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Wednesday, March 12, 2025

धवल का 16वें बरस में प्रवेश

केवल तिवारी

प्रिय धवल, खूब खुश रहो। इस 10 मार्च को तुम 16वें में प्रवेश कर गए हो। यानी 15 साल के हो गए। हर बार की तरह वह दौर याद आता है जब तुम हुए थे। वसुंधरा में हम लोग रहते थे। कुक्कू प्रार्थना करता था कि मेरा भैया हो जाये। मासूमियत का वह दौर। पिछले दिनों किसी मौके पर तुमने कहा था कि मैं बच्चा ही बना रहता चाहता हूं। बिल्कुल। वही बने रहो। फिर हमारे लिए तो हमेशा रहोगे ही। 










खैर... इन सब बातों से सबसे महत्वपूर्ण और हमारे लिए गर्व का पल है कि इस बार तुम दसवीं की बोर्ड परीक्षा दोगे। एक समय होता था जब हम लोग बोर्ड परीक्षा वाले साल में होते थे तो हर कोई समझता था कि बच्चा ठीकठाक कर ले गया। कुछ बच्चे तो इसके आगे पढ़ाई नहीं कर पाते थे। या तो घर के हालात के कारण या फिर कोई प्रोफेशनल कोर्स जैसे आईटीआई या पोलिटेक्निक में एडमिशन लेने के कारण। हमारे लिए सचमुच यह पल भावुक है। इतना भावुक कि शायद शब्दों में उसे बयां न कर पाऊं। धवल, मैं और मम्मा कभी-कभी तुम्हारे कुछ अवगुणों को सुधारने के लिए तुमसे बात करते हैं, कोशिश करो उन पर अमल करने की। इस बार स्कूल में जब हम लोग पीटीएम में गए तो कई बातें ऐसी हैं जिन्हें हम-तुम जानते हैं, लेकिन शायद इग्नोर कर जाते हैं। कुछ चीजों में अब नियंत्रण बहुत जरूरी है। टाइम मैनेजमेंट करना बहुत जरूरी है। जल्दी ही मैं एक रफ टाइमटेबल बनाऊंगा। उसमें तुम कुछ अमेंडमेंट करना चाहो तो ठीक, नहीं तो वही चलने देंगे। उससे पहले तुम्हारा फिटजी या फिजिक्स वाला फाइनल देखना है। यूं तो तुम्हारे पास समय ही कम होगा, लेकिन कैसे मैनेज करना है, वह देखना होगा। ऑफिस में मेरी किसी से बात हो रही थी, कुछ लोगों ने कहा कि सोशल मीडिया से बच्चे को अब दूर रखना होगा। मैंने बहुत गर्व से कहा कि मेरा बच्चा किसी सोशल मीडिया में एक्टिव नहीं है। उसका कोई निजी फोन भी नहीं है। दसवीं के बाद तुम्हें फोन दिलाएंगे ताकि तुम कई जगह खुद ही आना जाना कर सको और हमारे लगातार संपर्क में रहो। अभी ज्यादा नहीं लिख पाऊंगा। भावुक पल हैं। खूब खुश रहो और स्वस्थ रहो। ईश्वर और बड़ों का तुम पर आशीर्वाद बना रहे। आज तुम्हारे बचपन की कई वीडियो देखीं। कुछ पुरानी फोटो भी देखीं। समय यूं ही चलता रहे।

नोट : यह पत्र तुम्हें बर्थडे पर गिफ्ट करने के लिए लिखा था, लेकिन दिल्ली जाने के कार्यक्रम के कारण प्रिंट नहीं निकाल पाया। दिल्ली से आने के अगले दिन तुम्हारा बर्थडे था। मन से बहुत खुश था। इसीलिए पूरे दिन सजावट में लगा रहा। इससे पहले कुक्कू भैया को लेकर अस्पताल जाने तक थोड़ा परेशान था, लेकिन जब डॉक्टर से मिलकर आए तो राहत मिली। खुशी-खुशी बर्थडे मना। रात में एक विवाह कार्यक्रम में तुम्हारे साथ जाना अच्छा लगा और अपने जानकारों से तुमको मिलवाना बहुत अच्छा लगा। ऐसे ही स्वस्थ रहो। खुश रहो। हमारे परिवार में हम सबका आपस में प्यार ही हम लोगों में एक-दूसरे के लिए गिफ्ट है। सुबह-सुबह तुम्हारा फोन देखना और किसी का मैसेज एवं फोन न देखकर उदास होना भी रोमांचक लगा क्योंकि यह रोमांच एक समय तक ही रहता है, लेकिन हमारी ओर से हमेशा बना रहेगा। खुश रहो बेटे। भैया ने तुम्हारे लिए बहुत कुछ मंगाया। यह पल भी मेरे लिए गर्व करने वाला था। दोनों बच्चे स्वस्थ रहें और तुम्हारी मम्मा प्रसन्न रहे, यही कामना है। 
तुम्हारा पापा

Saturday, March 1, 2025

मेरे अंगना भी आया बसंत...






केवल तिवारी 

मेरे अंगना भी आया बसंत
थोड़ा सा गमलों में
कुछ-कुछ क्यारी में
हल्का-हल्का मन में
अंगड़ाई सी तन में
मेरे अंगना भी आया बसंत, थोड़ा सा गमलों...
आम बौराया सा है
चर्चाओं में छाया सा है
राग सुना-सुनाया सा है
मन में समाया सा है
मेरे अंगना भी आया बसंत, थोड़ा सा गमलों...
ससुराल से आया जिरेनियम
नर्सरी से मनी प्लांट
पड़ोस से तुलसी का पौधा
कुछ-कुछ हमने भी रोपा
मेरे अंगना भी आया बसंत, थोड़ा सा गमलों...
गेंदे में मुस्कुराहट है
सरसों में खिलखिलाहट है
गुलाब की आहट है
पुदीने में सरसराहट है
मेरे अंगना भी आया बसंत, थोड़ा सा गमलों...
हल्दी हमने बो दी है
नयी क्यारी खोदी है
पारिजात तैयारी में है
शमी, ब्राह्मी की भी बारी है
मेरे अंगना भी आया बसंत, थोड़ा सा गमलों...
देता बसंत नया संदेश
अपना घर हो या दूर देश
नयापन तो आयेगा ही
फागुनी खुमार छायेगा ही
मेरे अंगना भी आया बसंत, थोड़ा सा गमलों...
फाग की रवानी है
सतरंगी जवानी है
कुदरत भी दीवानी है
यही बात सबने मानी है
मेरे अंगना भी आया बसंत, थोड़ा सा गमलों...

Sunday, February 23, 2025

जी गये कोचर साहब... छोटी-छोटी बातों की है यादें बड़ी

केवल तिवारी

एक फिल्मी गीत में एक-दो पंक्तियां बड़ी दार्शनिक सी हैं। इनके बोल हैं, 'छोटी-छोटी बातों की हैं यादें बड़ी, भूलें नहीं बीती हुई एक छोटी घड़ी।' सच में, जिन महानुभाव का मैं यहां जिक्र कर रहा हूं, उनके संबंध में मेरे लिए छोटी सी घड़ी ही है याद करने की। 


उनका नाम है तिलकराज कोचर और अब नाम के आगे स्वर्गीय जुड़ गया है। उम्र की सुई 94 पर पहुंचने ही वाली थी कि पिछले दिनों वे इस नश्वर संसार से विदा ले गये। मेरे लिए उनका तात्कालिक परिचय है कि वह हमारे संपादक नरेश कौशल जी के समधी थे। उनके बारे में लिखने का मुख्य कारण है उनका जिज्ञासु प्रवृत्ति का होना। दो-तीन साल पहले वह दैनिक ट्रिब्यून न्यूज रूम में पहुंचे थे। अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस वक्त भी वह 91 या 92 के होंगे। ठीकठाक उम्र। वह मेरे बगल में ही बैठे। संक्षिप्त परिचय के बाद अखबारी दुनिया यानी खबर आने से लेकर अखबार के छपने तक की प्रक्रिया को समझने लगे। पता चला कि वह मशीन सेक्शन भी देखने गए। कमाल है। मैं तो दंग रह गया और उन युवाओं पर लानत भेजने लगा जो हमेशा इस मुगालते में रहते हैं 'अहं ब्रह्मास्मि।' यानी मैं तो सबकुछ जानता हूं। सर्वज्ञ कौन होता है। इस बात को मानने वाले भी कितने होते हैं। बातों-बातों में पता चला कि तिलकराज जी अपने जमाने के इंजीनियर रहे हैं। एमईएस में उन्होंने लंबी सेवा दी है। जानकारी जुटाने के शौकीन हैं। अध्यात्म का उन्हें ज्ञान है। दवाओं की बड़ी जानकारी है। नित कई अखबार पढ़ते हैं। प्रथम पृष्ठ से लेकर संपादकी और ओपएड पेज से होते हुए अंतिम पृष्ठ तक। इतनी जानकारी रखने वाले व्यक्ति को जरा भी दंभ नहीं। वह एक बच्चे की तरह जानने की इच्छा रखते हैं। कोचर साहब के भोग कार्यक्रम में, मैं भी गया। उनकी बहू यानी संपादक जी की बेटी शैलजा कौशल का संदेश आया था। शैलजा हरियाणा सरकार में अधिकारी हैं। मेरे लिए उनका यह परिचय है कि वह लिखती हैं और उनकी एक रचना के पुरस्कृत होने के मौके पर उस कार्यक्रम को कवर करने का मुझे मौका मिला था। तिलकराज जी के पुत्र रिजु भी बेहद विनम्र व्यक्ति। विंग कमांडर से सेवानिवृत्त और वर्तमान में इंडिगो में पायलट बेहद मिलनसार हैं। पिता के जाने का दुख हम सब समझ सकते हैं, लेकिन एक 'भरपूर उम्र' में जाने के बाद शायद इसे विधि का विधान ही कहा जा सकता है, लेकिन उनकी इंटीमेसी कितनी रही होगी, यह उस दिन शांति पाठ के दौरान उनके शब्दों से पता चला। उसी दौरान शैलजा ने जब बोलना शुरू किया तो मेरी आंखें भी नम हो गयीं। मैं अपने आंखों की नमी छिपाने के दौरान इधर-उधर देखने लगा तो देखा कि वहां बैठे कई लोग रुमाल से आंसू पोछ रहे हैं। शैलजा ने बताया कि कैसे पिताजी का उनसे दोस्ताना संबंध था। वह ऑफिस में होती थीं तो पिताजी का फोन आता और कुछ मंगाते। अपनी भावनाओं को व्यक्त करते-करते उनका गला रुंध गया और साथ बैठे उनके पति रिजु भी सुबकने लगे। तिलकराज के भाई ने भी अपनी भावनाओं को व्यक्त किया।

प्रार्थनासभा और पंडितजी
प्रार्थना सभा में पंडित जी ने जहां ओम (ऊं) उच्चारण के लाभ गिनाए, वहीं सांसारिक जीवन में कर्मों के महत्व को समझाया। तिलकराज ही और उनकी पत्नी उषा से मिले ज्ञान को साझा किया। उन्होंने बताया कि उषा जी उन्हें किताबें पढ़ने को देती थीं। कुछ साल पूर्व उनका निधन हो गया। पंडित जी ने प्रार्थना के दौरान कबीर, रहीम और अनेक महान हस्तियों का हवाला देते हुए रामराज परिकल्पना का मतलब बताया। उन्होंने कहा-
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥ सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
बेहद मधुर वाणी में उद्गार व्यक्त करते हुए पंडितजी को हर किसी ने बहुत मनोयोग से सुना। सामने रखी तिलकराज की तस्वीर और वहां जल रहा दिया। ऐसा लग रहा था तिलकराज जी तो अपने परिवार के आसपास ही हैं। अदृश्य होकर वह आशीर्वाद दे रहे हैं। ऐसा लगा मानो मुस्कुराते हुए कह रहे हैं, "सिर्फ़ ज़िंदा रहने को ज़िंदगी नहीं कहते।" तिलकराज जी को नमन।

Monday, February 10, 2025

एक महाकुंभ पुस्तकों का... मैंने भी लगाई डुबकी

 


केवल तिवारी

प्रयागराज महाकुंभ की चहुंओर हो रही चर्चा के बीच, पिछले दिनों पुस्तकों के एक महाकुंभ में मैंने भी डुबकी लगाई। नयी दिल्ली स्थिति प्रगति मैदान में बने भारत मंडपम में 25वें विश्व पुस्तक मेले में जाने का मौका मिला। दिल्ली में एक-दो काम थे, साथ ही इंदौर निवासी वरिष्ठ पत्रकार हेमंत पाल जी का भी आग्रह था कि पुस्तक मेला जाना हो तो मेरी पुस्तक 'फ्लैश बैक' भी देखना। पुस्तक मेले में गया तो खुश होने के कई कारण थे। एक तो किताबों के प्रति हर वर्ग के लोगों का अनुराग, दूसरे अनेक विद्वानों से मुलाकात और सार्थक चर्चा। कुछ भावुक बातें और कुछ यादों का भी दौर चला। सिलसिलेवार करता हूं चर्चा।

चंडीगढ़ से जब दोपहर के करीब भारत मंडपम के पास गया तो



















लंबी कतार लगी थी पुस्तक मेले में जाने के लिए। बेशक वह वर्किंग डे यानी कार्यदिवस था फिर भी लोग उमड़ रहे थे। मैं भी लग गया कतार में और पहुंच गया भारत मंडपम में। सबसे पहले मैं हॉल नंबर दस में गया। कुछ किताबें देखीं, फिर हॉल नंबर दो की तरफ चल दिया। वहां कुछ स्टॉल्स से किताबें खरीदीं और वहां आए लोगों से बातचीत करने लगा। घूमते-घूमते जब एक किताब 'उड़न छूं गांव' की खोज में इधर-उधर घूम रहा था तो एक आवाज आई। देखा तो बड़े भाई समान एवं वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार चारू तिवारी जी मुझे बुला रहे थे। उन्होंने 'दुदबोली' पत्रिका भेंट की और गैरोला जी से मुलाकात करवाई। साथ ही कुछ और साहित्यानुरागी मिले। इसके बाद कुछ देर हम लोगों ने वहीं बैठकर चर्चा की और चल दिए पुस्तक मेले का एक और दौरा लगाने। इस बीच कई प्रकाशकों के स्टॉल्स पर हम लोग गये। तभी एक जगह वरिष्ठ साहित्यकार रामशरण जोशी जी मिल गये। चारू जी के जरिये हमारी मुलाकात हुई। आजकल हर हाथ में मोबाइल रूपी कैमरा है तो कुछ फोटो भी खींचे। फिर हम चले गए आगे की ओर। बातों-बातों में मैंने पंकज बिष्ट जी का जिक्र किया। पंकज जी के अनेक उपन्यास पढ़े हैं। उनकी रचनाओं पर अनेक लोगों से चर्चा भी की है। वह लंबे समय से 'समयांतर' पत्रिका निकाल रहे हैं। गैर व्यावसायिक, लेकिन सारगर्भित। उनके साथ कुछ देर बात हुई। मैंने उनके स्वास्थ्य का हालचाल जाना तो उनकी एक पंक्ति में उत्तर देना अच्छा लगा कि जब तक पत्रिका चल रही है, तब तक हम भी चल रहे हैं। यानी लिखने-पढ़ने वालों की यही तो खुराक है। इसी दौरान चारू जी से विभिन्न मुद्दों पर बात होती रही है। चारू जी ने क्षेत्रीय पत्रकारिता के साथ ही उत्तराखंड के विभिन्न विषयों और रचनाधर्मियों पर शोध कार्य किया है। एक तरह से उन्हें उत्तराखंड का इनसाइक्लोपीडिया कहा जा सकता है। अपनी शोध प्रवृत्ति के कारण ही उन्होंने मुख्य धारा की पत्रकारिता जिसे बतौर रोजी-रोटी वह चला रहे थे, उससे किनारा कर लिया। खैर... बातों-बातों में हम लोग अनेक स्टॉल्स पर गये। इसी दौरान वरिष्ठ पत्रकार अनिल तिवारी जी मिले और साथ थीं उनकी बेटी गौरा। बाद में पता चला कि गौरा अच्छा लिखती हैं और एक-दो किताबों से उनको रॉयल्टी भी मिली है। पुस्तकों की इस खरीदारी के बाद मैं राजेश की बताई दो पुस्तकों की खोज में निकला। एक मिल गयी, दूसरी नहीं। समय तेजी से निकलता गया और अंतत: चारूजी से विदा लेकर मैं बाहर निकल आया। पुस्तकों के इस महाकुंभ में थोड़ी सी डुबकी लगाने की इस यात्रा को दिल में सहेजकर मैं लौट आया।

बेटे को किया फोन और वह भावुक पल

पुस्तक मेले में कुछ देर भ्रमण के बाद मैं थोड़ी देर के लिए भारत मंडपम परिसर के लॉन में आकर बैठ गया। तब तक खरीदी हुई पुस्तकों को बैग में ठीक से रखने लगा। इसी दौरान बड़े बेटे कार्तिक से पूछा कि कोई किताब तो नहीं लानी है। वह भी पढ़ने का शौकीन है। हालांकि कहीं भी जाता है तो अपने लिए खुद ही किताबें ले आता है। कई बार कुछ पुस्तकों के कथानक को लेकर मुझसे भी चर्चा करता है। एक-दो किताबें मुझे भी दी हैं। उसने कहा कि अभी फोन पर तो क्या बताऊं। लेकिन साथ ही एक भावुक बात भी की। उसने कहा, 'पापा आपको याद है कि जब बचपन में आप मुझे लाए थे तो मैंने एक मॉडल खरीदवाया था जिसके टुकड़ों को जोड़कर हमने अलग-अलग मॉडल बनाए थे।' (असल में जब वह चौथी या पांचवी में था, मैं उसे लेकर पुस्तक मेले में आया था। यहां बच्चों के एक स्टॉल पर उसे एक क्राफ्ट पीस पसंद आया जिसके टुकड़ों को जोड़कर चांद, बिल्डिंग, नाव आदि बनाई जा सकती थीं। वह कई साल तक उसके साथ प्रयोग भी करता रहा और मैंने उसे कुछ किताबें भी दिलवाईं।) मैं भावुक हो गया और उससे कहा कि हां मुझे याद है। उसने कहा कि देखना वैसा ही कुछ मिले तो धवल (उसका छोटा भाई यानी मेरा छोटा बेटा) के लिए ले लेना। मैं फिर अंदर गया। भरा बैग पीठ पर लदा हुआ था, लेकिन वैसा कुछ इस बार नहीं मिला। पर पुरानी बातों को याद कर मैं कब मेट्रो स्टेशन तक पहुंच गया पता नहीं चला और बैग के भार से कंधे दुखने का भी असर तब महसूस हुआ जब मैं मेट्रो में बैठ गया।

पुस्तक मेला और पैदल चलने के दौरान की कुछ तस्वीरें यहां साझा कर रहा हूं।


Wednesday, February 5, 2025

हम सब तो मिलते रहेंगे... भाटिया जी का साथ

केवल तिवारी

शुरुआत बशीद बद्र साहब की शायरी से करता हूं, जिसके बोल इस तरह से हैं-
मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी, किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी।






यूं तो हम सब दुनिया में ही एक मुसाफिर हैं, फिर ऑफिसियल मसले की बात करें तो यहां तो मुसाफिर हैं ही। एक निश्चित अवधि के बाद हमें यहां से रुखसत होना ही होता है। ट्रिब्यून संस्थान की बहुत अच्छी बात है कि यहां पारिवारिक संबंध लोगों के बने होते हैं क्योंकि लंबे समय से सब साथ काम करते हैं। एक दशक से अधिक समय से मैं भी ट्रिब्यून में हूं और विभागीय, गैर विभागीय अनेक लोगों से अच्छे ताल्लुकात बने हैं। ऐसे ही एक अजीज राम कृष्ण भाटिया जी पिछले दिनों सेवानिवृत्त हुए। भाटिया जी उन चंद लोगों में से हैं जिनके साथ 'from first day' मेरी मित्रता हो गयी। फिर उनकी बिटिया मेरे बेटे की सीनियर रहीं, इससे बातचीत में और प्रगाढ़ता आई। कोविड काल के दौरान हालात जब थोड़े नकारात्मक होने लगे तो भाटिया जी से मैं पूछता था कि वो दिन... मेरे सवाल के बीच में ही वह कह डालते फिर आएंगे, फिर आएंगे। वाकई फिर माहौल सामान्य हुआ। आदरणीय नरेश कौशल जी दैनिक ट्रिब्यून के संपादक बनकर आए और ऑफिस के माहौल में नये उत्साह का संचार हुआ। इसी उत्साह और मिलनसार संपादकत्व का कमाल था कि भाटिया जी की रिटायरमेंट पार्टी में हम अनेक लोगों को जाने का मौका मिला और न्यूजरूम की अच्छी खासी भागीदारी रही। उनके विभाग के अनेक लोगों की प्रतिभाएं भी सामने आईं और सभी ने अपने उद्गार व्यक्त किए। मेरे दिल में कई तरह की बातें हैं, जिन्हें व्यक्त करना चाहता हूं, लेकिन कई बातें तस्वीरें भी कह देती हैं। यहां तस्वीरों को साझा कर रहा हूं, साथ ही कुछ शायरियां जो कम शब्दों में बहुत कुछ कह देती हैं। भाटिया जी को सेवानिवृत्ति की हार्दिक शुभकमानाएं। आप स्वस्थ रहें और मस्त रहें।
आँख भर आई किसी से जो मुलाक़ात हुई
ख़ुश्क मौसम था मगर टूट के बरसात हुई

आज नागाह हम किसी से मिले
बा'द मुद्दत के ज़िंदगी से मिले

काफ़ी नहीं ख़ुतूत किसी बात के लिए
तशरीफ़ लाइएगा मुलाक़ात के लिए

हज़ार तल्ख़ हों यादें मगर वो जब भी मिले
ज़बाँ पे अच्छे दिनों का ही ज़ाइक़ा रखना

Tuesday, January 14, 2025

निर्मल हैं, नरेंद्र हैं... बाल साहित्यकार की साधना में लगी एक सम्मानित मुहर

केवल तिवारी

आज बात एक ऐसे शख्स की जो निर्मल हैं और नरेंद्र हैं। संयोग देखिए कि जिस वक्त मैं यह ब्लॉग लिख रहा हूं, उस वक्त युवा दिवस की खबरों और लेखों की चर्चा हो रही है। युवा दिवस यानी स्वामी विवेकानंद जी और उनकी शिक्षाओं को समर्पित। स्वामी विवेकानंद यानी नरेंद्र। सीधे जुड़ गयी बात। विवेकानंद जी की शिक्षा के सागर में से कुछ बूंदें भी सहेज पाए तो यही बहुत बड़ी उपलब्धि होती है। निर्मल जी यही तो बताते हैं कि लक्ष्य साधे रखिए। ऊर्जावान बने रहिए। किसी का बुरा करने की सोचिए भी मत। बाकी कुछ नहीं कर पाएं तो इतना ही बहुत है। आज उनकी बात इसलिए कि पिछले दिनों उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने वरिष्ठ पत्रकार, साहित्कार एवं फीचर संपादक नरेंद्र निर्मल को सम्मानित करने का ऐलान किया है। 



सम्मान सूची संबंधी एक खबर मैंने तैयार की थी, जिसका विवरण इसी ब्लॉग में आगे जाकर मिल जाएगा। अभी निर्मल जी की बात। मेरे लिए बड़े भाई जैसे और पथ प्रदर्शक जैसे। बच्चों को लेकर कोई बात करनी हो या फिर दफ्तर की कार्यशैली पर। चूंकि हमारा पेशा समान है। कई तरह की बातें होती हैं। कई बारीकियों को समझना होता है और कई बातों को इग्नोर करना होता है। निर्मल जी से जब भी बात होती है वह 'चुपचाप' कुछ कह देते हैं। असल में कई बार उन्होंने इस शब्द का इस्तेमाल किया है। मुझसे कहते हैं कि चुपचाप अपना काम करते रहना चाहिए। विभिन्न अखबारों में फीचर के कलेवर और फ्लेवर बदलते रहने वाले नरेंद्र निर्मल भाई साहब सलाह पर भी गौर करते हैं, अपना तर्क भी रहते हैं। परिवार के प्रति समर्पित व्यक्ति का काम के प्रति भी उतना ही समर्पण। हिंदी संस्थान से सम्मानित होने की सूचना को उनके जानकार और वरिष्ठ पत्रकार संजय जी ने फेसबुक पर साझा किया तो कमेंट्स की बौछार लग गयी। उन्होंने कुछ खास कमेंट्स का जिक्र करते हुए कहा कि इन महानुभावों से बहुत कुछ सीखा है। एक स्क्रीन शॉट यहां साझा करूंगा। 





असल में निर्मल जी ने जिनसे सीखा या जिनसे प्रेरित हुए, उनका निस्संकोच जिक्र करते हैं। साथ ही बहुत बेबाकी से कहते हैं कि अब भी सीखने में लगा हूं। उनके आइडियाज दिल को छूने वाले होते हैं। जो काम उन्हें चुपचाप करना होता है, करते हैं। जिसको लेकर चर्चा करनी होती है, करते हैं। यानी सहज रहते हैं। जैसे स्वयं हैं, वैसे ही संस्कार बच्चों में हैं। इनका भाग्य अच्छा था कि इन्हें पत्नी भी उतनी ही अच्छी मिलीं। सुधा भाभी ने घर के अभिभावक की तरह हमें समय-समय पर अच्छी सलाह दी हैं। बच्चों को खिलाया है, समझाया है। एक बार फिर निर्मल परिवार को इस सम्मान की हार्दिक बधाई। उनके साथ ही उन सभी सम्मानित साहित्यकारों को दिल की गहराई से बधाई। सभी अपने-अपने क्षेत्र के महारथी हैं। अब नीचे साझा कर रहा हूं, वह खबर जो इन सबके सम्मानित होने की सूचना पर मैंने बनाई थी।
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वरिष्ठ पत्रकार नरेंद्र निर्मल को सम्मानित करेगा उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान
वरिष्ठ पत्रकार नरेंद्र निर्मल को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान सम्मानित करेगा। निर्मल के साथ ही नौ अन्य साहित्यकारों को भी सम्मानित किया जाएगा। इस संबंध में जारी बयान के मुताबिक नरेंद्र निर्मल को लल्ली प्रसाद पांडेय बाल साहित्य पत्रकारिता सम्मान के लिए चयनित किया गया है। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने बाल साहित्य संवर्धन योजना के तहत राज्य के नौ साहित्यकारों को बाल साहित्य सम्मान 2023 देने की घोषणा की है। संस्थान की निदेशक डॉ. अमिता दुबे ने बताया कि प्रत्येक साहित्यकार को 51 हजार की धनराशि, अंगवस्त्र और प्रशस्ति-पत्र से सम्मानित किया जाएगा। इनके सम्मान का निर्णय पिछले दिनों समिति की बैठक में लिया गया। जिन अन्य साहित्यकारों को सम्मान के लिए चुना गया है उनका विवरण इस प्रकार है- लखनऊ की डॉ. करुणा पांडेय को सुभद्रा कुमारी चौहान महिला बाल साहित्य सम्मान, सहारनपुर के डॉ. आरपी सारस्वत को सोहनलाल द्विवेदी बाल कविता सम्मान, शाहजहांपुर के डॉ. मोहम्मद अरशद खान को अमृत लाल नागर बाल कथा सम्मान, अलीगढ़ के दिलीप शर्मा को शिक्षार्थी बाल चित्रकला सम्मान, गौतमबुद्ध नगर के बलराम अग्रवाल को डॉ. रामकुमार वर्मा बाल नाटक सम्मान, मथुरा के देवी प्रसाद गौड़ को कृष्ण विनायक फड़के बाल साहित्य समीक्षा सम्मान, लखनऊ के डॉ. दीपक कोहली को जगपति चतुर्वेदी बाल विज्ञान लेखन सम्मान, प्रतापगढ़ के अनिल कुमार ‘निलय’को उमाकांत मालवीय युवा बाल साहित्य सम्मान। बता दें कि उत्तर प्रदेश के नोएडा निवासी नरेंद्र निर्मल पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र प्रतिष्ठित नाम है। पिछले 4 दशक से वह विभिन्न प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के फीचर विभाग में वरिष्ठ पदों पर कार्यरत रहे। उन्होंने बाल साहित्य को नया कलेवर और फ्लेवर दिया है।

Monday, January 13, 2025

'घर' की एक और यात्रा, हालचाल और वार्ता

केवल तिवारी








सुखद संयोग है कि दो-तीन महीने के अंदर ही एक बार फिर अपनी जन्मस्थली जाने का मौका मिला। उत्तराखंड के रानीखेत के पास स्थित अपने गांव खत्याड़ी (डढूली)। असल में बच्चों की छुट्टी थी, बड़े बेटे की बेंगलुरू (Bengluru, Microsoft ) में अगस्त में जॉइनिंग से पहले यही मौका सही था और छोटा धवल भी अब दसवीं में चला जाएगा। तमाम कार्यक्रम बनाते-बनाते यही तय हुआ कि घर चलना है। इसी बीच, गांव की धूनी बंबईनाथ स्वामी मंदिर में भंडारा होने की सूचना व्हट्सएप ग्रुप के जरिये मिली। ईश्वर की कृपा ही थी कि कार्यक्रम बन गया। काठगोदाम बच्चों के बड़े मामा, उनकी बेटी, बीच वाले मामा और मामी को भी साथ ले लिया। यात्रा छोटी, लेकिन यादगार रही और सबसे अहम रहा अपने लोगों से मुलाकात करना। कुछ मिले, कुछ की बातें हुईं और कुछ के बारे में जानकारी ली। लेकिन इतनी सी बातों से मन कहां भरता है। इसीलिए शायद किसी शायर ने कहा है-
ये मुलाक़ात मुलाक़ात नहीं होती है, बात होती है मगर बात नहीं होती है।
खैर... जो भी हो। यह सत्य है कि यात्रा हुई। शानदार नजारे देखे। ऐसे नजारे जिन्हें बचपन में भी देखा था। तब वह रोजमर्रा के थे, आज कभी-कभी होते हैं। सिलसिलेवार इस यात्रा का जिक्र करता हूं।






हल्द्वानी से बिनसर महादेव और ताड़ीखेत विश्राम






कार्यक्रम बनने के बाद जाने के तमाम विकल्पों पर विचार किया गया। चंडीगढ़ से सीधी ट्रेन सेवा है नहीं। कभी-कबार वाली कोई ट्रेन है भी तो दिन के हिसाब से हमें सूट नहीं करती। फिर बस के विकल्प पर विचार किया गया। अंतत: हमने तय किया कि हल्द्वानी तक अपनी कार से जाया जाये, वहां से कैब कर लेंगे। बच्चों के मामा नंदाबल्लभ जी के माध्यम से कैब बुक हो गयी। तीन जनवरी की सुबह हम लोग चले। पहले कोटाबाग वाले यानी मेरे साढू भाई सुरेश पांडे जी के निर्माणाधीन स्टे होम (बैलपड़ाव) पहुंचे। कुछ देर वहां रुककर हम शेखर जी के यहां पहुंचे। वहां उनकी पत्नी लवली जी एवं पुत्र सिद्धांत जोशी ने गर्मजोशी से स्वागत किया। कई बातें हुईं और अगले दिन जल्दी से जल्दी चलने का कार्यक्रम बना। अगली सुबह करीब 8 बजे हम लोग काठगोदाम पहुंचे और वहां से सभी लोग कैब से सीधे बिनसर महादेव पहुंचे। लंबे समय बाद इस मंदिर में जाना हुआ। शांत सुरम्य। सचमुच मंदिर ऐसे ही होने चाहिए जहां लूट न हो, जहां कोई डिमांड न हो। आध्यात्मिक माहौल। कुछ देर मंदिर और फिर मंदिर प्रांगण में हम सब लोग रहे। संबंधित वीडियो यहां साझा कर रहा हूं। इसके बाद हम पहुंच गए ताड़ीखेत। ताड़ीखेत में व्यंजन होम स्टे में हमने ठहरने के लिए पहले से ही कह दिया था। असल में करीब तीन माह पहले जब आया था तो यहीं ठहरे थे। अच्छा लगा। इस होम स्टे में जहां भोजन एकदम घर जैसा है वहीं आवास और रहने का माहौल भी वैसा ही। संयोग देखिए इसी दिन यानी चार जनवरी को इसके ऑनर के भतीजे नवीन जोशी का जन्मदिन था। शाम को वहां बच्चे और परिजन गीत-संगीत के आयोजन में व्यस्त थे और उन्होंने हम सबको भी शामिल कर लिया। सबके साथ हंसी-मजाक और गीत संगीत कार्यक्रम में बहुत अच्छा लगा। इससे पहले हम लोग ताड़ीखेत बाजार में घूमने गए। वहां एक बुजुर्ग मिले जो मेरे ससुर और पिताजी दोनों को जानते थे। उन्होंने कई यादें साझा कीं। संबंधित वीडियो भी यहां साझा कर रहा हूं। मुझे संभवत: पहले बुजुर्ग मिले होंगे जिन्होंने कहा कि वह मेरे पिताजी यानी स्व. दामोदर तिवारी को भी जानते हैं। इसके बाद हम लोग व्यंजन होम स्टे पहुंचे, भोजन के बाद अगले दिन का कार्यक्रम बनाकर सो गये।
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घर की राह, बड़ों का स्नेह और ईश्वर का आशीर्वाद




पांच जनवरी की सुबह करीब नौ बजे हम लोग ताड़ीखेत से घर के लिए निकले। रास्ते में कुछ लोकेशन देखते हुए मैंने अपने संबंधियों को वह जमीन भी दिखाई जिसकी आजकल चर्चा है। उसका नाम है सिवाड़। वहां से हिमालय व्यू एकदम क्लीयर है। रास्ते में कुछ निर्माणों को भी देखा। सरना में कुंदन मिले। कुछ देर बात करने के बाद हम लोग पैदल गांव की ओर चल पड़े। रास्ते में सबसे पहले तलबाखई भोपका की मांताजी मिलीं। उम्र करीब सौ वर्ष। उन्होंने बहुत भावुक किया। वह बोलीं, 'तुमर ईजक ब्या लै मैंल देख राखो, मकण भगवान कदिन उठाल।' यानी तुम्हारी माताजी का विवाह होते मैंने देखा है। मुझे भगवान कब उठाएगा। मैंने कहा, चाची चिंता मत करो, जब बारी आएगी, पता भी नहीं चलेगा। असल में यह अच्छी बात है कि हमारे गांव सभी को रिश्तों से बुलाते हैं। प्रसंगवश बता दूं कि पांच जनवरी को हम अपने गांव पहुंचे और पांच जनवरी को ही हमारी माताजी की 17वीं पुण्यतिथि थी। पहले मुझे इसका भान नहीं रहा क्योंकि कुछ दिन पहले ही हिंदी कैलेंडर में तिथि के हिसाब से उनका श्राद्ध हुआ था। बातों-बातों में शीला दीदी ने याद दिलाई तो लगा ईजा के आशीर्वाद से आज गांव आना तय हुआ। इसके बाद हम लोग पहले अपने घर पहुंचे। पनदा के घर में भाभी जी मिलीं। बहुत अपनेपन से उनसे मुलाकात हुई फिर बसंत दा और भाभी से मुलाकात हुई। फिर कैलाश मिला और उसके बाद प्रयागदा के यहां चायपानी हुई। फिर हम ताऊजी के पोते यानी अपने भतीजे बिपिन के आंगन में गये। बिपिन की यादों में आंखें नम हो गयीं। कोरोना काल में वह इस नश्वर संसार से विदा ले गया। अपने घर के आंगन में दीया बत्ती करने के बाद हम ग्वेल देवता के मंदिर गये। उसके बाद फिर से नीचे सरना आए और गाड़ी में बैठकर डढूली गांव पहुंचे। वहां ललदा मिले। उन्होंने बहुत खुशी जताई। फिर पैदल चल पड़े बंबईनाथ स्वामी मंदिर की ओर यानी धूनी की ओर। रास्ते में अनेक लोग मिले। दोभण सनुदा ने पहचान लिया। नाम से मुझे पुकारा तो बहुत अच्छा लगा। मंदिर में चिंतामणि चाचा, बबलू भाई, मधीदा और भाभीजी, शिवदा सर (शिवदत्त तिवारी), मीना बुआ, उर्वीदा, उनके बेटे मुन्ना, महेश दा, प्रकाश दा और बाद में पप्पूदा यानी दिनेशदा भी आ गए। इसी दौरान रिश्ते में भतीजा और स्कूल का दोस्त मदन मिला। उसीने हमारी पूजा करवाई। वह अक्सर गांव के बारे में सूचना देता रहता है। होली आदि त्योहारों के दौरान वीडियो कॉल करवाता है। उसके बड़े भाई नवीन, भाई एवं व्यास जी ललित तिवारी, राजू आदि अनेक लोगों से मुलाकात हुई। इस दौरान पूजा होती रही और प्रयागदा मेरे लिए भी धोती लेकर आए थे। मैं भी धोती पहनकर चौखंडी की परिक्रमा करने लगा। परंपरागत पूजा हुई और इसी दौरान आदेश हुआ कि सावन के महीने में फिर से यहां पहुंचूं। ईश्वर का हुक्म होगा तो पूरी कोशिश होगी जाने की। अनेक लोगों ने आते रहने की ताकीद की। इस मुलाकात पर दो-दो पंक्तियां दोहराऊंगा-
आँख भर आई किसी से जो मुलाक़ात हुई, ख़ुश्क मौसम था मगर टूट के बरसात हुई।
काफ़ी नहीं ख़ुतूत किसी बात के लिए, तशरीफ़ लाइएगा मुलाक़ात के लिए।
दिन भी है रात भी है सुब्ह भी है शाम भी है, इतने वक़्तों में कोई वक़्त-ए-मुलाक़ात भी है।
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हल्द्वानी वापसी, भानजियों संग समागम और कुछ भावुक यादें





गांव के यादगार सफर के बाद हम लोग हल्द्वानी वापस आ गये। यहां सबसे पहले साढू भाई सुरेश पांडे जी के यहां गये। उनसे कई बातें हुईं। अगले दिन कार्यक्रम बना भानजियों के यहां जाने का। यहां मेरी बड़ी भानजी लता, उससे छोटी रुचि और फिर रेनू रहते हैं। रुचि के पति दीपेश ने लंच का अपने यहां फिक्स कर दिया। फिर रेनू के पति कुलदीप पंत जी ने अपना पता बताया। उनकी बिटिया काव्या से बातचीत करना अच्छा लगा। उनकी माताजी से कई बातें साझा हुईं। वह बहुत जीवट महिला हैं। यहां प्रेमा दीदी का भी आने का कार्यक्रम था, लेकिन कुछ व्यस्तताओं के कारण वह नहीं आ सकी। उम्मीद है कि जल्दी ही मुलाकात होगी। इस मुलाकात के बाद कुलदीप जी ने हमें लता के यहां छोड़ दिया। परिवार में नन्हे कान्हा यानी लता के पोते को पहली बार देखा। छोटी भानजी बन्ना के बेटे अविरल से मिलकर भी बहुत अच्छा लगा। नन्हे कान्हा के पिता यानी मयंक और मम्मी से भी मुलाकात हुई। संक्षिप्त भेंट के बाद हम चले आए भानजी रुचि के यहां। यहां रुचि का बड़ा ऋषि यानी रिषु हमारा बेसब्री से इंतजार कर रहा था। उसका भाई अपनी नटखट शरारतों में व्यस्त था। रिषु हम लोगों से लगातार रुकने का आग्रह करता रहा। हम लोगों ने लंच किया। फिर दीपेश हमें माताजी से मिलाने ले गये। माताजी अस्वस्थ हैं और कुछ ही समय पहले दीपेश के पिता जी यानी हम सबके दद्दू इस नश्वर संसार से विदा ले गये। वह बहुत मिलनसार और स्पष्टवादी थे। दीपेश के बड़े भाई सुबोध, पत्नी से भी मुलाकात हुई। कुछ देर पुरानी बातों को याद किया। कभी भावुक तो कभी रोचक पलों का आदान-प्रदान हुआ। उस शाम भी पांडे जी के यहां पहुंचे। अगली सुबह जल्दी उठकर हल्द्वानी कालूसाई मंदिर फिर काठगोदाम भूमि देवता की पूजा-अर्चना के बाद वहीं रहना हुआ। अगली सुबह हम सभी लोग साथ में शेखरदा चल पड़े चंडीगढ़। यहां आकर शुरू हो गयी रुटीन लाइफ। यूं ही चलती रहे जिंदगी। सभी के स्वास्थ्य की कामना। अब फोन पर परिजनों के साथ इस यात्रा के बाबत वार्तालाप चल रही है। - जय हो।
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