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Monday, August 9, 2021

हमारे ओलंपिक सितारे

साभार : दैनिक ट्रिब्यून www.dainiktribuneonline.com हमारे ओलंपिक सितारे कोरोना महामारी के चलते एक साल बाद हुए ओलंपिक में भारतीय खिलाड़ियों ने दिखा दिया कि मुश्किल हालात भी उन्हें डिगा नहीं सकते। टोक्यो में खेलों के इस महाकुंभ के दौरान तिरंगा शान से लहराया। जीत की नयी इबारत लिखी गयी जो भविष्य के खिलाड़ियों के लिए प्रेरणा बनेगी। ओलंपिक 2020 के इन महानायकों का लंबा सफर कई पड़ावों और विभिन्न तरह के अनुभवों से गुज़रा है। देश का नाम रोशन करने वाले इन बड़े खिलाड़ियों से परिचय करा रहे हैं केवल तिवारी नीरज चोपड़ा वज़न कम करने की जद्दोजहद में थाम लिया भाला किसान के बेटे हैं। संयुक्त परिवार है। हरियाणा के पानीपत स्थित खांद्रा गांव के मूल निवासी हैं। खेलों में मिली उपलब्धि के बाद राजपूताना राइफल्स में सूबेदार बने। टोक्यो ओलंपिक के इस गोल्डन बॉय नीरज चोपड़ा को आज पूरा देश सलाम कर रहा है। नीरज बचपन में बहुत मोटे थे। वज़न कम कराने के लिए परिवार के लोगों ने कई जतन किए। उन्हें खूब दौड़ाया जाता था। उनके चाचा भीम चोपड़ा उन्हें गांव से काफी दूर शिवाजी स्टेडियम लेकर गये। दौड़ने-भागने में बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं रखने वाले नीरज को स्टेडियम में भाला फेंक का अभ्यास करते हुए खिलाड़ी दिखे तो बस उसी खेल में आगे बढ़ने की ठान ली। परिवार ने साथ दिया और आज नीरज ने इतिहास रच दिया। वह देश के लिए व्यक्तिगत स्वर्ण जीतने वाले पहले ट्रैक एंड फील्ड एथलीट हैं। नीरज ने अपने दूसरे प्रयास में 87.58 मीटर की दूरी के साथ पहला स्थान हासिल कर गोल्ड अपने नाम किया। वह 2016 जूनियर विश्व चैंपियनशिप में 86.48 मीटर के अंडर -20 विश्व रिकॉर्ड के साथ ऐतिहासिक स्वर्ण पदक जीतने के बाद से लगातार अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। वर्ष 2018 राष्ट्रमंडल खेलों और एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीता। उन्होंने 2017 एशियाई चैंपियनशिप में शीर्ष स्थान हासिल किया था। बेटे की उपलब्धि पर पिता सतीश चोपड़ा कहते हैं, ‘खुशियों को शब्दों में बयां करना मुश्किल है। हम चार भाई हैं। नीरज भाग्यशाली रहा कि उसे पूरे परिवार का समर्थन मिला।’ मां सरोज कहती हैं, ‘नीरज सभी की उम्मीदों पर खरा उतरा और भारत का गौरव बढ़ाया।’ चाचा भीम चोपड़ा कहते हैं, ‘खिलाड़ी की कड़ी मेहनत और मजबूत दृढ़ संकल्प के साथ परिवार का समर्थन और अच्छे संस्कार भी महत्वपूर्ण होते हैं। नीरज के पास ये सब हैं और वह सफल हुआ।’ मीराबाई चानू सपने तीरंदाजी के और बन गयीं वेट लिफ्टर मणिपुर की रहने वाली मीराबाई छह भाई-बहनों में सबसे छोटी हैं और कद की भी छोटी हैं। इम्फाल से करीब 20 किलोमीटर दूर उनका गांव नोंगपोक काकजिंग है। पहाड़ी इलाकों के जीवन की तरह इनका बचपन भी कठिन परिस्थितियों वाला रहा। चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी काटना और भोजन बनाने एवं पीने के लिए दूर-दराज से पानी भरकर लाना ही इनकी दिनचर्या थी। हां दिली रुझान खेलों के प्रति था। वह तीरंदाज बनना चाहती थी, लेकिन वेट लिफ्टर कुंजरानी के बारे में सुना तो इसी में आगे बढ़ने की ठान ली। मेहनत रंग लाई और रविवार 8 अगस्त को अपना जन्मदिन एक शानदार जश्न के साथ मनाया। हालांकि यह सफर इतना आसान नहीं था। स्पोर्ट्स अकादमी घर से बहुत दूर थी। ट्रक में लिफ्ट लेकर वह जातीं, खूब पसीना बहातीं और वापस आकर घर के काम भी निपटातीं। तभी तो जब वह टोक्यो से लौटीं तो ट्रक ड्राइवर के लिए विशेष भोज का इंतजाम किया। बचपन से ही कड़ी मेहनत करने वाली चानू का जोश और जज्बा आखिरकार रंग लाया। टोक्यो ओलंपिक में पहले ही दिन पदक तालिका में भारत का नाम अंकित करा दिया था। उन्होंने 49 किग्रा वर्ग में रजत पदक जीतकर भारोत्तोलन में पदक के 21 साल के सूखे को खत्म किया। इस 26 साल की खिलाड़ी ने कुल 202 किलो भार उठाया। वह ओलंपिक मेडल जीतने वाली दूसरी भारतीय महिला भारोत्तोल्लक हैं। मीराबाई चानू के बारे में प्रसिद्ध है कि वह अपने बैग में हमेशा देश की मिट्टी रखती हैं। पीवी सिंधु 8 साल की उम्र से ही खेलने लगीं बैडमिंटन महज 8 साल की उम्र में बैडमिंटन थाम लिया था। शौकिया खेल की तरह नहीं, जूनून के साथ। जुनून तो होना ही था। आखिर परिवार में माहौल ही खेल और खिलाड़ी का था। स्टार बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु के पिता पीवी रमन्ना और मां पी विजया राष्ट्रीय स्तर पर वॉलीबॉल खेल चुके हैं। मां तो अर्जुन अवार्डी हैं। बैडमिंटन पर अपना अलग स्टाइल बना चुकीं पीवी सिंधु का जोश और जज्बा ही था कि ओलंपिक में इनके जाने पर ही पदक की उम्मीद बंध चुकी थी और हुआ भी वैसा ही। इस 26 साल की खिलाड़ी ने इससे पहले 2016 रियो ओलंपिक में रजत पदक जीता था। वह ओलंपिक में दो पदक जीतने वाली देश की पहली महिला और कुल दूसरी खिलाड़ी हैं। हैदराबाद की इस खिलाड़ी ने 2014 में विश्व चैंपियनशिप, एशियाई खेलों, राष्ट्रमंडल खेलों और एशियाई चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीतने के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनायी। पूरी दुनिया में स्टार बैडमिंटन खिलाड़ी के तौर पर ख्याति पा चुकीं पीवी सिंधु को अब तक कई पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। बचपन से ही बैडमिंटन खेल रहीं सिंधु ने तब और दृढ़ संकल्प ले लिया जब 2001 में पुलेला गोपीचंद ऑल इंग्लैंड चैम्पियनशिप का खिताब जीते। सिंधु ने अपनी पहली ट्रेनिंग सिकंदराबाद में महबूब खान की देखरेख में शुरू की थी। इसके बाद सिंधु गोपीचंद की अकादमी से जुड़कर बैडमिंटन के गुर सीखने लगीं। कई अंतर्राष्ट्रीय मुकाबलों में देश का नाम रोशन कर चुकीं सिंधु प्रसन्न रहकर अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ते रहने को ही सफलता की सही डगर मानती हैं। रवि दहिया पिता की मेहनत पर जड़ दी चांदी हरियाणा का एक और कामयाब छोरा। सोनीपत का गांव नाहरी, मूल निवास। किसान परिवार। पिता राकेश कुमार ने रवि कुमार दहिया को 12 साल की उम्र में ही दिल्ली स्थित छत्रसाल स्टेडियम भेज दिया। बेशक आर्थिक तंगी थी, लेकिन पिता ने रवि पर पूरी ताकत झोंक दी और खुद रोज 60 किलोमीटर की दूरी तय कर बेटे के लिए दूध, मक्खन आदि लेकर जाते। इधर, पिता बेटे को कामयाब देखना चाहते थे और उधर, बेटा भी जी-जान से लगा हुआ था पिता के सपनों को साकार करने में। इरादे पक्के हों तो फिर जीत से कौन रोक सकता है। यही हुआ। रवि कुमार दहिया ने पिता के उस निर्णय को सही साबित कर दिखाया जो उन्होंने बचपन में ही ले लिया था। यानी स्टेडियम भेजकर बच्चे को भविष्य का सफल खिलाड़ी बनाने का फैसला। पिता की मेहनत और रवि की कसरत काम आई और टोक्यो ओलंपिक में रवि ने पुरुषों के 57 किग्रा फ्रीस्टाइल कुश्ती में रजत पदक जीत कर अपनी ताकत और तकनीक का लोहा मनवाया। रवि कुमार दहिया ने वर्ष 2019 विश्व चैम्पियनशिप में कांस्य पदक जीतकर ओलंपिक का टिकट पक्का किया और फिर 2020 में दिल्ली में एशियाई चैम्पियनशिप जीती और अलमाटी में इस साल खिताब का बचाव किया। रवि ने 1982 के एशियन गेम्स में गोल्ड जीतने वाले सतपाल सिंह से ट्रेनिंग ली है। रवि ने वर्ष 2015 जूनियर वर्ल्ड रेसलिंग चैम्पियनशिप में 55 किलोग्राम कैटेगरी में रजत पदक जीता। वह सेमीफाइनल में चोटिल हो गये थे। उन्हें ठीक होने में करीब एक साल लग गया। फिर 2018 वर्ल्ड अंडर 23 रेसलिंग चैम्पियनशिप में 57 किलोग्राम वर्ग में सिल्वर मेडल जीता। यही नहीं कोरोना महामारी से पहले उन्होंने एशियन रेसलिंग चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीता था। बजरंग पूनिया घुटने की चोट को भुलाया हरियाणा के झज्जर का पहलवान। पहलवानी विरासत में मिली। शादी में आठ फेरे लिए। एक फेरा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के नाम। ये बजरंग हैं। बजरंग पूनिया। घुटने में चोट के बावजूद पूरी मुस्तैदी से मुकाबला किया। कांस्य पदक मिला। देश को इस पदक पर गर्व, लेकिन खुद संतुष्ट नहीं। बजरंग पूनिया का टोक्यो का सफर बहुत कठिन रहा। उन्हें स्वर्ण पदक का प्रबल दावेदार माना जा रहा था। बजरंग का कहना है कि वह कुछ दिन आराम करने के बाद एक बार फिर पूरे जोश के साथ भविष्य की प्रतियोगिताओं की तैयारी में खुद को झोंक देंगे। जुनूनी बजरंग ने महज सात साल की उम्र में कुश्ती शुरू कर दी थी। कभी-कभी तो आधी रात को ही उठकर प्रैक्टिस करने लगते। बजरंग का जुनून ही था कि 2008 में अपने से कई किलोग्राम ज्यादा वजनी पहलवान से भिड़ गये और उसे चित्त कर दिया। बचपन से ही बजरंग के पिता जहां उन्हें कुश्ती के दांव सिखाते वहीं आर्थिक तंगी आड़े न आए, इस सोच के साथ काम करते। वह बस का किराया बचाकर साइकिल से अपने काम पर जाते थे। साल 2015 में बजरंग का परिवार सोनीपत में शिफ्ट हो गया, ताकि वह भारतीय खेल प्राधिकरण के सेंटर में ट्रेनिंग कर सकें। असल में बजरंग अभ्यास के लिए रूस गए, जहां एक स्थानीय टूर्नामेंट में उनका घुटना चोटिल हो गया। मीडिया कर्मियों से बातचीत में बजरंग ने कहा, ‘मेरे कोच और फिजियो चाहते थे कि मैं कांस्य मुकाबले में घुटने पर पट्टी बांधकर उतरूं, लेकिन मैं सहज महसूस नहीं कर रहा था। मैंने उनसे कहा कि अगर चोट गंभीर हो जाए तो भी मैं बाद में आराम कर सकता हूं लेकिन अगर मैं अब पदक नहीं जीत पाया तो सारी मेहनत बेकार हो जाएगी। इसलिए मैं बिना पट्टी के ही मैट पर उतरा था।’ बजरंग पूनिया ने अब तक कई खिताब जीते हैं। लवलीना बारगोहेन पहले कोरोना को हराया, फिर विश्व चैंपियन को पिता टिकेन बारगोहेन का अपना व्यवसाय। माता मामोनी बारगोहेन हाउस वाइफ। बच्ची ने बचपन में ही अपने इरादे स्पष्ट कर दिए। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। मां ने पूरा सपोर्ट किया। पिता ने पैसे की तंगी नहीं आने दी और इस जुनूनी लड़की लवलीना बोरगोहेन ने 23 साल की उम्र में अपने करिअर के पहले ही ओलंपिक में कांस्य पदक जीतकर इतिहास रच दिया। वह विजेन्दर सिंह और मैरी कॉम के बाद मुक्केबाजी में पदक जीतने वाली तीसरी भारतीय खिलाड़ी हैं। असम के गोलाघाट जिले के बरो मुखिया गांव की लवलीना पहले ‘किक-बॉक्सर’ बनना चाहती थीं। लवलीना और उनकी दो बहनों ने पिता के लिए चाय बागान के व्यवसाय को आगे बढ़ाने में भी बहुत सपोर्ट किया। धीरे-धीरे पिता का व्यवसाय अच्छा जम गया और लवलीना के सपनों को पंख लगने लगे। उन्होंने अपने इरादे जाहिर किए और लग गयीं पूरी धुन से। टोक्यो ओलंपिक की तैयारी के लिए उन्हें यूरोप जाना था। कुल 52 दिनों का टूर था। लेकिन ऐन मौके पर कोरोना वायरस से संक्रमित हो गयीं। उन्होंने कोरोनो को मात दी और ऐसी शानदार वापसी की कि 69 किलोग्राम वर्ग में चीनी ताइपे की पूर्व विश्व चैम्पियन निएन-शिन चेन को मात दे दी। असम की इस लड़की के जीवन में भले ही आर्थिक तंगी कभी रोड़ा न बनी हो, लेकिन सामाजिक ताने-बाने से इन्हें कई बार दो-चार होना पड़ा। समाज में कई लोग लड़कियों को आगे बढ़ते नहीं देख सकते थे। लेकिन लवलीना को घरवालों का सपोर्ट मिला तो उन्होंने अपनी ट्रेनिंग शुरू कर दी। मैरीकॉम को अपना आदर्श मानने वाली लवलीना ने आखिरकार खूब मेहनत की और उन्हें आगे बढ़ने का मौका मिलता रहा। शुरुआत छोटी-मोटी प्रतियोगिताओं से हुई और देखते-देखते ओलंपिक तक का पदकीय सफर शानदार रहा। हॉकी हर खिलाड़ी की अपनी खासियत 41 वर्षों का सूखा खत्म किया। बेशक कांस्य ही लपक पाए, लेकिन जो जोश और जज्बा इस टीम ने दिखाया उससे हॉकी का स्वर्णिम भविष्य लिखा जाएगा। यह हॉकी की टीम इंडिया का ही तो कमाल था कि महामारी की उदासी के दौरान टीम का जज्बा सामने आया और हर खेल प्रेमी ने जश्न मनाया। जी हां, यह भारत की हॉकी टीम है। बहुत लंबे अंतराल के बाद हॉकी में भारत को पदक मिला। टीम के प्रत्येक सदस्य को कई राज्य सरकारों एवं संस्थाओं ने सम्मानित करने का फैसला किया है। यूं तो हर भारतीय ने दिल से टीम इंडिया का सम्मान किया है। इस टीम ने ग्रुप चरण के दूसरे मैच में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ 1-7 से बुरी तरह हारने के बाद मनप्रीत सिंह की अगुवाई में शानदार वापसी की। एक बारगी थोड़ा नर्वस हो चुकी टीम ने फिर से हिम्मत बांधी और आगे बढ़ी। पहले सेमीफाइनल में बेल्जियम से हारने के बाद टीम ने कांस्य पदक प्ले ऑफ में जर्मनी को 5-4 से मात दी। यह मात बेहद ऐतिहासिक रही। टोक्यो ओलंपिक में हॉकी की टीम इंडिया ने अपना बेस्ट परफारमेंस दिया। पूरे टूर्नामेंट के दौरान मनप्रीत की प्रेरणादायक कप्तानी के साथ गोलकीपर पीआर श्रीजेश ने शानदार प्रदर्शन किया। कप्तान ने जहां बेहतरीन रणनीति बनायी वहीं श्रीजेश ने विरोधी टीम की ओर से दागे जा रहे कई महत्वपूर्ण गोल को पहले ही रोककर जीत का रास्ता सुगम किया। इस जीत के साथ ही हॉकी टीम ने पूरे देश में जश्न का माहौल बना दिया। आइये संक्षेप में जानते हैं हॉकी टीम के बारे में- टीम के कप्तान मनप्रीत सिंह 19 साल की उम्र में ही टीम इंडिया में आ गए थे। वह विरोधी टीम की डिफेंस में सेंध लगाने के लिए जाने जाते हैं। इसी तरह पीआर श्रीजेश गोलकीपर हैं और टीम के सबसे वरिष्ठ खिलाड़ी। उन्होंने पूरे मुकाबले में कई गोल रोके। हरमनप्रीत सिंह रियो ओलंपिक में भी टीम इंडिया के हिस्सा थे। उन्हें पेनाल्टी कॉर्नर एक्सपर्ट माना जाता है। रुपिंदर पाल सिंह की लंबी हाइट का टीम को लाभ मिलता है। हरियाणा के सुरेंद्र कुमार को टीम डिफेंस की रीढ़ माना जाता है। अमित रोहिदास लंबे वक्त तक टीम इंडिया से बाहर रहे, अब शानदार वापसी हुई और जोरदार तरीके से खेल रहे हैं। बिरेंदर लाकरा का यह दूसरा ओलंपिक है। ओडिशा के हैं और हॉकी के ऑल राउंडर माने जाते हैं। हार्दिक सिंह ने इस बार खास पहचान बना ली। प्री-क्वार्टरफाइनल में किया गया हार्दिक का गोल बहुत महत्वपूर्ण था। विवेक सिंह प्रसाद का सबसे कम उम्र में टीम में आने वाले खिलाड़ियों में नाम है। टोक्यो में उन्होंने फॉरवर्ड लाइन का जिम्मा संभाला और टीम का बखूबी साथ दिया। मणिपुर के नीलकांत शर्मा, हरियाणा के सुमित वाल्मीकि, पंजाब के शमशेर सिंह और पंजाब के ही दिलप्रीत सिंह के अलावा गुरजंट सिंह और मनदीप सिंह भी हॉकी टीम इंडिया के अहम खिलाड़ियों में से हैं।

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