हवा
में ठंडक, पर चुभने वाली नहीं। दूर-दूर तक एक अनोखा नजारा। मानो सीढ़ीनुमा
खेतों पर किसी ने दिवाली मनाई हो। अचानक नजर चांद पर गयी, अरे इतना विशाल
और इतने नजदीक। चांद की ओर देखने पर लगा मानो हमसे कह रहा हो, इस वक्त तो
मेरा सीना भी तन ही जाएगा सामने इतनी ऊंचाई पर तिरंगा जो फहरा रहा है। एक
तो समुद्र तल से 2076 फुट की ऊंचाई। उस पर 100 फुट का ऊंचा ध्वज प्रवर्तक
शिला और ऊपर शान से लहराता तिरंगा। वाकई नजारा बहुत मनमोहक था। यह था शिमला
का रिज मैदान। तारीख 22 नवंबर, 2018...इतना खूबसूरत नजारा और साथ में तीन
प्यारे भांजे, दीदी और जीजाजी। रिज के पास ही चर्च पर पड़ती रोशनी। देश और
विदेश से आये लोगों का जमघट। मन कर रहा था बस यूं ही वहां घूमते रहें।
बातें करते रहें। फोटो खींचने की बातें हुईं। कभी सब एक साथ खड़े होकर और
कभी अकेले-अकेले। लखनऊ से भांजा कुणाल, गौरव और बेंगलुरू से आया था सौरभ।
मुझसे कोई चार साल बड़ी शीला दीदी और जीजा जी (पूरन चंद्र जोशी) दो दिन
पहले ये सब लोग चंडीगढ़ पहुंचे थे। दिल्ली से घूमते हुए। इन दिनों मेरी पत्नी आराम कर रही हैं, आपरेशन के बाद। यानी कहीं सफर नहीं कर सकतीं। बच्चों की परीक्षाएं थीं, इसलिए उनका
शिमला आना तो नहीं हो पाया, अलबत्ता वे लोग एक दिन पहले और एक दिन बाद में
साथ रहे। लोकल ही कुछ देर साथ घूमे।
रात के वक्त रिज पर खड़े तीनों भांजे |
टॉय ट्रेन का वह बेहतरीन सफर
21 तारीख
की शाम को ही कार्यक्रम बना कि शिमला टॉय ट्रेन से चलेंगे। इससे पहले
ज्वालाजी या चिंतपूर्णी जाने का कार्यक्रम बन रहा था। दीदी-जीजाजी और मैं
भी वहां जाना चाहते थे। लेकिन बच्चों का मन शिमला जाने और चिंतपूर्णी तक
जाने की प्रॉपर व्यवस्था न हो पाने के कारण यही तय हुआ कि शिमला चला जाये।
मैंने अपने संवाददाता ज्ञान ठाकुर जी को फोन किया। उन्होंने एक होटल में दो
कमरों की बुकिंग करा दी। कार्यक्रम तो बन गया, लेकिन मेरे मन में टॉय
ट्रेन को लेकर कई तरह की शंकाएं थीं। एक बार मेरे मित्र जैनेंद्र सोलंकी,
धीरज ढिल्लों सपरिवार आये थे। हम लोग तब भी टॉय ट्रेन से जाने के लिए कालका
तक गये भी, लेकिन ट्रेन में बिल्कुल जगह नहीं मिली। अंतत: सोलन तक गाड़ी
से जाकर लौट आये। ऐसी ही आशंका इस बार भी लगी। हालांकि तब पीक टूरिस्ट सीजन
था और इस बार वह सीजन शुरू होने में अभी काफी वक्त था। एक व्यक्ति से
चंडीगढ़ के पुराने एयरपोर्ट चौक से कालकाजी तक छोड़ने के लिए किसी मित्र के
जरिये पुछवाया तो उसने दो हजार की मांग की। हम लोगों ने तय किया कि ओला से
चलेंगे। खैर अगले दिन समय पर सब तैयार भी हो गये। देर से उठने के आदत वाले
मेरे दो भांजे भी समय पर उठ गये और ठीक आठ बजे मात्र आठ सौ रुपये में हम
सब लोग कालकाजी पहुंच गये। वहां टिकट लिया। ट्रेन मिल गयी। ट्रेन में बैठ
गये। पूरे रास्ते का सफर अद्भुत रहा। शुरुआत में मुझे अपनी मां की याद आयी।
करीब 14 साल पहले मैं, भावना (मेरी पत्नी) और बेटा कुक्कू (तब एक साल का
था आज दसवीं में पढ़ता है) टॉय ट्रेन से कुछ दूर तक गये थे फिर ज्वाला जी,
चामुंडा देवी, चिंपूर्णी आदि मंदिरों का दर्शन करते हुए वैष्णोदेवी की
यात्रा पर गये थे। थोड़ी देर बाद मैं भांजों और दीदी-जीजाजी के साथ पूरे
पर्यटक की मस्ती वाले अंदाज में आ गया। हम लाेगों ने सुरंग आने पर खूब शोर
किया। फोटो खींची, वीडियो बनाये। इस दौरान केजे फोटोज एवं वीडियोज खूब
चर्चित हुआ। (केजे का मतलब कुणाल जोशी से है। छोटा भांजा। अच्छी फोटोग्राफी
करता है।)
आ गया पड़ाव
शाम करीब चार बजे हम
लोग शिमला पहुंच गये। शिमला स्टेशन से हमारे होटल के बीच की दूरी करीब ढाई
किलोमीटर थी। हम लोग पैदल ही चल पड़े। इस बीच मैंने गौर किया कि दीदी की तो
वाकई हालत खराब हो चुकी है। उससे चला नहीं जा रहा था। मैं सोचने लगा कि
यही वह दीदी है जो करीब 08 किलोमीटर दूर कॉलेज जाया करती थी। खड़ी चढ़ाई।
पहाड़ी सफर। वहां से लौटने के बाद खेतों में भी जाती थी। पानी भरने के लिए
भी और भी कई काम। असल में कुछ समय पहले दीदी को चिकुनगुनिया हुआ और तब से
उसके पैरों में बहुत दिक्कत हो गयी है। खैर जैसे-तैसे यह सफर पूरा किया और
हम होटल पहुंचे। चाय-पानी पीने और थोड़ा सुस्ताने के बाद हम रिज पर आ गये।
रिज, मॉल रोड आदि इलाके में दो-तीन घंटे घूमे फिरे। कभी थके-थके से और कभी
प्रफुल्लित।
जाखू मंदिर में स्थापित हनुमानजी की मूर्ति |
विशालकाय हनुमानजी और बंदरों का आतंक
अगले
रोज यानी 23 नवंबर की सुबह हम लोग शिमला घूमने के लिए फिर निकले। भांजों
का मन तो कुफरी भी घूमने का था, लेकिन कई कारणों से वहां जाना ठीक नहीं
लगा। हम लोगों ने पहली रात ही एक गाड़ी वाले ठाकुर साहब से बात कर ली थी।
वह मंडी के थे। उन्होंने कहा कि शिमला आसपास घुमाने और चंडीगढ़ तक छोड़ने
का .... इतना लूंगा। हमें वह रकम ठीक लगी। सुबह सबसे पहले हम जाखू मंदिर
गये। वहां हनुमानजी की विशालकाय मूर्ति स्थापित है। ठाकुर से पहले ही ताकीद
कर दी कि चश्मे को बचाकर रखना। दीदी ने तो अपना चश्मा पर्स में डाल लिया,
लेकिन सौरभ के लिए चश्मा उतारकर लगातार चलना कठिन था। किसी तरह हम लोगों ने
पूरे इलाके का भ्रमण किया। चारों ओर बंदरों की टोली थी। सभी ताक पर रहते
थे कि किसी के हाथ में कुछ दिखे और वे झपट्टा मारें। उसके बाद हम लोग
कालीबाड़ी मंदिर गये। कालीबाड़ी मंदिर से एक अपना नाता सा लगता है। एक तो
ऐसा ही मंदिर चंडीगढ़ में भी है, जिसके बगल में एक कुष्ठ आश्रम है। अपनी
माताजी की पुण्य तिथि और बच्चों के जन्मदिन पर मैं वहां जाता हूं। दूसरा
कालीबाड़ी मंदिर लखनऊ में भी है। जब भी दीदी के यहां जाता हूं तो एक चक्कर
वहां का लगाता हूं। इसके बाद हम लोग संकट मोचन मंदिर पहुंचे। वहां विदेशी
पर्यटक बहुतायत से दिखे। एक अंग्रेजन आंटी के साथ सौरभ ने फोटो भी खिंचवाई।
सचमुच पहाड़ों के मंदिरों की शांति और सफाई मन प्रसन्न कर देती है। मंदिर
जैसी ही फीलिंग आती है।
रिज पर खड़े दीदी-जीजाजी |
वापसी का सफर और लेह-लद्दाख तक का रूट
शिमला
से वापसी सड़क मार्ग से हुई। पहाड़ी नजारों के अलावा कहीं-कहीं डरावने
नजारे भी दिखे। कहीं भयानक भूस्खलन। कहीं टूटती रोड। रास्ते में करीब
पांच-छह जगह सड़कों पर होता दिखा बहुत बड़ा काम। चंडीगढ़ आकर पता लगाया तो
पता चला कि हिमाचल प्रदेश के रास्ते लेह-लद्दाख के लिए ऐसा रूट बनाया जा
रहा है जो सालभर खुला रहेगा। सामान्यत: बर्फीले मौसम में लद्दाख जाना
मुश्किल होता है। इस प्रोजेक्ट पर बहुत तेजी से काम चल रहा है। कुल मिलाकर
यह सफर रहा बहुत मजेदार। लेकिन अगले ही दिन लगा जैसे क्या ये स्वप्न था।
कुक्कू की एक चोट
असल
में शिमला से लौटकर 24 नवंबर को शाम को मैं ऑफिस आ गया। दीदी, जीजाजी और
कुणाल सेक्टर 19 के शॉपिंग कॉम्प्लेक्स आ गये। सौरभ, गौरव अपनी मामी और
दोनों भाइयों कुक्कू, धवल के साथ घर पर ही थे। ऑफस आने के दो घंटे बाद ही
भावना का फोन आया कि फुटबॉल खेलते वक्त कुक्कू के पैर में चोट लग गयी है।
मैंने इसका जिक्र अपने समाचार संपादक जी से किया। उन्होंने तुरंत घर जाने
को कहा। घर आया। कुक्कू को डॉक्टर के पास ले गया। उन्होंने कहा कि पहली नजर
में यह मोच लग रही है। फिलहाल दवा दे रहा हूं। तब तक दीदी-जीजाजी और कुणाल
भी आ चुके थे। सबने कहा, परेशान मत होओ। हालांकि पैर में सूजन बढ़ रही थी।
इसी दौरान ऑफिस से मीनाक्षी मैडम का भी फोन आ गया। वह छुट्टी पर थीं,
लेकिन एक चाभी के चक्कर में उन्हें आना पड़ा था। उन्होंने भी पूरा मॉरल
सपोर्ट दिया और कहा कि ऑफिस आने की स्थिति न हो तो आप रहने दो, मैं रुक
जाती हूं। मैंने बताया कि स्थिति नियंत्रण में है और बस मैं पहुंच ही रहा
हूं। मैं फिर ऑफस आ गया। अगले दिन लखनऊ बड़े भाई साहब और भाभी जी को भी चोट
के बारे में पता चला। उन्होंने एक घरेलू नुस्खा बताया। चूने और शहद को
मिलाकर चोट वाली जगह लगायें और उसे पट्टी से बांध दें। वाकई यह बहुत कारगर
सिद्ध हुआ। कुक्कू दो दिन के इस उपचार से ठीक हो गया। दीदी-जीजाजी से अब
फोन पर बातें हो रही हैं। लग रहा है फोन पर ही तो हो रही थीं, क्या वे वाकई
आये थे। हां आये तो थे। तभी तो इतना कुछ लिख डाला है।
और ये मैं हूं, पर शिमला में नहीं। |
2 comments:
Mamaji bahut he adbhut lekh. Padhte waqt wo moment dobara jee liye. Thanks!
Yes it was ausam
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