साभार: दैनिक ट्रिब्यून (पिछले दिनों हमारे अखबार दैनिक ट्रिब्यून में एक लेख छपा। थोड़े विस्तृत रूप में यहां चला रहा हूं।)
https://m.dainiktribuneonline.com/article/now-online-games-also-give-relief/599623 अब सुकून देने वाले ऑनलाइन गेम्स भी
ऑनलाइन गेम्स
में सुकून की तलाश
केवल तिवारी
ट्सोशल
मीडिया में लगों के ‘गुम’ होने की शिकायतों के साथ ही ‘ऑनलाइन गेम्स’ में बच्चों और
बचपने के खोने की बात भी कही जाती है। गेम्स में बच्चों के डूबे रहने के कई नकारात्मक
पहलू सामने आए हैं। लेकिन इसी स्याह पक्ष में एक श्वेत और सुखद अहसास यह भी है कि अनेक
बच्चे अब ‘कूल गेम्स’ तलाशने लगे हैं। बेशक यह सब भी मार्केट का ही खेल है, फिर भी
आशा की जानी चाहिए कि ‘कूल गेम्स’ कम से कम हिंसक प्रवृत्ति को तो नहीं पनपने देंगे।
ऑनलाइन गेम्स के पूरे परिदृष्य पर एक नजर-
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मारधाड़। तनाव। जीतने का अजीबोगरीब जुनून। न खाने-पीने की सुध और
न ही समय का ध्यान। ऐसा ही तो होता है ऑनलाइन गेम्स में। ऐसे गेम्स जिनमें बच्चे, किशोर
और युवा डूबे रहते हैं। कभी-कभी तो अधेड़ उम्र के लोगों या बुजुर्गों का भी इन गेम्स
में अटकाव देखा जाता है। इन गेम्स के कारण हो रहे हादसों से कौन नहीं वाकिफ है। टारगेट
इतना खौफनाक होता है कि रूह कांप जाये। कई देशों ने इसीलिए तो इन पर प्रतिबंध भी लगाया।
इसी चिंताजनक स्थिति के बीच कुछ सुखद चीजें भी सामने आ रही हैं। यानी पक्ष एकदम स्याह
ही नहीं है, कुछ श्वेत भी है। और वह श्वेत पक्ष इस कदर धीरे-धीरे धवल हो रहा है कि
नयी पीढ़ी को मानो पुरानी कविता की उन खूबसूरत पंक्तियों की मानिंद नया संदेश दे रहा
हो, ‘नर हो न निराश करो मन को, कुछ काम करो, कुछ काम करो।’ असल में तनाव पैदा करने
वाले ऑनलाइन गेम्स के बीच ही अनेक ऐसे खेल भी अब आ रहे हैं जो बहुत कूल हैं। कोई फिक्स
टारगेट नहीं। बैकग्राउंड में शांत सा म्यूजिक चल रहा है, आप एक वस्तु को लेकर आगे बढ़
रहे हैं। साथ में हैं पहाड़, हरे-भरे पेड़, नदियां। उसी तरह जैसे गूगल मैप पर आप डेस्टीनेशन
लगाते हैं, गलत मुड़ गये तो वह आपको उत्तेजित नहीं करता, रीरूटिंग कर देता है। कोई
बात नहीं एक मोड़ गलत मुड़ गये हों तो आगे से आपको रास्ता मिल जाएगा। हालांकि कूल गेम्स
भी बाजार का ही एक नया रूप है और इसमें भी उलझने का उतना ही खतरा बरकार है, लेकिन इसके
खतरे उतने भयावह नहीं हैं। ऐसे ज्यादातर गेम्स में टारगेट नहीं हैं। हिंसा नहीं है।
ये गेम्स अलग-अलग तरह के हैं। किसी में समूह में खेलने का नियम है और किसी में व्यक्तिगत
तौर पर।
गनीमत है कुछ अच्छा भी है
अब कई गेम्स तनाव कम करने के लिए बनाये जाने लगे हैं। घरों में बच्चे
कभी-कभी अपने बड़ों तक तक को सलाह दे डालते हैं कि इस गेम को डाउनलोड कर लीजिए, कुछ
देर खेलिए आनंद आएगा। ऐसे ही गेम का ही एक प्रारूप है जिसमें अगर आपने गूगल खोला, अगर
इंटरनेट नहीं चल रहा हो तो वह आपको कूल रहने की सीख देता है। एक आइकन सामने आ जाएगा।
आप उसको आगे बढ़ाते रहिए। छोटे-छोटे टारगेट आएंगे। नेटवर्क आते ही वह गेम खत्म हो जाएगा।
हालांकि अगर अच्छी प्रैक्टिस नहीं है तो यह गेम भी आपके अंदर झुंझलाहट पैदा कर सकता
है। अगर बात करें विभिन्न गेम्स की तो उनमें से कुछ हिंसक हैं, मसलन-मॉर्टल कॉम्बेट,
कॉल ऑफ ड्यूटी, पबजी, फ्री फायर, शेडो फाइट आदि। इसी तरह कुछ कूल गेम्स हैं जैसे, पियानो
किड्स, ट्रक गेम्स फॉर किड्स, यूनिकॉर्न शेफ, ड्रेसअप, कलरिंग एंड लर्न, लिटिल पांडा,
चिल्ड्रेन्स डॉक्टर, फायर फेरी, द घोस्ट पेपर चेंज, ऑल्टो एडवेंचर, ऑल्टोज ऑडिसीज,
कास्टिंग अवे सिनामोन चैलेंज, आइस एंड सॉल्ट चैलेंज या फिर कुछ हद तक ब्रेन डॉट्स,
कैंडी क्रश।
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अरबों का है कारोबार
पिछले दिनों एक खबर आई कि गेमिंग कंपनी नजारा टेक्नोलॉजीज ने ब्रिटेन
स्थित आईपी-आधारित गेमिंग स्टूडियो फ्यूजबॉक्स गेम्स को 228 करोड़ रुपये में खरीदने
का ऐलान किया है। खरीदने के संबंध में कंपनी की तरफ से बयान आया, 'हम एक आईपी आधारित
वैश्विक गेमिंग व्यवसाय बनाने में बड़ा अवसर देखते हैं, जिसे भारत में हमारे मुख्य
आधार से लाभ मिलेगा।' यह तो एक गेम डील की बात हो गयी। एक अनुमान के मुताबिक दुनियाभर
में ऑनलाइन गेम का कारोबार कई सौ खरब डॉलर का है। भारतीय रुपयों के संदर्भ में देखें
तो माना जाता है कि इस वक्त ऑनलाइन गेम्स का कारोबार करीब 2340 करोड़ रुपयों का है।
दिन-प्रतिदिन नये-नये गेम्स आ रहे हैं। इस संबंध में कंपनियों की ओर से रिसर्च करवाई
जाती हैं और जैसा ट्रेंड या पसंद उनके सामने आती है उसी तरह से सॉफ्टवेयर डेवलप कराकर
नये गेम्स बनाए जाते हैं।
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क्या आप रखते हैं स्क्रीन टाइम का
ध्यान
यूं तो हर वर्ग के लोगों को अपने
स्क्रीन टाइम, यानी कितनी देर मोबाइल, टीवी, लैपटॉप, डेस्कटॉप पर लगे हैं, पर
ध्यान देना चाहिए, लेकिन बच्चों के मामले में इस पर ज्यादा सतर्कता जरूरी है। बेशक
कोविड के बाद बच्चों के स्क्रीन टाइम में इजाफा हुआ है। यह जरूरत भी बन गया है,
लेकिन फिर भी इसे लिमिटेड करना बहुत जरूरी है। विशेषज्ञों के मुताबिक स्क्रीन टाइम
बच्चों को सीखने, रचनात्मकता विकसित करने और सामाजिक संपर्क और कनेक्शन का समर्थन
करने में मदद करता है। लेकिन बहुत अधिक स्क्रीन टाइम नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।
एक शोध के मुताबिक दो से पांच साल के बच्चों के लिए एक घंटे से ज्यादा स्क्रीन
टाइम नहीं होना चाहिए। पांच से 17 वर्ष की आयु तक स्कूल के काम के अलावा दो घंटे
से अधिक स्क्रीन टाइम नहीं होना चाहिए। लेकिन ज्यादातर मामलों में इस समयसीमा की
अवहेलना ही होती है। जानकार कहते हैं कि अधिक स्क्रीन टाइम वाले बच्चों में बिना
सोचे-समझे खाने और अधिक खाने की आशंका होती है। जब बच्चे स्क्रीन पर होते हैं, तो
वे अपने मस्तिष्क से पेट भर जाने के बारे में मिलने वाले महत्वपूर्ण संकेतों को
ग्रहण करने से चूक सकते हैं। कई बच्चे ऐसे मौकों पर जंक फूड खाना पसंद करते हैं। ऐसे
में कई विकार पनपने की आशंका रहती है। अमेरिका, आयरलैंड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस
के बाद अब हाल ही में स्वीडन ने भी स्क्रीन टाइम के लिए सख्त परामर्श जारी किया
है
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मैदान के खेल भी मोबाइल पर
‘इस दौर में मोबाइल ने बचपन को खा
लिया, आसमान उदास है कि पतंगें नहीं आतीं।’ किसी शायर की ये दो पंक्तियां सटीक
बैठती हैं, उस बचपन पर जो मोबाइल में सचमुच गुम हो गया है। आज अन्य खेलों के अलावा
मोबाइल पर वे गेम्स भी उपलब्ध हैं जो मैदान में खेले जाने चाहिए। क्रिकेट, फुटबॉल,
वालीबॉल, बेसबॉल, हॉकी, तीरंदाजी जैसे अनेक गेम्स बच्चे मोबाइल या टैब पर खेलते
दिख जाते हैं। और तो और किशोरावस्था में पहुंच रहे बच्चे ड्राइविंग भी ऑनलाइन करते
हैं। एक रिसर्च के मुताबिक यही बच्चे जब असल जिंदगी में वाहन चलाते हैं तो उनके
अवचेतन मन में गेम्स की बातें घूमती हैं और कई बार वे हकीकत की जिंदगी में गलती कर
बैठते हैं। मैदान में खेलों की जरूरत का ही एक सुखद नजारा पिछले दिनों चंडीगढ़ में
देखने को मिला जब एक सरकारी स्कूल में बच्चों को खेल किट बांटे गए। इसका उद्देश्य
बच्चों को मैदान में खेलने के लिए प्रेरित करना था। पंजाब के राज्यपाल और यूटी प्रशासक
गुलाब चंद कटारिया ने उभरते खिलाड़ियों को उनके कोच सहित स्पोर्ट्स किट्स भेंट की।
फाउंडेशन अध्यक्ष संजय टंडन हैं। टंडन यूटी क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं।
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क्या कहते हैं विशेषज्ञ
डॉ. तनुजा कौशल
कंलसटेंट क्लीनिकल साइकोलोजिस्ट
जानी-मानी क्लीनिकल साइकोलोजिस्ट
डॉ. तनुजा कौशल कहती हैं कि अति हर चीज की बुरी होती है। उनका कहना है कि ऑनलाइन गेम्स
से बच्चे कुछ चीजें सीखते भी हैं जैसे टीम वर्क, समस्या का समाधान निकालना, तनाव को
कम करना आदि। लेकिन गेम्स में डूबे रहना खतरनाक हो सकता है। डॉ. तनुजा ने कहा कि
हम सबको स्क्रीन टाइम का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए। अत्यधिक स्क्रीन टाइम के कारण
बच्चों में कई विकार आ सकते हैं। उन्होंने बताया कि मनोवैज्ञानिक डॉक्टरी भाषा में
इसे ‘अटेंशन डेफिसिट हाइपर एक्टिविटी डिसऑर्डर’ (एडीएचडी) कहते हैं। इसके अलावा वर्चुअल
ऑटिज्म की आशंका भी बनी रहती है। यह कोई प्रत्यक्ष बीमारी नहीं होती, लेकिन इसमें लक्षण
अजीबोगरीब होते हैं जैसे बच्चा किसी से बात न करे, वह अत्यधिक रोशनी बर्दाश्त न कर
पाए, वह चिड़चिड़ा हो जाए, वगैरह-वगैरह। इसके अलवा एंजाइटी, डिप्रेशन, आंखों में रोशनी
की समस्या, एडिक्शन जैसे दुष्प्रभाव भी हो सकते हैं। डब्ल्यूएचओ इसे गेमिंग डिसऑर्डर
की बीमारी के रूप में परिभाषित कर चुका है। डॉ. तनुजा ने आगाह किया कि ऑनलाइन गेम्स
में डूबा बच्चा साइबर बुलिंग का भी शिकार हो सकता है।
यह पूछने पर कि आज के समय में गेम्स
पर पूरी तरह प्रतिबंध तो लगाया नहीं जा सकता, अभिभावक क्या करें, डॉ तनुजा ने कहा,
पहले हमें बच्चों को स्वस्थ तरीके से चीजों को समझाना आना चाहिए। उन्होंने कहा कि
हेल्दी उपाय बेहद जरूरी हैं। शॉपिंग पर चले जाना, बाहर खाने जाना आदि अनहेल्दी
उपाय हैं। उन्होंने कहा कि अपनी 'बला' टालने के लिए हम खुद ही बच्चों को जाने-अनजाने
स्क्रीन टाइम में धकेल देते हैं। 'इलाज से बेहतर रोकथाम है' मुहावरे का हवाला देते
हुए डॉ तनुजा कौशल ने कहा कि हम बच्चों के साथ ज्यादा समय बिताएं। उनके साथ खेलें।
अगर उन्हें ऑनलाइन गेम्स की अनुमति दें भी तो वह फिक्स टाइम के लिए हो और उन पर नजर
रखी जाए। उनके अभिभावक उनके साथ संगीत सुनें, हंसी-मजाक भी करें। पैरेंटिंग टिप्स
पर चर्चा करते हुए डॉ. तनुजा ने कहा कि हद से ज्यादा नियंत्रण भी बच्चों को बिगाड़
देती है। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ नियम बनाए जाने जरूरी हैं जैसे कि घर में 'गेमिंग
फ्री जोन' हों। उदाहरण के लिए बेडरूम में बच्चा गेम न खेले, खाना खाते वक्त बच्चा गेम
न खेले। बच्चों को डायरी लेखन की ओर भी आकृष्ट करना एक बेहतरीन तरीका है। बच्चा दिनभर
की गतिविधियों या स्कूल एक्टिविटी को डायरी में लिखे, उसे समझे। डॉ. तनुजा ने एक
और बात पर गौर करने की जरूरत पर बल दिया कि आजकल छोटे बच्चे जब खाना खाते वक्त आनाकानी
करते हैं या कभी परेशान करते हैं तो कई पैरेंट्स उन्हें मोबाइल पकड़ा देते हैं, उन्होंने
कहा कि ऐसे तो हम खुद ही बच्चे को गर्त में धकेल रहे हैं। इससे बेहतर है कि उसे पसंद
का खाना खिलाया जाये। कई बार बच्चों संग बच्चा बनकर रहा जाये। उसे स्वस्थ माहौल दिया
जाये।