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Tuesday, December 5, 2023

'बेघर' होकर जो चला मैं...

केवल तिवारी


ये फ्लैट नहीं, सपनों का घर था मेरा 

मेरी बड़ी-बड़ी यादों का इसमें बसेरा

यहां जन्मी थीं कई कहानियां

अपनी खुशी और अपनी परेशानियां

मां का प्यार, बच्चों से लाड़,

हर मंजर की गवाह हर दीवार

समय और लोगों को बदलते देखना

अपने पथ पर चलना और चलते रहना

रुकता नहीं समय किसी के लिए

समय संग बदलते हैं हमारे ठीये

आज भले नहीं कोई अपना घर

कुछ देहरियों पर सकता हूं ठहर

चले चलो कि हम सब चलते रहें

इस राह में कुछ सुनें और कुछ कहें

कब किसी का रहा ये मकां, ये जमीं

अरमानों को समेटे चलो चलें कहीं।

पुराने घर के पास स्थित पार्क

वसुंधरा स्थित अपना फ्लैट (4109, सेक्टर 4 बी) को बेचकर जब लखनऊ के लिए रवानगी डाली तो लगा था कि थकान आदि हावी होगी और राह यूं ही कट जाएगी, लेकिन चेतन-अवचेतन मन में कुछ चल रहा था। जानी-अनजानी सी उधेड़बुन। 'बेघर' होने की बातें। मैं इन विचार मंथनों को सप्रयास दबाने का प्रयास कर रहा था। कभी बातचीत करके तो कभी कुछ गीत-संगीत का आनंद उठाकर, लेकिन मन है कि मान नहीं रहा था। जब मन में कुछ चलता रहा तो उंगलियां स्वत: ही कीबोर्ड पर दौड़ने लगीं। मन में एक उमंग थी लखनऊ जाकर पोते (भतीजे के बेटे) को देखने की। 

यही स्टेशन अनेक सालों तक मित्रों की गपशप का अड्डा बना।

करीब 20 साल पहले इसी घर (जिस घर को आज बेचकर आया था) में पोते का चाचा यानी मेरे बेटे कुक्कू का पहला जन्मदिन मनाया गया था। बेटा इसी मोहल्ले (वसुंधरा, गाजियाबाद) में पैदा हुआ था। वसुंधरा के इसी शिवगंगा अपार्टमेंट में। 

चित्र में दिख रहा यह बच्चा इसी घर में पांचवीं तक पढ़ा। आज बीटेक कर रहा है।

समस्त परिवार और प्यारा पोता


तब मैं किराए पर रहता था और बेटे के पहले जन्मदिन पर अपने इस घर में आ गया था जो अब मेरा नहीं रहा। मानवीय स्वभाव है, मन में कई बातें आनी ही थीं। तब मेरे बेटे के नामकरण पर लखनऊ से भाभी जी 10-12 साड़ियां लेकर आईं थीं। वह साड़ियां मैंने अपनी दीदीयों, बहनों व अन्य रिश्तेदारों-पहचान वालों को देनी थीं। आज मकान का निपटारा कर लखनऊ गया तो मन में यह उमंग थी कि लखनऊ जाकर पोते को देखना है, दूसरे अवचेतन मन में मकान को बेच देने की बातें घूम-फिर रही थीं। दिनभर तहसील में मित्र धीरज जी के साथ रहा। शाम को भोजन भी उन्हीं के घर हुआ। बड़े भाई साहब (जिन्हें हम बंबई वाले भाई साहब के नाम से जानते हैं) भी मिले। पिताजी से भी बातचीत हुई। जीने में हमारे लोकल गार्जन की तरह हमेशा हमारे साथ रहे शर्मा जी, उनका परिवार और भी कई लोग मिले। बची सिंह रावत जी ने तो इस सौदे की बात ही कराई थी और उनके यहां तो हमेशा ही आना-जाना रहा है और रहेगा। आपाधापी और एक अजीब सी शून्यता के कारण जल्दबाजी में कई लोगों से मुलाकात नहीं कर पाया। मैंने पूरे रास्ते भर कुछ गीत-संगीत सुनने का जतन किया। कभी फेसबुक के पन्ने पलटे। कुछ देर 'डिजिटल ब्रेक' लेने के उद्देश्य से मोबाइल बंद भी किया। नींद नहीं आई तो नहीं आई। (डायरी लेखन या फिर ब्लॉग लेखन ईश्वर संवाद रहा है मेरे लिए। इसलिए ईश्वर से संवाद में क्या बनावटीपन और क्या दुराव-छिपाव। क्या ईश्वर से छिपा है और क्या हम बता सकते हैं। हम तो चल रहे हैं, चलाने वाला तो वही है।) सो वह घर तो अपना नहीं रहा। अब किस्मत जहां ले जाएगी यह भविष्य के गर्भ में है। इस इलाके की बड़ी यादें हैं। एक समय था जब विभिन्न साथियों के साथ साहिबाबाद रेलवे स्टेशन से कनॉट प्लेस जाना होता था। कई वर्षों तक यही सफर किया। धीरे-धीरे समय बदला और लोग भी। कुछ के साथ संपर्क है। कुछ के साथ नहीं जैसा है और कुछ के साथ नहीं ही है, लेकिन यादें तो जेहन में घूमती ही हैं। अनेक लोगों की बातें मेरी डायरी में भी दर्ज हैं। मकान संबंधी कोई ब्लॉग जल्दी ही लिखने को मिले, ऐसी कामना है।

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इसी घर में किराए पर रहे लोगों की बातें और असलियत

इस घर को छोड़कर करीब एक दशक पहले जब मैं चंडीगढ़ आया था तब छह माह तक मेरा परिवार उसमें रहा। यानी पत्नी भावना, बेटे कुक्कू और धवल। उसके बाद पहले किराएदार अभिषेक वर्मा। बेहद नेक इंसान। पत्नी भी उतनी ही उत्सवधर्मिता वाली। वे लोग करीब दो साल रहे। फिर उन्होंने अपना घर ले लिया। उनकी बिटिया हमारे इसी घर में हुई। फिर आई आकांक्षा। कभी मेरे अधीन इंटर्नशिप की थी आज बाल-बच्चेदार है। वह एक साल रही। उसके बाद महानुभाव संजय शुक्ला। पहले-पहल लगा कि थोड़ा परेशान हैं। मैंने पूरा सहयोग किया। हालांकि मकान की किस्त रेगुलर जाती थी, लेकिन इनका दूसरे महीने से ही किराया इरेगुलर हो गया। अलबत्ता इन्होंने बीच में तीन-चार बार मुझे चंडीगढ़ से बुलवाकर घर का काम करवाया। इसमें मेरे करीब दो लाख रुपया लगा। इनके चक्कर में अपने पड़ोसी त्यागी जी से बहस हुई। इनके चक्कर में दो-तीन पर बिजली कनेक्शन कटने की नौबत आ गयी। पीएनजी कनेक्शन भी कट जाता, लेकिन वहां ऐसा प्रावधान नहीं है। उसका दो हजार का बिल आज एक दिसंबर, 2023 को मैंने भरा। कहां तक संजय शुक्ला जी की गाथाएं गाएं। अंतिम मामला यह है कि एक महीने का किराया नहीं दिया और बार-बार कहने पर भी पीएनजी बिल नहीं भरा। कुछ दिनों से मेरा फोन उठाना और मेरे व्हाट्सएप मैसेज देखने भी बंद कर दिए। भगवान इनको सुखी रहे। अच्छा हुआ ये आगे यहां नहीं रहे, जैसा कि नये मकान मालिक बृजमोहन शर्मा जी कह रहे थे कि वे चाहें तो यहां रहना जारी रख सकते हैं। खैर... ये ब्लॉग इसलिए लिखा कि ब्लॉग या डायरी लेखन मेरे लिए ईश्वर संवाद है और ईश्वर से संवाद कर लिया अब इनकी मर्जी। फिलहाल तो में 'बेघर' हूं। अलबत्ता चंडीगढ़ में ट्रिब्यून ऑफिस के जरिये मिले घर को अपना मानता हूं और डायरी लेखन में उसे 'अपना घर' से ही संबोधित करता हूं।

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