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Tuesday, June 20, 2023

जिक्र करना तो बनता है, आखिर यात्रा थी हमारी

केवल तिवारी 

घूम आए, मिल आए। इधर गए, उधर गए और लौट आए। पहाड़ घूमने के सपने संजोए। कार्यक्रम कुछ बना और हुआ कुछ। असल में हमारे-आपके हाथ में कहां कुछ होता है। हम तो चलते हैं और ऊपर वाला हमें चलाता रहता है। खैर अंत भला तो सब भला। सिलसिलेवार संक्षेप में कुछ कह डालता हूं। 

पत्नी भावना के मूल मायके (उत्तराखंड के द्वाराहाट में सग्नेटी) में पारिवारिक पूजा का कार्यक्रम पिछले लंबे समय से बन रहा था और मुल्तवी हो रहा था। यूं तो हमारी ओर से किसी के शामिल होने की कोई वाध्यता नहीं थी, लेकिन ऐसा संयोग बना कि भावना और छोटा बेटा धवल 29 मई को काठगोदाम पहुंच गए और उसके एक-दो दिन बाद द्वाराहाट। मैं चंडीगढ़ से बड़े बेटे कार्तिक के साथ गाजियाबाद से होते हुए पहुंचे पांच जून को। गाजियाबाद से हमारे साथ बेंगलुरू से आए विनोद पांडे जी भी हो लिए। पूरा सफर बहुत आनंददायक रहा। काठगोदाम से धवल और भावना को लिया और सीधे चोरगलिया प्रेमा दीदी के पास। वह डेढ़ साल से घर में ही है। जीजाजी की बहुत याद आई। वह दसियों बार तो फोन कर पूछ चुके होते और घर पहुंचने से पहले ही सड़क पर खड़े होते। सम्मान, पूछताछ में कहीं कोई कमी आज भी नहीं रही, लेकिन उनकी जगह कौन भर सकता है।खैर... मनोज और दीदी इंतजार में बैठे थे। मनोज की पत्नी, दोनों बच्चियों से भी संवाद हुए। थोड़ी-बहुत घर-परिवार की बात हुई। बेटी जीवा के पैर में चोट ने परेशान किया।अगले दिन दीदी और छुटकी तनिष्का को लेकर नानकमत्ता चले गए। भयंकर गर्मी और नानक सागर डैम के सूखे होने से कोई खास आनंद नहीं आया। हां, गुरुद्वारे में जाकर आध्यात्मिक शांति मिली। वहीं लंगर छका और लौट आए।कार्यक्रम था दीदी को साथ लेकर दो-चार दिन कहीं घूमने का, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। यहां वही बात फिर कि कार्यक्रम हम कहां बनाते हैं। काठगोदाम में शेखरदा के ससुर यानी सिद्धू के नानाजी अस्वस्थ थे। उनके परिवार के साथ ही कहीं जाना था। शेखरदा कुछ नौकरीगत व्यस्तताओं में घिरे थे। लिहाजा विशेष टूर की कोई योजना नहीं बन सकी। हमारा हाल उसी तरह हो गया जिसे किसी शायर ने इस तरह पेश किया है- 

न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं, अजब सफ़र है कि बस हम-सफ़र को देखते हैं। 

सबसे पहले चोरगलिया। फिर नानकमत्ता। फाइनली कोटाबाग वाले सुरेश पांडे जी यानी मेरे साढू भाई ही काम आए। पहले पहल तो उन्होंने भी कहा कि उनकी कुछ व्यस्तताएं हैं, लेकिन फिर मेरा आग्रह नहीं टाल पाए और हम करीब 11 लोग निकल पड़े। दिन में पांडेजी के मित्र जोशी जी के यहां। हमारे लिए नितांत अनजान व्यक्ति, लेकिन आवभगत ऐसी कि जैसे वर्षों बाद कोई बिटिया मायके आई हो। शब्द नहीं हैं उनके अपनेपन को बयां करने के लिए। वापसी में बहुत सारा सामान भी रख दिया गाड़ी में। उनकी बिटिया पायल भी हमारे साथ अगले दिन के सफर में गयी। बेटा पारस हनुमान धाम तक। ऐसा इत्तेफाक बना कि उनकी सभी दीदीयों, बहनों से भी मुलाकात हो गयी। फिर भानजे मनोज के ससुर के रिसॉर्ट में रुके। उन्होंने लीज पर दिया है। जाहिर है वहां टिकने खाने का भुगतान देना है, लेकिन कांडपाल जी पल-पल हमारी खैर-ख्वाह लेते रहे और नाश्ते, लंच और डिनर की विशेष व्यवस्था करवा दी। पहले भी उनके साथ मिलना हुआ। इस बार मिले तो जीजा जी यानी मिश्रा जी को बहुत याद किया। पांडे जी भी कहते रह गये कि कभी मिश्रा जी से मिलने चोरगलिया जाएंगे। क्या कर सकते हैं नियति को यही मंजूर। मैंने प्रिय ईशू यानी इशान पांडेय यानी पांडेय जी के सुपुत्र को उन जगहों का नाम लिखकर भेजने को कहा था, जहां-जहां हम घूमे, लेकिन शायद वह भूल गया। इस बार वह 10वीं पास कर 11वीं में गया है और करिअर के अहम पड़ाव में है। हम पांडेजी के घर कोटाबाग ईजा से भी मिलकर आये। उनका अपार स्नेह मिला। यह सफर हल्द्वानी, कोटाबाग, रामनगर, गैबुआ के इर्द-गिर्द घूमता रहा। आते वक्त हरिद्वार में गंगा स्नान फिर ऋषिकेश का कार्यक्रम बन गया। ऋषिकेश में मित्र अनुराग ढौंडियाल जी ने एक धर्मशाला में व्यवस्था कर दी। वहां गंगा आरती देखने का भी अलग आनंद आया। इस सफर में नदी-नाले, धारे, झरने और भी बहुत कुछ। कुछ बातें तस्वीरें कहेंगी। तस्वीर साभार : नेहा जोशी, मुन्नू या शायद साक्षी पांडे, ईशू, धवल और कार्तिक। इस सफर के रोचक दोस्त प्रहील को कैसे भूल सकते हैं। ज्योति का बेटा हमारे साथ तो नहीं गया, लेकिन जितनी देर उसका सान्निध्य रहा बस मजा आ गया। अभी बहुत छोटा है, फुर्तीला है। आनंददायक है। जब जिक्र करने की बात आई तो भानजी रुचि, दामाद दीपेश और प्यारा बच्चा रीषू यानी ऋषि पंत की बात कैसे रह जाए। परेशान रहते हुए भी रुचि हमेशा स्वादिष्ट भोजन कराती है। रिशू तो कमाल है। नानू-नानी कहते हुए उसका मन करता है कि जो मेहमान आए हैं, वे यहीं रह जाएं। इस सफर के सभी हमसफरों का दिल से शुक्रिया। सफर से संबंधित कुछ शेर हमेशा की तरह इधर-उधर से टीपकर यहां लिख रहा हूं- 

मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर 

लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया  

किसी को घर से निकलतेही मिल गई मंज़िल  

कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा 

आए ठहरे और रवाना हो गए,  

ज़िंदगी क्या है, सफ़र की बात है 

चले थे जिस की तरफ़ वो निशान ख़त्म हुआ,  

सफ़र अधूरा रहा आसमान ख़त्म हुआ
















6 comments:

Anonymous said...

बहुत ही सुन्दर और यादगार पल

Garvit Verma said...

Memorable moments ❤️🥀

सोतड़ू said...

जिंदगी क्या है, सफ़र ही है सर



ऐसे ही शानदार कटता जाए बस...


Anonymous said...

बहुत बढ़िया तिवारी जी, बधाइयां हार्दिक बधाइयां आने वाले पीढ़ी या वंशबेली को पूर्वजों की धरोहर मूल माटी की जड़ के बारे में बताना, दिखाना और सिखाना अब ज़रुरी हो गया है, अन्यथा न संस्कार बचेंगे न मूल धरोहर, .. आने वाली पीढ़ी वंशबेली हमें कभी भी याद नहीं करेगी।।।

Anonymous said...

धन्यवाद। बिल्कुल सहमत

Anonymous said...

बिल्कुल सही बात