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Sunday, November 10, 2019

पापा नहीं है धानी सी दीदी

केवल तिवारी
(Haldwani Uttarakhand)
सारे के सारे गामा को लेकर गाते चले... पापा नहीं है धानी सी दीदी, दीदी के साथ हैं सारे।
80 के दशक में लखनऊ में दीदी।

बचपन में जब इस गीत को सुनता था तो लगता था कि इसे क्या हमारे लिए ही लिखा गया है। कक्षा 6 में था जब लखनऊ पुष्पा दीदी के पास आ गया था। तब से लेकर अब तक की तमाम यादें इन दिनों दिमाग में किसी फिल्म की तरह चल रही हैं। उस चलचित्र में एक ही किरदार है पुष्पा दीदी। हमारी मां जैसी। कभी अचार बनाती दीदी। आम, नींबू, गाजर, गोभी का अचार। कभी गाय को बांधती दीदी। कभी मेरे लिए स्कूल की ड्रेस खरीदती दीदी। कभी मुझे डांटती दीदी, कभी नियम-कानून सिखाती दीदी। कभी इस रूप में याद आती दीदी तो कभी उस रूप में। अब उसे यादों में ही तो आना है। वह चली गयी दुनिया से। दिवाली के दिन। एक दिन बाद मुझे उससे मिलने जाना था। सोचा था भाईदूज पर बेहद बीमार दीदी के दर्शन कर आऊंगा। उसका बचना मुश्किल लग रहा था, लेकिन दर्शन नहीं हुए। ऐसा ही होता है मेरे साथ। मां के साथ भी अंतिम समय नहीं रह पाया। भाई
दूज के दिन हल्द्वानी पहुंचा। दीदी का भतीजा अपनी चाची का अंतिम संस्कार कर कोने में बैठा था। भानजी रुचि सुबक रही थी, लोगों से मिल भी रही थी। दामाद दीपेश से भी बातों को शेयर कर रहे थे। इन लोगों ने दीदी की भरपूर सेवा की। लगभग आठ साल से वह बिस्तर पर थी। भाई दूज के दिन ही लखनऊ से बड़े भाई साहब, भाभीजी और विमला दीदी भी पहुंचे। चूंकि दीदी लंबे समय से अस्वस्थ थी, इसलिए उसके जाने जैसी खबर के लिए मानसिक तौर पर सब तैयार थे, लेकिन किसी का जाना होता तो दुखद ही है। प्रेमा दीदी जब वहां पहुंची तो एक बार फिर माहौल गमगीन हो गया। आंसू सभी के छलक आए। प्रेमा दीदी अक्सर बड़ी दीदी से मिलने के लिए आ जाया करती थी। लखनऊ से शीला दीदी लोग कुछ दिन बाद वहां गये और जब फोन पर पीपलपानी यानी तेरहवीं होने की बात बताई तो मैं थोड़ा रो पड़ा। इस बीच, मन में घूम रहे चलचित्रों में मुझे याद आ रहा है कि बड़े भाई साहब एक बार दीदी को ‘नदिया के पार’ फिल्म दिखाने ले गये थे। दीदी उन दिनों चलती साइकिल में कूदकर बैठ जाती थी। बहुत एक्टिव थी दीदी। दीदी फिल्मों की बहुत शौकीन भी थी। वह बताती हैं कि जीजाजी के साथ उसने कई दर्जन फिल्में देखी थीं। उसी से हम धर्मेंद्र, हेमा मालिनी, रेखा, बलराज साहनी, राजकपूर जैसे कई हस्तियों के नाम सुनते थे जिनकी फिल्में आगे चलकर हम लोगों ने भी देखीं।
मां (एकदम बाएं) और दीदी के साथ मैं।

मन में कभी बैर नहीं पालती थी
पुष्पा दीदी की सबसे बड़ी तारीफ वाली बात थी कि वह मन में बैर नहीं पालती थी। वह किसी भी मुद्दे पर जब डांटती थी तो ठीकठाक डांटती थी। डांट खाने वाला उसे कई दिन तक भले ही याद रखे, लेकिन वह कुछ घंटों या कुछ पलों में ही उसे भूल जाती थी। वह सामान्य हो जाती थी। उसके मन में बैर नहीं था। इसके अलावा अपनी सामर्थ्य के अनुसार वह सबका भला करती थी। आर्थिक रूप से या फिर सांत्वना के तौर पर। यह अलग बात है कि उसे दो मीठे बोल सुनने में ही बड़ा अर्सा लग जाता था।
शादी से पहले मुझे दी बड़ी सीख
दीदी के माध्यम से ही मेरी शादी की बात चली। मैं उन दिनों शादी नहीं करने के लिए अड़ा रहता था। आखिरकार मैंने मन से मान लिया कि शादी तो करनी ही पड़ेगी। दीदी ने जब रिश्ते की बात आगे बढ़ाई तो मुझे आदेश दिया कि हल्द्वानी आ जाओ और लड़की को देखना है। मैंने साफ कर दिया कि मुझे नहीं देखना आप लोग तारीख पक्की कर लो, बस तत्काल कोई तारीख मत निकालना। दीदी ने मुझे डांटते हुए कहा, ‘तू अपनेआप को आमिर खान समझता है। तुझे भी लड़की देखेगी।’ मुझे उसका यह डांटना बेहद भाया। क्योंकि लड़की को देखने का रिवाज मुझे हमेशा से खराब लगा। बंदा शाही अंदाज में बैठा है। लड़की चाय या फल लेकर आती है। तमाम लोग उसे देखते हैं। यह परंपरा गलत है।

खैर दीदी को लेकर तो यादें, बातें इतनी ज्यादा हैं कि एक पूरा उपन्यास लिखा जा सकता है। उनमें से कुछ अच्छी यादों को सहेजे रखना होगा। दीदी तुम जहां भी चली गयी हो अपना आशीर्वाद पूरे परिवार पर बनाये रखना। सारे के सारे गामा को लेकर गाते चले गीत की अंतिम पंक्ति के साथ ही कहूंगा... सरगम हो गयी पूरी अब क्या होगा आगे...।

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