केवल तिवारी
‘दाबड़ा पट्टी में पल्लेवाले जोहड़ के दक्षिण पश्चिम में स्थित यह मंदिर 1880 के आसपास बना था। यह भी संभव है कि मंदिर इससे पहले से गांव में हो और उस समय इसका जीर्णोद्धार हुआ हो...।
... उस समय नए गुरुद्वारे की जगह को चण्डीगढ़ और पुराने गुरुद्वारे को पुरानी दिल्ली कहा जाने लगा। जल्द ही सहमति हो गई कि गांव में एक ही गुरुद्वारा रहेगा। इसलिए नए गुरुद्वारे की बात आगे नहीं चली। तब से उस इलाके को चण्डीगढ़ कहा जाता है। ...
इस परिवार को बाद के पूर्वज 'अल्लाह दिया' के नाम पर 'लदिये के' कहा जाने लगा। मान्ना अल्लाह दिया से चार पीढ़ी पहले हुए थे। इस परिवार में 1885 में जैबा और सफिया की कोई संतान नहीं थी...।
1951 से पहले की जनगणना की रिपोर्टों से अकाल और महामारी इत्यादि के उन कारणों का पता चलता है जिनसे प्रभावित होकर लोग या तो गांव छोड़कर दूसरी जगह चले जाते थे या बड़ी संख्या में लोगों की मृत्यु हो जाने के कारण आबादी घट जाती थी। ... 1951 से पहले की जनगणनाओं में अलग-अलग गांवों की आबादी और शिक्षा की सूचना उपलब्ध नहीं थी। पूरे पंजाब और करनाल जिले के आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि सन 1881 से 1921 तक महिलाओं में सेशायद ही कोई पढ़ी-लिखी होती थी।
आजादी से पहले गांव में पढ़ाई की कोई व्यवस्था नहीं थी। गांव में मंदिर और मस्जिद दोनों थे, लेकिन उनमें भी पढ़ाई की कोई व्यवस्था रही हो ऐसा कोई प्रमाण नहीं है।
सन 1897 से 1918 तक के सालों में पंजाब में प्लेग फैला रहा। यह बीमारी जालंधर जिले से शुरू हुई और धीरे-धीरे पूरे पंजाब में फैल गई। आहूं और आसपास के इलाके में यह बीमारी संवत 1975 (सन 1918 ईस्वी) के कार्तिक महीने में पहुंची इसीलिए इसे कात्त्ग (कार्तिक) वाली बीमारी कहा जाता रहा है।
संवत 1840 (सन 1783) में भयंकर अकाल पड़ा था जिसे संवत के चालीसवे साल में होने के कारण चालीसा का अकाल कहा जाता था।
आहूं गांव का नाम अह्न (यह शब्द क्रमश: अ, ह् और न वर्णों से बना है, इसमें 'ह' हलंत और न पूर्ण अक्षर है) तीर्थ के नाम पर ही पड़ा है। अह्न के अशुद्ध उच्चारण (ह और न को आपस में बदलकर बोलने से) के कारण इसे अन्ह आन्ह और फिर आन्ध कहा जाने लगा...।’
उक्त कुछ पंक्तियां पुस्तक ‘आहूं गांव का इतिहास’ में से ली गई हैं। एक छोटी सी बानगी कि पुस्तक को कितने शोधपरक तरीके से लिखा गया है। असल में इस पुस्तक के लेखक शिव कुमार जी से इस पर चर्चा पहले हुई। फिर उन्होंने मुझे पीडीएफ फार्मेट में कुछ पढ़वाया। सच कहूं तो कभी-कभी मन में आता था कि हरियाणा के एक छोटे से गांव के बारे में कुछ लिखने या फिर पढ़ने की क्या रुचि हो सकती है? फिर खुद ही जवाब ढूंढ़ा कि लिखने की रुचि तो वहां का वाशिंदा होने के कारण शिव जी को हो गयी। फिर पढ़ने की? पढ़ने का मैं शौकीन हूं। इसी संबंध में अपने पूर्व के ब्लॉग में ऐसे ही एक गांव से संबंधित किताब का जिक्र कर चुका हूं।
खैर... इस बार शिव कुमार जी ने किताब भिजवा दी। लंबा समय हो गया। शायद दो माह से अधिक। पिछले दिनों उत्तराखंड की यात्रा के दौरान भी किताब साथ में रही। जब मौका मिला पढ़ता गया। उसी दौरान मुझे पता चला कि वहां सुदूर देभाल के रहने वाले मिश्रा लोगों ने भी अपनी एक वंशावली बनाई है। तभी एक सज्जन से बात हुई। उन्होंने मेरे सामने ही पुस्तक के कुछ जरूरी हिस्से पढ़ डाले। पढ़ते ही बोले, ‘काफी शोधपरक लगती है, आपने पढ़ ली क्या?’ मैं उनकी मंशा समझ गया। मैंने कहा, बस खत्म होने वाली है, आपको फिर भेजता हूं। वह मुस्कुरा दिए। असल में यह किताब वाकई शोधपरक है। आहूं गांव का नाम कैसे पड़ा। हरिद्वार में इस गांव के कौन पंडित हैं। जैसी जानकारी मुझे बड़ी रोचक लगी। मुझे याद आया कि करीब 25 साल पहले जब मैं जनेऊ कराने हरिद्वार गया था तो माताजी ने मुझसे कहा कि वहां काशीनाथ मुरलीधर के ठिकाने पर चले जाना। वह पूरी मदद करेंगे। सच में ऐसा ही हुआ। उन्होंने न केवल मदद की, बल्कि हमारे परिवार के कई पीढ़ियों के बारे में भी बता दिया। आहूं गांव के इतिहास को पढ़ते-पढ़ते वहां के वैद्यों का जिक्र (यहां बता दूं कि लेखक शिव कुमार के पिताजी स्वयं एक वैद्य रहे हैं उनका नाम है वैद्य धनीराम), पूजा स्थलों का जिक्र। इतिहास ही नहीं, इस किताब में वर्तमान भी है जो भविष्य के बारे में आईना सा दिखाता है। जगह-जगह वंशावली, आबादी, जमींदारी, शादी-व्याह जैसे शुभअवसरों पर गाये जाने वाले गीत, शिक्षा, खेती-बाड़ी जैसे तमाम पहलुओं की खूब पड़ताल की है लेखक शिव कुमार जी ने। ज्यादा विस्तार से नहीं लिखूंगा। यह जरूर कहूंगा कि यदि आप आहूं के गांव के आसपास के या हरियाणा के या पंजाब के हैं तो यह किताब तो आपको भाएगी ही, यदि आपका दूर-दूर तक इस गांव से किसी तरह का कोई नाता नहीं है तो भी यह किताब बेहद उपयोगी है। गांव के इतिहास लेखन की एक रूपरेखा प्रस्तुत करती है किताब। बेहद सरल और सहज अंदाज में। पुराने दस्तेवेजों और विभिन्न चित्रों से पुस्तक की रोचकता और भी बढ़ गयी है। मौका लगे तो पढ़ डालिए। शिव कुमार जी को पुन: साधुवाद। ऐसा लेखन और भी वह करेंगे, ऐसी उम्मीद है। मेरी शुभकामनाएं।
8 comments:
आप के लेखन का कमाल है केवल जी,आप पुस्तक को अभी भी पढ़ रहे हैं यह जानना बहुत ही आनंददायक है
हरेश जी का कमेंट।
हार्दिक धन्यवाद केवल जी ! बहुत सुन्दर लिखा है आपने। इससे भी बडी बात कि आपने इस पुस्तक को याद रखा ।
मैंने अपने परिवार की वंशावली भी लिखी है। यह 133 पृष्ठ की पुस्तक है । इसकी फोटो भेज रहा हूँ
लेखक शिव कुमार जी का कमेंट।
A cell,it is said,is the blue print of the universe at large.To understand the Universe completely, one has to study the cell minutely.This is what I felt while reading some extracts from your review and some other extracts published in various news papers from the book, Aahun Gaanv ka Itihaas by Sh. Shiv Kumar Ji. I felt as if I am touching the soul of all villages in India.Description is such terse and telling that I could see all details in pictures.I am trying to get a hard copy of the book and would love to read each and every word. Kudos to the author,Sh.Shiv Kumar Ji for such a wonderful creation which may not have a commercial value, but definitely has a great great sentimental value which can't be expressed in words.I am personally thankful to Sh. Shiv Kumar Ji as my native place ,Pundri in Kaithal Distt, is very near to Village Aahun, and it gave me a proud feeling as well.
Jugender Punani
बहुत खूब केवल जी
दीपक जी का कमेंट
बहुत सुंदर,जैसी किताब वैसा लेख तिवारी जी का।
शेखर जी का कमेंट
Do agree sir. Your comments are wonderful and will boost up to writer. So thankful to you.
Thanks, Sir. In fact your blog is so inspiring that I couldn't stop myself writing my honest opinion about a writer who could conceive such a naive idea
& successfully justified the philosophy of a journey from microcosm to macrocosm. AND YOU INSPIRED ME TO REALIZE IT. Society needs inspiring person like you always. Thanks again
Thanks you a ton.
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