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Monday, January 13, 2025

'घर' की एक और यात्रा, हालचाल और वार्ता

केवल तिवारी








सुखद संयोग है कि दो-तीन महीने के अंदर ही एक बार फिर अपनी जन्मस्थली जाने का मौका मिला। उत्तराखंड के रानीखेत के पास स्थित अपने गांव खत्याड़ी (डढूली)। असल में बच्चों की छुट्टी थी, बड़े बेटे की बेंगलुरू (Bengluru, Microsoft ) में अगस्त में जॉइनिंग से पहले यही मौका सही था और छोटा धवल भी अब दसवीं में चला जाएगा। तमाम कार्यक्रम बनाते-बनाते यही तय हुआ कि घर चलना है। इसी बीच, गांव की धूनी बंबईनाथ स्वामी मंदिर में भंडारा होने की सूचना व्हट्सएप ग्रुप के जरिये मिली। ईश्वर की कृपा ही थी कि कार्यक्रम बन गया। काठगोदाम बच्चों के बड़े मामा, उनकी बेटी, बीच वाले मामा और मामी को भी साथ ले लिया। यात्रा छोटी, लेकिन यादगार रही और सबसे अहम रहा अपने लोगों से मुलाकात करना। कुछ मिले, कुछ की बातें हुईं और कुछ के बारे में जानकारी ली। लेकिन इतनी सी बातों से मन कहां भरता है। इसीलिए शायद किसी शायर ने कहा है-
ये मुलाक़ात मुलाक़ात नहीं होती है, बात होती है मगर बात नहीं होती है।
खैर... जो भी हो। यह सत्य है कि यात्रा हुई। शानदार नजारे देखे। ऐसे नजारे जिन्हें बचपन में भी देखा था। तब वह रोजमर्रा के थे, आज कभी-कभी होते हैं। सिलसिलेवार इस यात्रा का जिक्र करता हूं।






हल्द्वानी से बिनसर महादेव और ताड़ीखेत विश्राम






कार्यक्रम बनने के बाद जाने के तमाम विकल्पों पर विचार किया गया। चंडीगढ़ से सीधी ट्रेन सेवा है नहीं। कभी-कबार वाली कोई ट्रेन है भी तो दिन के हिसाब से हमें सूट नहीं करती। फिर बस के विकल्प पर विचार किया गया। अंतत: हमने तय किया कि हल्द्वानी तक अपनी कार से जाया जाये, वहां से कैब कर लेंगे। बच्चों के मामा नंदाबल्लभ जी के माध्यम से कैब बुक हो गयी। तीन जनवरी की सुबह हम लोग चले। पहले कोटाबाग वाले यानी मेरे साढू भाई सुरेश पांडे जी के निर्माणाधीन स्टे होम (बैलपड़ाव) पहुंचे। कुछ देर वहां रुककर हम शेखर जी के यहां पहुंचे। वहां उनकी पत्नी लवली जी एवं पुत्र सिद्धांत जोशी ने गर्मजोशी से स्वागत किया। कई बातें हुईं और अगले दिन जल्दी से जल्दी चलने का कार्यक्रम बना। अगली सुबह करीब 8 बजे हम लोग काठगोदाम पहुंचे और वहां से सभी लोग कैब से सीधे बिनसर महादेव पहुंचे। लंबे समय बाद इस मंदिर में जाना हुआ। शांत सुरम्य। सचमुच मंदिर ऐसे ही होने चाहिए जहां लूट न हो, जहां कोई डिमांड न हो। आध्यात्मिक माहौल। कुछ देर मंदिर और फिर मंदिर प्रांगण में हम सब लोग रहे। संबंधित वीडियो यहां साझा कर रहा हूं। इसके बाद हम पहुंच गए ताड़ीखेत। ताड़ीखेत में व्यंजन होम स्टे में हमने ठहरने के लिए पहले से ही कह दिया था। असल में करीब तीन माह पहले जब आया था तो यहीं ठहरे थे। अच्छा लगा। इस होम स्टे में जहां भोजन एकदम घर जैसा है वहीं आवास और रहने का माहौल भी वैसा ही। संयोग देखिए इसी दिन यानी चार जनवरी को इसके ऑनर के भतीजे नवीन जोशी का जन्मदिन था। शाम को वहां बच्चे और परिजन गीत-संगीत के आयोजन में व्यस्त थे और उन्होंने हम सबको भी शामिल कर लिया। सबके साथ हंसी-मजाक और गीत संगीत कार्यक्रम में बहुत अच्छा लगा। इससे पहले हम लोग ताड़ीखेत बाजार में घूमने गए। वहां एक बुजुर्ग मिले जो मेरे ससुर और पिताजी दोनों को जानते थे। उन्होंने कई यादें साझा कीं। संबंधित वीडियो भी यहां साझा कर रहा हूं। मुझे संभवत: पहले बुजुर्ग मिले होंगे जिन्होंने कहा कि वह मेरे पिताजी यानी स्व. दामोदर तिवारी को भी जानते हैं। इसके बाद हम लोग व्यंजन होम स्टे पहुंचे, भोजन के बाद अगले दिन का कार्यक्रम बनाकर सो गये।
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घर की राह, बड़ों का स्नेह और ईश्वर का आशीर्वाद




पांच जनवरी की सुबह करीब नौ बजे हम लोग ताड़ीखेत से घर के लिए निकले। रास्ते में कुछ लोकेशन देखते हुए मैंने अपने संबंधियों को वह जमीन भी दिखाई जिसकी आजकल चर्चा है। उसका नाम है सिवाड़। वहां से हिमालय व्यू एकदम क्लीयर है। रास्ते में कुछ निर्माणों को भी देखा। सरना में कुंदन मिले। कुछ देर बात करने के बाद हम लोग पैदल गांव की ओर चल पड़े। रास्ते में सबसे पहले तलबाखई भोपका की मांताजी मिलीं। उम्र करीब सौ वर्ष। उन्होंने बहुत भावुक किया। वह बोलीं, 'तुमर ईजक ब्या लै मैंल देख राखो, मकण भगवान कदिन उठाल।' यानी तुम्हारी माताजी का विवाह होते मैंने देखा है। मुझे भगवान कब उठाएगा। मैंने कहा, चाची चिंता मत करो, जब बारी आएगी, पता भी नहीं चलेगा। असल में यह अच्छी बात है कि हमारे गांव सभी को रिश्तों से बुलाते हैं। प्रसंगवश बता दूं कि पांच जनवरी को हम अपने गांव पहुंचे और पांच जनवरी को ही हमारी माताजी की 17वीं पुण्यतिथि थी। पहले मुझे इसका भान नहीं रहा क्योंकि कुछ दिन पहले ही हिंदी कैलेंडर में तिथि के हिसाब से उनका श्राद्ध हुआ था। बातों-बातों में शीला दीदी ने याद दिलाई तो लगा ईजा के आशीर्वाद से आज गांव आना तय हुआ। इसके बाद हम लोग पहले अपने घर पहुंचे। पनदा के घर में भाभी जी मिलीं। बहुत अपनेपन से उनसे मुलाकात हुई फिर बसंत दा और भाभी से मुलाकात हुई। फिर कैलाश मिला और उसके बाद प्रयागदा के यहां चायपानी हुई। फिर हम ताऊजी के पोते यानी अपने भतीजे बिपिन के आंगन में गये। बिपिन की यादों में आंखें नम हो गयीं। कोरोना काल में वह इस नश्वर संसार से विदा ले गया। अपने घर के आंगन में दीया बत्ती करने के बाद हम ग्वेल देवता के मंदिर गये। उसके बाद फिर से नीचे सरना आए और गाड़ी में बैठकर डढूली गांव पहुंचे। वहां ललदा मिले। उन्होंने बहुत खुशी जताई। फिर पैदल चल पड़े बंबईनाथ स्वामी मंदिर की ओर यानी धूनी की ओर। रास्ते में अनेक लोग मिले। दोभण सनुदा ने पहचान लिया। नाम से मुझे पुकारा तो बहुत अच्छा लगा। मंदिर में चिंतामणि चाचा, बबलू भाई, मधीदा और भाभीजी, शिवदा सर (शिवदत्त तिवारी), मीना बुआ, उर्वीदा, उनके बेटे मुन्ना, महेश दा, प्रकाश दा और बाद में पप्पूदा यानी दिनेशदा भी आ गए। इसी दौरान रिश्ते में भतीजा और स्कूल का दोस्त मदन मिला। उसीने हमारी पूजा करवाई। वह अक्सर गांव के बारे में सूचना देता रहता है। होली आदि त्योहारों के दौरान वीडियो कॉल करवाता है। उसके बड़े भाई नवीन, भाई एवं व्यास जी ललित तिवारी, राजू आदि अनेक लोगों से मुलाकात हुई। इस दौरान पूजा होती रही और प्रयागदा मेरे लिए भी धोती लेकर आए थे। मैं भी धोती पहनकर चौखंडी की परिक्रमा करने लगा। परंपरागत पूजा हुई और इसी दौरान आदेश हुआ कि सावन के महीने में फिर से यहां पहुंचूं। ईश्वर का हुक्म होगा तो पूरी कोशिश होगी जाने की। अनेक लोगों ने आते रहने की ताकीद की। इस मुलाकात पर दो-दो पंक्तियां दोहराऊंगा-
आँख भर आई किसी से जो मुलाक़ात हुई, ख़ुश्क मौसम था मगर टूट के बरसात हुई।
काफ़ी नहीं ख़ुतूत किसी बात के लिए, तशरीफ़ लाइएगा मुलाक़ात के लिए।
दिन भी है रात भी है सुब्ह भी है शाम भी है, इतने वक़्तों में कोई वक़्त-ए-मुलाक़ात भी है।
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हल्द्वानी वापसी, भानजियों संग समागम और कुछ भावुक यादें





गांव के यादगार सफर के बाद हम लोग हल्द्वानी वापस आ गये। यहां सबसे पहले साढू भाई सुरेश पांडे जी के यहां गये। उनसे कई बातें हुईं। अगले दिन कार्यक्रम बना भानजियों के यहां जाने का। यहां मेरी बड़ी भानजी लता, उससे छोटी रुचि और फिर रेनू रहते हैं। रुचि के पति दीपेश ने लंच का अपने यहां फिक्स कर दिया। फिर रेनू के पति कुलदीप पंत जी ने अपना पता बताया। उनकी बिटिया काव्या से बातचीत करना अच्छा लगा। उनकी माताजी से कई बातें साझा हुईं। वह बहुत जीवट महिला हैं। यहां प्रेमा दीदी का भी आने का कार्यक्रम था, लेकिन कुछ व्यस्तताओं के कारण वह नहीं आ सकी। उम्मीद है कि जल्दी ही मुलाकात होगी। इस मुलाकात के बाद कुलदीप जी ने हमें लता के यहां छोड़ दिया। परिवार में नन्हे कान्हा यानी लता के पोते को पहली बार देखा। छोटी भानजी बन्ना के बेटे अविरल से मिलकर भी बहुत अच्छा लगा। नन्हे कान्हा के पिता यानी मयंक और मम्मी से भी मुलाकात हुई। संक्षिप्त भेंट के बाद हम चले आए भानजी रुचि के यहां। यहां रुचि का बड़ा ऋषि यानी रिषु हमारा बेसब्री से इंतजार कर रहा था। उसका भाई अपनी नटखट शरारतों में व्यस्त था। रिषु हम लोगों से लगातार रुकने का आग्रह करता रहा। हम लोगों ने लंच किया। फिर दीपेश हमें माताजी से मिलाने ले गये। माताजी अस्वस्थ हैं और कुछ ही समय पहले दीपेश के पिता जी यानी हम सबके दद्दू इस नश्वर संसार से विदा ले गये। वह बहुत मिलनसार और स्पष्टवादी थे। दीपेश के बड़े भाई सुबोध, पत्नी से भी मुलाकात हुई। कुछ देर पुरानी बातों को याद किया। कभी भावुक तो कभी रोचक पलों का आदान-प्रदान हुआ। उस शाम भी पांडे जी के यहां पहुंचे। अगली सुबह जल्दी उठकर हल्द्वानी कालूसाई मंदिर फिर काठगोदाम भूमि देवता की पूजा-अर्चना के बाद वहीं रहना हुआ। अगली सुबह हम सभी लोग साथ में शेखरदा चल पड़े चंडीगढ़। यहां आकर शुरू हो गयी रुटीन लाइफ। यूं ही चलती रहे जिंदगी। सभी के स्वास्थ्य की कामना। अब फोन पर परिजनों के साथ इस यात्रा के बाबत वार्तालाप चल रही है। - जय हो।
और इस ब्लॉग के अंत में कुछ वीडियो 






5 comments:

Anonymous said...

सुन्दर,

Anonymous said...

धन्यवाद

Anonymous said...

आपकी लेखनी को सलाम है

kewal tiwari केवल तिवारी said...

हौसला अफजाई के लिए बहुत आभार

Anonymous said...

Bahut sunder