केवल तिवारी
पिछले दिनों ऑफिस (The Tribune, दैनिक ट्रिब्यून, ਪੰਜਾਬੀ ਟ੍ਰਿਬਿਊਨ) की कैंटीन में, मैं और साथी जतिंदर जीत सिंह चाय पी रहे थे। उसी वक्त पंडित अनिरुद्ध शर्मा जी अपने साथी अरविंद सैनी जी के साथ आए। उन्होंने एक सवाल उठाया कि आखिर 'मन' क्या है? 'मन' को किस तरह से हम परिभाषित कर सकते हैं? मन के बारे में जब बात करने लगे तो पहले चर्चा हुई मन के वैज्ञानिक या डॉक्टरी पहलू पर। सवाल उठा कि क्या मन शरीर का कोई अंग है। यानी कि क्या मन असल में कहीं एक्जिस्ट करता भी है। जिस तरह शरीर के कई अंग होते हैं, मसलन- यकृत, अमाशय, दिल वगैरह-वगैरह। लेकिन शरीर में मन नाम का कोई अंग नहीं है। फिर यह भी कहा गया कि दिल ही मन का दूसरा रूप है। इस पर सहमति नहीं बनी क्योंकि मैंने कहा कि मन अभी यहां है, पलभर में हजारों लाखों किलोमीटर दूर मन पहुंच सकता है। मन की क्या थाह। जतिंदरजीत सिंह जी बोले, मन असल में दिल से थोड़ा हटकर है। कई बार हम दिल से यह जानते हैं कि जो हम खा रहे हैं या पी रहे हैं वह नुकसानदायक है, लेकिन मन पर काबू नहीं रहता है और खा या पी लेते हैं। उन्होंने कहा कि जैसे शराब पीने वाला जानता है कि इसका सेवन खराब है, लेकिन फिर भी मन के वशीभूत वह इसे पीता है। तभी पंडित जी बोले कि यह बात तो दिल पर भी लागू होती है। किसी भी अनुचित कदम उठाते वक्त दिल हमें सचेत करता है। लेकिन हम फिर भी नहीं मानते तो नुकसान होता है। फिर सवाल उठा कि दिल और मन में फर्क। हम लोग जब चर्चा कर रहे थे पंडित जी और उनके साथी अरविंद जी आइसक्री खा रहे थे। एक-एक कप खा चुके थे, एक-एक और ले आए थे। मैं और जतिंदरजीत जी चाय पी रहे थे। मैंने सोचा कि यह भी तो मन की बात है। इनका मन आइसक्रीम खाने को किया होगा, खा रहे हैं। हमें चाय पीनी थी, पी रहे हैं। अब यह दिल की बात है या मन की।
फिल्मी गीतों में मन
दिल और मन में फर्क के संबंध की चर्चा का कोई फाइनल समाधान तो नहीं निकला अलबत्ता यह हुआ कि अपनी-अपनी तरफ से इसके बारे में कुछ सोचेंगे। मेरे जेहन में मन से संबंधित कुछ फिल्मी गीत कौंध गए। यहां भी जेहन क्या, मन या दिल या दिमाग... पहले तो पढ़ते-पढ़ते इन गानों को गुनगुनाइये-
- आकर तेरी बाहों में हर शाम लगे सिंदूरी, मेरे मन को महकाए तेरे मन की कस्तूरी
- तू जो मेरे मन का घर बसा ले मन लगा ले हो उजाले
- मुझे खुशी मिली इतनी की मन में न समाये
- कई बार यूं ही देखा है ये जो मन की सीमा रेखा है
- मेरे मन का बावरा पंछी क्यों बार-बार
- दिखे कोई मन का नगर बनके मेरा साथी
- कोरा कागज था ये मन मेरा
- जानेमन जानेमन तेरे दो नयन चोरी-चोरी लेके गए देखो मेरा मन
- आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन मेरा मन
- बाहों के दरमियां दो प्यार मिल रहे हैं जाने क्या बोले मन डोले मन
- मन क्यों बहका रे बहका आधी रात को
- एक चतुर नार करके सिंगार मेरे मन के द्वारा में घुसत जात
- मन मेरा मंदिर आंखें दिया बाती
- बच्चे मन के सच्चे सारी दुनिया के हैं आंख के तारे
- ए गुलबदन ऐ गुलबदन तुझे देख कर कहता है मेरा मन
मन और दिल के संबंध में ऐसे ही अनेक गीत हैं। यह लिस्ट बहुत लंबी-चौड़ी हो सकती है। हमारी चर्चा मन और दिल के बीच झूलते हुए खत्म हो गई क्योंकि कैंटीन में ज्यादा देर बैठ नहीं सकते थे। हम बातें तो जरूर वहां कर रहे थे लेकिन हमारा मन न्यूजरूम में था कि कोई खबर तो नहीं आ गयी, कोई फोन तो नही आ गया। बमुश्किल पांच मिनट की बातचीत के दौरान मन पर उक्त बातें हुईं। अंतत: सबको कुछ सोचने के लिए कहा जाए। मैं तो यही कहूंगा मनोहर श्याम जोशी की एक रचना ‘कसप’ की तरह है मन। कसप उत्तराखंड में एक शब्द है जिसका मतलब है पता नहीं। यह पता नहीं भी साधारण सा इनकार करने के रूप में नहीं, बल्कि दार्शनिकता सा लिए हुए है। हां मन का दिमाग से तारतम्यता तो बिल्कुल नहीं होगी। क्योंकि कहते हैं जब आपका दिमाग चलता है तो दिल शांति से सुनता रहता है और जब दिल से कुछ किया जाता है तो दिमाग सामान्य हो जाता है। चलिए मन, दिल और दिमाग की इस चर्चा को अभी जारी रहने दिया जाए। आपका क्या खयाल है, क्या कहता है आपका मन।
2 comments:
Khoobsurat abhivyakti
मन का बेहतरीन चित्रण
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