हम लोगों में ज्यादा का खुद को देखने का एक 'फिक्स फ्रेम' होता है। इसी के चलते हमारी यह इच्छा भी बलवती होती है कि इसी फ्रेम में लोग हमें देखें। यानी मेरे बात करने का अंदाज सबको पसंद आना चाहिए। मैं खुद की कल्पनाओं में जैसा हूं, वैसा मुझे लोग स्वीकारें और यह सत्य है कि अपने बारे में गहराई से शायद कोई नहीं सोचता। यदि अपने बारे में गहराई से सोचना शुरू कर दे और कमियों को व्यक्ति समझने लग जाये तो शायद मैं महान या 'अहं ब्रह्मास्मि' वाली बात रहेगी ही नहीं। जब यह बात नहीं रहेगी तो आपसी कलह का तो सवाल ही नहीं उठता। अक्सर हम कहते हुए सुनते हैं, 'मैं हिसाब-किताब नहीं लगाता।' लेकिन उनके मित्र जानते हैं कि वह कितना ज्यादा हिसाबी है। इसका दूसरा पहलू यह हुआ कि बहुत ज्यादा हिसाबी होना अच्छी बात नहीं। यानी हर व्यक्ति बिंदास रहना चाहता है, थोड़ा-बहुत हिसाब-किताब में क्यों उलझें। एक और पहलू भी है, शायद वह हिसाब लगाता है, लेकिन संकोचवश प्रकट नहीं करता। और कभी-कभी समाज स्थिति वाले व्यक्ति के सामने खर्च में आगे नहीं बढ़ता या हमेशा ऐसे आगे बढ़ता है कि बाकी लोग समझ लेते हैं, भुगतान तो यही करता है।
बात फ्रेम की। अलग-अलग आदत होती है लोगों की। आदत बोलने के अंदाज की। आदत खाने की। आदत हंसने की। आदत रोने की... वगैरह-वगैरह। आदतों में दो बातें शामिल होती है-एक, आपके जीन में ऐसे गुण हैं। ये गुण आपकी सोच की शक्ति को भी प्रभावित करते हैं यानी आप चाहकर भी उन्हें नहीं बदल पाते। दूसरे, ऐसे गुण जो आप समाज, देश और समय को देखकर बदल लेते हैं। मान लीजिए आप बहुत कड़वे अंदाज में बोलते हैं। कई लोग इस अंदाज को खरा बोलना भी कह सकते हैं, लेकिन हो सकता है आपका यह अंदाज सामने वाले को पसंद न हो और यह भी कि आप कहते हों कि मैं परवाह नहीं करता, मैं तो ऐसा ही हूं। यह भाव थोड़ा अजीब किस्म का है। आप हो सकता है व्यंग्यात्मक लहजे में बात करते हों-कभी कभार यह अंदाज अच्छा लगता हो, लेकिन सोचिए आपने कभी सामने वाले से वक्त बेवक्त इसी लहजे में बात की हो तो कैसा लगेगा। यह उसी तरह है कि आप किसी की अंत्येष्टि में गए हैं और अचानक आपके मोबाइल पर कोई पॉप म्यूजिक बज जाये। रिंग टोन के रूप में या किसी अन्य रूप में। यही रिंगटोन अगर किसी पार्टी के माहौल में बजे तो हो सकता है आपसे लोग कहें, वाह माहौल के अनुकूल है ट्यून। यानी हमेशा एक अंदाज भी नहीं चल सकता। बिना फ्रेम के चलेंगे तो शायद प्रसन्न रहने का लंबा अवसर मिलेगा। फ्रेम फ्री होने पर आपको जो विविध विचारधारा या तौर-तरीके वाले लोग राह में मिलेंगे आप उसमें समाहित होते चले जाएंगे क्योंकि आपका कोई फ्रेम नहीं है।
फिक्स फ्रेम या एक जैसी आदत के नुकसान भी होते हैं। इसे इस तरह समझ सकते हैं- मान लीजिए दो लोग हैं-ए और बी। ए बहुत चुपचाप रहने वाला। लोगों के तानों को भी हंसकर टाल देने वाला है और अपने काम में बहुत निपुण है। उसकी आदत का हर कोई फायदा उठाता है। उससे नीचे रैंक वाले भी और ऊपर वाले भी। अब दूसरा व्यक्ति है बी, काम उतना नहीं जानता जितना हल्ला करता है। बात-बात पर तुनकमिजाजी दिखाता है। झगड़ने लगता है। ऐसे में जब मिस्टर ए कभी जोर से बोल दे या किसी से काम के लिए इनकार कर दे तो वह सुर्खी बन जाती है। अरे इसे क्या हो गया। लगता है पर लग गये। ऐसे ही कई ताने लोग देने लगेंगे। लेकिन अगर मिस्टर बी ऐसा करेगा तो सभी कहेंगे यह तो ऐसा ही है। या उसे कोई काम सौंपेंगे ही नहीं। ऐसे में मिस्टर ए और मिस्टर बी दोनों के लिए जरूरी है कि वे खुद को फ्लैक्सिबल रखें। अति होने पर अपनी बात को मजबूती से रख सकें। खैर ज्ञान की बातें हैं। व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में बहुत चलती हैं। थोड़ा बहुत भी परिवर्तन आ सके या इतना सोचने लग जाएं कि हमारी बात या आदत से सामने वाले को कोई परेशानी तो नहीं होगी तो इतना ही बहुत है। खुद में झांकने से बड़ी बात कोई है ही नहीं। कबीर दास जी तो कई सौ साल पहले ही कह गये-
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जोो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय।
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