केवल तिवारी
जिंदगी तो बेवफा है एक दिन ठुकराएगी, मौत महबूबा है अपने साथ लेके जायेगी। फिल्म मुकद्दर का सिकंदर के इस गीत के बोल बरबस तब याद आए जब गांव से मदन ने सूचना दी कि खिलगजार भाभीजी नहीं रही। उस परिवार की बुजुर्गतम महिला। हमारे परिवार की भी। लंबा-चौड़ा परिवार है हमारा। भाभी जी मुकद्दर का सिकंदर थीं या नहीं, इस पर सबकी अपनी राय हो सकती है, लेकिन शायद इसमें दो मत नहीं होंगे कि वह बहुत हिम्मती थीं। इतनी हिम्मती कि चौथी अवस्था में भी बड़े आराम से कहतीं, 'सब इंतजाम हो जाएगा।' कुछ साल पहले की बात है, मैंने उनसे कहा, 'बोजी (भाभीजी) हम लोग घर आएंगे, लेकिन...' पूरा सवाल सुने बिना ही वह समझ गयीं कि गांव में इंतजाम की बात पूछी जा रही है। हमारा मूल घर जीर्ण-शीर्ण हो चुका है। अचानक किसी के घर इतने लोग कैसे पहुंच सकते हैं? भाभीजी ने बीच में ही रोककर कहा, सब इंतजाम हो जाएगा, बस हफ्तेभर पहले बता देना। सच में उनके इंतजामात का असली आनंद आता जब वह भागवत करातीं। स्नेह से सबको बुलातीं। दीदीयों को भी नहीं भूलतीं। सबको निमंत्रण देना, गांव पहुंचने पर बहुत खुश होना और आशीर्वाद का पिटारा खोल देना, यही सोच थी उनकी। उनसे बेहद लगाव था। बहुत पुरानी बात याद करूं तो वह है प्रेमा दीदी की शादी का। कन्यादान जोड़े में ही हो सकता है। माता-पिता का जोड़ा तो पहले ही टूटा हुआ था, याद भी नहीं कि पिताजी कब चले गये। निकट परिवार में सब नौकरी-पेशा वाले, दूर-दराज निवासी। भाई साहब की शादी हुई नहीं थी, ऐसे में यही भाभी ने आंचल फैलाया और आशीर्वाद दिया। बाद तक भी कहती रहीं, 'प्रेमा ललि तो मेरि चेली जस छन।' यानी प्रेमा (ललि मतलब ननद) तो मेरी बेटी जैसी हैं। उसके बाद मेरा कुछ वर्षों का प्रारंभिक जीवन गांव में चला। बहुत ज्यादा चीजें समझ नहीं आती थीं। बाद में लखनऊ आ गया। एक बार 12वीं कक्षा में पढ़ाई के दौरान गांव गया। ईजा (माताजी) ने मिठाई की पुड़िया खिलगजार आदि जगह देने के लिए कहा। वह बोलीं, इसी बहाने तू सबसे मिल भी आएगा। तब भाभी जी ने कहा था, केवल तुमने इतना बोलना कहां से सीख लिया। असल में, मैं बहुत अंतर्मुखी टाइप व्यक्ति था। फिर मैंने उनकी बात पर गौर किया तो लगा सचमुच मैं बोलने और लिखने वाला बहुत हो गया हूं। खुद ही जवाब ढूंढ़ लिया, अब ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया है, इसलिए शायद बहुत बलार (बोलने वाला) हो गया हूं। शाहजहांपुर में ट्यूशन पढ़ाता था तो बच्चों से ज्यादा उनके मां-बाप को सिखाना पड़ता था। पढ़ाई के अलावा भी बच्चों के प्रति उनके अनेक आग्रह और दुराग्रह रहते थे। खैर... बाद में भाभीजी से साल-दो साल में मिलना होता रहता था। इस दौरान माताजी चल बसीं। वह अक्सर कहतीं, तुम्हारी ईजा तो भगवान का रूप थीं। महात्मा थीं। मैं मुस्कुरा देता। मां के प्रति मेरा अगाध स्नेह रहा है, जैसा कि हर बच्चे का अपनी मां के प्रति रहता ही है। मुझे उनकी बातें याद रहतीं। बातों ही बातों में भले ही हम पुरानी चीजों को याद करते, लेकिन उनका संदेश भविष्य के प्रति ज्यादा होता। बीती ताहि बिसार दे... का भाव लिए हुए। वह भागवत करातीं तो कभी बिपिन के साथ तो कभी अकेले जाना हुआ। बिपिन भी अब दुनिया में नहीं रहा। पिछली बार मैं जा नहीं पाया था। इस बार भाभी जी खुद ही चली गयीं। बिना किसी को कोई कष्ट दिये और बिना खुद कोई शारीरिक कष्ट झेले। मानसिक रूप से वह कैसे मजबूत रहती थीं, वहीं जानें। गांवों में पुराने संस्कार ऐसे ही थे कि हम ज्यादातर बड़े लोगों का नाम ही नहीं जानते थे। कोई चाची, कोई ताई और कोई भाभी। कभी किसी के नाम का पता ही नहीं चला। प्रसंगवश एक किस्सा याद आ रहा है। मैं एमए में जब पढ़ रहा था तो गांव गया। ईजा भी उन दिनों गांव में थी। मैंने कहा, ईजा मैंने माकोट (ननिहाल) नहीं देखा है। चलते हैं। वहां गये तो शाम के वक्त एक पूजा में बैठे थे। तभी एक बुजुर्ग सज्जन ने ईजा का नाम लिया और पूछा, तू कब आई। ईजा के नाम का संबोधन और बहन की तरह आत्मीय भाव से ऐसा पुकारा जाना मुझे बेहद भावुक कर गया। तभी ईजा ने मुझसे कहा, बेटा ये मामा हैं, पैर छुओ। पहली बार किसी के मुंह से मैंने मां का नाम सुना। गांव में तो अक्सर किसी के मुंह से उनके लिए अम्मा, ताई, चाची या भाभी जैसे ही संबोधन सुने थे। अब मुझे इन भाभी का भी नाम का पता ही नहीं। मैंने किसी से पूछा भी नहीं। खिलगजार की बोजी को सादर नमन। पुण्यात्मा का यदा-कदा स्मरण होता ही रहेगा। ऊं वासुदेवाय नम:

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