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Sunday, October 20, 2024

वर्षों बाद घर गया, अपने साथ 'खुद' को भी ले गया



केवल तिवारी
पिछले दिनों उत्तराखंड स्थित अपने मूल गांव यानी जन्मभूमि पर जाने का अचानक संयोग बन पड़ा। यात्रा वृतांत पर जाने से पहले बशीर बद्र साहब के उस शेर को याद करना चाहता हूं, जिसके शब्द हैं- 'वर्षों बाद वह घर आया है, अपने साथ खुद को भी लाया है।' सचमुच भौतिक आपाधापी और कुछ मजबूरियों में हम लोग इस कदर मशगूल हो गए हैं कि घर-आंगन से दूर हो गए हैं। घर गया तो सचमुच आंगन रूठा-रूठा सा लग रहा था। देहरी उदास सी दिख रही थी। आश्चर्यजनक था कि आंगन में गौरैया फुदक रही थी। गौरैया पर अपनी कहानी ‘गौरैया का पंख’ याद आई। वह तो फ्लैट में लिखी गयी थी। यहां आंगन में इस नन्ही चिड़िया का फुदकना अच्छा लगा। फोटो के लिए मोबाइल निकालने तक वह फुर्र हो गयी। इसके बाद घर के अंदर माताजी के ऐतिहासिक संदूक ने जैसे सारे तार खोल दिए और दिल भावनाओं के उमड़-घुमड़ में खो गया। दीदीयों से बात हुई। भावनाओं का ज्वार-भाटा फूटा और अंधेरे कमरे में थोड़े से आंसू निकले और भावनाओं के समंदर में दुनियादारी की 'समझदारी' हावी हो गयी और चल पड़ा आगे का सिलसिला। विस्तार से सुनाता हूं पूरा विवरण।
इन दिनों अलग-अलग दिवस मनाए जाते हैं। गत 22 सितंबर को पता चला कि डॉटर्स डे है। पत्नी से बात हुई तो बोली, भतीजी कन्नू को फोन लगा लो। वह अक्सर ‘परिजनों से बात कर लो’ के लिए ताकीद करती रहती है। कन्नू संभवत: व्यस्त थी, उसका फोन नहीं उठा। फिर विचार आया कि चलो भतीजे दीपू से बात हो जाये। उसे फोन लगाया तो संयोग से बात हो गयी। मैंने बताया कि लखनऊ लंबे समय से नहीं आ पाया, जबकि वादा था कि भाभीजी (कन्नू, दीपू की मम्मी) के घुटनों के ऑपरेशन के बाद बीच-बीच में आता रहूंगा। मेरे इस बीच लखनऊ न जा पाने का कारण था मेरा एक्सीडेंट। कुछ ही दिन हुए पैर का प्लास्टर कटा है। फोन पर बातचीत के दौरान दीपू ने कहा कि लखनऊ आने का तो फिर बनाना, पहले गांव चलो। वहां जमीन संबंधी कुछ काम करने जरूरी हैं। नाम भी चढ़वाना है। कुछ लोग नजर भी गड़ाए हैं। मैंने तुरंत हां कर दी और आठ नवंबर की रात चलने को कहा। पहले इसलिए नहीं जा सकता था कि हरियाणा में चुनावी कार्यक्रम था और नैतिकता का तकाजा था कि छुट्टी न ली जाए। दीपू तैयार हो गया। बड़े भाई साहब से भी चलने को कहा, लेकिन उनकी व्यस्तता थी और कुछ मजबूरियां भी। खैर जाने से पहले समस्या थी कि गांव जाकर रुका कहां जाए। दीपू से फोन पर बात करने के बाद मैं इसी उधेड़बुन में लग गया। इसी दौरान मैंने अपने साढू भाई सुरेश पांडे जी से बात की और पूछा कि खाता-खतौनी कैसे निकलेगी, क्योंकि मामला जमीन का था। जब मैंने उन्हें बताया कि गांव जाने का कार्यक्रम है तो बोले, मैं भी चल पड़ूंगा और चीजों को समझूंगा। फिर जेठू (पत्नी के बड़े भाई) शेखरदा से बात हुई, वह भी चलने के लिए और हल्द्वानी से आगे सारथी बनने (अपनी कार से हम सबको ले चलने) के लिए तैयार हो गए। इसी दौरान गांव में पीतांबर तिवारी जी उर्फ पनदा से बात हुई। उन्होंने सहर्ष कहा कि आओ।
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पहाड़ों का वह सफर और ताड़ीखेत प्रवास
तय कार्यक्रम के मुताबिक मैं 8 अक्तूबर की रात चंडीगढ़ से दिल्ली के लिए निकला। दीपू से भी कहा कि तुम 9 की सुबह निकलना। सुबह करीब 4 बजे कश्मीरी गेट पहुंच गया, लेकिन वहां डीटीसी की अव्यवस्थ के शिकार में फंस गया और आनंद विहार पहुंचते-पहुंचते 6 बज गये। कहानी लंबी है, इसलिए विस्तार नहीं दे रहा हूं, लेकिन इतना कह दूं कि राजनीति में जो मुफ्त का खेल चल रहा है, वह है खतरनाक। खैर… आनंद विहार जैसे ही पहुंचा हल्द्वानी की बस चलने ही वाली थी। इस बीच, दो-तीन बार शेखर दा का फोन आ चुका था। जब भी कहीं लंबे सफर पर जाता हूं तो इन लोगों के फोन आते हैं, लोकेशन पूछते रहते हैं, अच्छा लगता है कि कोई खैर ख्वाह है। इसी दौरान दीपू से भी बात हुई। वह भी निकल चुका था। दीपू से गजरौला पहुंचकर फिर फोन किया, वह वहां से आगे बढ़ चुका था।  दोपहर 12 बजे के आसपास आधे घंटे के गैप में हम दोनों पहुंच गए। शेखर दा और पांडे जी हमें रिसीव करने के लिए मौजूद थे। तुरंत चल पड़े ताड़ीखेत के लिए। रास्ते में एक जगह चाय पी और एक जगह पाठक जी के ढाबे पर खाना खाया। इस दौरान लंबे समय बाद अपने पहाड़ आने के सुख को अनुभव करता रहा। कभी वीडियो बनाया, कभी बातें कीं। कभी घर पहुंचने पर कुछ काम को लेकर मंथन किया। कुछ वीडियो और फोटो यहां साझा करूंगा।
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घर के पास और घर से दूर, ताड़ीखेत का होटल
ताड़ीखेत यानी जहां से अक्सर पैदल ही घर जाया करते थे, या घर जाने के लिए थोड़ी दूर और सफर कर डाबर घट्टी तक जाया करते थे। अब गांव तक सड़क पहुंच गयी। मैंने इसी सड़क पर एक ब्लॉग लिखा था (सड़क और पलायन का रिश्ता), जिसे बहुत सराहा गया। आज हम घर के पास तो पहुंच चुके थे, लेकिन तय किया कि गांव अगली सुबह पहुंचेंगे। इसी दौरान मलोटा (मौट) के पान सिंह से बातचीत हुई। उनका कई बार फोन आया यह पूछने के लिए क्या सिवाड़ क्षेत्र की जमीन को बेचना चाहते हैं। उन्हें स्पष्ट किया कि ऐसा कोई इरादा नहीं है और निर्णय सिर्फ और सिर्फ लखनऊ बड़े भाई साहब लेंगे। फिर भी उन्होंने दो लोगों को भेजा और वे लोग हमें रानीखेत के करीब एक बेहतरीन होटल दिखाने ले गये। मैंने विनम्रता पूर्वक वहां नहीं रहने के लिए कहा क्योंकि हमारा काम ताड़ीखेत में था। उन लोगों को धन्यवाद देते हुए मैंने कहा कि हम बार-बार इतनी दूर आना-जाना नहीं कर सकते। उनसे विदा लेकर हम लोग वापस ताड़ीखेत आए और व्यंजन होटल में बात की। नवीन जोशी जी का यह होटल अच्छा था। रात वहां गुजारी। पहले मन किया कि चलकर रामलीला देखी जाए। पान सिंह जी वहां रावण की भूमिका अदा कर रहे थे, फिर थकान का इतना बुरा हाल था कि खाना खाते ही मैं तो सो गया। शायद दीपू, शेखरदा और पांडेजी कुछ देर तक बात करते रहे। अगली सुबह पहले मैं और शेखरदा ताड़ीखेत morning walk करके आये। चाय पीकर आये। वापस आकर दीपू, पांडेजी को उठाया। फिर सबने स्नान ध्यान किया। होटल से निकलकर पहले ग्वेलदेवता के मंदिर गए माथा टेका। फिर नाश्ता-पानी।
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प्रधान विजय जी का भरपूर सहयोग
गांव पहुंचने से पहले आदतन मैं सारी स्थितियों से अवगत होने की कोशिश कर रहा था। इसी दौरान खिलगजार मदन (रिश्ते में भतीजा और बचपन का दोस्त) से बातचीत हुई। उसने विजय जी का नंबर दिया। विजय हमारे गांव के दूसरे हिस्से यानी मलोटा क्षेत्र से प्रधान हैं। बेहद मिलनसार। काम में सहयोग करने वाले और प्रधानगी की छवि से अलग। हम लोग शाम को उनसे मिले। उन्होंने जरूरी जानकारियां दीं। कुछ फोन नंबर दिए। साथ ही परिवार रजिस्टर के लिए ऑनलाइन आवेदन किया। यह भी कहा कि कोई जरूरत हो आप संपर्क करना। काम तो होते रहेंगे, लेकिन मृदुल व्यवहार के लिए विजय जी का आभार। मदन का धन्यवाद।
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जब हम चले अपने गांव की ओर
10 अक्तूबर करीब 11 बजे कुछ सामान खरीदने के बाद हम लोगों ने गांव की ओर रवानगी डाली। रवाना होने से पहले हमें ताड़ीखेत में ही वीरेंद्र सिंह (बीरू) मिला, उससे कहा कि हम कार तुम्हारे घर पर खड़ी करेंगे। उसने जगह बता दी। तभी दीपू का दोस्त, मेरे भाई साहब के दोस्त उर्वीदा के पुत्र मुन्ना (पूरा नाम शायद मनोज तिवारी) मिला। मुन्ना भी हमारे साथ ही चला और पूरे रास्तेभर वहां की गतिविधियों को बताता रहा। मुन्ना पूजा-पाठ कराता है। नेक व्यक्ति है। पहाड़ी वादियों को देख कई गाने मन में उमड़-घुमड़ रहे थे। बातें चल रही थीं। कब सरना पहुंच गए, पता ही नहीं चला। वहां से पैदल चले। सबसे पहले भोपका की माताजी (उम्र करीब 100 साल) मिलीं। मैंने अपना परिचय दिया तो गले लगकर रोने लगीं। फिर थोड़ा ऊपर। मुझे अचानक पता चला कि बिसका नहीं रहे। बेहतरीन कलाकार बिसका के साथ बचपन से बातें होती थीं। पता चला कि उनका निधन कई वर्ष पहले हो चुका है। थोड़ा ऊपर गए तो प्रधान (मेरे दोस्त दिनेश की पत्नी) का घर मिला। दिनेश से मुलाकात की, बच्चों से मिला, अपने काम के सिलिसिले में कुछ बातें कीं। प्रमाणपत्र बनाने के लिए कहा और आ गए अपने गांव। पनदा सामने दिख गए। भाभी ने भी मुस्कुराकर स्वागत किया। पानी पिलाया। मैंने कहा अभी बैठूंगा। पहले बसंत दा, कैलाश, प्रयागदा के घर गया। फिर चायपानी और बातचीत का दौर शुरू। थोड़ी देर के लिए पांडेजी और शेखरदा को लेकर अडगाड़ (पानी का पुश्तैनी झरना) भी गया।
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… और वह जादुई संदूक
चूंकि मामला जमीन के दस्तावेजों का था तो दीपू ने घर का दरवाजा खोला। घर जर्जर हालत में पहुंच चुका है। अंदर जाकर ईजा (माताजी) के जादुई संदूक को खोला गया। जाइुई इसलिए कि बचपन में जब भी ईजा इस संदूक को खोलती थी मैं और शीला दीदी उसी में सिर घुसा देते थे। हमें पता था कि कुछ न कुछ खाने को मिलेगा ही। कभी मिसरी मिलती, कभी मिठाई मिलती और कभी गोला-गरी। इस बार उसमें ऐसी नायाब चीजें मिलीं जिस पर पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है। दाज्यू, दीदी के पुराने रिजल्ट, प्रमाणमत्र, जमीनों के कागजात, ब्रिटिशकालीन सिक्के वगैरह-वगैरह। साथ ही जब दीदीयों से बात की तो एक कहानी और पता चली। बताते हैं कि एक बार घर में पेठा (पेठा मिठाई) आई। उस वक्त पिताजी बीमारी के दौर से गुजर रहे थे। मां ने संदूक खोला तो प्रेमा दीदी और शीला दीदी ने मिठाई की जिद की। मां ने डपट दिया और कहा कि तुम्हारे पिताजी का गला सूख जाता है, थोड़ी सी मिठाई उनके लिए रखी है। इस वाकये को अनुभव कर रहे पिताजी ने बाहर के कमरे से कहा, अरे दे दे इन बेटियों को मिठाई। मां ने पता नहीं हालात को कैसे हैंडल किया, लेकिन अगले दिन पिताजी इस दुनिया से ही चले गये। उस मिठाई का क्या हुआ होगा, इसका अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है, मां पर क्या गुजरी होगी, इस पर पूरी कहानी बन सकती है। उसके बाद किशोरावस्था की दहलीज पर खड़े हमारे बड़े भाई साहब भुवन चंद्र तिवारी पर क्या बीती और कैसे समय आगे बढ़ा, अंदाज लगा सकते हैं। मेरे पास अलग अलग रूपों में सारी दास्तान डाक्यूमेंटेड है। साथ ही मिठाई की जिद कर रहीं प्रेमा दीदी, शीला दीदी पर क्या बीती होगी। पुष्पा दीदी और विमला दीदी की शादी हो चुकी थी और मेरा होना या न होना एक जैसा था। न था मैं तो खुदा था, न होता मैं तो खुदा होता, डुबोया हमको होने ने, न मैं होता तो क्या होता।
खैर... इस वक्त मेरे जेहन में मां उमड़-घुमड़ रही थी। पुराने दस्तावेजों को देखकर दीपू निश्छल बच्चा सा बन गया और अपने पापा, मम्मी और बुआ को फोन करने लगा। मैं भी इसी लौ में बहता चला गया। बातों में से बातें- एक बात बसंतदा ने बताई कि जिस साल भाई साहब का जन्म हुआ था, हमारे आंगन में श्रवण कुमार का नाटक खेला गया। पिताजी ने कलाकारों को खुशी-खुशी 25 रुपये दिए। उस दौर के 25 रुपये का अंदाजा लगाया जा सकता है। वसंतदा के साथ प्रयागदा ने भी कई बातें साझा कीं। शाम होने तक हम लोग बतियाते रहे और फिर ठंड बढ़ने लगी और भोजन के बाद सो गये।
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घर तुझसे वादा…
घर के अजीबोगरीब हालात में पनदा के बेटे विनोद ने बहुत मदद की। उसने मशीन से घास काटी। फिर मोहनदा के बेटे विनोद जिसे प्यार से बिंदी कहते हैं, से मैंने फोन किया और उसके घर में हम लोग सोए। पांडेजी और शेखरदा तो उसी दिन लौट आए, लेकिन मैं और दीपू वहां दो दिन रुके। बिंदी ने घर अच्छा बनाया है। हमारा मन भी वैसा करने का है। पहले तो बार-बार घर जाते रहने का मन में संकल्प किया, फिर ईश्वर से प्रार्थना कि कुछ अच्छा करने में हम आगे बढ़ सकें। इस दौरान बिपिन की भी खूब याद आई। वह अक्सर मुझसे घर चलने के लिए कहता था। कई बार तो प्रोग्राम बनाने के बाद आदेशात्मक लहजे में कहता था, फलां दिन पहुंच जाना, दिल्ली से साथ चलेंगे। तमाम यादों को समेटकर मैं आ गया। बसंतदा के पिताजी के श्राद्ध का भोजन भी किया। पहाड़ी रायते की खुशबू और स्वाद कई सालों बाद महसूस किया।
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मंदिर-मंदिर, गांव-गांव यात्रा और बुजुर्ग चाची और भाभी से बातचीत
जिस दिन गांव पहुंचे, उस दिन तो कुछ ही घरों में जाना हुआ। अगले दिन सुबह से ही हम लोग काम पर लग गए। दीपू ने हिम्मत दिखाई और घर को लीप दिया। मैं तो हालांकि मना कर रहा था, लेकिन उसने लीप दिया। साथ ही उसने और मुन्ना ने पंडित जी को भी बुला लिया था। हमारे कुल पुरोहित के वंशज। शायद हरीश पांडे। पहले हमने घर के अंदर कुल देवी को याद किया। दोनों ने आरती की। फिर ग्वेलथान गए। वहां संकल्प कराकर, पंडितजी पूजा में लग गए, हम लोग चले गए धूनी। वहां पूजा-पाठ की। मुन्ना भी हमारे साथ था। वापसी में हिमतपुर चाची मिली। मिलते ही गले लगकर रोने लगी और कहने लगी कि तेरी मां मेरी सहेली थी, मैं उसके पास कब जाऊंगी। मैंने कहा, चाची जब बुलावा आएगा, तब जाओगी। इसी दौरान चाची की एक फोटो खींच ली। चूंकि यह महीना असोज (फसल कटने और घास सहेजकर रखने का मौसम) लगा हुआ था, इसलिए घर के युवा सदस्य कम ही मिल पाए। जो मिले भी तो काम करते हुए।
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संस्कारी बच्चे, परंपराएं और पहाड़ा का जीवन
पहाड़ा का जीवन कठिन है, यह तो हर बार की तरह इस बार भी दिखा, लेकिन बदलाव की बयार यहां भी है और होनी भी चाहिए। एक ग्रूप में सफर का वीडियो डाला तो हमसे पहले गांव में हमारी सूचना पहुंच गयी। इसके साथ ही महसूस किया बच्चों का परिवार के प्रति स्नेह का संस्कार। पनदा का बेटा विनोद मम्मी-पापा का हाथ बंटाता दिखा, उसने हमारा भी सहयोग किया। उर्वीदा का बेटा मुन्ना हर वक्त मां की सेवा में लगा रहता है। वह लूठा (सूखी खास को एकत्र कर रखने की परंपरा) बनाता दिखा। महेश दा का बेटा भी अपने मम्मी-पापा की मदद कर रहा था। मदन का बेटा नोएडा से घर आया था त्योहारी तैयारी के सिलसिले में। इसके अलावा जगह-जगह बच्चियां घास काटती दिखीं, लेकिन आधुनिक ड्रेस (जींस और टी शर्ट) में। मुझे बहुत अच्छा लगा। आखिर जिसमें आपको अच्छा लगता है, वह पहनने में क्या दिक्कत है। यात्रा का विवरण तो बहुत लंबा-चौड़ा है। इस यात्रा के चलते कुछ कविताएं और कुछ कहानियां भी बन पड़ी हैं। जाहिर किरदारों को बदलते हुए इन्हें जल्दी ही आप लोगों को पढ़वाऊंगा। अंत में यही कहूंगा, ‘हिमाला को ऊंचो डाना, प्यारो मेरो गांव- रंगीलो गढ़वाल मेरो छबीलो कुमाऊं।’
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मानीला में भुवन जीजा जी के कॉटेज में अविस्मरणीय प्रवास
संघर्ष के दिनों में कौशांबी स्थित हिमगिरि के नौवें फ्लोर पर हम अनेक लोग रहते थे। वहां गीता दीदी और भुवन जीजाजी हम सबके संरक्षक थे। मार्गदर्शक थे। अब भी सबका संपर्क उनसे बना हुआ है। बातोंबातों में पता चला कि वह भी इन दिनों अपने मानीला स्थित कॉटेज पहुंचे हुए हैं। उन्होंने मुझसे कहा कि गांव का काम निपटाकर मानीला चले आओ। मैं पहली बार ताड़ीखेत से भतरजखान, फिर भिक्यांसैण होते हुए मानीला पहुंचा। रास्ते में मासी रोड दिखी। मैंने कुछ लोगों से पूछा तो पता चला यह हमारे ननिहाल साइट का ही इलाका है। उसके बाद पंतगांव का रास्ता दिखा। नाम बहुत सुना था, देखा पहली बार। दोपहर को मैं मानीला मुख्य रोड पर उतरा। जीजाजी कार लेकर लेने आ गये। कॉटेज पहुंचा। शानदार लोकेशन, संपूर्ण सुविधाएं। वहां रवि भी मिले। वह खाना बना रहे थे। गुनगुनी धूप का आनंद लिया। लंच किया फिर आराम। शाम को आसपास का इलाका देखा। गीत-संगीत का कार्यक्रम चला। तमाम अविस्मरणीय यादों को समेटकर लौट चला अपनी रुटीन लाइफ में। इस बीच, हमारे हिमगिरि के सभी साथी धीरज ढिल्लों, जैनेंद्र सोलंकी, हरीश, पंकज चौहान, राजेश डोबरियाल और सभी मित्रों की धुरी सूरी यानी सुरेंद्र पंडित से मुलाकात हुई। जीजाजी के साथ डिनर हुआ। बहुत अच्छा लगा।














Saturday, October 5, 2024

मन क्या है? ऑफिस की कैंटीन में चर्चा



केवल तिवारी

पिछले दिनों ऑफिस (The Tribune, दैनिक ट्रिब्यून, ਪੰਜਾਬੀ ਟ੍ਰਿਬਿਊਨ) की कैंटीन में, मैं और साथी जतिंदर जीत सिंह चाय पी रहे थे। उसी वक्त पंडित अनिरुद्ध शर्मा जी अपने साथी अरविंद सैनी जी के साथ आए। उन्होंने एक सवाल उठाया कि आखिर 'मन' क्या है? 'मन' को किस तरह से हम परिभाषित कर सकते हैं? मन के बारे में जब बात करने लगे तो पहले चर्चा हुई मन के वैज्ञानिक या डॉक्टरी पहलू पर। सवाल उठा कि क्या मन शरीर का कोई अंग है। यानी कि क्या मन असल में कहीं एक्जिस्ट करता भी है। जिस तरह शरीर के कई अंग होते हैं, मसलन- यकृत, अमाशय, दिल वगैरह-वगैरह। लेकिन शरीर में मन नाम का कोई अंग नहीं है। फिर यह भी कहा गया कि दिल ही मन का दूसरा रूप है। इस पर सहमति नहीं बनी क्योंकि मैंने कहा कि मन अभी यहां है, पलभर में हजारों लाखों किलोमीटर दूर मन पहुंच सकता है। मन की क्या थाह। जतिंदरजीत सिंह जी बोले, मन असल में दिल से थोड़ा हटकर है। कई बार हम दिल से यह जानते हैं कि जो हम खा रहे हैं या पी रहे हैं वह नुकसानदायक है, लेकिन मन पर काबू नहीं रहता है और खा या पी लेते हैं। उन्होंने कहा कि जैसे शराब पीने वाला जानता है कि इसका सेवन खराब है, लेकिन फिर भी मन के वशीभूत वह इसे पीता है। तभी पंडित जी बोले कि यह बात तो दिल पर भी लागू होती है। किसी भी अनुचित कदम उठाते वक्त दिल हमें सचेत करता है। लेकिन हम फिर भी नहीं मानते तो नुकसान होता है। फिर सवाल उठा कि दिल और मन में फर्क। हम लोग जब चर्चा कर रहे थे पंडित जी और उनके साथी अरविंद जी आइसक्री खा रहे थे। एक-एक कप खा चुके थे, एक-एक और ले आए थे। मैं और जतिंदरजीत जी चाय पी रहे थे। मैंने सोचा कि यह भी तो मन की बात है। इनका मन आइसक्रीम खाने को किया होगा, खा रहे हैं। हमें चाय पीनी थी, पी रहे हैं। अब यह दिल की बात है या मन की।
फिल्मी गीतों में मन
दिल और मन में फर्क के संबंध की चर्चा का कोई फाइनल समाधान तो नहीं निकला अलबत्ता यह हुआ कि अपनी-अपनी तरफ से इसके बारे में कुछ सोचेंगे। मेरे जेहन में मन से संबंधित कुछ फिल्मी गीत कौंध गए। यहां भी जेहन क्या, मन या दिल या दिमाग... पहले तो पढ़ते-पढ़ते इन गानों को गुनगुनाइये-
- आकर तेरी बाहों में हर शाम लगे सिंदूरी, मेरे मन को महकाए तेरे मन की कस्तूरी
- तू जो मेरे मन का घर बसा ले मन लगा ले हो उजाले
- मुझे खुशी मिली इतनी की मन में न समाये
- कई बार यूं ही देखा है ये जो मन की सीमा रेखा है
- मेरे मन का बावरा पंछी क्यों बार-बार
- दिखे कोई मन का नगर बनके मेरा साथी
- कोरा कागज था ये मन मेरा
- जानेमन जानेमन तेरे दो नयन चोरी-चोरी लेके गए देखो मेरा मन
- आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन मेरा मन
- बाहों के दरमियां दो प्यार मिल रहे हैं जाने क्या बोले मन डोले मन
- मन क्यों बहका रे बहका आधी रात को
- एक चतुर नार करके सिंगार मेरे मन के द्वारा में घुसत जात
- मन मेरा मंदिर आंखें दिया बाती
- बच्चे मन के सच्चे सारी दुनिया के हैं आंख के तारे
- ए गुलबदन ऐ गुलबदन तुझे देख कर कहता है मेरा मन
मन और दिल के संबंध में ऐसे ही अनेक गीत हैं। यह लिस्ट बहुत लंबी-चौड़ी हो सकती है। हमारी चर्चा मन और दिल के बीच झूलते हुए खत्म हो गई क्योंकि कैंटीन में ज्यादा देर बैठ नहीं सकते थे। हम बातें तो जरूर वहां कर रहे थे लेकिन हमारा मन न्यूजरूम में था कि कोई खबर तो नहीं आ गयी, कोई फोन तो नही आ गया। बमुश्किल पांच मिनट की बातचीत के दौरान मन पर उक्त बातें हुईं। अंतत: सबको कुछ सोचने के लिए कहा जाए। मैं तो यही कहूंगा मनोहर श्याम जोशी की एक रचना ‘कसप’ की तरह है मन। कसप उत्तराखंड में एक शब्द है जिसका मतलब है पता नहीं। यह पता नहीं भी साधारण सा इनकार करने के रूप में नहीं, बल्कि दार्शनिकता सा लिए हुए है। हां मन का दिमाग से तारतम्यता तो बिल्कुल नहीं होगी। क्योंकि कहते हैं जब आपका दिमाग चलता है तो दिल शांति से सुनता रहता है और जब दिल से कुछ किया जाता है तो दिमाग सामान्य हो जाता है। चलिए मन, दिल और दिमाग की इस चर्चा को अभी जारी रहने दिया जाए। आपका क्या खयाल है, क्या कहता है आपका मन।

Wednesday, October 2, 2024

पेजर विस्फोट के बाद उपजा तकनीक का खौफ

साभार: दैनिक ट्रिब्यून 

https://m.dainiktribuneonline.com/article/fear-of-technology-arises-after-pager-explosion/605928 पेजर विस्फोट के बाद  उपजा तकनीक का खौफ

दैनिक ट्रिब्यून 



केवल तिवारी 
वही हुआ, जिसकी आशंका थी। पेजर विस्फोट के बाद लेबनान और इस्राइल के बीच 'जंगी हालात' बने और सैकड़ो लोगों की मौत हो गई। दोनों ओर से एक-दूसरे पर हमले जारी हैं। मौत का यह खतरनाक खेल कहां जाकर रुकेगा, यह तो इसे शुरू करने वाले ही जानें, लेकिन इस प्रकरण ने सशंकित सबको कर दिया है। क्या हम अपने गैजेट के साथ सुरक्षित हैं या रफ्तार पकड़ती तकनीक के इस दौर में खतरों को साथ लेकर चल रहे हैं..

आसमान से कड़कती बिजली का खौफ नहीं,
ए खुदा डरते हैं जमी पर तेरे आदमी से हम।
किसी शायर की ये दो पंक्तियां मौजू है वर्तमान के तकनीकी युग में। आदमी को आदमी से खौफ का मंजर लगातार भयावह होने लगा है। खौफ का एक 'कारोबार' है। खौफ 'ऑनलाइन' हो गया है। अदृश्य खौफ का मंजर जब हकीकत की जमीन पर दिखने लगता है तो सारी कायनात हिल कर रह जाती है। ऑनलाइन ठगी से उबरने के प्रयास अभी सिरे नहीं चढ़ पाए थे कि अब ऑनलाइन विस्फोट ने एक नए विवाद, नए डर को जन्म दे दिया है।
वैश्विक शांति की तमाम कोशिशों से इतर, ‘दुश्मन’ को खत्म करने के नये-नये तरीकों से सभी अमनप्रिय लोग स्तब्ध हैं। हाइड्रोजन बम, साइबर अटैक की चर्चाओं के बीच पिछले दिनों लेबनान में पेजर विस्फोट ने सबको चौंका दिया। उसके बाद लेबनान और इस्राइल के बीच छिड़ गयी ‘खूनी जंग’। पेजर और ‘वाकी-टॉकी’ विस्फोट के बाद एक बार फिर नित नयी ईजाद होती तकनीक, उस पर बढ़ती निर्भरता और उससे उपजते भयावह खतरों ने सबको सकते में डाल दिया है। इस विस्फोट ने एक सवाल को जन्म दिया है कि मोबाइल, लैपटॉप, टैब जैसे तमाम गैजेट इस्तेमाल करने वाला आमजन कितना सुरक्षित है। असल में इन गैजेट्स पर हमारी जितनी अधिक निर्भरता बढ रही है, उतने ही ज्यादा खतरे भी बढ़ रहे हैं। तकनीक पर निर्भरता से खतरे बढ़ने की तो बात सही है, लेकिन नया माजरा तो तकनीक के ‘बैक’ मारने जैसा है। जो पेजर दुनिया के लिए इतिहास बन चुका था, उसी पेजर के इस्तेमाल के लिए पहले मजबूर किया गया और फिर विस्फोट।
जानकार कहते हैं कि लेबनान में साजिशन पहले यह भ्रम फैलाया गया कि आपके सभी फोनों को ट्रैक कर लिया जाएगा। फिर उन्हें मजबूर किया गया कि वे पेजर खरीदें। खासतौर से आपात सर्विस में लगे लोग। जब फोन ट्रैक हो सकने की आशंका बलवती हुई तो ‘लड़ाकों’ ने भी पेजर रखने में ही ‘भलाई’ समझी। इसके बाद एक कंपनी को पेजर बनाने का ऑर्डर दिया गया। बताया जा रहा है कि कंपनी से पेजर ठीक बनकर आए। डिस्ट्रीब्यूटर के यहां से भी सही निकले, लेकिन बीच में ही उनमें तीन-तीन मिलीग्राम प्रति पेजर विस्फोटक भर दिया गया और एक खास तरह के मैसेज के साथ फिट कर दिया गया। इंतजार किया गया और मैसेज के एक्टिव होते ही हजारों पेजर में विस्फोट हो गया।
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डर का कारोबार
क्या-क्या दिलों का खौफ छुपाना पड़ा हमें
खुद डर गए तो सबको डरना पड़ा हमें।
दरअसल, ठगी करने से लेकर बदला लेने तक माजरा खौफ का है। खुद डरा हुआ कोई भी देश औरों को डराने के लिए नयी-नयी तकनीक ईजाद कर रहा है। कभी वेबसाइट हैक करने की कोशिश होती है तो कभी बैंकिंग प्रणाली पर साइबर अटैक। स्थिति अजीब है कि पहले कुछ न होते हुए कुछ हो जाने का डर दिखाया जाता है, फिर डरे हुए व्यक्ति से अगला कदम ऐसा उठवाया जाता है कि डर के धंधेबाजों की मौज। ऐसा ही पेजर विस्फोट के मामले में हुआ। डराया गया कि फोन इस्तेमाल मत करो, फोन की जगह आउटडेटेड पेजर को अपनाया और मौत गले पड़ गयी।
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नया खतरा वर्चुअल फोन कॉल
एक्सपर्ट कहते हैं कि एक वर्चुअल फोन कॉल का भी नया खेल ठगी की दुनिया में शुरू हो गया है। यह खेल अजीबोगरीब है। एक आभासी नंबर क्रिएट किया जाता है फिर उससे 'शिकार' को फोन किया जाता है। फोन रिसीव करने वाला अगर झांसे में आ गया तो नुकसान तय है। इसमें सबसे ज्यादा खतरनाक बात यह है कि जिस नंबर से फोन आता है उसे ट्रेस किया ही नहीं जा सकता क्योंकि वह नंबर असल दुनिया में तो होता ही नहीं है, वह एक आभासी नंबर होता है।
कोरोना को भी समझा गया ‘वायरस अटैक’
इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस को ऑनलाइन वायरस के जरिये खराब करने के अनेक किस्से तो हमारे सामने आते ही थे, चार-पांच साल पहले जब कोरोना महामारी फैली तो उसे भी एक तरह का अटैक माना गया। आरोप लगे कि यह गहरी साजिश है बीमारी फैलाने और लोगों को खत्म करने का। हालांकि इसकी जांच अब भी जारी है और धीरे-धीरे हम कोरोना महामारी से उबर गए। अभी तक यह सिद्ध नहीं हो पाया कि कोरोना वायरस को साजिशन फैलाया गया या यह इंसानी गलती थी। मामला कुछ भी हो, जरूरी है सचेत रहने की
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सावधानी जरूरी, ‘लालच’ सबसे बुरी बला
अवनींद्र कुमार सिंह
(साइबर एवं डिजिटल फॉरेंसिक एक्सपर्ट/एनालिस्ट- कंसलटेंट लॉ इन्फोर्समेंट- भारत सरकार)
साइबर एवं डिजिटल फॉरेंसिक एक्सपर्ट अवनींद्र कुमार सिंह कहते हैं कि ऑनलाइन खतरों से बचाव संभव है। बस जरूरी है सावधान रहने और ‘लालच’ से बचने की। क्या दुनियाभर में, खासतौर पर भारत में मोबाइल इस्तेमाल करने वाले करोड़ों लोग भी ‘अलग तरह के खतरे’ की जद में है, पूछने पर अवनींद्र कुमार कहते हैं, ‘फोन निर्माता बड़ी कंपनियों के पास रिसर्च एवं डेवलपमेंट (आर एंड डी) के लिए बहुत बड़ा स्टाफ होता है। एक्सपर्ट की यह टीम सॉफ्टवेयर अपडेट के लिए हर तरह की सावधानी बरतती है। लेकिन कई बार अनजानी सी कंपनियों के फोन पर अपडेट के नाम पर काफी नुकसान हो सकता है। मोबाइल पर खतरों के सवाल पर अवनींद्र ने कहा, ‘फोन हैक हो सकता है, आपके फोन की हर गतिविधि पर नजर रखी जा सकती है, आपका डाटा चुराया जा सकता है।’ हैकिंग के खतरों पर विस्तार से बात करते हुए साइबर एक्सपर्ट ने कहा कि जब भी कभी कोई अनजान आईडी से मेल आए तो सावधानी जरूरी है। खासतौर से ऐसे ईमेल से जिसमें आपसे जानकारी देने को कहा गया हो। अवनींद्र ने कहा कि ऐसे मेल को डिलीट तो करें ही साथ ही उसे स्पैम में डाल दें। यदि ईमेल अकाउंट ऑफिशियल हो तो उसे ‘फिशिंग’ में डाल दें। असल में फिशिंग ऐसा ऑप्शन है जिससे सरवर मैनेज करने वालों को ऐसे खतरनाक मेल के बारे में जानकारी मिल जाती है और व्यक्ति विशेष तक पहुंचने से पहले ही इसे डिलीट किया जा सकता है। उनका कहना है कि खुद सतर्क रहते हुए जागरूकता बढ़ाना भी हर जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य है। कभी भी फर्जी से लगने वाले ईमेल, मैसेज को रेस्पॉन्स न करें। साइबर बुलिंग की बात करते हुए अवनींद्र ने कहा कि ऑनलाइन ठगी या किसी तरह के लफड़े में फंसने का एकमात्र कारण होता है ‘लालच।’ अमूमन तो लोग पैसे के लालच में आ जाते हैं। कभी गिफ्ट वाउचर और कभी कुछ ‘कैश बैक’ के लालच में आकर हम फर्जी लिंक पर क्लिक कर देते हैं। ऐसा ही मामला हनी ट्रैप का भी है। इसलिए हमें लालच से दूर रहते हुए हमेशा सतर्क रहना चाहिए। समय-समय पर सरकार एवं एक्सपर्ट की चेतावनी को ध्यान रखना चाहिए।
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एक्सपर्ट की राय और तमाम तरह की जानकारी जुटाने के बाद एक ही बात सामने आती है कि ऑनलाइन के खतरों से निपटने का सबसे कारगर तरीका है सतर्कता। ऑनलाइन खौफ संबंधी परिदृश्य एकदम काला भी नहीं है, तकनीक विकसित हो रही है तो उससे उपजे खतरों से निपटने के उपाय भी ढूंढे जा रहे हैं। अगर ठगी रूपी रात है तो उम्मीदों की भोर भी होगी, एक शायर की दो पंक्तियों की मानिंद-
दिल ना उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है,
लंबी है गम की शाम मगर शाम ही तो है।
धेरे का भी उजला पक्ष सामने आएगा और ‘लालच’ और ‘खौफ’ पर हावी होगी समझदारी और सतर्कता। क्योंकि तकनीकी विस्तार की गति को कोई रोक नहीं सकता। खतरे के रूप में यह तकनीक पेजर की भांति बैक भी मार सकती है और वर्चुअल कॉल की तरह एडवांस भी हो सकती है।