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Tuesday, April 20, 2021

धीरेश ने की बात और बुजुर्गों की आई याद

आज सुबह मित्र धीरेश का फोन आया। संदर्भ था, फेसबुक पर मेरे साथ एक फोटो साझा होने की। मैंने हंसते हुए कहा कि मैं तो फेसबुक करीब दो साल से देख ही नहीं रहा हूं। वैसे इसमें थोड़ा सा झूठ शामिल था। फेसबुक पर कमेंट, लाइक या कोई पोस्ट डालना मैंने बंद कर रखा है, लेकिन ऑफिस का ऑनलाइन काम काफी देखता हूं। जैसे दैनिक ट्रिब्यून का ट्विटर हैंडल, ऑनलाइन समाचार आदि। इसी संदर्भ में कभी कबार दैनिक ट्रिब्यून के फेसबुक पेज को देखने के लिए अपने अकाउंट को पहले लॉगइन करना पड़ता है। उस दौरान कभी-कभी किसी पोस्ट पर नजर पड़ जाती है। साथ ही कुछ फ्रेंड रिक्वेस्ट भी। अगर प्रोफाइल लॉक न की हो और जानकार लग रहा/रही हो तो मैं रिक्वेस्ट को एक्सेप्ट कर लेता हूं। लेकिन कमेंट न करने, पोस्ट न डालने जैसे मसलों पर डटा हुआ हूं। खैर... बात का ट्रैक बदल गया। बेशक धीरेश ने फेसबुक पर मेरी फोटो से बात की शुरुआत की थी, लेकिन फिर उन्होंने मेरी माताजी को याद किया। मुझे बहुत अच्छा लगा। कुछ मित्र हैं जो बातों बातों में मेरी माताजी को याद कर लेते हैं। धीरेश ने कहा, ‘उनमें बहुत अपनापन था, गोरी-चिट्ठी। उनकी याद अक्सर आती है।’ मैंने जवाब दिया, ‘हां कुछ बच्चे मेरी मां को मलाई अम्मा कहते थे, लेकिन जहां तक अपनेपन की बात है यह तो उस दौर के सभी बुजुर्गों में होती थी।’ थोड़ी सहमति, असहमति के बीच मैंने मित्र धीरज ढिल्लों के पिताजी के एक किस्से को साझा किया। उन दिनों हम लोग कौशांबी के हिमगिरि अपार्टमेंट में रहते थे। मित्र सुरेंद्र पंडित हम सब लोगों को एक करने वाले थे। एक दिन धीरज के पिताजी अपने कुछ संगी-साथियों या जानकारों के साथ कौशांबी आये। नीचे गाड़ी में बाकी लोग बैठे रहे, अंकल जी नौवीं मंजिल 911 में हम लोगों से मिलने आये। मैंने कहा, ‘अंकल बैठो चाय बनाता हूं।’ उन्होंने कहा नहीं चाय नहीं पीनी है, अभी जल्दी में हूं। वह बाकी साथियों से बात करने लगे। मैंने एक बार फिर जोर देकर कहा, ‘अंकल चाय फटाफट बन जाएगी।’ अंकल जी तुरंत बोले, ‘फिर ऐसा कर 6 कप चाय बनाके फटाफट नीचे ले आ।’ मुझे उस वक्त थोड़ा अटपटा लगा। मैं चाय बनाकर ले गया। धीरज और अन्य मित्र भी मेरे साथ नीचे तक गये। बाद में मैंने इस वाकये पर विचार किया। फिर सोचा कितना अपनापन था उनका यह कहने में कि फटाफट नीचे ले आ। उन्होंने मुझे भी धीरज ही माना। इस वाकये को मैंने धीरेश के साथ जब आज मंगलवार 20 अप्रैल, 2021 को साझा किया तो हम दोनों हंस पड़े। फिर कहा कि हां वैसा अपनत्व कुछ कम हो गया। परिस्थितियां ऐसी हो गयी हैं, हम बदल गये हैं या फिर समय, कुछ पता नहीं। खैर ऐसे कई वाकये हैं। मित्र धीरज ढिल्लों की माताजी के स्नेह की झप्पी में कभी नहीं भूल पाऊंगा। बात 2008 की है। लखनऊ में मेरी माताजी का निधन हो गया था। तेरहवीं के बाद हम लोग लौटे। सुबह-सुबह ट्रेन आ गयी थी। हमारे फ्लैट की चाबी धीरज जी के यहां रखी थी। मैं, भावना और बेटा रिक्शे से उतरकर कुछ बोलते हुए आये। माताजी को अहसास हो गया कि हम आ गये हैं। उन्होंने दरवाजा खोला और सबसे पहले मुझे गले लगाया और उसी वक्त मेरी रुलाई छूट गयी। आंटी ने आसूं पोछते हुए कहा, ‘मैं हूं तेरी मां जैसी। रोना नहीं है। पहले कुछ देर यहां सुस्ताओ फिर ऊपर अपने फ्लैट पर जाना।’ आंटी के हाथ के पराठों का जिक्र तो हम घर पर अक्सर करते हैं। ऐसे ही सुरेंद्र पंडित जी के पिताजी के साथ हमारी अक्सर चर्चा होती थी। जैनेंद्र सोलंकी जी के पिताजी हों या वैभव शर्मा के पिताजी, राजेश डोबरियाल के माता-पिता हों या कोई अन्य मित्र के माता-पिता अनेक लोगों के साथ अनेक किस्से याद हैं। उनके अनुभव सुनने का लुत्फ ही कुछ और था। यहां तो उनका जिक्र है जो मित्र कौशांबी में रहते थे। इनके अलावा भी अनेक मित्रों के माता-पिता के साथ हुई बातें मेरी डायरी में दर्ज है। मसलन, बहादुरगढ़ राहुल के माता-पिताजी के साथ कई बार कई मुद्दों पर बात हुई है, दिल्ली के मनोज भल्ला, लखनऊ के भजनलाल, दिल्ली के ही अवनीश चौधरी, लोहाघाट केे श्रीनिवास ओली।नामों की सूची लंबी बनेगी। मित्र धीरेश का धन्यवाद कि पुरानी बातें फिर याद करा दीं। हर मित्र के साथ की कई बातें मेरी डायरी में दर्ज हैं। कुछ किस्सों पर हम लोग खूब हंसे भी हैं। कुछ मैंने छिपाई, कुछ बताईं। आज भी फिर कुछ पुरानी डायरियों को खंगालने लगा। बातोंबातों में धीरेश के साथ कथित बड़े साहित्यकारों, पत्रकारों और उनकी चेलागिरी पर भी चर्चा हुई। मन कर रहा था, आमने-सामने बैठकर बतियाया जाये। कुछ धीरेश पर नाराजगी जताई जाये और कुछ वह हंसहंसकर हमें चिढ़ाये। दुआ है कि जल्दी यह खौफनाक समय निकले और हम मित्रगण मिल बैठें। हम सब कुछ सुनाएं और कुछ सुनें। अंत में बता दूं कि जिस फेसबुक फोटो से चर्चा की शुरुआत हुई, वह लेखिका दीप्ति अंगरीश के साथ मेरी फोटो थी। कुछ दिन पूर्व वह चंडीगढ़ आई थीं, जाते-जाते एक फोटो खींच ली। बात खत्म करते-करते मुनव्वर राणा साहब का शेर याद आ रहे हैं जो मैं अक्सर दोहराता रहता हूं-

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है, मां जब गुस्सा होती है तो रो देती है।

2 comments:

Ek ziddi dhun said...

और केवल भाई,आपने माँ के निधन के बाद लखनऊ से लौटकर आने और आंटी के अपनत्व के ज़िक्र से मेरी भी आँखें भर आईं।

kewal tiwari केवल तिवारी said...

सचमुच वह पल अजीब था। अब तो आंटी भी इस दुनिया से चली गयीं।