story कहानी (sparrow)
गर्मियां शुरू होने पर दो बातें हमेशा कुछ परेशान सा करती हैं। मुझसे ज्यादा मेरी पत्नी और बच्चे को। एक समस्या को पत्नी अपने हिसाब से कम ज्यादा मान बैठती है, दूसरी शाश्वत समस्या है। इन समस्याओं में एक तो कूलर अपने मन से शुरू न कर पाने का दंश और दूसरा बच्चे के स्कूल से मिला भारी-भरकम होमवर्क। कूलर हम कई बार इसलिए अपने मन से नहीं खोल पाते क्योंकि अक्सर हमारा कूलर कबूतरों के लिए 'मैटरनिटी सेंटर" बन जाता है। कूलर खोलते ही कभी वहां कबूतरनी अंडों को सेती हुई दिखती है और कभी छोटे-छोटे बच्चों के मुंह में खाने का कुछ सामान ठूंसती हुई सी। कबूतरों का मेरे कूलर के प्रति प्रेम कई वर्षों से है। जब मेरी मां जीवित थी, कहा करती थी घर में चिड़ियों का घौंसला बनाना बहुत शुभ होता है। किराए के एक मकान में एक बार कबूतर ने हमारे घर में घौसला बनाया, अंडे दिए और उसके बच्चे हमारे सामने उड़े। उसके कुछ माह बाद मेरे घर में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। घौंसला बनाना और उसमें बच्चे होना शुभ होता है, यह बात मेरी पत्नी के दिमाग में घर कर गई है। लेकिन कबूतरों के प्रति मेरे मन में स्नेह कभी नहीं पनप पाया। उल्टे एक बार चोरी-छिपे मैंने उसके घौंसेले को तोड़ दिया था। असल में उसका घौंसला अभी बन ही रहा था कि गर्मियों ने ऐसा तेवर दिखाना शुरू कर दिया कि कूलर की जरूरत महसूस होने लगी। मेरी पत्नी ने ताकीद की कि कूलर की सफाई करने में मेरी मदद करो। मैंने तुरंत हां कर दी और काम की शुरुआत पहले मैं ही करने को इसलिए राजी हो गया क्योंकि मुझे पूरी आशंका थी कि घौंसला देखते ही वह कूलर वाली खिड़की के किवाड़ बंद कर देगी। और न जाने दिन ये किवाड़ बंद कर देंगे। हो सकता पूरी गर्मी भर। इस आशंका को भांपते हुए मैंने पत्नी को चाय बनाने भेजा और कूलर वाली खिड़की खोलने लगा, देखा कबूतरों का एक जोड़ा अपना घर बनाने में मशगूल है। खिड़की खोलते ही जोड़ा तो उड़ गया, लेकिन आशियाना लगभग तैयार था। मैंने सबसे पहले उसे उठाकर नीचे फेंक दिया। असल में हमारे पूरे मोहल्ले में इतने अधिक कबूतर हैं कि हर समय वही चारों तरफ दिखते हैं। जहां बैठे तुरंत गंदगी कर देते हैं। बालकनी को दिनभर साफ करते रहो। कपड़े तार में डाले नहीं कि तुरंत गंदा कर दिया। आलम तो यह था कि इधर कूलर अंदर खिसकाने की आवाज सुनते ही पत्नी आई और बोली कोई घौंसला तो नहीं बनाया है न कबूतरों ने। मैंने कहा नहीं। उसने अच्छा इतनी जोर से कहा, जैसे आश्चर्य और खुशी दोनों बातें उसमें मिली हुईं थी। खैर वह गर्मी हमारी ठीक कटी। कूलर चलने के बाद जब तक वह रोज खुलता, बंद होता कोई पक्षी वहां अपना आशियाना बसाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। उन्होंने आसपास अपना ठौर ढूंढ़ लिया। वह वर्ष बच्चे के स्कूल का पहला साल था, इसलिए होमवर्क भी बहुत नहीं मिला था और वह गर्मी हमारे लिए बहुत अच्छी बीती।
इस साल भी गर्मी भयानक पड़ी और गर्मी शुरू होने से पहले से ही कबूतरों का खौफ मेरे मन में था। माताजी वाले कमरे का कूलर हमने अंदर ही निकाल रखा था। क्योंकि मां अब इस दुनिया में रही नहीं, वह कमरा अमूमन खाली भी रहता है। कभी कोई मेहमान आ गया तो ठीक। या फिर टीवी देखना हो या खाना खाना हो तो हम उस कमरे का इस्तेमाल करते हैं। उस कमरे के कूलर को पहले से इसलिए अंदर निकालकर रख दिया गया कि कहीं दूसरे कूलर के पास अंडे-बच्चे हो गए तो इस कूलर का इस्तेमाल किया जा सकेगा। दूसरे कमरे के कूलर के आसपास भी मैं कबूतरों को फटकने नहीं दे रहा था। होते-करते कबूतर मुक्त कूलर की खिड़की हमें मिल गई, लेकिन उनका अड्डा बालकनी और अन्य स्थानों पर होने लगा। उनकी संख्या लगातार इस कदर बढ़ रही थी कभी-कबार पत्नी भी झल्ला जाती। खासतौर पर तब जब उसे धुले कपड़े दोबारा धोने पड़ते। इस गर्मी में कूलर तो गर्मी शुरू होते ही चल निकला, लेकिन बच्चे को होमवर्क अच्छा-खासा मिल गया। खैर यह होम वर्क तो मिलना ही था, इसलिए यह मान लिया गया कि कोई बात नहीं, किसी तरह से कराएंगे। बच्चा अपनी मां के साथ लखनऊ एक विवाह समारोह में चला गया और योजना बनी कि कुछ दिन वहां मेरे बड़े भाई के घर रहा जाए। बच्चा अपने ताऊ और ताई के साथ रहना और मौज-मस्ती करना बहुत पसंद करता है। इधर छोटे से बच्चे को भी अपने होमवर्क की बहुत चिंता थी। मैंने भरोसा दिलाया कि कुछ काम लखनऊ में पूरा हो जाएगा। मेरी दीदी का छोटा बेटा कुछ करा देगा और कूुछ काम मैं पूरा करा दूंगा। उसको मिले तमाम कामों में एक यह भी शामिल था, जिसमें पांच प्रकार की चिड़ियों के पंखों को एकत्र करना था। मैंने इस काम को पूरा करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। घर में अकेला था। एक दिन सुबह देर से उठा, बालकनी का दरवाजा खुला तो देखा वहां गौरैया इधर-उधर घूम रही है। कबूतरों से नफरत करने वाला मैं गौरैया को देखते ही बहुत खुश हो गया। मुझे इस बात का दुख हुआ कि मेरे पास कैमरा नहीं है। एक पुराना कैमरा है भी तो रील वाला, उसमें रील नहीं है। मेरे बालकनी में जाने से वह भाग नहीं जाए, इस आशंका से मैं अंदर आ गया। जिज्ञासावश थोड़ी देर बाद मैं फिर बालकनी मैं गया। मैंने चारों तरफ देखा मुझे गौरैया नहीं दिखी। मुझे तमाम उन खबरों की जानकारी थी, जिसमें कहा जा रहा था कि गौरैया अब कहीं नहीं दिखती। उनकी प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर है। मुझेे लगा हो न हो मेरा भ्रम रहा होगा। वह पंछी गौरैया तो नहीं रही होगी। तभी मैंने देखा फुर्र से उड़ती हुई बालकनी की छत से गौरैया सामने की छत की तरफ उड़ गई। मैंने जिज्ञासावश बालकनी की छत की ओर देखा। वहां पंखा लगाने के लिए बने बिजली के बड़े छेदनुमा गोले में कुछ घासफूस लटकती दिखाई दी। गौरैया मेरे घर में घौंसला बना रही है। मैं इतना खुश हो गया मानो मुझे कोई खजाना मिल गया हो। मैंने बालकनी में कुछ चावल के दाने बिखेर दिए और बालकनी बंद कर कमरे में आ गया। अब मैं दरवाजे के छेद से देख रहा था, गौरैया बार-बार उन दानों को उठाती। फिर कहीं से तिनका लाती और बालकनी की छत में अपने आशियाना बनाने में मशगूल हो जाती। मैं मन ही मन बहुत खुश हुआ कि चलो शायद गौरैया जिसके बारे में कहा जा रहा है कि विलुप्त होने वाली है अब कुछ बच्चों को यहां जनेगी। अब मेरी जिज्ञासा रोज बढ़ती। सुबह उठकर मेरा पहला काम उस घौंसले की तरफ देखना होता था। नीचे रखे गमले में मैं कुछ पानी भर देता। शायद इसमें से वह पानी पी लेगी। एक दिन तो मेरी खुशी सातवें आसमान पर थी। मैंने देखा गौरैया का छोटा सा बच्चा मुंह खोलकर चूं-चूं कर रहा है और उसकी मां इधर-उधर से कुछ लाकर उसके मुंह में डाल रही है। कई बार टुकड़ा बड़ा होता तो नीचे गिर जाता। गौरैया फट से नीचे आती उस गिरे टुकड़े को उठाकर ले जाती और अपने बच्चे के मुंह में डाल देती। इस बार आश्चर्यजनक यह था कि मेरे वहां खड़े होने पर भी गौरैया डर के मारे भाग नहीं रही थी। मैं यह देखकर कुछ चावल के दाने और ले आया। मेरे सामने ही गौरैया उन दानों पर टूट पड़ी। मैंने फिर बालकनी का दरवाजा बंद किया और अपने काम में मगन हो गया। मन किया कि लखनऊ फोन करके बताऊं कि गौरैया ने एक घौंसला बनाया है। बालकनी की छत पर। उसका बच्चा भी हो गया है। शायद मेरी पत्नी बहुत प्रसन्न् हो। इसलिए कि अक्सर कबूतरों को भगाने और उन्हें घौसला नहीं बनाने देने को आतुर एक चिड़िया का घौंसला देखकर कितना खुश हो रहा है। लेकिन एक हफ्ते बाद वे लोग आ ही जाएंगे, फिर उन्हें सारा नजारा दिखाऊंगा, यह सोचकर मैंने फोन नहीं किया। लेकिन कैमरा नहीं होने का दुख मुझे सालता रहा। मैं बालकनी बंद कर घर में आ गया और नहाने के बाद ऑफिस के निकल गया। ऑफिस के रास्ते में अनेक मित्र मिले, मैंने सबसे गौरैया के घौंसले की बात बताई। किसी ने कहा, वाह कितनी अच्छी बात है। ज्यादातर ने यह कहा कि गौरैया का घौंसला बनाना तो बहुत शुभ होता है। इधर बच्चे के होमवर्क के लिए चिड़ियों के पंख एकत्र करने की बात मुझे याद आई। कबूतरों के तो अनगिनत पंख मेरे इर्द-गिर्द रहते हैं, कभी-कबार देसी मैना भी दिख जाती है। मैंने कहा, पंख एकत्र हो ही जाएंगे। मेरे मन में इन दिनों रोज-रोज बढ़ते गौरैया के बच्चे को लेकर उत्सुकता बनी हुई थी। मैं कल्पना करता काश! यहीं गौरैया अपना स्थायी निवास बना ले। यह बच्चा हो, इसके बच्चे हों। कभी दूसरी गौरैया आए। इस तरह के तमाम खयाल मेरे मन में आते। गौरैया परिवार की चर्चा भी अक्सर अपने मित्रों से करता। खैर एक दिन गौरैया के बच्चे को अपनी मां के मुंह से रोटी का छोटा सा टुकड़ा खाता देख मैं ऑफिस चला गया। अगले दिन मैं किसी मित्र के यहां रात में रुक गया। उसकी अगली दोपहर घर पहुंचा तो सबसे पहले बालकनी में पहुंचा। बालकनी में बच्चा जो धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था उल्टा लटका हुआ था। वह अक्सर तब भी ऐसे ही लटकता दिखता था जब उसकी मां उसे खाना खिलाती थी। मैं दो-चार मिनट तक उसे लगातार देखता रहा। मेरा दिल धक कर रहा था। उसमें कोई हरकत नहीं दिख रही थी। उसकी मां भी कहीं नहीं दिखरही थी। एक दिन पहले वहां डाले चावल के दानों में से कुछ किनारे पर पड़े हुए थे। मैं कुछ समझ नहीं पाया। मैंने कुर्सी लगाकर जोरदार तरीके से ताली बजाई। लेकिन बच्चे में कोई हरकत नहीं हुई। वह बस उसी अंदाज में उल्टा लटका हुआ था। मैंने गौर से देखा कि बच्चा मर चुका था। उसकी मां गायब थी। मैं अंदर आकर धम से बैठ गया। मन बहुत खिन्न् हो गया। कभी इधर जाता, कभी इधर। पानी पीने को भी मेरा मन नहीं हुआ। फिर बालकनी में गया, मरे हुए बच्चे का एक पंख नीचे गिर गया। मैं समझ नहीं पा रहा था कि इस पंख को अपने बच्चे के होमवर्क के लिए सहेज कर रख लूं या उड़ जाने दूं।
केवल तिवारी
गर्मियां शुरू होने पर दो बातें हमेशा कुछ परेशान सा करती हैं। मुझसे ज्यादा मेरी पत्नी और बच्चे को। एक समस्या को पत्नी अपने हिसाब से कम ज्यादा मान बैठती है, दूसरी शाश्वत समस्या है। इन समस्याओं में एक तो कूलर अपने मन से शुरू न कर पाने का दंश और दूसरा बच्चे के स्कूल से मिला भारी-भरकम होमवर्क। कूलर हम कई बार इसलिए अपने मन से नहीं खोल पाते क्योंकि अक्सर हमारा कूलर कबूतरों के लिए 'मैटरनिटी सेंटर" बन जाता है। कूलर खोलते ही कभी वहां कबूतरनी अंडों को सेती हुई दिखती है और कभी छोटे-छोटे बच्चों के मुंह में खाने का कुछ सामान ठूंसती हुई सी। कबूतरों का मेरे कूलर के प्रति प्रेम कई वर्षों से है। जब मेरी मां जीवित थी, कहा करती थी घर में चिड़ियों का घौंसला बनाना बहुत शुभ होता है। किराए के एक मकान में एक बार कबूतर ने हमारे घर में घौसला बनाया, अंडे दिए और उसके बच्चे हमारे सामने उड़े। उसके कुछ माह बाद मेरे घर में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। घौंसला बनाना और उसमें बच्चे होना शुभ होता है, यह बात मेरी पत्नी के दिमाग में घर कर गई है। लेकिन कबूतरों के प्रति मेरे मन में स्नेह कभी नहीं पनप पाया। उल्टे एक बार चोरी-छिपे मैंने उसके घौंसेले को तोड़ दिया था। असल में उसका घौंसला अभी बन ही रहा था कि गर्मियों ने ऐसा तेवर दिखाना शुरू कर दिया कि कूलर की जरूरत महसूस होने लगी। मेरी पत्नी ने ताकीद की कि कूलर की सफाई करने में मेरी मदद करो। मैंने तुरंत हां कर दी और काम की शुरुआत पहले मैं ही करने को इसलिए राजी हो गया क्योंकि मुझे पूरी आशंका थी कि घौंसला देखते ही वह कूलर वाली खिड़की के किवाड़ बंद कर देगी। और न जाने दिन ये किवाड़ बंद कर देंगे। हो सकता पूरी गर्मी भर। इस आशंका को भांपते हुए मैंने पत्नी को चाय बनाने भेजा और कूलर वाली खिड़की खोलने लगा, देखा कबूतरों का एक जोड़ा अपना घर बनाने में मशगूल है। खिड़की खोलते ही जोड़ा तो उड़ गया, लेकिन आशियाना लगभग तैयार था। मैंने सबसे पहले उसे उठाकर नीचे फेंक दिया। असल में हमारे पूरे मोहल्ले में इतने अधिक कबूतर हैं कि हर समय वही चारों तरफ दिखते हैं। जहां बैठे तुरंत गंदगी कर देते हैं। बालकनी को दिनभर साफ करते रहो। कपड़े तार में डाले नहीं कि तुरंत गंदा कर दिया। आलम तो यह था कि इधर कूलर अंदर खिसकाने की आवाज सुनते ही पत्नी आई और बोली कोई घौंसला तो नहीं बनाया है न कबूतरों ने। मैंने कहा नहीं। उसने अच्छा इतनी जोर से कहा, जैसे आश्चर्य और खुशी दोनों बातें उसमें मिली हुईं थी। खैर वह गर्मी हमारी ठीक कटी। कूलर चलने के बाद जब तक वह रोज खुलता, बंद होता कोई पक्षी वहां अपना आशियाना बसाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। उन्होंने आसपास अपना ठौर ढूंढ़ लिया। वह वर्ष बच्चे के स्कूल का पहला साल था, इसलिए होमवर्क भी बहुत नहीं मिला था और वह गर्मी हमारे लिए बहुत अच्छी बीती।
इस साल भी गर्मी भयानक पड़ी और गर्मी शुरू होने से पहले से ही कबूतरों का खौफ मेरे मन में था। माताजी वाले कमरे का कूलर हमने अंदर ही निकाल रखा था। क्योंकि मां अब इस दुनिया में रही नहीं, वह कमरा अमूमन खाली भी रहता है। कभी कोई मेहमान आ गया तो ठीक। या फिर टीवी देखना हो या खाना खाना हो तो हम उस कमरे का इस्तेमाल करते हैं। उस कमरे के कूलर को पहले से इसलिए अंदर निकालकर रख दिया गया कि कहीं दूसरे कूलर के पास अंडे-बच्चे हो गए तो इस कूलर का इस्तेमाल किया जा सकेगा। दूसरे कमरे के कूलर के आसपास भी मैं कबूतरों को फटकने नहीं दे रहा था। होते-करते कबूतर मुक्त कूलर की खिड़की हमें मिल गई, लेकिन उनका अड्डा बालकनी और अन्य स्थानों पर होने लगा। उनकी संख्या लगातार इस कदर बढ़ रही थी कभी-कबार पत्नी भी झल्ला जाती। खासतौर पर तब जब उसे धुले कपड़े दोबारा धोने पड़ते। इस गर्मी में कूलर तो गर्मी शुरू होते ही चल निकला, लेकिन बच्चे को होमवर्क अच्छा-खासा मिल गया। खैर यह होम वर्क तो मिलना ही था, इसलिए यह मान लिया गया कि कोई बात नहीं, किसी तरह से कराएंगे। बच्चा अपनी मां के साथ लखनऊ एक विवाह समारोह में चला गया और योजना बनी कि कुछ दिन वहां मेरे बड़े भाई के घर रहा जाए। बच्चा अपने ताऊ और ताई के साथ रहना और मौज-मस्ती करना बहुत पसंद करता है। इधर छोटे से बच्चे को भी अपने होमवर्क की बहुत चिंता थी। मैंने भरोसा दिलाया कि कुछ काम लखनऊ में पूरा हो जाएगा। मेरी दीदी का छोटा बेटा कुछ करा देगा और कूुछ काम मैं पूरा करा दूंगा। उसको मिले तमाम कामों में एक यह भी शामिल था, जिसमें पांच प्रकार की चिड़ियों के पंखों को एकत्र करना था। मैंने इस काम को पूरा करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। घर में अकेला था। एक दिन सुबह देर से उठा, बालकनी का दरवाजा खुला तो देखा वहां गौरैया इधर-उधर घूम रही है। कबूतरों से नफरत करने वाला मैं गौरैया को देखते ही बहुत खुश हो गया। मुझे इस बात का दुख हुआ कि मेरे पास कैमरा नहीं है। एक पुराना कैमरा है भी तो रील वाला, उसमें रील नहीं है। मेरे बालकनी में जाने से वह भाग नहीं जाए, इस आशंका से मैं अंदर आ गया। जिज्ञासावश थोड़ी देर बाद मैं फिर बालकनी मैं गया। मैंने चारों तरफ देखा मुझे गौरैया नहीं दिखी। मुझे तमाम उन खबरों की जानकारी थी, जिसमें कहा जा रहा था कि गौरैया अब कहीं नहीं दिखती। उनकी प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर है। मुझेे लगा हो न हो मेरा भ्रम रहा होगा। वह पंछी गौरैया तो नहीं रही होगी। तभी मैंने देखा फुर्र से उड़ती हुई बालकनी की छत से गौरैया सामने की छत की तरफ उड़ गई। मैंने जिज्ञासावश बालकनी की छत की ओर देखा। वहां पंखा लगाने के लिए बने बिजली के बड़े छेदनुमा गोले में कुछ घासफूस लटकती दिखाई दी। गौरैया मेरे घर में घौंसला बना रही है। मैं इतना खुश हो गया मानो मुझे कोई खजाना मिल गया हो। मैंने बालकनी में कुछ चावल के दाने बिखेर दिए और बालकनी बंद कर कमरे में आ गया। अब मैं दरवाजे के छेद से देख रहा था, गौरैया बार-बार उन दानों को उठाती। फिर कहीं से तिनका लाती और बालकनी की छत में अपने आशियाना बनाने में मशगूल हो जाती। मैं मन ही मन बहुत खुश हुआ कि चलो शायद गौरैया जिसके बारे में कहा जा रहा है कि विलुप्त होने वाली है अब कुछ बच्चों को यहां जनेगी। अब मेरी जिज्ञासा रोज बढ़ती। सुबह उठकर मेरा पहला काम उस घौंसले की तरफ देखना होता था। नीचे रखे गमले में मैं कुछ पानी भर देता। शायद इसमें से वह पानी पी लेगी। एक दिन तो मेरी खुशी सातवें आसमान पर थी। मैंने देखा गौरैया का छोटा सा बच्चा मुंह खोलकर चूं-चूं कर रहा है और उसकी मां इधर-उधर से कुछ लाकर उसके मुंह में डाल रही है। कई बार टुकड़ा बड़ा होता तो नीचे गिर जाता। गौरैया फट से नीचे आती उस गिरे टुकड़े को उठाकर ले जाती और अपने बच्चे के मुंह में डाल देती। इस बार आश्चर्यजनक यह था कि मेरे वहां खड़े होने पर भी गौरैया डर के मारे भाग नहीं रही थी। मैं यह देखकर कुछ चावल के दाने और ले आया। मेरे सामने ही गौरैया उन दानों पर टूट पड़ी। मैंने फिर बालकनी का दरवाजा बंद किया और अपने काम में मगन हो गया। मन किया कि लखनऊ फोन करके बताऊं कि गौरैया ने एक घौंसला बनाया है। बालकनी की छत पर। उसका बच्चा भी हो गया है। शायद मेरी पत्नी बहुत प्रसन्न् हो। इसलिए कि अक्सर कबूतरों को भगाने और उन्हें घौसला नहीं बनाने देने को आतुर एक चिड़िया का घौंसला देखकर कितना खुश हो रहा है। लेकिन एक हफ्ते बाद वे लोग आ ही जाएंगे, फिर उन्हें सारा नजारा दिखाऊंगा, यह सोचकर मैंने फोन नहीं किया। लेकिन कैमरा नहीं होने का दुख मुझे सालता रहा। मैं बालकनी बंद कर घर में आ गया और नहाने के बाद ऑफिस के निकल गया। ऑफिस के रास्ते में अनेक मित्र मिले, मैंने सबसे गौरैया के घौंसले की बात बताई। किसी ने कहा, वाह कितनी अच्छी बात है। ज्यादातर ने यह कहा कि गौरैया का घौंसला बनाना तो बहुत शुभ होता है। इधर बच्चे के होमवर्क के लिए चिड़ियों के पंख एकत्र करने की बात मुझे याद आई। कबूतरों के तो अनगिनत पंख मेरे इर्द-गिर्द रहते हैं, कभी-कबार देसी मैना भी दिख जाती है। मैंने कहा, पंख एकत्र हो ही जाएंगे। मेरे मन में इन दिनों रोज-रोज बढ़ते गौरैया के बच्चे को लेकर उत्सुकता बनी हुई थी। मैं कल्पना करता काश! यहीं गौरैया अपना स्थायी निवास बना ले। यह बच्चा हो, इसके बच्चे हों। कभी दूसरी गौरैया आए। इस तरह के तमाम खयाल मेरे मन में आते। गौरैया परिवार की चर्चा भी अक्सर अपने मित्रों से करता। खैर एक दिन गौरैया के बच्चे को अपनी मां के मुंह से रोटी का छोटा सा टुकड़ा खाता देख मैं ऑफिस चला गया। अगले दिन मैं किसी मित्र के यहां रात में रुक गया। उसकी अगली दोपहर घर पहुंचा तो सबसे पहले बालकनी में पहुंचा। बालकनी में बच्चा जो धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था उल्टा लटका हुआ था। वह अक्सर तब भी ऐसे ही लटकता दिखता था जब उसकी मां उसे खाना खिलाती थी। मैं दो-चार मिनट तक उसे लगातार देखता रहा। मेरा दिल धक कर रहा था। उसमें कोई हरकत नहीं दिख रही थी। उसकी मां भी कहीं नहीं दिखरही थी। एक दिन पहले वहां डाले चावल के दानों में से कुछ किनारे पर पड़े हुए थे। मैं कुछ समझ नहीं पाया। मैंने कुर्सी लगाकर जोरदार तरीके से ताली बजाई। लेकिन बच्चे में कोई हरकत नहीं हुई। वह बस उसी अंदाज में उल्टा लटका हुआ था। मैंने गौर से देखा कि बच्चा मर चुका था। उसकी मां गायब थी। मैं अंदर आकर धम से बैठ गया। मन बहुत खिन्न् हो गया। कभी इधर जाता, कभी इधर। पानी पीने को भी मेरा मन नहीं हुआ। फिर बालकनी में गया, मरे हुए बच्चे का एक पंख नीचे गिर गया। मैं समझ नहीं पा रहा था कि इस पंख को अपने बच्चे के होमवर्क के लिए सहेज कर रख लूं या उड़ जाने दूं।
केवल तिवारी
2 comments:
This story is 4 birds lovers n iam 1.vry gud narration,theme 2da point n straight vd realistic approach
इस कहानी को बहुत प्रशंसा मिली
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