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Wednesday, April 28, 2021

अविचल पंथी के पथ में खट्टे-मीठे अहसास

 पुस्तक समीक्षा

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केवल तिवारी

आज के समय में ज्यादातर लोगों के लिए वह दिनचर्या कल्पना से भी परे है जब कोई वार्षिक परीक्षा के लिए हर सोमवार को राशन-पानी, सूखी लकड़ियां लेकर घर से दूर जाता हो, कुछ मित्रों के साथ हफ्तेभर रहकर पढ़ाई के साथ-साथ भोजन-पानी की व्यवस्था करता हो और शनिवार को फिर घर आता हो। एडवेंचर के लिए तो कोई ऐसा कर सकता है, लेकिन रुटीन में यह कितना दुष्कर है, इसे वही समझ सकता है, जिसने ऐसा झेला है।

राजनीति में पंचायत सदस्य से लेकर मुख्यमंत्री, फिर केंद्रीय मंत्री तक का सफर तय करने वाले शांता कुमार ने पूरे जीवन में कई दुश्वारियां झेलीं। कभी आर्थिक तंगी की, तो कभी राजनीतिक पैंतरेबाजी की। तमाम मुसीबतों के साथ शांत स्वभाव से जीवन पथ पर आगे चलती रहने वाली हिमाचल प्रदेश की जानी-मानी हस्ती शांता कुमार ने लेखन और अध्ययन को अपना मित्र बनाकर रखा। खुद को या आसपास किसी को दुखों से घिरा देखा तो कभी कवि हृदय से स्वर फूट पड़े, सत्ता मिली तो हर वह प्रयास किया, जिससे लोगों की तकलीफें कम हों। यह अलग बात है कि अपने दुखों को सीधे-सीधे कहीं बयां नहीं किया। सक्रिय राजनीति से दूर होने के बाद जीवन संध्या की वेला पर उन्होंने ‘निज पथ का अविचल पंथी’ नाम से आत्मकथा लिखी। बेहद सरल और सहज अंदाज में उन्होंने बचपन से लेकर अब तक (86 वर्ष की आयु) अपने जीवन के तमाम पड़ावों को सामने रखा है।

बेहद भावुक अंदाज में चित्रों के साथ आत्मकथा की शुरुआत की गयी है। पत्नी के बगैर घर को ईंट-पत्थरों की दीवार बताते हुए शांता कुमार लिखते हैं, ‘5:30 बजे अलार्म बजा। ...मैं उठा। चाय वाले कमरे में गया। चाय बनाई। सामने देखा, दो कप पड़े थे। एक मेरा और एक वह तुम्हारा प्यारा... फिर दो कप चाय बनाई। दोनों कपों में डाली... आंसू निकले... फिर ख्याल आया, वायदा किया है तुमसे कि हिम्मत से जीऊंगा।’ हर कदम शांता कुमार के साथ रहने वाली उनकी जीवनसंगिनी संतोष इस किताब को जल्दी पूरा करने के लिए कहती थीं और कुछ समय पहले दोनों का 60 बरस का साथ छूट गया।

शांता कुमार का शुरुआती जीवन ठीकठाक रहा, लेकिन पिताजी के निधन के बाद स्थिति खराब हो गयी। मां ने कैसे घर को संभाला, उसका भावपूर्ण वर्णन किताब में किया गया है। किशोरावस्था से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आने वाले शांता कुमार ने देशसेवा को ही अपनी जिंदगी का उद्देश्य बना लिया। इसके लिए घरवालों से झूठ तक बोला। देश और समाज के लिए समर्पित शांता कुमार मास्टरी की नौकरी महज 17 दिन में ही छोड़कर चले गये और कश्मीर के मुद्दे पर जेल भेज दिये गये। पहले फिल्म ‘मेला’ देखने जाना, फिर देशभक्ति के नारे लगाना और गिरफ्तार हो जाना। पूरे प्रकरण का उन्होंने इस तरह वर्णन किया है कि पढ़ते-पढ़ते पाठक के मन-मस्तिष्क में चलचित्र सा चलने लगता है। हिमाचल प्रदेश से दिल्ली आना, फिर यमुनापार इलाके में संघ के प्रमुख के तौर पर जिम्मेदारी संभालने का दौर बहुत रोचक और कड़े परिश्रम वाला रहा। दिल्ली प्रवास के दौरान ही एक स्वयंसेवक सोमनाथ के विवाह के बाद चाय पार्टी में अटल बिहारी वाजपेयी जी को बुलाने की जिम्मेदारी का लेखक ने रोचक चित्रण किया है। उस वक्त कार्यालय प्रमुख जगदीश चंद माथुर जी के समक्ष अटलजी ने कहा, ‘माथुर जी मुझे और आपको न तो विवाह का कोई अनुभव है और न ही होने की संभावना है। ऐसी विवाह पार्टी में हमारा क्या काम?’ बाद में अटलजी उस पार्टी में गये। संघ के लिए कामकाज के दौरान ही शांताकुमार की भेंट संतोष से हुई। लेखक लिखते हैं, ‘...हम दोनों को लगा कि हमारा यह संबंध कुछ समय का नहीं, जीवन भर का है। हमने जीवनसाथी बनने का निर्णय कर लिया।’ संघ के वरिष्ठ नेताओं से किए वादे के मुताबिक दो साल बाद शादी करना, परिवार में शुरुआती संकट और फिर धीरे-धीरे जनसंघ में सक्रिय होना और इसी दौरान राजनीति का दूसरा रूप देखना भी लेखक के लिए कभी रोचक तो कभी व्यथित करने वाला रहा। इमरजेंसी लगने के दौरान लेखक की जेल यातना दर्दभरी दास्तान है। पठनीय है। भारतीय राजनीति में जय प्रकाश नारायण का उदय फिर मृत्यु के समय उनकी व्याकुलता और लेखक का उनसे मिलना भी बहुत ही मार्मिक है।

हिमाचल प्रदेश के जनमानस तक शांता कुमार के संघर्षों और उसूलों की बात चर्चा का विषय बनना और बाद में मुख्यमंत्री पद तक पहुंचना वास्तव में अकल्पनीय-सा लगता है। सत्ता मिलने के बाद पद लोलुपों का चारों ओर से दबाव बढ़ना और इसी बीच जनहित के कड़े फैसले लेने का जिक्र लेखक ने प्रवाहमयी अंदाज में किया है। जोड़-तोड़ और गठजोड़ के आगे सिद्धांत न छोड़ने का ही परिणाम था कि शांता कुमार की कुर्सी चली गयी। वह लिखते हैं, ‘मुख्यमंत्री बनने पर हम सबने अपने आपको भुलाया नहीं था। हवा में नहीं उड़े थे। इसलिए फिर से पुराना जीवन शुरू करने में कोई भी कठिनाई नहीं हुई।’ एक राजनीतिक सहयोगी से उन्होंने कहा, ‘मैं नहीं बदला, इसमें मुझे इतना सुख मिला है जो बदलने वालों को सब कुछ प्राप्त करके भी नहीं मिलेगा। यही मेरी संपत्ति है।’ प्रदेश की बागडोर दोबारा संभालने पर शांता कुमार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कदम उठाये और अपने कई अफसरों पर निशाना साधा। उनकी कार्यशैली पर उत्तर भारत के जाने-माने समाचारपत्र ‘ट्रिब्यून’ ने 20 दिसंबर, 1990 को अपने संपादकीय में लिखा, ‘यदि देश में राजनीतिक साहस के कार्य के लिए कोई वीरता पुरस्कार हो तो वह इस बार हि.प्र. के मुख्यमंत्री शांता कुमार को मिलना चाहिए...।’

प्रदेश से राष्ट्रीय राजनीति और उसमें अटल जी से अनेक बार प्रशंसा और बाद में कुछ दबावों के चलते अटलजी द्वारा इस्तीफा लिए जाने जैसे कुछ प्रसंग हैं, जिनसे शांता कुमार काफी व्यथित हुए। स्वामी विवेकानंद को अपना आदर्श मानने वाले शांता कुमार ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहते हुए भी अनेक कड़े फैसले लिए। आंध्र प्रदेश के लिए योजनाओं के मद में 90 की जगह 190 करोड़ अनुदान पर सख्त हुए शांता कुमार तत्कालीन अध्यक्ष वेंकैया नायडू को अखर रहे थे। वह लिखते हैं, ‘राष्ट्रीय अध्यक्ष मुझसे वैसे ही नाराज थे। मैंने प्रदेश को मिलने वाला 100 करोड़ वार्षिक रोक दिया था।’ इसी संदर्भ में वह आगे लिखते हैं, ‘एक दिन सुबह अटल जी का फोन आया। कहा-मुझे दुख है परंतु तुम अब वह कागज दे ही दो। मैं समझ गया मुझसे त्यागपत्र मांगा जा रहा है।’

राजनीति के अपने अनुभवों को लिखते-लिखते भावुक शांता कुमार लिखते हैं, ‘देश की पूरी राजनीति का अवमूल्यन हो चुका है। राजनीति केवल सत्ता के लिए है, सत्य के लिए नहीं। इस अवमूल्यन में हमारी पार्टी आशा की अंतिम किरण है। यदि वह भी गलत से समझौता कर लेगी तो देश के भविष्य का क्या होगा?’ इसी संदर्भ में वह लिखते हैं, ‘मुझे सबसे बड़ा अफसोस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं से है। ...वर्षों का विश्वास हिल गया। आज की बदल रही भाजपा तो बहुत आगे पहुंच गई है। मूल्य आधारित राजनीति के आदर्श के कारण जिस पार्टी को जनता ने विश्व की सबसे बड़ी पार्टी बनाया, आज वह पूरी तरह से नैतिक मूल्य नहीं, केवल और केवल सत्ता आधारित पार्टी बन गयी है। विधायकों के क्रय-विक्रय में भी उसे शामिल होते देख मेरे जैसों को तो शर्म आती है। सोचता हूं-जहां भी होंगे दीनदयाल उपाध्याय जैसे नेता आंसू ही बहाते होंगे।’ जीवन में कई उतार-चढ़ाव देख चुके शांता कुमार अपनी किताब में बॉलीवुड के दिग्गज शत्रुघ्न सिन्हा समेत अनेक लोगों से मित्रता की रोचक बातों का वर्णन करते हैं। विदेश यात्राओं का वर्णन करते हैं। और हमेशा ईश्वर को धन्यवाद देते हैं। कश्मीर से धारा 370 के हटने को साहसिक कदम बताते हुए किताब पूरी करते-करते शांता कुमार भावुक अपील करते हैं, ‘मेरे जीवन की एक ही अंतिम इच्छा है कि मेरी पार्टी भारतीय जनता पार्टी राजनीति के प्रदूषण से बचे।’

हमेशा अपने सिद्धांतों पर अडिग रहने वाले शांता कुमार सरीखे लोगों से राजनीति दल ऊंचाइयों को छूते हैं। शांता कुमार की यह आत्मकथा बहुत रोचक है। उन्होंने बेबाकी से जितना निजी पन्नों को खोला है, उतनी ही सूझबूझ से अपनी पार्टी की कमियों और अच्छाइयों को उजागर किया है। अपने जीवन में अब तक कई पुस्तकें लिख चुके शांता कुमार की यह किताब भी हर वर्ग के व्यक्ति के लिए पठनीय है।

पुस्तक : निज पथ का अविचल पंथी लेखक : शांता कुमार प्रकाशक : किताब घर प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 464 मूल्य : रु.


साभार - दैनिक ट्रिब्यून



2 comments:

kewal tiwari केवल तिवारी said...

प्रकाश मनु जी ने दो कमेंट दिए मेल पर
शांताकुमार की आत्मकथा पर तुमने बहुत अच्छा लिखा
केवल भाई। पढ़कर मन से तुम्हारे लिए बहुत आशीर्वाद निकले।

मन हुआ, कभी मेरी किसी किताब पर भी तुम लिखो।
यदि ऐसा हुआ, तो मुझे बड़ा सुख मिलेगा।

कामना करता हूँ कि तुम और घर-परिवार में सभी एकदम स्वस्थ,
निरोग और सुरक्षित रहें।

मेरा बहुत-बहुत प्यार और आशीर्वाद,
प्रकाश मनु

kewal tiwari केवल तिवारी said...

और दूसरा कमेंट
शांताकुमार जी जैसे सरल, सिद्धांतप्रिय और साहित्यिक प्रकृति के राजनेता की
आत्मकथा पर ऐसी सुंदर और विस्तृत भावनात्मक टिप्पणी मैंने कहीं और
नहीं देखी, जैसी पिछले सप्ताह के 'दैनिक ट्रिब्यून' में पढ़ने को मिली।
***

भाई केवल, इधर मैं भी आत्मकथा लिखने में तल्लीन हूँ, जो तीन खंडों में सामने आएगी।

'दैनिक ट्रिब्यून' के लिए एक बड़ा हृदयस्पर्शी आत्मकथा-अंश भेजता हूँ, 'माँ की ममता में ही मुझे ईश्वर का चेहरा नजर आता है'।

किसी कहानी से ज्यादा रोचक इस आत्मकथा-अंश में मेरे बचपन का दिलचस्प वर्णन है और माँ की कुछ अविस्मरणीय छवियाँ हैं। कुछ पंक्तियों में मेरे नाना जी की अद्भुत शख्सियत भी उभर आई है।

कृपया देख लें।

आशा है, आत्मकथा का यह प्रेरक और भावपूर्ण अंश, 'दैनिक ट्रिब्यून' के
पाठकों को बहुत रुचेगा।

इसे मैंने काफी संक्षिप्त कर दिया है। आप लोग चाहें तो कुछ और
तराश सकते हैं।

12 मई को मेरा जन्मदिवस है केवल भाई, जब मैं इकहत्तर साल पूरे कर लूँगा।
लिहाजा अगर इसके आसपास कभी दें, तो मुझे बहुत खुशी होगी। नहीं तो अपनी
सुविधा से जब चाहें, इस्तेमाल कर लें।

पहुँच की सूचना दे सकें तो बहुत अच्छा लगेगा।

मेरा बहुत-बहुत स्नेह और आशीर्वाद,
प्रकाश मनु