केवल तिवारी
जमीं तलाश रहा हूं बुढ़ापे के लिए
सवाल... क्या आएगा बुढ़ापा
जहां बनाना चाहता हूं खुद के लिए
सवाल... क्या मिलेगा जहां
यहां, वहां या फिर कहीं और
चलते रहे पथ पर अब ढूंढ़ रहा हूं ठौर
क्यों हूं विकल,
कितना लंबा समय यूं ही गया निकल
कहां कुछ अपना होता है
जहां थमे, वहीं समय गुजरता है
जैसे-जैसे गुजर रहा है समय
मैं थमना नहीं चलते रहना चाहता हूं
सवाल... क्या मुझे मिलेगी राह
राह दिखा तो रहे हैं मेरे अपने
मेरी आंखों से ही तो देख रहे सपने
मैं दिवा स्वप्न तो नहीं देखता
पर सपने संजोना भी नहीं भूलता
चलने की जिजीविषा मैंने सदा अपनाई
हर मोड़ पर मुझे एक कहानी याद आई
सवाल... क्या मिलते रहेंगे किरदार
टकराते ही तो रहते हैं बार-बार
कभी समय का फेर था और कभी समझ का
कभी आंधिया-बौछारें थीं, कभी मौसम गर्मी का
कभी टूटे, कभी झंकृत हुए तार दिल के
अकेलापन मिला जब चाहा चलना मिल के
अब सांझ को करीब देख रहना चाहता हूं संग-संग
सवाल... क्या घुलेंगे रिश्तों में सतरंगी रंग
ताउम्र चलता रहा हूं उम्मीदों भरे सफर में
अब क्यों नाउम्मीदी पालूं थोड़ी बची डगर में
अब तो खुशियों की बूंदाबादी भी भिगो देती है
मन की प्रसन्नता मां की तरह हो जाती है
हम अविरल राही चढ़ते रहेंगे हर नयी सीढ़ी
तुम भी होगे, हम भी होंगे और होगी नयी पीढ़ी
सवाल... अब उठने नहीं देंगे, जाएगी नयी कहानी गढ़ी
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मां की बात
बच्चों का प्रसन्न मुख देख तेरा चेहरा खिल जाता है
परिवार के लिए खाना पकाकर तेरा पेट भर जाता है
कामकाजी हो या घर संवारने वाली, परिवार ही है तेरी जां
न जाने कितनी दुनिया छिपी है बस एक ही संबोधन है, मां
कभी मन से उठे सवाल, मां तू कैसे ऐसी है
कभी खुद आवाज आए तू भगवान जैसी है
भाव का भूखा भगवान, भावों से भरे तेरे अरमान
नस-नस भरा है परिवार का प्यार, तू है एक आसमान
कैसे कोई कुछ अल्फाज में लिख सकता है तेरी बात
मां तू एक ग्रंथ है, दुनिया है तू ही है तो पूरी अल्फाज
1 comment:
बहुत शानदार सर
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