पिछले दिनों उत्तराखंड स्थित अपने मूल गांव यानी जन्मभूमि पर जाने का अचानक संयोग बन पड़ा। यात्रा वृतांत पर जाने से पहले बशीर बद्र साहब के उस शेर को याद करना चाहता हूं, जिसके शब्द हैं- 'वर्षों बाद वह घर आया है, अपने साथ खुद को भी लाया है।' सचमुच भौतिक आपाधापी और कुछ मजबूरियों में हम लोग इस कदर मशगूल हो गए हैं कि घर-आंगन से दूर हो गए हैं। घर गया तो सचमुच आंगन रूठा-रूठा सा लग रहा था। देहरी उदास सी दिख रही थी। आश्चर्यजनक था कि आंगन में गौरैया फुदक रही थी। गौरैया पर अपनी कहानी ‘गौरैया का पंख’ याद आई। वह तो फ्लैट में लिखी गयी थी। यहां आंगन में इस नन्ही चिड़िया का फुदकना अच्छा लगा। फोटो के लिए मोबाइल निकालने तक वह फुर्र हो गयी। इसके बाद घर के अंदर माताजी के ऐतिहासिक संदूक ने जैसे सारे तार खोल दिए और दिल भावनाओं के उमड़-घुमड़ में खो गया। दीदीयों से बात हुई। भावनाओं का ज्वार-भाटा फूटा और अंधेरे कमरे में थोड़े से आंसू निकले और भावनाओं के समंदर में दुनियादारी की 'समझदारी' हावी हो गयी और चल पड़ा आगे का सिलसिला। विस्तार से सुनाता हूं पूरा विवरण।
इन दिनों अलग-अलग दिवस मनाए जाते हैं। गत 22 सितंबर को पता चला कि डॉटर्स डे है। पत्नी से बात हुई तो बोली, भतीजी कन्नू को फोन लगा लो। वह अक्सर ‘परिजनों से बात कर लो’ के लिए ताकीद करती रहती है। कन्नू संभवत: व्यस्त थी, उसका फोन नहीं उठा। फिर विचार आया कि चलो भतीजे दीपू से बात हो जाये। उसे फोन लगाया तो संयोग से बात हो गयी। मैंने बताया कि लखनऊ लंबे समय से नहीं आ पाया, जबकि वादा था कि भाभीजी (कन्नू, दीपू की मम्मी) के घुटनों के ऑपरेशन के बाद बीच-बीच में आता रहूंगा। मेरे इस बीच लखनऊ न जा पाने का कारण था मेरा एक्सीडेंट। कुछ ही दिन हुए पैर का प्लास्टर कटा है। फोन पर बातचीत के दौरान दीपू ने कहा कि लखनऊ आने का तो फिर बनाना, पहले गांव चलो। वहां जमीन संबंधी कुछ काम करने जरूरी हैं। नाम भी चढ़वाना है। कुछ लोग नजर भी गड़ाए हैं। मैंने तुरंत हां कर दी और आठ नवंबर की रात चलने को कहा। पहले इसलिए नहीं जा सकता था कि हरियाणा में चुनावी कार्यक्रम था और नैतिकता का तकाजा था कि छुट्टी न ली जाए। दीपू तैयार हो गया। बड़े भाई साहब से भी चलने को कहा, लेकिन उनकी व्यस्तता थी और कुछ मजबूरियां भी। खैर जाने से पहले समस्या थी कि गांव जाकर रुका कहां जाए। दीपू से फोन पर बात करने के बाद मैं इसी उधेड़बुन में लग गया। इसी दौरान मैंने अपने साढू भाई सुरेश पांडे जी से बात की और पूछा कि खाता-खतौनी कैसे निकलेगी, क्योंकि मामला जमीन का था। जब मैंने उन्हें बताया कि गांव जाने का कार्यक्रम है तो बोले, मैं भी चल पड़ूंगा और चीजों को समझूंगा। फिर जेठू (पत्नी के बड़े भाई) शेखरदा से बात हुई, वह भी चलने के लिए और हल्द्वानी से आगे सारथी बनने (अपनी कार से हम सबको ले चलने) के लिए तैयार हो गए। इसी दौरान गांव में पीतांबर तिवारी जी उर्फ पनदा से बात हुई। उन्होंने सहर्ष कहा कि आओ।
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पहाड़ों का वह सफर और ताड़ीखेत प्रवास
तय कार्यक्रम के मुताबिक मैं 8 अक्तूबर की रात चंडीगढ़ से दिल्ली के लिए निकला। दीपू से भी कहा कि तुम 9 की सुबह निकलना। सुबह करीब 4 बजे कश्मीरी गेट पहुंच गया, लेकिन वहां डीटीसी की अव्यवस्थ के शिकार में फंस गया और आनंद विहार पहुंचते-पहुंचते 6 बज गये। कहानी लंबी है, इसलिए विस्तार नहीं दे रहा हूं, लेकिन इतना कह दूं कि राजनीति में जो मुफ्त का खेल चल रहा है, वह है खतरनाक। खैर… आनंद विहार जैसे ही पहुंचा हल्द्वानी की बस चलने ही वाली थी। इस बीच, दो-तीन बार शेखर दा का फोन आ चुका था। जब भी कहीं लंबे सफर पर जाता हूं तो इन लोगों के फोन आते हैं, लोकेशन पूछते रहते हैं, अच्छा लगता है कि कोई खैर ख्वाह है। इसी दौरान दीपू से भी बात हुई। वह भी निकल चुका था। दीपू से गजरौला पहुंचकर फिर फोन किया, वह वहां से आगे बढ़ चुका था। दोपहर 12 बजे के आसपास आधे घंटे के गैप में हम दोनों पहुंच गए। शेखर दा और पांडे जी हमें रिसीव करने के लिए मौजूद थे। तुरंत चल पड़े ताड़ीखेत के लिए। रास्ते में एक जगह चाय पी और एक जगह पाठक जी के ढाबे पर खाना खाया। इस दौरान लंबे समय बाद अपने पहाड़ आने के सुख को अनुभव करता रहा। कभी वीडियो बनाया, कभी बातें कीं। कभी घर पहुंचने पर कुछ काम को लेकर मंथन किया। कुछ वीडियो और फोटो यहां साझा करूंगा।
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घर के पास और घर से दूर, ताड़ीखेत का होटल
ताड़ीखेत यानी जहां से अक्सर पैदल ही घर जाया करते थे, या घर जाने के लिए थोड़ी दूर और सफर कर डाबर घट्टी तक जाया करते थे। अब गांव तक सड़क पहुंच गयी। मैंने इसी सड़क पर एक ब्लॉग लिखा था (सड़क और पलायन का रिश्ता), जिसे बहुत सराहा गया। आज हम घर के पास तो पहुंच चुके थे, लेकिन तय किया कि गांव अगली सुबह पहुंचेंगे। इसी दौरान मलोटा (मौट) के पान सिंह से बातचीत हुई। उनका कई बार फोन आया यह पूछने के लिए क्या सिवाड़ क्षेत्र की जमीन को बेचना चाहते हैं। उन्हें स्पष्ट किया कि ऐसा कोई इरादा नहीं है और निर्णय सिर्फ और सिर्फ लखनऊ बड़े भाई साहब लेंगे। फिर भी उन्होंने दो लोगों को भेजा और वे लोग हमें रानीखेत के करीब एक बेहतरीन होटल दिखाने ले गये। मैंने विनम्रता पूर्वक वहां नहीं रहने के लिए कहा क्योंकि हमारा काम ताड़ीखेत में था। उन लोगों को धन्यवाद देते हुए मैंने कहा कि हम बार-बार इतनी दूर आना-जाना नहीं कर सकते। उनसे विदा लेकर हम लोग वापस ताड़ीखेत आए और व्यंजन होटल में बात की। नवीन जोशी जी का यह होटल अच्छा था। रात वहां गुजारी। पहले मन किया कि चलकर रामलीला देखी जाए। पान सिंह जी वहां रावण की भूमिका अदा कर रहे थे, फिर थकान का इतना बुरा हाल था कि खाना खाते ही मैं तो सो गया। शायद दीपू, शेखरदा और पांडेजी कुछ देर तक बात करते रहे। अगली सुबह पहले मैं और शेखरदा ताड़ीखेत morning walk करके आये। चाय पीकर आये। वापस आकर दीपू, पांडेजी को उठाया। फिर सबने स्नान ध्यान किया। होटल से निकलकर पहले ग्वेलदेवता के मंदिर गए माथा टेका। फिर नाश्ता-पानी।
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प्रधान विजय जी का भरपूर सहयोग
गांव पहुंचने से पहले आदतन मैं सारी स्थितियों से अवगत होने की कोशिश कर रहा था। इसी दौरान खिलगजार मदन (रिश्ते में भतीजा और बचपन का दोस्त) से बातचीत हुई। उसने विजय जी का नंबर दिया। विजय हमारे गांव के दूसरे हिस्से यानी मलोटा क्षेत्र से प्रधान हैं। बेहद मिलनसार। काम में सहयोग करने वाले और प्रधानगी की छवि से अलग। हम लोग शाम को उनसे मिले। उन्होंने जरूरी जानकारियां दीं। कुछ फोन नंबर दिए। साथ ही परिवार रजिस्टर के लिए ऑनलाइन आवेदन किया। यह भी कहा कि कोई जरूरत हो आप संपर्क करना। काम तो होते रहेंगे, लेकिन मृदुल व्यवहार के लिए विजय जी का आभार। मदन का धन्यवाद।
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जब हम चले अपने गांव की ओर
10 अक्तूबर करीब 11 बजे कुछ सामान खरीदने के बाद हम लोगों ने गांव की ओर रवानगी डाली। रवाना होने से पहले हमें ताड़ीखेत में ही वीरेंद्र सिंह (बीरू) मिला, उससे कहा कि हम कार तुम्हारे घर पर खड़ी करेंगे। उसने जगह बता दी। तभी दीपू का दोस्त, मेरे भाई साहब के दोस्त उर्वीदा के पुत्र मुन्ना (पूरा नाम शायद मनोज तिवारी) मिला। मुन्ना भी हमारे साथ ही चला और पूरे रास्तेभर वहां की गतिविधियों को बताता रहा। मुन्ना पूजा-पाठ कराता है। नेक व्यक्ति है। पहाड़ी वादियों को देख कई गाने मन में उमड़-घुमड़ रहे थे। बातें चल रही थीं। कब सरना पहुंच गए, पता ही नहीं चला। वहां से पैदल चले। सबसे पहले भोपका की माताजी (उम्र करीब 100 साल) मिलीं। मैंने अपना परिचय दिया तो गले लगकर रोने लगीं। फिर थोड़ा ऊपर। मुझे अचानक पता चला कि बिसका नहीं रहे। बेहतरीन कलाकार बिसका के साथ बचपन से बातें होती थीं। पता चला कि उनका निधन कई वर्ष पहले हो चुका है। थोड़ा ऊपर गए तो प्रधान (मेरे दोस्त दिनेश की पत्नी) का घर मिला। दिनेश से मुलाकात की, बच्चों से मिला, अपने काम के सिलिसिले में कुछ बातें कीं। प्रमाणपत्र बनाने के लिए कहा और आ गए अपने गांव। पनदा सामने दिख गए। भाभी ने भी मुस्कुराकर स्वागत किया। पानी पिलाया। मैंने कहा अभी बैठूंगा। पहले बसंत दा, कैलाश, प्रयागदा के घर गया। फिर चायपानी और बातचीत का दौर शुरू। थोड़ी देर के लिए पांडेजी और शेखरदा को लेकर अडगाड़ (पानी का पुश्तैनी झरना) भी गया।
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… और वह जादुई संदूक
चूंकि मामला जमीन के दस्तावेजों का था तो दीपू ने घर का दरवाजा खोला। घर जर्जर हालत में पहुंच चुका है। अंदर जाकर ईजा (माताजी) के जादुई संदूक को खोला गया। जाइुई इसलिए कि बचपन में जब भी ईजा इस संदूक को खोलती थी मैं और शीला दीदी उसी में सिर घुसा देते थे। हमें पता था कि कुछ न कुछ खाने को मिलेगा ही। कभी मिसरी मिलती, कभी मिठाई मिलती और कभी गोला-गरी। इस बार उसमें ऐसी नायाब चीजें मिलीं जिस पर पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है। दाज्यू, दीदी के पुराने रिजल्ट, प्रमाणमत्र, जमीनों के कागजात, ब्रिटिशकालीन सिक्के वगैरह-वगैरह। साथ ही जब दीदीयों से बात की तो एक कहानी और पता चली। बताते हैं कि एक बार घर में पेठा (पेठा मिठाई) आई। उस वक्त पिताजी बीमारी के दौर से गुजर रहे थे। मां ने संदूक खोला तो प्रेमा दीदी और शीला दीदी ने मिठाई की जिद की। मां ने डपट दिया और कहा कि तुम्हारे पिताजी का गला सूख जाता है, थोड़ी सी मिठाई उनके लिए रखी है। इस वाकये को अनुभव कर रहे पिताजी ने बाहर के कमरे से कहा, अरे दे दे इन बेटियों को मिठाई। मां ने पता नहीं हालात को कैसे हैंडल किया, लेकिन अगले दिन पिताजी इस दुनिया से ही चले गये। उस मिठाई का क्या हुआ होगा, इसका अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है, मां पर क्या गुजरी होगी, इस पर पूरी कहानी बन सकती है। उसके बाद किशोरावस्था की दहलीज पर खड़े हमारे बड़े भाई साहब भुवन चंद्र तिवारी पर क्या बीती और कैसे समय आगे बढ़ा, अंदाज लगा सकते हैं। मेरे पास अलग अलग रूपों में सारी दास्तान डाक्यूमेंटेड है। साथ ही मिठाई की जिद कर रहीं प्रेमा दीदी, शीला दीदी पर क्या बीती होगी। पुष्पा दीदी और विमला दीदी की शादी हो चुकी थी और मेरा होना या न होना एक जैसा था। न था मैं तो खुदा था, न होता मैं तो खुदा होता, डुबोया हमको होने ने, न मैं होता तो क्या होता।
खैर... इस वक्त मेरे जेहन में मां उमड़-घुमड़ रही थी। पुराने दस्तावेजों को देखकर दीपू निश्छल बच्चा सा बन गया और अपने पापा, मम्मी और बुआ को फोन करने लगा। मैं भी इसी लौ में बहता चला गया। बातों में से बातें- एक बात बसंतदा ने बताई कि जिस साल भाई साहब का जन्म हुआ था, हमारे आंगन में श्रवण कुमार का नाटक खेला गया। पिताजी ने कलाकारों को खुशी-खुशी 25 रुपये दिए। उस दौर के 25 रुपये का अंदाजा लगाया जा सकता है। वसंतदा के साथ प्रयागदा ने भी कई बातें साझा कीं। शाम होने तक हम लोग बतियाते रहे और फिर ठंड बढ़ने लगी और भोजन के बाद सो गये।
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घर तुझसे वादा…
घर के अजीबोगरीब हालात में पनदा के बेटे विनोद ने बहुत मदद की। उसने मशीन से घास काटी। फिर मोहनदा के बेटे विनोद जिसे प्यार से बिंदी कहते हैं, से मैंने फोन किया और उसके घर में हम लोग सोए। पांडेजी और शेखरदा तो उसी दिन लौट आए, लेकिन मैं और दीपू वहां दो दिन रुके। बिंदी ने घर अच्छा बनाया है। हमारा मन भी वैसा करने का है। पहले तो बार-बार घर जाते रहने का मन में संकल्प किया, फिर ईश्वर से प्रार्थना कि कुछ अच्छा करने में हम आगे बढ़ सकें। इस दौरान बिपिन की भी खूब याद आई। वह अक्सर मुझसे घर चलने के लिए कहता था। कई बार तो प्रोग्राम बनाने के बाद आदेशात्मक लहजे में कहता था, फलां दिन पहुंच जाना, दिल्ली से साथ चलेंगे। तमाम यादों को समेटकर मैं आ गया। बसंतदा के पिताजी के श्राद्ध का भोजन भी किया। पहाड़ी रायते की खुशबू और स्वाद कई सालों बाद महसूस किया।
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मंदिर-मंदिर, गांव-गांव यात्रा और बुजुर्ग चाची और भाभी से बातचीत
जिस दिन गांव पहुंचे, उस दिन तो कुछ ही घरों में जाना हुआ। अगले दिन सुबह से ही हम लोग काम पर लग गए। दीपू ने हिम्मत दिखाई और घर को लीप दिया। मैं तो हालांकि मना कर रहा था, लेकिन उसने लीप दिया। साथ ही उसने और मुन्ना ने पंडित जी को भी बुला लिया था। हमारे कुल पुरोहित के वंशज। शायद हरीश पांडे। पहले हमने घर के अंदर कुल देवी को याद किया। दोनों ने आरती की। फिर ग्वेलथान गए। वहां संकल्प कराकर, पंडितजी पूजा में लग गए, हम लोग चले गए धूनी। वहां पूजा-पाठ की। मुन्ना भी हमारे साथ था। वापसी में हिमतपुर चाची मिली। मिलते ही गले लगकर रोने लगी और कहने लगी कि तेरी मां मेरी सहेली थी, मैं उसके पास कब जाऊंगी। मैंने कहा, चाची जब बुलावा आएगा, तब जाओगी। इसी दौरान चाची की एक फोटो खींच ली। चूंकि यह महीना असोज (फसल कटने और घास सहेजकर रखने का मौसम) लगा हुआ था, इसलिए घर के युवा सदस्य कम ही मिल पाए। जो मिले भी तो काम करते हुए।
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संस्कारी बच्चे, परंपराएं और पहाड़ा का जीवन
पहाड़ा का जीवन कठिन है, यह तो हर बार की तरह इस बार भी दिखा, लेकिन बदलाव की बयार यहां भी है और होनी भी चाहिए। एक ग्रूप में सफर का वीडियो डाला तो हमसे पहले गांव में हमारी सूचना पहुंच गयी। इसके साथ ही महसूस किया बच्चों का परिवार के प्रति स्नेह का संस्कार। पनदा का बेटा विनोद मम्मी-पापा का हाथ बंटाता दिखा, उसने हमारा भी सहयोग किया। उर्वीदा का बेटा मुन्ना हर वक्त मां की सेवा में लगा रहता है। वह लूठा (सूखी खास को एकत्र कर रखने की परंपरा) बनाता दिखा। महेश दा का बेटा भी अपने मम्मी-पापा की मदद कर रहा था। मदन का बेटा नोएडा से घर आया था त्योहारी तैयारी के सिलसिले में। इसके अलावा जगह-जगह बच्चियां घास काटती दिखीं, लेकिन आधुनिक ड्रेस (जींस और टी शर्ट) में। मुझे बहुत अच्छा लगा। आखिर जिसमें आपको अच्छा लगता है, वह पहनने में क्या दिक्कत है। यात्रा का विवरण तो बहुत लंबा-चौड़ा है। इस यात्रा के चलते कुछ कविताएं और कुछ कहानियां भी बन पड़ी हैं। जाहिर किरदारों को बदलते हुए इन्हें जल्दी ही आप लोगों को पढ़वाऊंगा। अंत में यही कहूंगा, ‘हिमाला को ऊंचो डाना, प्यारो मेरो गांव- रंगीलो गढ़वाल मेरो छबीलो कुमाऊं।’
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मानीला में भुवन जीजा जी के कॉटेज में अविस्मरणीय प्रवास
संघर्ष के दिनों में कौशांबी स्थित हिमगिरि के नौवें फ्लोर पर हम अनेक लोग रहते थे। वहां गीता दीदी और भुवन जीजाजी हम सबके संरक्षक थे। मार्गदर्शक थे। अब भी सबका संपर्क उनसे बना हुआ है। बातोंबातों में पता चला कि वह भी इन दिनों अपने मानीला स्थित कॉटेज पहुंचे हुए हैं। उन्होंने मुझसे कहा कि गांव का काम निपटाकर मानीला चले आओ। मैं पहली बार ताड़ीखेत से भतरजखान, फिर भिक्यांसैण होते हुए मानीला पहुंचा। रास्ते में मासी रोड दिखी। मैंने कुछ लोगों से पूछा तो पता चला यह हमारे ननिहाल साइट का ही इलाका है। उसके बाद पंतगांव का रास्ता दिखा। नाम बहुत सुना था, देखा पहली बार। दोपहर को मैं मानीला मुख्य रोड पर उतरा। जीजाजी कार लेकर लेने आ गये। कॉटेज पहुंचा। शानदार लोकेशन, संपूर्ण सुविधाएं। वहां रवि भी मिले। वह खाना बना रहे थे। गुनगुनी धूप का आनंद लिया। लंच किया फिर आराम। शाम को आसपास का इलाका देखा। गीत-संगीत का कार्यक्रम चला। तमाम अविस्मरणीय यादों को समेटकर लौट चला अपनी रुटीन लाइफ में। इस बीच, हमारे हिमगिरि के सभी साथी धीरज ढिल्लों, जैनेंद्र सोलंकी, हरीश, पंकज चौहान, राजेश डोबरियाल और सभी मित्रों की धुरी सूरी यानी सुरेंद्र पंडित से मुलाकात हुई। जीजाजी के साथ डिनर हुआ। बहुत अच्छा लगा।