिचेरी परिवहन के ही अफसर हैं। यहां बसों की चेकिंग करते हैं। हमने उनका शुक्रिया किया और चल पड़े। वहां पोंडिचेरी को हर कोई पोंडि-पोंडि ही कह रहा था। महाबलीपुरम पोंडिचेरी और चेन्नई के बीच में ही है।
समुद्र किनारे मंदिर ही मंदिर 
महाबलीपुरम तक पहुंचने में हमें करीब डेढ़ घंटा लगा। पूरे सफर पर समुद्र दिखा। बस-ट्रेन के सफर से नदी और खेत तो खूब दिखे थे, लेकिन समुद्र का विहंगम नजारा पहली बार देखा। साथ में नारियल और केले के खेत ही खेत। वहां पहुंचे तो पता चला कि इस शहर का प्राचीन नाम मामल्लापुरम है। भव्य मंदिरों, स्थापत्य और सागर-तटों के लिए बहुत प्रसिद्ध। सातवीं शताब्दी में यह शहर पल्लव राजाओं की राजधानी था।
-42510_64926 copyरथों वाला मंदिर 
यहां का रथ मंदिर बहुत प्रसिद्ध है। इसमें आठ रथ हैं, जिनमें से पांच को महाभारत के पात्र पांच पाण्डवों और एक द्रौपदी के नाम पर नाम दिया गया है। इन पांच रथों को धर्मराज रथ, भीम रथ, अर्जुन रथ, द्रौपदी रथ, नकुल और सहदेव रथ के नाम से जाना जाता है। इनका निर्माण बौद्ध विहास शैली तथा चैत्यों के अनुसार किया गया है। तीन मंजिल वाले धर्मराज रथ का आकार सबसे बड़ा है। द्रौपदी का रथ सबसे छोटा है और यह एक मंजिला है और इसमें फूस जैसी छत है। अर्जुन और द्रौपदी के रथ क्रमश: शिव और दुर्गा को समर्पित हैं। पास में ही एक ही पत्थर से बने हुए मंदिर भी हैं।
शोर टेंपल 
यह भी एक खूबसूरत मंदिर है। बताया गया कि यह पल्लव कला का आखिरी साक्ष्य है और इसे बंगाल की खाड़ी के शोर के रूप में जाना जाता है। भगवान विष्णु को समर्पित इस मंदिर में शिवलिंग भी है और देवी की मूर्ति भी। इस मंदिर का निर्माण काले ग्रेनाइट से हुआ है।
तट मंदिर 
यह भी एक खूबसूरत जगह है। बताया गया कि इसका निर्माण पल्लव राजा राज सिंह के कार्यकाल में सातवीं शताब्दी के दौरान किया गया था। सुंदर बहुभुजी गुम्बद वाले इस मंदिर में भगवान विष्णु और शिव की पूजा होती है। ये सुंदर मंदिर समुद्र से उठकर आने वाली हवा के झोंकों से परिपूर्ण है और इन्हें यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत घोषित किया गया है।
लोकल ट्रेन का सुहाना सफर 
तमाम जगहों से घूमकर जब हम वापस चेन्नई पहुंचे तो वहां से हमने फ्लाइट लेनी थी दिल्ली तक की। कुछ मित्रों को फोन किया। उन्होंने बताया कि अगर सामान ज्यादा नहीं है तो चेन्नई सेंट्रल रेलवे स्टेशन के सामने ही लोकल ट्रेन का स्टेशन है। वहां से एयरपोर्ट के लिए सीधी ट्रेन है। पहले अजीब लगा कि कैसे सबके साथ ट्रेन से जाएं। टैक्सी-बस के सफर से बच्चे ऊब चुके थे। मन तो किया कि लोकल ट्रेन से ही चला जाये। लेकिन पैदल करीब आधा किलोमीटर चलना था और सामान भी हम लोगों के पास ठीक-ठाक था। एक-दो टैक्सी वालों से पूछा तो किसी ने 1500 रुपये बताया तो किसी ने हजार। समय कितना लगेगा, पूछने पर हर कोई कहता कि ट्रैफिक पर निर्भर है। फिर हमने तय किया कि अभी हमारे पास दो-तीन घंटे हैं। चलते हैं लोकल ट्रेन से। हमने आठ टिकट लिये, मात्र 40 रुपये में। उस स्टेशन का नाम था चेन्नई पार्क स्टेशन। वहां से त्रिशूलम स्टेशन के लिए टिकट लिया। लोकल ट्रेन में डिजिटल डिसप्ले चल रहा था। वह हिन्दी, अंग्रेजी और तमिल भाषा में आने वाले स्टेशन के बारे में बताता। हम लोग आराम से बैठ गये। बातों-बातों में इंजीनियरिंग के एक-दो छात्र मिल गये। वे लोग दिल्ली के ही रहने वाले थे। एक युवती मिली, जो दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़कर लौटी थी। उन लोगों से बातें होती रहीं। त्रिशूलम स्टेशन आते ही हम लोग उतर गये। ठीक सामने एयरपोर्ट था। थकान के बावजूद यह सफर रहा बड़ा रोचक। रास्ते में अनेक स्टेशन पड़े। जिनको पढ़ने में ही हम लोग कुछ वक्त लगा देते। जैसे कराईवेल्लूर वगैरह-वगैरह।
कैसे पहुंचें
महाबलीपुरम जाने के लिए पहले चेन्नई पहुंचना पड़ेगा। चेन्नई तक ट्रेन और हवाई सुविधा लगभग हर बड़ी जगह से उपलब्ध है। चेन्नई से बस और टैक्सियां भी आसानी से उपलब्ध हो जाएंगी। ठहरने के लिए यहां निजी होटलों के अलावा सरकारी गेस्ट हाउस और लॉज इत्यादि की सुविधा है। यहां घूमने का अच्छा वक्त नवंबर से मार्च तक है। अन्य महीनों में भी घूमा जा सकता है, हां, थोड़ी सी गर्मी ज्यादा लगेगी।

नोट : यह आलेख दैनिक ट्रिब्यून के यात्रा वृतांत कॉलम में छप चुका है। http://dainiktribuneonline.com/2017/02/%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0-%E0%A4%9A%E0%A4%B2%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%97-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%97/

Monday, March 5, 2018

एक थी तान्या

मोहित पांडेय का मन नहीं लग रहा था आॅफिस में। इधर-उधर टहलना। फिर कंप्यूटर पर आकर बैठ जाना। थोड़ी देर कंप्यूटर की ओर नजर गड़ाना और परेशान सा हो जाना। उनके पड़ोस में बैठने वाले जोगेंद्र जैसे उनकी बेचैनी समझ रहे थे। उनके उठने-बैठने, कंप्यूटर पर आंख गड़ाने फिर बेचैन होकर टहलने को देखते हुए उन्होंने चुटकी ली, क्या हुआ? नहीं आई क्या। मोहित सकपकाए, क्या मतलब कौन नहीं आई। जोगेन्द्र समझ गए मोहित को बात शायद चुभ रही है, तुरंत ट्रैक बदलते हुए बोले, अरे रात में नींद नहीं आई क्या। मैं तो आपके नींद आने की बात कह रहा था, लेकिन आप तो ऐसे चैंक गए थे जैसे मैंने यह पूछ दिया हो कि आपकी कोई गर्लफ्रेंड नहीं आई क्या। मोहित हल्का मुस्कुराए और वाॅशरूम की तरफ चल दिए। वैसे मोहित की जैसी बेचैनी दफ्तर में उस दिन कई लोगों के चेहरे पर नजर आ रही थी। कुंआरे गोकुल कुमार हों या फिर दो बच्चों के बाप जितेन्द्र प्रसाद। टीम लीडर रोहित बालियानी हों या फिर ड्यूटी इंचार्ज अमित कुमार।
असल में ये सभी लोग एक साॅफ्टवेयर कंपनी में काम करने वाले हैं। अमूमन जरनल शिफ्ट लगती है आॅफिस में। शाम के समय घंटा-डेढ़ घंटा उस दफ्तर के अनेक लोग व्यस्त से लगते हैं। वैसे तो काम दिनभर रहता है, लेकिन शाम की व्यस्तता बड़ी रहस्यमयी। इस रहस्य के बारे में कई लोग जानते भी हैं, लेकिन उसका जिक्र उसी तरह करते हैं जैसे कुछ नहीं जानते। शाम की व्यस्तता के बारे में तो और भी अजीब हाल है। कंप्यूटर का माॅनिटर थोड़ा झुकाकर, आसपास कोई कुछ न देख पाए इस अंदाज में सबकी व्यस्तता होने लगती है। कुछ नहीं कर रहे हैं जैसा दिखाने के अंदाज में बहुत कुछ चल रहा होता है। उनके कंप्यूटर माॅनिटर पर ऐसा-वैसा कुछ नहीं चल रहा होता था। असल में एक लड़की थी तान्या। लड़की ही होगी क्योंकि नाम से तो यही लगता है। वह एक अखबार में पत्रकार है। पत्रकार ही होगी क्योंकि उसने तो यही बताया था। वह 24 साल की अविवाहित युवती है। अविवाहित होगी और 24 साल की ही होगी, क्योंकि उसने यही बताया था। असल में उसकी हर बात वही होगी जो उसने बताई। यूं तो सभी की वही बात होती है जो वह बताता है या बताती है, लेकिन तान्या के मामले में यह बताना और उस बताने पर विश्वास करना ज्यादा सटीक है और मानने की बाध्यता। सटीक इसलिए कि तान्या हर किसी को अच्छी लगती है, मानने की बाध्यता इसलिए कि उसे किसी ने देखा नहीं। जब देखा नहीं तो कोई उसकी उम्र को लेकर क्या कहे और क्या अंदाजा लगाए। उसके पेशे को लेकर क्या जाने। बेशक उसे किसी ने देखा न हो, लेकिन मोहित, जोगेन्द्र, रोहित, जितेन्द्र और गोकुल जैसे तमाम लोग इस तान्या के मित्र हैं। जीमेल और फेसबुक मित्र। तान्या ने जो प्रोफाइल डाला था, उसके मुताबिक वह एक पत्रकार थी। उम्र 24 साल। अविवाहित। दिखने की बहुत सुंदर। उसके निजी प्रोफाइल में दो-तीन फोटो पड़े हुए थे। उसके मुताबिक वह वाकई बहुत सुंदर थी। वह फोटो किसी फिल्मी हस्ती की भी नहीं थी, इसलिए उन पर भरोसा न करने का कोई कारण नहीं था। मित्रों की सूची में ज्यादातर छात्र, नौकरीपेशा और अधेड़ उम्र के कुछ लोग थे। महिलाओं की संख्या भी अच्छी-खासी थी। लेकिन ज्यादा मित्र थे पुरुष। वह अक्सर शाम को चार बजे आॅन लाइन होती थी। उसके आॅन लाइन होते ही उसके चाहने वाले शुरू हो जाते हेलो, हाउ आर यू। आप तो पत्रकार हैं, आज क्या बड़ी खबर है। वगैरह...वगैरह। कभी कबार वह आॅन लाइन नहीं होती तो मोहित, जोगिन्द्र जैसे कई लोग परेशान हो उठते। असल में उसकी खूबी यह थी कि वह सबको जवाब तुरंत देती थी। जैसे ही किसी ने चैट में जाकर हेलो लिखा नहीं कि, उसका तुरंत जवाब आता हाई। फिर बातें बढ़तीं। एक हद तक वह सारी बातें कर लेती थीं। कई बार कुछ लोगों को चैट पर ही झिड़क देती। मजेदार बात देखिए कि झिड़कने पर भी लोग बहुत खुश होते। धीरे-धीरे मोहित, जोगेन्द्र और रोहित आदि सबको पता चल गया कि उसके साथ कई लोग चैट करते हैं। उन्हीं के आॅफिस के तमाम लोग। असल में मित्रों की सूची तो दिख ही जाती थी। कई बार लोग ठहाके भी लगाते अरे देखिए, वर्मा जी भी बन गए हैं तान्या के मित्र। वह जनाब सफाई देते, अरे यार रघुवर जी को काॅमन फ्रेंड में देखा तो मैं भी मित्र बन गया। चोरी-छिपे लोग एक दूसरे के कंप्यूटर पर यह भी देख लेते कि कितने लोग तान्या से चैट पर लगे हैं। एकाध बार तो चैट पर ही एक दूसरे का विरोध शुरू हो जाता। कुछ मजाकिया और मसखरे टाइप के लोग कह भी देते देखो तान्या तुम्हारे बारे में क्या लिख रही है। असल में होता यह कि कोई व्यक्ति तान्या से किसी अन्य के बारे में पूछता तो वह चैट पर ही बता देती कि नहीं वह व्यक्ति तो बहुत ठर्की है। फिर चैट क्यों करती हो, पूछने पर वह कह देती मैं किसी को निराश नहीं करती।
तान्या की दोस्ती का दायरा जब बहुत बढ़ गया तो लोगों को तान्या के अस्तित्व पर ही संदेह होने लगा। कोई कहता तान्या नाम की कोई लड़की है ही नहीं। कोई और है जो यूं ही मजे ले रहा है या ले रही है। किसी को इसमें क्या मजा आएगा। इस तरह का तर्क भी तान्या के चैट दोस्त देने लगते। रोज उससे घंटों चैट के माध्यम से बतियाने वाले आज तक यह नहीं पूछ पाए कि आखिर वह किस अखबार में है या चैनल में है। वह पत्रकार है यह सबको मालूम था, लेकिन कहां? किसी को पता नहीं। वह तान्या थी यह सब बोलते थे, लेकिन कहां रहती है कोई नहीं जानता। उससे चैट सब करते लेकिन क्या बातें होती किसी को पता ही नहीं चलता। उस कंपनी में टीम लीडर से लेकर जूनियर स्टाॅफ तक तान्या की फ्रेंड लिस्ट में आ चुके थे।
यूं तो लोगों को जीमेल या फेसबुक खुला रहता लेकिन चार बजते ही सबकी निगाहें कंप्यूटर स्क्रीन पर ऐसे चिपक जातीं जैसे कोई बहुत बड़ी बात होने वाली है। जैसे कुछ खास असाइनमेंट आने वाला हो। आज भी यही हुआ था। मोहित पांडेय बार-बार कंप्यूटर स्क्रीन पर देखते, फिर बेचैन हो जाते। बेचैनी तो जोगेन्द्र को भी हो रही थी, लेकिन वह अपनी बेचैनी शो नहीं कर रहे थे। उनकी नजर भी जीमेल और फेसबुक के चैट आॅप्शन पर ही थी, लेकिन तान्या आज आॅन लाइन नहीं दिख रही थी। बेचैनी अन्य लोगों को भी थी। यहां तक कि कुछ तो यह सोचने लगे कि हो न हो तान्या ने आॅफ लाइन वाला आॅप्शन चुन लिया हो। यह सोचकर कुछ लोगों ने आॅफ लाइन तान्या को ही हेलो और हाई के मैसेज भेज दिए। लेकिन कोई जवाब नहीं आया। कोई इतना भी दिमाग नहीं लगा रहा था कि हो सकता है तान्या आज आॅफिस नहीं आई हो। हो सकता है कहीं किसी काम के सिलसिले में व्यस्त हो गई हो। चार के बाद पांच बजा, फिर छह। सब लोग कंपनी से जाने की तैयारी करने लगे। धीरे-धीरे मन मसोस कर सबने कंप्यूटर शट डाउन कर दिए।
कंपनी से धीरे-धीरे लोग अपनी कैब में बैठने चले गए। टीम लीडर रोहित बालियानी भी वहां सबकी बात सुन रहे थे। उन्हें इस बात पर कतई भरोसा नहीं हो रहा था कि तान्या कोई है ही नहीं। वह यह मानने को कतई तैयार नहीं थे कि तान्या बनकर कोई और उनसे चैट कर रहा है। वे आज कुछ काम होने की बात कहकर कंपनी में कुछ देर के लिए रुक गए थे। असल में जैसे ही 6 बजे के करीब सब लोगों के कंप्यूटर शट डाउन हुए, सवा छह बजे रोहित को दिख गया कि तान्या आॅन लाइन हो गई है। आज उन्होंने अपनी चैटिंग में बातचीत का रास्ता घुमाया। उन्होंने सवाल दागा कि आप जर्नलिज्म में कितना कमा लेती हैं। क्या एचआर के फील्ड में जाने का मन है। अच्छा पैकेज है। हमारी कंपनी में भी जरूरत है वगैरह...वगैरह। रोहित अपने मकसद में लगभग कामयाब हो गए। करीब 10 मिनट की चैटिंग के बाद तान्या ने मान लिया कि यदि अच्छा वेतन मिलेगा तो वह अपना फील्ड बदल सकती है। यही नहीं वह अपना बायोडाटा भेजने को तैयार हो गई। न केवल तैयार हो गई, बल्कि आधे घंटे में ही उसने अपना बायोडाटा रोहित बालियानी को मेल कर दिया। पता लगा कि तान्या दिल्ली में नहीं रहती, बल्कि वह पंजाब के लुधियाना के किसी छोटे अखबार में बतौर अल्पकालिक रिपोर्टर काम करती है। पिता फौज से रिटायर्ड हैं। बायोडाटा में उसने अपना कोई मोबाइल नंबर नहीं लिखा था, अलबत्ता अपने घर का लैंड लाइन नंबर लिख छोड़ा था। रोहित को बड़ा सुकून मिला और वह भी कंप्यूटर शट डाउन कर घर की ओर बढ़ चले। अगले दिन दोपहर से ही तान्या के बारे में खुसर-फुसर शुरू हो गई। रोहित भी हौले-हौले हो रही इस बात को सुन रहे थे। उस दिन शाम को फिर तान्या आॅन लाइन नहीं हुई। अब तो आपस में ही जोर-जोर से लोग कहने लगे, किसी ने हम सबको बेवकूफ बनाया है। तान्या आज भी नहीं आई है। एक बोला, मैं तो जानता था यह सब फ्राॅड है, लेकिन ऐसे ही कभी-कभी चैट कर लेता था। सब अपने-अपने तर्क देने लगे लेकिन ध्यान सबका कंप्यूटर स्क्रीन पर था। रोहित आज फिर कुछ देर के लिए रुक गए। लेकिन आज तान्या सात बजे तक भी आॅन लाइन नहीं हुई। आॅन लाइन न होने का यह सिलसिला अब लगातार चलने लगा। धीरे-धीरे लोग तान्या को जैसे भूलने की कोशिश करने लगे। एक दिन लंच के समय सब लोगों के बहस का मुद्दा ही तान्या थी। अबकी रोहित से भी नहीं रहा गया। यह तो सबको पता था कि वह भी तान्या की फ्रेंड लिस्ट में शामिल हैं। उन्होंने बायोडाटा मंगाने की बात सबको बता दी और बताया कि वह लुधियाना में एक छोटे से अखबार में काम करती है। उसके घर का नंबर भी है उसके पास। रोहित सबको यह बात बता ही रहे थे कि उन्हें अपने ब्लैक बेरी फोन के जरिये पता चला कि एक मेल आया है। मेल खोलते ही वह हक्का-बक्का रहे। तान्या का मेल। उन्होंने सबको बताया कि तान्या का मेल आया है। सबका ध्यान उसी तरफ गया। रोहित ने इनबाॅक्स में जाकर देखा तो तान्या के आईडी से किसी रुपाली ने मैसेज किया था कि तान्या का भयानक एक्सीडेंट हो गया है, बचने की उम्मीद न के बराबर है। रोहित को लगा कि फोन करना चाहिए। लेकिन नंबर घर का है, वह क्या कहेगा। कैसे जानता है तान्या को। उन्होंने साथियों से राय लेनी चाही। ज्यादातर ने फोन नहीं करने को कहा। आज फिर शाम के चार बजे, किसी के चेहरे पर कोई बेचैनी नहीं झलक रही थी। कोई अपने काम में व्यस्त था, कोई मेल डिलीट कर रहा था। कोई तान्या के साथ चैट सेविंग को डिलीट कर रहा था। रोहित ने बायोडाटा वाला मैसेज डिलीट कर दिया। आज तान्या का न तो किसी को इंतजार था और न ही किसी तरह की बेचैनी। वह बचेगी या नहीं, इसकी भी परवाह किसी को नहीं थी। न जाने कौन थी यह तान्या और अब...