केवल तिवारी
पिछले दिनों एक कार्यक्रम में जाना हुआ। कार्यक्रम में एक शब्द बार-बार गूंजा। वह शब्द था विमर्श। इस विमर्श पर चर्चा के बाद उन बिंदुओं पर चर्चा करूंगा जो मेरे लिए महत्वपूर्ण थे। तो पहले आते हैं विमर्श पर। विमर्श शब्द का अनेक बार मैं भी इस्तेमाल करता हूं। या कहूं कि प्रयोग करता हूं। मैं इसका प्रयोग विवेचन के तौर पर करता हूं। कोई मुद्दा-तात्कालिक या तत्कालीन। कोई विषयवस्तु। कभी-कभी किसी लेख के संदर्भ में। लेकिन इस कार्यक्रम में विमर्श का अर्थ जो मैंने समझा और कुछ विद्वानों से चर्चा के बाद स्थिति स्पष्ट हुई, वह था विमर्श मतलब परीक्षण। किसी मुद्दे का परीक्षण। वह मुद्दा इतिहास से छेड़छाड़ का हो या वह मुद्दा समाज में फैलाये जा रहे झूठ या भ्रम को लेकर हो। विमर्श मीडिया को लेकर हो या विमर्श देश, काल और परिस्थिति पर। 'विमर्श' के उस दौर में कई विषयों पर 'चर्चा' हुई। विवेचना भी हुई। फिर एक बात वही सामने आई कि सच उतना ही नहीं है, जितना हम जानते हैं या जितना हमने जाना। सच उससे कहीं ज्यादा या कम भी हो सकता है।
असल में हमारा मीडिया, खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या न्यू मीडिया अभी भी शैशव काल से ही गुजर रहा है। वहां जब बहस मुबाहिसें होती हैं तो दो दिक्कतें आती हैं। एक-या तो मुद्दा ही आधा-अधूरा उठता है, दूसरा-विमर्श कर रहे लोग येन-केन प्रकारेण अपनी ही बात को सही साबित करने में तुले होते हैं। यहीं पर विमर्श भटक जाता है। आप किसी भी खबर को उठा लीजिए। खबर एक ही होती है, लेकिन अपनी-अपनी सुविधानुसार उस खबर से एंगल निकाल लिया जाता है।
शब्दावली पर बहस
इस विमर्श कार्यक्रम में लेखन की बात हुई। चूंकि बातचीत का माध्यम हिंदी बनी तो यह लेखन की बात हिंदी पर आकर टिकी और अच्छे लेखन की अन्य भाषाओं में अनुवाद का भी सबने पुरजोर समर्थन किया। संयोग से मुझे भी अपनी बात रखने का मौका मिला। मुझसे पहले कुछ विद्वान अपनी राय रख चुके थे। बात लगभग ठीक ही हो रही थीं। जैसे कि लेखन में विषयों का वर्गीकरण हो। कुछ तात्कालिक विषय हो जाते हैं और कुछ स्थायी। कभी-कभी तात्कालिक समझे जाने वाले विषय स्थायी से बनते नजर आते हैं और कभी-कभी स्थायी विषय तात्कालिक से हो जाते हैं। मैंने एक बात का विरोध किया। कुछ लोगों ने कहा कि हिंदी लेखन या बोलचाल में शुक्रिया जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। कुछ ने इसी तरह कुछ अन्य शब्द भी बताये। जब मेरी बारी आई तो सबसे पहले मैंने भाषा और शैली की शालीनता पर जोर दिया। मैंने पिछले दिनों समीक्षार्थ पढ़ी गई एक पुस्तक का हवाला देते हुए कहा कि पुस्तक बहुत अच्छी है, लेकिन उसमें शैली और भाषा की शालीनता नहीं है। अनेक महापुरुषों के लिए भी तू-तड़ाक शब्दावली का इस्तेमाल किया गया है। मेरी बात का कुछ लोगों ने समर्थन किया। असल में बोलचाल की भाषा में तो कभी-कभी मानवीय स्वभाव के मुताबिक हमारी भाषा थोड़ी भटक सकती है, लेकिन जब बात डाक्यूमेंटेशन की आती है तो फिर इसका ध्यान रखा ही जाना चाहिए। फिर शुक्रिया जैसे शब्दों से परहेज़ क्यों? हिन्दी तो अनेक शब्दों को आत्मसात कर चुकी है। हिन्दी सबको साथ लेकर चलने वाली है, इसलिए हिन्दी कमजोर नहीं हो सकती।
भाषा की जब बात आती है और उसमें शब्दों के चयन की बात आती है तो मुझे जाने-माने लेखक कुबेरनाथ राय जी की एक पंक्ति याद आती है। उन्होंने अपने निबंध भाषा बहता नीर में कहा था, 'भाषा को अकारण दुरूह या कठिन नहीं बनाना चाहिए। परंतु सकारण ऐसा करने में कोई दोष नहीं।' यानी जहां जरूरत नहीं है, वहां भाषा को बहुत क्लिष्ट नहीं बनाया जाना चाहिए। हां इसके पीछे कोई कारण हो तो ऐसा करने में परेशानी भी नहीं।
मातृभाषा है तो सब है...
भाषा और शैली के साथ-साथ जब हम मातृभाषा की बात करते हैं तो यह ध्यान रखना चाहिए कि राष्ट्र की एक सर्वमान्य भाषा होनी चाहिए। भारत के संदर्भ में यह भाषा हिंदी ही हो सकती है। अपने समय के मशहूर पत्रकार और लेखक रहे गणेश शंकर विद्यार्थी ने 2 मार्च, 1930 को गोरखपुर में आयोजित हिंदी साहित्य सम्मेलन के 19वें अधिवेशन में कहा था-'भाषा-संबंधी सबसे आधुनिक लड़ाई आयरलैंड को लड़नी पड़ी थी। पराधीनता ने मौलिक भाषा का सर्वथा नाश कर दिया था। दुर्दशा यहां तक हुई कि इने-गिने मनुष्यों को छोड़कर किसी को भी गैलिक का ज्ञान न रहा था, आयरलैंड के समस्त लोग यह समझने लगे थे कि अंग्रेजी ही उनकी मातृभाषा है, और जिन्हें गैलिक आती भी थी, वे उसे बोलते लजाते थे और कभी किसी व्यक्ति के सामने उसके एक भी शब्द का उच्चारण नहीं करते थे। आत्म-विस्मृति के इस युग के पश्चात् जब आयरलैंड की सोती हुई आत्मा जागी तब उसने अनुभव किया कि उसने स्वाधीनता तो खो ही दी, किंतु उससे भी अधिक बहुमूल्य वस्तु उसने अपनी भाषा भी खो दी। गैलिक भाषा के पुनरुत्थान की कथा अत्यंत चमत्कारपूर्ण और उत्साहवर्धक है। उससे अपने भाव और भाषा को बिसरा देने वाले समस्त देशों को प्रोत्साहन और आत्मोद्वार का संदेश मिलता है। इस शताब्दी के आरंभ हो जाने के बहुत पीछे, गैलिक भाषा के पुनरुद्वार का प्रयत्न आरंभ हुआ। देखते-देखते वह आयरलैंड-भर पर छा गयी। देश की उन्नति चाहने वाला प्रत्येक व्यक्ति गैलिक पढ़ना और पढ़ाना अपना कर्तव्य समझने लगा। सौ वर्ष बूढ़े एक मोची से डी-वेलरा ने युवावस्था में गैलिक पढ़ी और इसलिए पढ़ी कि उनका स्पष्ट मत था कि यदि मेरे सामने एक ओर देश की स्वाधीनता रक्खी जाए और दूसरी ओर मातृभाषा, और मुझसे पूछा जाये कि इन दोनों में एक कौन-सी लोगे, तो एक क्षण के विलंब के बिना मैं मातृभाषा को ले लूंगा, क्योंकि इसके बल से मैं देश की स्वाधीनता भी प्राप्त कर लूंगा। ...' यानी हिंदी की सर्वमान्यता धीरे-धीरे और व्यापक हो इस पर भी हमें विमर्श करना चाहिए।
अनेक जानकार मिले
विमर्श वाले इस कार्यक्रम में मेरे अनेक जानकार मिले। मेरे लिए यही बड़ी उपलब्धि थी। एक-दो लोगों को मैं पहचान नहीं पाया, लेकिन जब पुरानी बातें होने लगीं तो फिर लंबे समय तक चर्चा चलती रही। यहां भी कुछ विषय विमर्श के लिए तैयार हो गये। खैर... यह यात्रा सुखद रही। इस यात्रा के दौरान कई बातें हुईं क्योंकि साथ में थे हमारे पूर्व समाचार संपादक हरेश वशिष्ठ जी। बातों-बातों में पूरा दिन निकल गया और यादों के भंडार में एक दिन और जुड़ गया। उनको साधुवाद।
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