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Friday, December 15, 2023

सांची बात, विस्तारित सौरभ और शादी के दौरान मुलाकात

 केवल तिवारी

सांची कहूं, सौरभ सा फैल गया अपनापन 

कुणाल की चमक, हर तरफ गौरवमयी धमक 

पूरन हुआ काज खुशियों से भरा शीला का दामन 

गंगा सा अवतरण शिव के द्वार, फैली पूरी चमक। 

बारात प्रस्थान की तैयारी


रविवार 10 दिसंबर, 2023 की शाम एक फिल्मी गीत रह-रहकर मेरे मन मस्तिष्क में चल रहा था। गीत के बोल हैं ‘ऐ वक्त रुक जा, थम जा ठहर जा, वापस जरा लौट पीछे’  लेकिन न तो वक्त थमता है और न ही ठहरता है, पीछे तो कतई नहीं लौटता है। इसलिए आपाधापी हुई और अनेक लोगों से मिल-मिलाकर लखनऊ से चंडीगढ़ को लौट आए। दरअसल, प्रिय भानजे सौरभ के विवाहोत्सव के बाद 10 तारीख को रिसेस्पशन चल रहा था। अनेक पुराने-नये जानकारों से मुलाकातों का सिलसिला चल रहा था। साथ ही कुछ आपाधापी भी थी। कुछ देर पहले ही महिला संगीत के दौरान नाच-गाने का कार्यक्रम चल रहा था। उससे कुछ देर पहले, अरे हां कुछ ही देर तो था हम लोग बारात से वापस लौटे थे। लंबे सफर के बाद। मुझे पल-पल की जानकारी देने में आनंद आ रहा था। देहरादून से लखनऊ को चले तो बेशक थकान हावी थी, लेकिन बस में मौजूद अनेक परिजन के साथ बातचीत के आनंद में यह थकान हावी नहीं हो पाई। अपनेपन में कहां कुछ लगती है थकान। इससे कुछ दिन पहले चंडीगढ़ से लखनऊ पहुंचने की व्याकुलता थी। बुधवार 6 दिसंबर को रात में ट्रेन में बैठे। छोटा बेटा धवल तीन दिन पहले से ही घंटे गिनने लगा था। उसके अनेक सवाल कब चलेंगे, कब पहुंचेंगे। ट्रेन में बैठने के बाद भी सवालों की बौछार। इसी दौरान परिजन के फोन आने भी शुरू। बैठ गए। कब तक पहुंचोगे। अगली सुबह यानी 7 दिसंबर को हल्दी कार्यक्रम था। हम लोग ट्रेन में ही थे और फोन पर फोन आ रहे थे। अहसास हुआ कि एक-दो दिन पहले आ जाना चाहिए था। पत्नी से भी इसका जिक्र हुआ, लेकिन मजबूरियां भी तो ऐसी होती हैं कि फिर बाद में भी यह लगा कि एक-दो बाद का कार्यक्रम बनाना चाहिए था, लेकिन ऐसा कहां हो पाता है। खैर। जैसे ही करीब 11 बजे हम लोग पहुंचे, वहां हल्दी रस्म की तैयारी पूरी हो चुकी थी। शीला दीदी, पूरन जीजाजी से मुलाकात हुई। दूल्हे राजा यानी सौरभ जिसे मैं प्यार से शेख साहब कहता हूं भी गर्मजोशी से मिले। फिर भानजे कुणाल, गौरव के साथ ही दीदियां, पीएसी वाले जीजाजी आदि से मुलाकात हुई। प्रेमा दीदी पहुंची थी। मिलते ही रोने लगी। मैं भी भावुक हो गया। मिश्राजी जीजाजी की याद आई। देहरादून में मित्र राजेश ने भी उन्हें तब बहुत मिस किया जब वह भानजी रेनू और भानजे मनोज से मिल रहा था। चलिए अब इस प्यारी याद की अन्य बातों को साझा करूं। 

हल्दी कार्यक्रम के दौरान मैं ‘विजी विदआउट वर्क’ और बारात की मस्ती 

हल्दी में दोनों भाई, ताई और मम्मी।

बेशक मैं बार-बार कह रहा था कि मेरे लायक काम बताना, लेकिन वहां ऐसा कुछ नहीं था, फिर भी मैं व्यस्त जैसा चल रहा था। कभी किसी मेहमान को लाने मेट्रो स्टेशन की तरफ जाना और कभी दुकान से छोटा-मोटा सामान लाने। इसी दौरान कुछ बातों की भी व्यस्तता। सामने के एक कमरे में भानजे पंकज, उसकी बेटी अग्रणी और भानजी लता के पति पंतजी के साथ बातचीत। पंतजी से धवल की विशेष वार्तालाप। मजेदार। जीजा-साले की बात। साथ ही जीजाजी के जीजाजी से उनके साले के साले से बातचीत। कब दिन निकल गया और शाम को बारात चलने का वक्त हो गया पता ही नहीं चला। नाचते-कूदते हम लोग बस में सवार होकर चल पड़े सौरभ की दुल्हनिया को लाने के लिए। आधे सफर तक गीत-संगीत और नाच-गाना चला। फिर कुछ देर ड्राइवर साहब के साथ बैठ गया। सुबह पहुंचे देहरादून के होटल में। बेहतरीन व्यवस्था थी। नाश्ता-पानी और लंच के बाद कुछ देर के लिए मित्र राजेश डोबरियाल से मिलने गया। वह हमें खुद ही लेने आया। वहां अंकल जी से मुलाकात हुई। वर्षा मिलीं, बच्चे मिले। पुरानी वीडियोज देखीं। दो घंटा कब बीता पता ही नही चला। यहां भी बिजी विदआउट वर्क रहा। कभी दिल्ली से आने वाले अपने परिवारीजनों के लिए कमरा बुक रखना, कभी पुराने मित्रों से मिलना, कभी किसी को लोकेशन भेजना। यहां नितिन की मम्मी बीना, भतीजे हरीश, प्रकाश सपत्नीक पहुंचे। भतीजी नीरा, उसके पति दर्शनजी, भतीजी प्रेमा और उसके पति गौरवजी से मुलाकात हुई। बड़े भाई समान वरिष्ठ पत्रकार कलूड़ा अभिनव जी से काफी बातें हुईं। इससे पहले हल्द्वानी काठगोदाम से आए बच्चों के मामा नंदाबल्लभ जी, शेखर जोशी जी और मौसाजी सुरेश पांडे जी और प्रिय सिद्धांत जोशी उर्फ सिद्धू से मुलाकात और बात हुई। जाना तो सिद्धू के कमरे पर भी था, लेकिन आज तो समय की रफ्तार कुछ ज्यादा ही थी। कहने-लिखने की कई और बातें हैं, लेकिन इस ब्लॉग पर तो फिल्मी सीन की तरह चलना है इसलिए संक्षेप में ही सही। 

शादी की रात, मुलाकात और बात 




शादी की रात हम सब बाराती प्रसन्नचित्त रहे। कभी कोई मिला और कभी कोई। बीच-बीच में जीजाजी के निर्देश। फिर कभी साथी बाराती की बात। इसी दौरान भानजे मंटू की शादी की सालगिरह की बात आई। छोटे भाई सोनू की पत्नी भावना एक केक सा कुछ खाने का आइटम ले आई और हम लोगों ने तालियां बजाकर उन्हें मुबारकबाद दी। इससे पहले धूलिअर्घ्य के दौरान सौरभ के जूतों को मैंने और भतीजे प्रकाश ने अपनी कस्टडी में रख लिए। पूजा के बाद मैं सौरभ को मोजे और जूते पहनाने लगा तो उसने तुरंत अपने हाथ में लेकर कहा, मामा ऐसे न करो। मैंने कहा अरे आज तुम दूल्हे हो, मुझे पहनाने दो। वह हंस पड़ा और फिर कार्यक्रम आगे चलने लगे। इधर खान-पान गपशप और उधर जयमाल। फिर शुरू हुई शादी। इस पूरे प्रकरण में प्रकाश का रातभर जगना और साथ में मेरे छोटे बेटे धवल की उत्सुकता देखने लायक थी। वह हर रस्म को बहुत गंभीरता से देख रहा था साथ ही इस बात से खुश था कि आज उसके हाथ में आई फोन है। असल में सौरभ ने उसे अपना फोन पकड़ा रखा था, उसी से वह फोटो भी ले रहा था। इसी दौरान सांची के मम्मी पापा से भी कुछ हंसी मजाक हुई। मां तो मां होती है। कुछ रस्म ओ रिवाज के दौरान उनके आंसू छलक आए। इसी दौरान कुछ अन्य महिलाओं की आंखें भी नम हो गईं। यहां प्रसंगवश बता दूं कि इस दौरान गीत-संगीत का मोर्चा जय प्रकाश की पत्नी भावना ने संभाले रखा। साथ दिया योगिता, भावना आदि ने। शादी के दौरान ही पता चला कि हमारे परिवार में भावना नाम के अनेक बेटी बहुएं हैं।

वापसी की रोचकता और लंबा सफर 

अगले दिन बारात वापसी में हमारे हिसाब से तय समय से कुछ वक्त ज्यादा लग गया। सब लोग थके थे। बस में बैठकर मैंने गणेश वंदना और राम वंदना लगायी। फिर कुणाल के दोस्त से स्पीकर भी लेकर आया। इस दौरान देखा कि लोग थके हुए लग रहे हैं। कुछ लोग रिसेप्शन के लिए एनर्जी बचाने में लगे हैं। धवल तो सो गया। कुक्कू से बात हुई। साथ ही भानजी बीनू के पति सचिन से अनेक मुद्दों पर बात होती रही। किशोर, कैलाश, मुन्ना आदि से भी कुछ बातें होती रहीं। बीच-बीच में लखनऊ दीदी को अपडेट दे रहा था। रास्ते में एकाध जगह लंबा विश्राम होने से हम लोग रात करीब एक बजे घर पहुंचे। इस पूरे सफर में जीजाजी की सक्रियता और आगे और पीछे भी सभी काम को स्वयं हैंडल करने का उनका जोश और जज्बा अनुकरणीय रहा। उन्होंने हर काम को सलीके से खुद ही करने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।  

और हमारा फटाफट चले आना 



भाई साहब के साथ गुफ्तगू

रिसेप्शन वाले दिन सुबह ही तेलीबाग से भाई साहब भुवन चंद्र तिवारी भी पहुंच गये। चूंकि प्रिय भतीजी कन्नू को कुछ शारीरिक दिक्कत आई थी, वह अस्वस्थ थी, इसलिए भाभीजी और कन्नू नहीं आ पाए। भाई साहब भी नोएडा में ही थे, लेकिन रिसेप्शन वाले दिन के लिए लखनऊ आ गए। अगले ही दिन दिल्ली के लिए उनकी ट्रेन थी। दिन में अनेक बार उनसे कई बातें हुईं। शाम को भी उनके जरिये गांव के कई लोगों से मुलाकात हुई। बातों-मुलाकातों में कब शाम हो गयी पता ही नहीं चला। जीजाजी के बड़े भाई यानी जयप्रकाश के पिताजी, मंटू के पिताजी और मंजिलबाबू से भी कई बातें हुईं। लखनऊ पहुंचते ही रिश्ते में भानजा लगने वाले नवीन पांडे उर्फ नंदन ऊर्फ राजस्थान वाले मिले। उनकी पत्नी गीता ने शुरू से ही फोटो, वीडियो साझा कर जैसे हमें जोड़े रखा। शाम को बेटे दीपक से अच्छी मुलाकात हुई। इससे पहले भुवन जीजाजी और जय प्रकाश के साथ तो बारात में आने-जाने के दौरान भी अच्छा साथ रहा। बातें बहुत हैं, लेकिन फिल्मी स्टाइल में ही सब सिमट गया। जैसा कि पहले ही कह चुका हूं, सपना सरीखा सा लगा। वक्त चलता रहा और आखिरकार चलते वक्त में बहते हुए अनेक मीठी-मीठी यादों को सहेजकर आखिरकार हम चंडीगढ़ पहुंच गए और अभी तक शादी की ही बातें चल रही हैं। सौरभ-सांची सदा खुश रहें।  

विशेष : पूरा ब्लॉग स्मृति आधारित है। इसलिए अनेक लोगों और अवसरों का जिक्र रह गया। अनेक तस्वीरें भी साझा नहीं कर पाया। जब भी लखनऊ जाएं तो दीदी जीजाजी के यहां एलबम देखें और वीडियो देखें। सभी को धन्यवाद। आभार।


Tuesday, December 5, 2023

'बेघर' होकर जो चला मैं...

केवल तिवारी


ये फ्लैट नहीं, सपनों का घर था मेरा 

मेरी बड़ी-बड़ी यादों का इसमें बसेरा

यहां जन्मी थीं कई कहानियां

अपनी खुशी और अपनी परेशानियां

मां का प्यार, बच्चों से लाड़,

हर मंजर की गवाह हर दीवार

समय और लोगों को बदलते देखना

अपने पथ पर चलना और चलते रहना

रुकता नहीं समय किसी के लिए

समय संग बदलते हैं हमारे ठीये

आज भले नहीं कोई अपना घर

कुछ देहरियों पर सकता हूं ठहर

चले चलो कि हम सब चलते रहें

इस राह में कुछ सुनें और कुछ कहें

कब किसी का रहा ये मकां, ये जमीं

अरमानों को समेटे चलो चलें कहीं।

पुराने घर के पास स्थित पार्क

वसुंधरा स्थित अपना फ्लैट (4109, सेक्टर 4 बी) को बेचकर जब लखनऊ के लिए रवानगी डाली तो लगा था कि थकान आदि हावी होगी और राह यूं ही कट जाएगी, लेकिन चेतन-अवचेतन मन में कुछ चल रहा था। जानी-अनजानी सी उधेड़बुन। 'बेघर' होने की बातें। मैं इन विचार मंथनों को सप्रयास दबाने का प्रयास कर रहा था। कभी बातचीत करके तो कभी कुछ गीत-संगीत का आनंद उठाकर, लेकिन मन है कि मान नहीं रहा था। जब मन में कुछ चलता रहा तो उंगलियां स्वत: ही कीबोर्ड पर दौड़ने लगीं। मन में एक उमंग थी लखनऊ जाकर पोते (भतीजे के बेटे) को देखने की। 

यही स्टेशन अनेक सालों तक मित्रों की गपशप का अड्डा बना।

करीब 20 साल पहले इसी घर (जिस घर को आज बेचकर आया था) में पोते का चाचा यानी मेरे बेटे कुक्कू का पहला जन्मदिन मनाया गया था। बेटा इसी मोहल्ले (वसुंधरा, गाजियाबाद) में पैदा हुआ था। वसुंधरा के इसी शिवगंगा अपार्टमेंट में। 

चित्र में दिख रहा यह बच्चा इसी घर में पांचवीं तक पढ़ा। आज बीटेक कर रहा है।

समस्त परिवार और प्यारा पोता


तब मैं किराए पर रहता था और बेटे के पहले जन्मदिन पर अपने इस घर में आ गया था जो अब मेरा नहीं रहा। मानवीय स्वभाव है, मन में कई बातें आनी ही थीं। तब मेरे बेटे के नामकरण पर लखनऊ से भाभी जी 10-12 साड़ियां लेकर आईं थीं। वह साड़ियां मैंने अपनी दीदीयों, बहनों व अन्य रिश्तेदारों-पहचान वालों को देनी थीं। आज मकान का निपटारा कर लखनऊ गया तो मन में यह उमंग थी कि लखनऊ जाकर पोते को देखना है, दूसरे अवचेतन मन में मकान को बेच देने की बातें घूम-फिर रही थीं। दिनभर तहसील में मित्र धीरज जी के साथ रहा। शाम को भोजन भी उन्हीं के घर हुआ। बड़े भाई साहब (जिन्हें हम बंबई वाले भाई साहब के नाम से जानते हैं) भी मिले। पिताजी से भी बातचीत हुई। जीने में हमारे लोकल गार्जन की तरह हमेशा हमारे साथ रहे शर्मा जी, उनका परिवार और भी कई लोग मिले। बची सिंह रावत जी ने तो इस सौदे की बात ही कराई थी और उनके यहां तो हमेशा ही आना-जाना रहा है और रहेगा। आपाधापी और एक अजीब सी शून्यता के कारण जल्दबाजी में कई लोगों से मुलाकात नहीं कर पाया। मैंने पूरे रास्ते भर कुछ गीत-संगीत सुनने का जतन किया। कभी फेसबुक के पन्ने पलटे। कुछ देर 'डिजिटल ब्रेक' लेने के उद्देश्य से मोबाइल बंद भी किया। नींद नहीं आई तो नहीं आई। (डायरी लेखन या फिर ब्लॉग लेखन ईश्वर संवाद रहा है मेरे लिए। इसलिए ईश्वर से संवाद में क्या बनावटीपन और क्या दुराव-छिपाव। क्या ईश्वर से छिपा है और क्या हम बता सकते हैं। हम तो चल रहे हैं, चलाने वाला तो वही है।) सो वह घर तो अपना नहीं रहा। अब किस्मत जहां ले जाएगी यह भविष्य के गर्भ में है। इस इलाके की बड़ी यादें हैं। एक समय था जब विभिन्न साथियों के साथ साहिबाबाद रेलवे स्टेशन से कनॉट प्लेस जाना होता था। कई वर्षों तक यही सफर किया। धीरे-धीरे समय बदला और लोग भी। कुछ के साथ संपर्क है। कुछ के साथ नहीं जैसा है और कुछ के साथ नहीं ही है, लेकिन यादें तो जेहन में घूमती ही हैं। अनेक लोगों की बातें मेरी डायरी में भी दर्ज हैं। मकान संबंधी कोई ब्लॉग जल्दी ही लिखने को मिले, ऐसी कामना है।

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इसी घर में किराए पर रहे लोगों की बातें और असलियत

इस घर को छोड़कर करीब एक दशक पहले जब मैं चंडीगढ़ आया था तब छह माह तक मेरा परिवार उसमें रहा। यानी पत्नी भावना, बेटे कुक्कू और धवल। उसके बाद पहले किराएदार अभिषेक वर्मा। बेहद नेक इंसान। पत्नी भी उतनी ही उत्सवधर्मिता वाली। वे लोग करीब दो साल रहे। फिर उन्होंने अपना घर ले लिया। उनकी बिटिया हमारे इसी घर में हुई। फिर आई आकांक्षा। कभी मेरे अधीन इंटर्नशिप की थी आज बाल-बच्चेदार है। वह एक साल रही। उसके बाद महानुभाव संजय शुक्ला। पहले-पहल लगा कि थोड़ा परेशान हैं। मैंने पूरा सहयोग किया। हालांकि मकान की किस्त रेगुलर जाती थी, लेकिन इनका दूसरे महीने से ही किराया इरेगुलर हो गया। अलबत्ता इन्होंने बीच में तीन-चार बार मुझे चंडीगढ़ से बुलवाकर घर का काम करवाया। इसमें मेरे करीब दो लाख रुपया लगा। इनके चक्कर में अपने पड़ोसी त्यागी जी से बहस हुई। इनके चक्कर में दो-तीन पर बिजली कनेक्शन कटने की नौबत आ गयी। पीएनजी कनेक्शन भी कट जाता, लेकिन वहां ऐसा प्रावधान नहीं है। उसका दो हजार का बिल आज एक दिसंबर, 2023 को मैंने भरा। कहां तक संजय शुक्ला जी की गाथाएं गाएं। अंतिम मामला यह है कि एक महीने का किराया नहीं दिया और बार-बार कहने पर भी पीएनजी बिल नहीं भरा। कुछ दिनों से मेरा फोन उठाना और मेरे व्हाट्सएप मैसेज देखने भी बंद कर दिए। भगवान इनको सुखी रहे। अच्छा हुआ ये आगे यहां नहीं रहे, जैसा कि नये मकान मालिक बृजमोहन शर्मा जी कह रहे थे कि वे चाहें तो यहां रहना जारी रख सकते हैं। खैर... ये ब्लॉग इसलिए लिखा कि ब्लॉग या डायरी लेखन मेरे लिए ईश्वर संवाद है और ईश्वर से संवाद कर लिया अब इनकी मर्जी। फिलहाल तो में 'बेघर' हूं। अलबत्ता चंडीगढ़ में ट्रिब्यून ऑफिस के जरिये मिले घर को अपना मानता हूं और डायरी लेखन में उसे 'अपना घर' से ही संबोधित करता हूं।