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Sunday, November 10, 2024

जी गये दद्दू, जीवटता से चले गये

केवल तिवारी

दद्दू चले गये, लेकिन मैं तो कहूंगा कि दद्दू आप जी गये। चले गये कहना ही पड़ रहा है, पर जीवटता से गये। जीवट रहे दद्दू। जिंदादिल इंसान। प्रैक्टिल इंसान। मददगार इंसान। 

दद्दू की व्हाट्सएप डीपी 

दद्दू को तब से जानता हूं जब नौवीं-दसवीं में पढ़ता था। अक्सर मिलते थे। दूर से ही नमस्कार कर खिसक लेते थे। पहला असल आमना-सामना हुआ जब एक बार उनके यहां कुछ सामान लौटाने गया। मैं और मेरा एक मित्र उनके लखनऊ स्थित सरकारी आवास में गये। देहरी से थोड़ा अंदर पहुंचकर खुद को अच्छा बच्चा साबित करने की लालसा में मैंने पूछ लिया, अंदर आ जाऊं। दद्दू बोले- आधे तो अंदर आ चुके हो और अब पूछ रहे हो। अब आ ही जाओ। उन्होंने बड़ी बेरुखी से बैठने का इशारा किया। हम दोनों बैठ गये। थोड़ी देर में दद्दू दो कटोरियों में खीर लेकर आये। मैंने दो चम्मच खाते ही कहा, अरे वाह बहुत अच्छी खीर है, घर में बनायी होगी। दद्दू बोले- नहीं तुम्हारे लिए बाजार से मंगाई है। फिर बोले, बच्चे को बच्चे की ही तरह रहना चाहिए। बेवहज मक्खनबाजी मत करो। मैं घर आया, बड़े भाई साहब से शिकायती लहजे में कहा, कहां भेज दिया आज मुझे। बहुत ही रूखे आदमी हैं। भाई साहब हंसे, बोले- अरे वह तो बहुत बेहतरीन इंसान हैं। धीरे-धीरे समझोगे। सच में धीरे-धीरे समझा तो दद्दू बेहद जिंदादिल इंसान निकले। उतनी ही जिंदादिल उनकी पत्नी। उनके बच्चे भारती, सुबोध और दीपेश हमें मामा कहते। दीपेश को हम दीपू कहते। कालांतर में दीपेश को मैं दीपेश जी कहने लगा। दीपेश हमारे दामाद बन चुके हैं। यानी मेरी भानजी रुचि के पति। शनिवार 9 नवंबर की दोपहर रुचि का फोन आया, मामा पापा नहीं रहे। मेरे मुंह से एकदम से निकला, अरे दद्दू चले गये। हे भगवान। वह इतना ही बोल पायी, हां मामा चले गये। फोन कट हो गया। मैं बीमार चल रहा था। एक-दो दिन से ऑफिस जाने की स्थिति में नहीं था। पत्नी भावना ने कुछ देर ढांढस बंधाया। मैंने खुद को संयत किया और बोला, अरे नहीं दद्दू आप तो जी गये। आप जहां भी गये, वहीं से सबको आशीर्वाद दोगे। दद्दू को हम तो दद्दू कहते ही थे, हमसे बड़े और हमारी नयी पीढ़ी के लिए भी वह दद्दू थे। दद्दू आप हमेशा याद आओगे। whattsapp पर आपके अक्सर आने वाले मैसेज हमेशा याद रहेंगे। आप दिलों में जिंदा हैं। ऊं शांति।

Sunday, October 20, 2024

वर्षों बाद घर गया, अपने साथ 'खुद' को भी ले गया



केवल तिवारी
पिछले दिनों उत्तराखंड स्थित अपने मूल गांव यानी जन्मभूमि पर जाने का अचानक संयोग बन पड़ा। यात्रा वृतांत पर जाने से पहले बशीर बद्र साहब के उस शेर को याद करना चाहता हूं, जिसके शब्द हैं- 'वर्षों बाद वह घर आया है, अपने साथ खुद को भी लाया है।' सचमुच भौतिक आपाधापी और कुछ मजबूरियों में हम लोग इस कदर मशगूल हो गए हैं कि घर-आंगन से दूर हो गए हैं। घर गया तो सचमुच आंगन रूठा-रूठा सा लग रहा था। देहरी उदास सी दिख रही थी। आश्चर्यजनक था कि आंगन में गौरैया फुदक रही थी। गौरैया पर अपनी कहानी ‘गौरैया का पंख’ याद आई। वह तो फ्लैट में लिखी गयी थी। यहां आंगन में इस नन्ही चिड़िया का फुदकना अच्छा लगा। फोटो के लिए मोबाइल निकालने तक वह फुर्र हो गयी। इसके बाद घर के अंदर माताजी के ऐतिहासिक संदूक ने जैसे सारे तार खोल दिए और दिल भावनाओं के उमड़-घुमड़ में खो गया। दीदीयों से बात हुई। भावनाओं का ज्वार-भाटा फूटा और अंधेरे कमरे में थोड़े से आंसू निकले और भावनाओं के समंदर में दुनियादारी की 'समझदारी' हावी हो गयी और चल पड़ा आगे का सिलसिला। विस्तार से सुनाता हूं पूरा विवरण।
इन दिनों अलग-अलग दिवस मनाए जाते हैं। गत 22 सितंबर को पता चला कि डॉटर्स डे है। पत्नी से बात हुई तो बोली, भतीजी कन्नू को फोन लगा लो। वह अक्सर ‘परिजनों से बात कर लो’ के लिए ताकीद करती रहती है। कन्नू संभवत: व्यस्त थी, उसका फोन नहीं उठा। फिर विचार आया कि चलो भतीजे दीपू से बात हो जाये। उसे फोन लगाया तो संयोग से बात हो गयी। मैंने बताया कि लखनऊ लंबे समय से नहीं आ पाया, जबकि वादा था कि भाभीजी (कन्नू, दीपू की मम्मी) के घुटनों के ऑपरेशन के बाद बीच-बीच में आता रहूंगा। मेरे इस बीच लखनऊ न जा पाने का कारण था मेरा एक्सीडेंट। कुछ ही दिन हुए पैर का प्लास्टर कटा है। फोन पर बातचीत के दौरान दीपू ने कहा कि लखनऊ आने का तो फिर बनाना, पहले गांव चलो। वहां जमीन संबंधी कुछ काम करने जरूरी हैं। नाम भी चढ़वाना है। कुछ लोग नजर भी गड़ाए हैं। मैंने तुरंत हां कर दी और आठ नवंबर की रात चलने को कहा। पहले इसलिए नहीं जा सकता था कि हरियाणा में चुनावी कार्यक्रम था और नैतिकता का तकाजा था कि छुट्टी न ली जाए। दीपू तैयार हो गया। बड़े भाई साहब से भी चलने को कहा, लेकिन उनकी व्यस्तता थी और कुछ मजबूरियां भी। खैर जाने से पहले समस्या थी कि गांव जाकर रुका कहां जाए। दीपू से फोन पर बात करने के बाद मैं इसी उधेड़बुन में लग गया। इसी दौरान मैंने अपने साढू भाई सुरेश पांडे जी से बात की और पूछा कि खाता-खतौनी कैसे निकलेगी, क्योंकि मामला जमीन का था। जब मैंने उन्हें बताया कि गांव जाने का कार्यक्रम है तो बोले, मैं भी चल पड़ूंगा और चीजों को समझूंगा। फिर जेठू (पत्नी के बड़े भाई) शेखरदा से बात हुई, वह भी चलने के लिए और हल्द्वानी से आगे सारथी बनने (अपनी कार से हम सबको ले चलने) के लिए तैयार हो गए। इसी दौरान गांव में पीतांबर तिवारी जी उर्फ पनदा से बात हुई। उन्होंने सहर्ष कहा कि आओ।
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पहाड़ों का वह सफर और ताड़ीखेत प्रवास
तय कार्यक्रम के मुताबिक मैं 8 अक्तूबर की रात चंडीगढ़ से दिल्ली के लिए निकला। दीपू से भी कहा कि तुम 9 की सुबह निकलना। सुबह करीब 4 बजे कश्मीरी गेट पहुंच गया, लेकिन वहां डीटीसी की अव्यवस्थ के शिकार में फंस गया और आनंद विहार पहुंचते-पहुंचते 6 बज गये। कहानी लंबी है, इसलिए विस्तार नहीं दे रहा हूं, लेकिन इतना कह दूं कि राजनीति में जो मुफ्त का खेल चल रहा है, वह है खतरनाक। खैर… आनंद विहार जैसे ही पहुंचा हल्द्वानी की बस चलने ही वाली थी। इस बीच, दो-तीन बार शेखर दा का फोन आ चुका था। जब भी कहीं लंबे सफर पर जाता हूं तो इन लोगों के फोन आते हैं, लोकेशन पूछते रहते हैं, अच्छा लगता है कि कोई खैर ख्वाह है। इसी दौरान दीपू से भी बात हुई। वह भी निकल चुका था। दीपू से गजरौला पहुंचकर फिर फोन किया, वह वहां से आगे बढ़ चुका था।  दोपहर 12 बजे के आसपास आधे घंटे के गैप में हम दोनों पहुंच गए। शेखर दा और पांडे जी हमें रिसीव करने के लिए मौजूद थे। तुरंत चल पड़े ताड़ीखेत के लिए। रास्ते में एक जगह चाय पी और एक जगह पाठक जी के ढाबे पर खाना खाया। इस दौरान लंबे समय बाद अपने पहाड़ आने के सुख को अनुभव करता रहा। कभी वीडियो बनाया, कभी बातें कीं। कभी घर पहुंचने पर कुछ काम को लेकर मंथन किया। कुछ वीडियो और फोटो यहां साझा करूंगा।
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घर के पास और घर से दूर, ताड़ीखेत का होटल
ताड़ीखेत यानी जहां से अक्सर पैदल ही घर जाया करते थे, या घर जाने के लिए थोड़ी दूर और सफर कर डाबर घट्टी तक जाया करते थे। अब गांव तक सड़क पहुंच गयी। मैंने इसी सड़क पर एक ब्लॉग लिखा था (सड़क और पलायन का रिश्ता), जिसे बहुत सराहा गया। आज हम घर के पास तो पहुंच चुके थे, लेकिन तय किया कि गांव अगली सुबह पहुंचेंगे। इसी दौरान मलोटा (मौट) के पान सिंह से बातचीत हुई। उनका कई बार फोन आया यह पूछने के लिए क्या सिवाड़ क्षेत्र की जमीन को बेचना चाहते हैं। उन्हें स्पष्ट किया कि ऐसा कोई इरादा नहीं है और निर्णय सिर्फ और सिर्फ लखनऊ बड़े भाई साहब लेंगे। फिर भी उन्होंने दो लोगों को भेजा और वे लोग हमें रानीखेत के करीब एक बेहतरीन होटल दिखाने ले गये। मैंने विनम्रता पूर्वक वहां नहीं रहने के लिए कहा क्योंकि हमारा काम ताड़ीखेत में था। उन लोगों को धन्यवाद देते हुए मैंने कहा कि हम बार-बार इतनी दूर आना-जाना नहीं कर सकते। उनसे विदा लेकर हम लोग वापस ताड़ीखेत आए और व्यंजन होटल में बात की। नवीन जोशी जी का यह होटल अच्छा था। रात वहां गुजारी। पहले मन किया कि चलकर रामलीला देखी जाए। पान सिंह जी वहां रावण की भूमिका अदा कर रहे थे, फिर थकान का इतना बुरा हाल था कि खाना खाते ही मैं तो सो गया। शायद दीपू, शेखरदा और पांडेजी कुछ देर तक बात करते रहे। अगली सुबह पहले मैं और शेखरदा ताड़ीखेत morning walk करके आये। चाय पीकर आये। वापस आकर दीपू, पांडेजी को उठाया। फिर सबने स्नान ध्यान किया। होटल से निकलकर पहले ग्वेलदेवता के मंदिर गए माथा टेका। फिर नाश्ता-पानी।
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प्रधान विजय जी का भरपूर सहयोग
गांव पहुंचने से पहले आदतन मैं सारी स्थितियों से अवगत होने की कोशिश कर रहा था। इसी दौरान खिलगजार मदन (रिश्ते में भतीजा और बचपन का दोस्त) से बातचीत हुई। उसने विजय जी का नंबर दिया। विजय हमारे गांव के दूसरे हिस्से यानी मलोटा क्षेत्र से प्रधान हैं। बेहद मिलनसार। काम में सहयोग करने वाले और प्रधानगी की छवि से अलग। हम लोग शाम को उनसे मिले। उन्होंने जरूरी जानकारियां दीं। कुछ फोन नंबर दिए। साथ ही परिवार रजिस्टर के लिए ऑनलाइन आवेदन किया। यह भी कहा कि कोई जरूरत हो आप संपर्क करना। काम तो होते रहेंगे, लेकिन मृदुल व्यवहार के लिए विजय जी का आभार। मदन का धन्यवाद।
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जब हम चले अपने गांव की ओर
10 अक्तूबर करीब 11 बजे कुछ सामान खरीदने के बाद हम लोगों ने गांव की ओर रवानगी डाली। रवाना होने से पहले हमें ताड़ीखेत में ही वीरेंद्र सिंह (बीरू) मिला, उससे कहा कि हम कार तुम्हारे घर पर खड़ी करेंगे। उसने जगह बता दी। तभी दीपू का दोस्त, मेरे भाई साहब के दोस्त उर्वीदा के पुत्र मुन्ना (पूरा नाम शायद मनोज तिवारी) मिला। मुन्ना भी हमारे साथ ही चला और पूरे रास्तेभर वहां की गतिविधियों को बताता रहा। मुन्ना पूजा-पाठ कराता है। नेक व्यक्ति है। पहाड़ी वादियों को देख कई गाने मन में उमड़-घुमड़ रहे थे। बातें चल रही थीं। कब सरना पहुंच गए, पता ही नहीं चला। वहां से पैदल चले। सबसे पहले भोपका की माताजी (उम्र करीब 100 साल) मिलीं। मैंने अपना परिचय दिया तो गले लगकर रोने लगीं। फिर थोड़ा ऊपर। मुझे अचानक पता चला कि बिसका नहीं रहे। बेहतरीन कलाकार बिसका के साथ बचपन से बातें होती थीं। पता चला कि उनका निधन कई वर्ष पहले हो चुका है। थोड़ा ऊपर गए तो प्रधान (मेरे दोस्त दिनेश की पत्नी) का घर मिला। दिनेश से मुलाकात की, बच्चों से मिला, अपने काम के सिलिसिले में कुछ बातें कीं। प्रमाणपत्र बनाने के लिए कहा और आ गए अपने गांव। पनदा सामने दिख गए। भाभी ने भी मुस्कुराकर स्वागत किया। पानी पिलाया। मैंने कहा अभी बैठूंगा। पहले बसंत दा, कैलाश, प्रयागदा के घर गया। फिर चायपानी और बातचीत का दौर शुरू। थोड़ी देर के लिए पांडेजी और शेखरदा को लेकर अडगाड़ (पानी का पुश्तैनी झरना) भी गया।
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… और वह जादुई संदूक
चूंकि मामला जमीन के दस्तावेजों का था तो दीपू ने घर का दरवाजा खोला। घर जर्जर हालत में पहुंच चुका है। अंदर जाकर ईजा (माताजी) के जादुई संदूक को खोला गया। जाइुई इसलिए कि बचपन में जब भी ईजा इस संदूक को खोलती थी मैं और शीला दीदी उसी में सिर घुसा देते थे। हमें पता था कि कुछ न कुछ खाने को मिलेगा ही। कभी मिसरी मिलती, कभी मिठाई मिलती और कभी गोला-गरी। इस बार उसमें ऐसी नायाब चीजें मिलीं जिस पर पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है। दाज्यू, दीदी के पुराने रिजल्ट, प्रमाणमत्र, जमीनों के कागजात, ब्रिटिशकालीन सिक्के वगैरह-वगैरह। साथ ही जब दीदीयों से बात की तो एक कहानी और पता चली। बताते हैं कि एक बार घर में पेठा (पेठा मिठाई) आई। उस वक्त पिताजी बीमारी के दौर से गुजर रहे थे। मां ने संदूक खोला तो प्रेमा दीदी और शीला दीदी ने मिठाई की जिद की। मां ने डपट दिया और कहा कि तुम्हारे पिताजी का गला सूख जाता है, थोड़ी सी मिठाई उनके लिए रखी है। इस वाकये को अनुभव कर रहे पिताजी ने बाहर के कमरे से कहा, अरे दे दे इन बेटियों को मिठाई। मां ने पता नहीं हालात को कैसे हैंडल किया, लेकिन अगले दिन पिताजी इस दुनिया से ही चले गये। उस मिठाई का क्या हुआ होगा, इसका अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है, मां पर क्या गुजरी होगी, इस पर पूरी कहानी बन सकती है। उसके बाद किशोरावस्था की दहलीज पर खड़े हमारे बड़े भाई साहब भुवन चंद्र तिवारी पर क्या बीती और कैसे समय आगे बढ़ा, अंदाज लगा सकते हैं। मेरे पास अलग अलग रूपों में सारी दास्तान डाक्यूमेंटेड है। साथ ही मिठाई की जिद कर रहीं प्रेमा दीदी, शीला दीदी पर क्या बीती होगी। पुष्पा दीदी और विमला दीदी की शादी हो चुकी थी और मेरा होना या न होना एक जैसा था। न था मैं तो खुदा था, न होता मैं तो खुदा होता, डुबोया हमको होने ने, न मैं होता तो क्या होता।
खैर... इस वक्त मेरे जेहन में मां उमड़-घुमड़ रही थी। पुराने दस्तावेजों को देखकर दीपू निश्छल बच्चा सा बन गया और अपने पापा, मम्मी और बुआ को फोन करने लगा। मैं भी इसी लौ में बहता चला गया। बातों में से बातें- एक बात बसंतदा ने बताई कि जिस साल भाई साहब का जन्म हुआ था, हमारे आंगन में श्रवण कुमार का नाटक खेला गया। पिताजी ने कलाकारों को खुशी-खुशी 25 रुपये दिए। उस दौर के 25 रुपये का अंदाजा लगाया जा सकता है। वसंतदा के साथ प्रयागदा ने भी कई बातें साझा कीं। शाम होने तक हम लोग बतियाते रहे और फिर ठंड बढ़ने लगी और भोजन के बाद सो गये।
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घर तुझसे वादा…
घर के अजीबोगरीब हालात में पनदा के बेटे विनोद ने बहुत मदद की। उसने मशीन से घास काटी। फिर मोहनदा के बेटे विनोद जिसे प्यार से बिंदी कहते हैं, से मैंने फोन किया और उसके घर में हम लोग सोए। पांडेजी और शेखरदा तो उसी दिन लौट आए, लेकिन मैं और दीपू वहां दो दिन रुके। बिंदी ने घर अच्छा बनाया है। हमारा मन भी वैसा करने का है। पहले तो बार-बार घर जाते रहने का मन में संकल्प किया, फिर ईश्वर से प्रार्थना कि कुछ अच्छा करने में हम आगे बढ़ सकें। इस दौरान बिपिन की भी खूब याद आई। वह अक्सर मुझसे घर चलने के लिए कहता था। कई बार तो प्रोग्राम बनाने के बाद आदेशात्मक लहजे में कहता था, फलां दिन पहुंच जाना, दिल्ली से साथ चलेंगे। तमाम यादों को समेटकर मैं आ गया। बसंतदा के पिताजी के श्राद्ध का भोजन भी किया। पहाड़ी रायते की खुशबू और स्वाद कई सालों बाद महसूस किया।
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मंदिर-मंदिर, गांव-गांव यात्रा और बुजुर्ग चाची और भाभी से बातचीत
जिस दिन गांव पहुंचे, उस दिन तो कुछ ही घरों में जाना हुआ। अगले दिन सुबह से ही हम लोग काम पर लग गए। दीपू ने हिम्मत दिखाई और घर को लीप दिया। मैं तो हालांकि मना कर रहा था, लेकिन उसने लीप दिया। साथ ही उसने और मुन्ना ने पंडित जी को भी बुला लिया था। हमारे कुल पुरोहित के वंशज। शायद हरीश पांडे। पहले हमने घर के अंदर कुल देवी को याद किया। दोनों ने आरती की। फिर ग्वेलथान गए। वहां संकल्प कराकर, पंडितजी पूजा में लग गए, हम लोग चले गए धूनी। वहां पूजा-पाठ की। मुन्ना भी हमारे साथ था। वापसी में हिमतपुर चाची मिली। मिलते ही गले लगकर रोने लगी और कहने लगी कि तेरी मां मेरी सहेली थी, मैं उसके पास कब जाऊंगी। मैंने कहा, चाची जब बुलावा आएगा, तब जाओगी। इसी दौरान चाची की एक फोटो खींच ली। चूंकि यह महीना असोज (फसल कटने और घास सहेजकर रखने का मौसम) लगा हुआ था, इसलिए घर के युवा सदस्य कम ही मिल पाए। जो मिले भी तो काम करते हुए।
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संस्कारी बच्चे, परंपराएं और पहाड़ा का जीवन
पहाड़ा का जीवन कठिन है, यह तो हर बार की तरह इस बार भी दिखा, लेकिन बदलाव की बयार यहां भी है और होनी भी चाहिए। एक ग्रूप में सफर का वीडियो डाला तो हमसे पहले गांव में हमारी सूचना पहुंच गयी। इसके साथ ही महसूस किया बच्चों का परिवार के प्रति स्नेह का संस्कार। पनदा का बेटा विनोद मम्मी-पापा का हाथ बंटाता दिखा, उसने हमारा भी सहयोग किया। उर्वीदा का बेटा मुन्ना हर वक्त मां की सेवा में लगा रहता है। वह लूठा (सूखी खास को एकत्र कर रखने की परंपरा) बनाता दिखा। महेश दा का बेटा भी अपने मम्मी-पापा की मदद कर रहा था। मदन का बेटा नोएडा से घर आया था त्योहारी तैयारी के सिलसिले में। इसके अलावा जगह-जगह बच्चियां घास काटती दिखीं, लेकिन आधुनिक ड्रेस (जींस और टी शर्ट) में। मुझे बहुत अच्छा लगा। आखिर जिसमें आपको अच्छा लगता है, वह पहनने में क्या दिक्कत है। यात्रा का विवरण तो बहुत लंबा-चौड़ा है। इस यात्रा के चलते कुछ कविताएं और कुछ कहानियां भी बन पड़ी हैं। जाहिर किरदारों को बदलते हुए इन्हें जल्दी ही आप लोगों को पढ़वाऊंगा। अंत में यही कहूंगा, ‘हिमाला को ऊंचो डाना, प्यारो मेरो गांव- रंगीलो गढ़वाल मेरो छबीलो कुमाऊं।’
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मानीला में भुवन जीजा जी के कॉटेज में अविस्मरणीय प्रवास
संघर्ष के दिनों में कौशांबी स्थित हिमगिरि के नौवें फ्लोर पर हम अनेक लोग रहते थे। वहां गीता दीदी और भुवन जीजाजी हम सबके संरक्षक थे। मार्गदर्शक थे। अब भी सबका संपर्क उनसे बना हुआ है। बातोंबातों में पता चला कि वह भी इन दिनों अपने मानीला स्थित कॉटेज पहुंचे हुए हैं। उन्होंने मुझसे कहा कि गांव का काम निपटाकर मानीला चले आओ। मैं पहली बार ताड़ीखेत से भतरजखान, फिर भिक्यांसैण होते हुए मानीला पहुंचा। रास्ते में मासी रोड दिखी। मैंने कुछ लोगों से पूछा तो पता चला यह हमारे ननिहाल साइट का ही इलाका है। उसके बाद पंतगांव का रास्ता दिखा। नाम बहुत सुना था, देखा पहली बार। दोपहर को मैं मानीला मुख्य रोड पर उतरा। जीजाजी कार लेकर लेने आ गये। कॉटेज पहुंचा। शानदार लोकेशन, संपूर्ण सुविधाएं। वहां रवि भी मिले। वह खाना बना रहे थे। गुनगुनी धूप का आनंद लिया। लंच किया फिर आराम। शाम को आसपास का इलाका देखा। गीत-संगीत का कार्यक्रम चला। तमाम अविस्मरणीय यादों को समेटकर लौट चला अपनी रुटीन लाइफ में। इस बीच, हमारे हिमगिरि के सभी साथी धीरज ढिल्लों, जैनेंद्र सोलंकी, हरीश, पंकज चौहान, राजेश डोबरियाल और सभी मित्रों की धुरी सूरी यानी सुरेंद्र पंडित से मुलाकात हुई। जीजाजी के साथ डिनर हुआ। बहुत अच्छा लगा।














Saturday, October 5, 2024

मन क्या है? ऑफिस की कैंटीन में चर्चा



केवल तिवारी

पिछले दिनों ऑफिस (The Tribune, दैनिक ट्रिब्यून, ਪੰਜਾਬੀ ਟ੍ਰਿਬਿਊਨ) की कैंटीन में, मैं और साथी जतिंदर जीत सिंह चाय पी रहे थे। उसी वक्त पंडित अनिरुद्ध शर्मा जी अपने साथी अरविंद सैनी जी के साथ आए। उन्होंने एक सवाल उठाया कि आखिर 'मन' क्या है? 'मन' को किस तरह से हम परिभाषित कर सकते हैं? मन के बारे में जब बात करने लगे तो पहले चर्चा हुई मन के वैज्ञानिक या डॉक्टरी पहलू पर। सवाल उठा कि क्या मन शरीर का कोई अंग है। यानी कि क्या मन असल में कहीं एक्जिस्ट करता भी है। जिस तरह शरीर के कई अंग होते हैं, मसलन- यकृत, अमाशय, दिल वगैरह-वगैरह। लेकिन शरीर में मन नाम का कोई अंग नहीं है। फिर यह भी कहा गया कि दिल ही मन का दूसरा रूप है। इस पर सहमति नहीं बनी क्योंकि मैंने कहा कि मन अभी यहां है, पलभर में हजारों लाखों किलोमीटर दूर मन पहुंच सकता है। मन की क्या थाह। जतिंदरजीत सिंह जी बोले, मन असल में दिल से थोड़ा हटकर है। कई बार हम दिल से यह जानते हैं कि जो हम खा रहे हैं या पी रहे हैं वह नुकसानदायक है, लेकिन मन पर काबू नहीं रहता है और खा या पी लेते हैं। उन्होंने कहा कि जैसे शराब पीने वाला जानता है कि इसका सेवन खराब है, लेकिन फिर भी मन के वशीभूत वह इसे पीता है। तभी पंडित जी बोले कि यह बात तो दिल पर भी लागू होती है। किसी भी अनुचित कदम उठाते वक्त दिल हमें सचेत करता है। लेकिन हम फिर भी नहीं मानते तो नुकसान होता है। फिर सवाल उठा कि दिल और मन में फर्क। हम लोग जब चर्चा कर रहे थे पंडित जी और उनके साथी अरविंद जी आइसक्री खा रहे थे। एक-एक कप खा चुके थे, एक-एक और ले आए थे। मैं और जतिंदरजीत जी चाय पी रहे थे। मैंने सोचा कि यह भी तो मन की बात है। इनका मन आइसक्रीम खाने को किया होगा, खा रहे हैं। हमें चाय पीनी थी, पी रहे हैं। अब यह दिल की बात है या मन की।
फिल्मी गीतों में मन
दिल और मन में फर्क के संबंध की चर्चा का कोई फाइनल समाधान तो नहीं निकला अलबत्ता यह हुआ कि अपनी-अपनी तरफ से इसके बारे में कुछ सोचेंगे। मेरे जेहन में मन से संबंधित कुछ फिल्मी गीत कौंध गए। यहां भी जेहन क्या, मन या दिल या दिमाग... पहले तो पढ़ते-पढ़ते इन गानों को गुनगुनाइये-
- आकर तेरी बाहों में हर शाम लगे सिंदूरी, मेरे मन को महकाए तेरे मन की कस्तूरी
- तू जो मेरे मन का घर बसा ले मन लगा ले हो उजाले
- मुझे खुशी मिली इतनी की मन में न समाये
- कई बार यूं ही देखा है ये जो मन की सीमा रेखा है
- मेरे मन का बावरा पंछी क्यों बार-बार
- दिखे कोई मन का नगर बनके मेरा साथी
- कोरा कागज था ये मन मेरा
- जानेमन जानेमन तेरे दो नयन चोरी-चोरी लेके गए देखो मेरा मन
- आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन मेरा मन
- बाहों के दरमियां दो प्यार मिल रहे हैं जाने क्या बोले मन डोले मन
- मन क्यों बहका रे बहका आधी रात को
- एक चतुर नार करके सिंगार मेरे मन के द्वारा में घुसत जात
- मन मेरा मंदिर आंखें दिया बाती
- बच्चे मन के सच्चे सारी दुनिया के हैं आंख के तारे
- ए गुलबदन ऐ गुलबदन तुझे देख कर कहता है मेरा मन
मन और दिल के संबंध में ऐसे ही अनेक गीत हैं। यह लिस्ट बहुत लंबी-चौड़ी हो सकती है। हमारी चर्चा मन और दिल के बीच झूलते हुए खत्म हो गई क्योंकि कैंटीन में ज्यादा देर बैठ नहीं सकते थे। हम बातें तो जरूर वहां कर रहे थे लेकिन हमारा मन न्यूजरूम में था कि कोई खबर तो नहीं आ गयी, कोई फोन तो नही आ गया। बमुश्किल पांच मिनट की बातचीत के दौरान मन पर उक्त बातें हुईं। अंतत: सबको कुछ सोचने के लिए कहा जाए। मैं तो यही कहूंगा मनोहर श्याम जोशी की एक रचना ‘कसप’ की तरह है मन। कसप उत्तराखंड में एक शब्द है जिसका मतलब है पता नहीं। यह पता नहीं भी साधारण सा इनकार करने के रूप में नहीं, बल्कि दार्शनिकता सा लिए हुए है। हां मन का दिमाग से तारतम्यता तो बिल्कुल नहीं होगी। क्योंकि कहते हैं जब आपका दिमाग चलता है तो दिल शांति से सुनता रहता है और जब दिल से कुछ किया जाता है तो दिमाग सामान्य हो जाता है। चलिए मन, दिल और दिमाग की इस चर्चा को अभी जारी रहने दिया जाए। आपका क्या खयाल है, क्या कहता है आपका मन।

Wednesday, October 2, 2024

पेजर विस्फोट के बाद उपजा तकनीक का खौफ

साभार: दैनिक ट्रिब्यून 

https://m.dainiktribuneonline.com/article/fear-of-technology-arises-after-pager-explosion/605928 पेजर विस्फोट के बाद  उपजा तकनीक का खौफ

दैनिक ट्रिब्यून 



केवल तिवारी 
वही हुआ, जिसकी आशंका थी। पेजर विस्फोट के बाद लेबनान और इस्राइल के बीच 'जंगी हालात' बने और सैकड़ो लोगों की मौत हो गई। दोनों ओर से एक-दूसरे पर हमले जारी हैं। मौत का यह खतरनाक खेल कहां जाकर रुकेगा, यह तो इसे शुरू करने वाले ही जानें, लेकिन इस प्रकरण ने सशंकित सबको कर दिया है। क्या हम अपने गैजेट के साथ सुरक्षित हैं या रफ्तार पकड़ती तकनीक के इस दौर में खतरों को साथ लेकर चल रहे हैं..

आसमान से कड़कती बिजली का खौफ नहीं,
ए खुदा डरते हैं जमी पर तेरे आदमी से हम।
किसी शायर की ये दो पंक्तियां मौजू है वर्तमान के तकनीकी युग में। आदमी को आदमी से खौफ का मंजर लगातार भयावह होने लगा है। खौफ का एक 'कारोबार' है। खौफ 'ऑनलाइन' हो गया है। अदृश्य खौफ का मंजर जब हकीकत की जमीन पर दिखने लगता है तो सारी कायनात हिल कर रह जाती है। ऑनलाइन ठगी से उबरने के प्रयास अभी सिरे नहीं चढ़ पाए थे कि अब ऑनलाइन विस्फोट ने एक नए विवाद, नए डर को जन्म दे दिया है।
वैश्विक शांति की तमाम कोशिशों से इतर, ‘दुश्मन’ को खत्म करने के नये-नये तरीकों से सभी अमनप्रिय लोग स्तब्ध हैं। हाइड्रोजन बम, साइबर अटैक की चर्चाओं के बीच पिछले दिनों लेबनान में पेजर विस्फोट ने सबको चौंका दिया। उसके बाद लेबनान और इस्राइल के बीच छिड़ गयी ‘खूनी जंग’। पेजर और ‘वाकी-टॉकी’ विस्फोट के बाद एक बार फिर नित नयी ईजाद होती तकनीक, उस पर बढ़ती निर्भरता और उससे उपजते भयावह खतरों ने सबको सकते में डाल दिया है। इस विस्फोट ने एक सवाल को जन्म दिया है कि मोबाइल, लैपटॉप, टैब जैसे तमाम गैजेट इस्तेमाल करने वाला आमजन कितना सुरक्षित है। असल में इन गैजेट्स पर हमारी जितनी अधिक निर्भरता बढ रही है, उतने ही ज्यादा खतरे भी बढ़ रहे हैं। तकनीक पर निर्भरता से खतरे बढ़ने की तो बात सही है, लेकिन नया माजरा तो तकनीक के ‘बैक’ मारने जैसा है। जो पेजर दुनिया के लिए इतिहास बन चुका था, उसी पेजर के इस्तेमाल के लिए पहले मजबूर किया गया और फिर विस्फोट।
जानकार कहते हैं कि लेबनान में साजिशन पहले यह भ्रम फैलाया गया कि आपके सभी फोनों को ट्रैक कर लिया जाएगा। फिर उन्हें मजबूर किया गया कि वे पेजर खरीदें। खासतौर से आपात सर्विस में लगे लोग। जब फोन ट्रैक हो सकने की आशंका बलवती हुई तो ‘लड़ाकों’ ने भी पेजर रखने में ही ‘भलाई’ समझी। इसके बाद एक कंपनी को पेजर बनाने का ऑर्डर दिया गया। बताया जा रहा है कि कंपनी से पेजर ठीक बनकर आए। डिस्ट्रीब्यूटर के यहां से भी सही निकले, लेकिन बीच में ही उनमें तीन-तीन मिलीग्राम प्रति पेजर विस्फोटक भर दिया गया और एक खास तरह के मैसेज के साथ फिट कर दिया गया। इंतजार किया गया और मैसेज के एक्टिव होते ही हजारों पेजर में विस्फोट हो गया।
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डर का कारोबार
क्या-क्या दिलों का खौफ छुपाना पड़ा हमें
खुद डर गए तो सबको डरना पड़ा हमें।
दरअसल, ठगी करने से लेकर बदला लेने तक माजरा खौफ का है। खुद डरा हुआ कोई भी देश औरों को डराने के लिए नयी-नयी तकनीक ईजाद कर रहा है। कभी वेबसाइट हैक करने की कोशिश होती है तो कभी बैंकिंग प्रणाली पर साइबर अटैक। स्थिति अजीब है कि पहले कुछ न होते हुए कुछ हो जाने का डर दिखाया जाता है, फिर डरे हुए व्यक्ति से अगला कदम ऐसा उठवाया जाता है कि डर के धंधेबाजों की मौज। ऐसा ही पेजर विस्फोट के मामले में हुआ। डराया गया कि फोन इस्तेमाल मत करो, फोन की जगह आउटडेटेड पेजर को अपनाया और मौत गले पड़ गयी।
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नया खतरा वर्चुअल फोन कॉल
एक्सपर्ट कहते हैं कि एक वर्चुअल फोन कॉल का भी नया खेल ठगी की दुनिया में शुरू हो गया है। यह खेल अजीबोगरीब है। एक आभासी नंबर क्रिएट किया जाता है फिर उससे 'शिकार' को फोन किया जाता है। फोन रिसीव करने वाला अगर झांसे में आ गया तो नुकसान तय है। इसमें सबसे ज्यादा खतरनाक बात यह है कि जिस नंबर से फोन आता है उसे ट्रेस किया ही नहीं जा सकता क्योंकि वह नंबर असल दुनिया में तो होता ही नहीं है, वह एक आभासी नंबर होता है।
कोरोना को भी समझा गया ‘वायरस अटैक’
इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस को ऑनलाइन वायरस के जरिये खराब करने के अनेक किस्से तो हमारे सामने आते ही थे, चार-पांच साल पहले जब कोरोना महामारी फैली तो उसे भी एक तरह का अटैक माना गया। आरोप लगे कि यह गहरी साजिश है बीमारी फैलाने और लोगों को खत्म करने का। हालांकि इसकी जांच अब भी जारी है और धीरे-धीरे हम कोरोना महामारी से उबर गए। अभी तक यह सिद्ध नहीं हो पाया कि कोरोना वायरस को साजिशन फैलाया गया या यह इंसानी गलती थी। मामला कुछ भी हो, जरूरी है सचेत रहने की
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सावधानी जरूरी, ‘लालच’ सबसे बुरी बला
अवनींद्र कुमार सिंह
(साइबर एवं डिजिटल फॉरेंसिक एक्सपर्ट/एनालिस्ट- कंसलटेंट लॉ इन्फोर्समेंट- भारत सरकार)
साइबर एवं डिजिटल फॉरेंसिक एक्सपर्ट अवनींद्र कुमार सिंह कहते हैं कि ऑनलाइन खतरों से बचाव संभव है। बस जरूरी है सावधान रहने और ‘लालच’ से बचने की। क्या दुनियाभर में, खासतौर पर भारत में मोबाइल इस्तेमाल करने वाले करोड़ों लोग भी ‘अलग तरह के खतरे’ की जद में है, पूछने पर अवनींद्र कुमार कहते हैं, ‘फोन निर्माता बड़ी कंपनियों के पास रिसर्च एवं डेवलपमेंट (आर एंड डी) के लिए बहुत बड़ा स्टाफ होता है। एक्सपर्ट की यह टीम सॉफ्टवेयर अपडेट के लिए हर तरह की सावधानी बरतती है। लेकिन कई बार अनजानी सी कंपनियों के फोन पर अपडेट के नाम पर काफी नुकसान हो सकता है। मोबाइल पर खतरों के सवाल पर अवनींद्र ने कहा, ‘फोन हैक हो सकता है, आपके फोन की हर गतिविधि पर नजर रखी जा सकती है, आपका डाटा चुराया जा सकता है।’ हैकिंग के खतरों पर विस्तार से बात करते हुए साइबर एक्सपर्ट ने कहा कि जब भी कभी कोई अनजान आईडी से मेल आए तो सावधानी जरूरी है। खासतौर से ऐसे ईमेल से जिसमें आपसे जानकारी देने को कहा गया हो। अवनींद्र ने कहा कि ऐसे मेल को डिलीट तो करें ही साथ ही उसे स्पैम में डाल दें। यदि ईमेल अकाउंट ऑफिशियल हो तो उसे ‘फिशिंग’ में डाल दें। असल में फिशिंग ऐसा ऑप्शन है जिससे सरवर मैनेज करने वालों को ऐसे खतरनाक मेल के बारे में जानकारी मिल जाती है और व्यक्ति विशेष तक पहुंचने से पहले ही इसे डिलीट किया जा सकता है। उनका कहना है कि खुद सतर्क रहते हुए जागरूकता बढ़ाना भी हर जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य है। कभी भी फर्जी से लगने वाले ईमेल, मैसेज को रेस्पॉन्स न करें। साइबर बुलिंग की बात करते हुए अवनींद्र ने कहा कि ऑनलाइन ठगी या किसी तरह के लफड़े में फंसने का एकमात्र कारण होता है ‘लालच।’ अमूमन तो लोग पैसे के लालच में आ जाते हैं। कभी गिफ्ट वाउचर और कभी कुछ ‘कैश बैक’ के लालच में आकर हम फर्जी लिंक पर क्लिक कर देते हैं। ऐसा ही मामला हनी ट्रैप का भी है। इसलिए हमें लालच से दूर रहते हुए हमेशा सतर्क रहना चाहिए। समय-समय पर सरकार एवं एक्सपर्ट की चेतावनी को ध्यान रखना चाहिए।
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एक्सपर्ट की राय और तमाम तरह की जानकारी जुटाने के बाद एक ही बात सामने आती है कि ऑनलाइन के खतरों से निपटने का सबसे कारगर तरीका है सतर्कता। ऑनलाइन खौफ संबंधी परिदृश्य एकदम काला भी नहीं है, तकनीक विकसित हो रही है तो उससे उपजे खतरों से निपटने के उपाय भी ढूंढे जा रहे हैं। अगर ठगी रूपी रात है तो उम्मीदों की भोर भी होगी, एक शायर की दो पंक्तियों की मानिंद-
दिल ना उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है,
लंबी है गम की शाम मगर शाम ही तो है।
धेरे का भी उजला पक्ष सामने आएगा और ‘लालच’ और ‘खौफ’ पर हावी होगी समझदारी और सतर्कता। क्योंकि तकनीकी विस्तार की गति को कोई रोक नहीं सकता। खतरे के रूप में यह तकनीक पेजर की भांति बैक भी मार सकती है और वर्चुअल कॉल की तरह एडवांस भी हो सकती है।

Sunday, September 15, 2024

ऑनलाइन गेम्स की दुनिया और बचपन पर एक स्टोरी साभार दैनिक ट्रिब्यून

 साभार: दैनिक ट्रिब्यून (पिछले दिनों हमारे अखबार दैनिक ट्रिब्यून में एक लेख छपा। थोड़े विस्तृत रूप में यहां चला रहा हूं।)


https://m.dainiktribuneonline.com/article/now-online-games-also-give-relief/599623 अब सुकून देने वाले ऑनलाइन गेम्स भी


ऑनलाइन गेम्स में सुकून की तलाश

केवल तिवारी 

ट्सोशल मीडिया में लगों के ‘गुम’ होने की शिकायतों के साथ ही ‘ऑनलाइन गेम्स’ में बच्चों और बचपने के खोने की बात भी कही जाती है। गेम्स में बच्चों के डूबे रहने के कई नकारात्मक पहलू सामने आए हैं। लेकिन इसी स्याह पक्ष में एक श्वेत और सुखद अहसास यह भी है कि अनेक बच्चे अब ‘कूल गेम्स’ तलाशने लगे हैं। बेशक यह सब भी मार्केट का ही खेल है, फिर भी आशा की जानी चाहिए कि ‘कूल गेम्स’ कम से कम हिंसक प्रवृत्ति को तो नहीं पनपने देंगे। ऑनलाइन गेम्स के पूरे परिदृष्य पर एक नजर-

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मारधाड़। तनाव। जीतने का अजीबोगरीब जुनून। न खाने-पीने की सुध और न ही समय का ध्यान। ऐसा ही तो होता है ऑनलाइन गेम्स में। ऐसे गेम्स जिनमें बच्चे, किशोर और युवा डूबे रहते हैं। कभी-कभी तो अधेड़ उम्र के लोगों या बुजुर्गों का भी इन गेम्स में अटकाव देखा जाता है। इन गेम्स के कारण हो रहे हादसों से कौन नहीं वाकिफ है। टारगेट इतना खौफनाक होता है कि रूह कांप जाये। कई देशों ने इसीलिए तो इन पर प्रतिबंध भी लगाया। इसी चिंताजनक स्थिति के बीच कुछ सुखद चीजें भी सामने आ रही हैं। यानी पक्ष एकदम स्याह ही नहीं है, कुछ श्वेत भी है। और वह श्वेत पक्ष इस कदर धीरे-धीरे धवल हो रहा है कि नयी पीढ़ी को मानो पुरानी कविता की उन खूबसूरत पंक्तियों की मानिंद नया संदेश दे रहा हो, ‘नर हो न निराश करो मन को, कुछ काम करो, कुछ काम करो।’ असल में तनाव पैदा करने वाले ऑनलाइन गेम्स के बीच ही अनेक ऐसे खेल भी अब आ रहे हैं जो बहुत कूल हैं। कोई फिक्स टारगेट नहीं। बैकग्राउंड में शांत सा म्यूजिक चल रहा है, आप एक वस्तु को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। साथ में हैं पहाड़, हरे-भरे पेड़, नदियां। उसी तरह जैसे गूगल मैप पर आप डेस्टीनेशन लगाते हैं, गलत मुड़ गये तो वह आपको उत्तेजित नहीं करता, रीरूटिंग कर देता है। कोई बात नहीं एक मोड़ गलत मुड़ गये हों तो आगे से आपको रास्ता मिल जाएगा। हालांकि कूल गेम्स भी बाजार का ही एक नया रूप है और इसमें भी उलझने का उतना ही खतरा बरकार है, लेकिन इसके खतरे उतने भयावह नहीं हैं। ऐसे ज्यादातर गेम्स में टारगेट नहीं हैं। हिंसा नहीं है। ये गेम्स अलग-अलग तरह के हैं। किसी में समूह में खेलने का नियम है और किसी में व्यक्तिगत तौर पर।

गनीमत है कुछ अच्छा भी है

अब कई गेम्स तनाव कम करने के लिए बनाये जाने लगे हैं। घरों में बच्चे कभी-कभी अपने बड़ों तक तक को सलाह दे डालते हैं कि इस गेम को डाउनलोड कर लीजिए, कुछ देर खेलिए आनंद आएगा। ऐसे ही गेम का ही एक प्रारूप है जिसमें अगर आपने गूगल खोला, अगर इंटरनेट नहीं चल रहा हो तो वह आपको कूल रहने की सीख देता है। एक आइकन सामने आ जाएगा। आप उसको आगे बढ़ाते रहिए। छोटे-छोटे टारगेट आएंगे। नेटवर्क आते ही वह गेम खत्म हो जाएगा। हालांकि अगर अच्छी प्रैक्टिस नहीं है तो यह गेम भी आपके अंदर झुंझलाहट पैदा कर सकता है। अगर बात करें विभिन्न गेम्स की तो उनमें से कुछ हिंसक हैं, मसलन-मॉर्टल कॉम्बेट, कॉल ऑफ ड्यूटी, पबजी, फ्री फायर, शेडो फाइट आदि। इसी तरह कुछ कूल गेम्स हैं जैसे, पियानो किड्स, ट्रक गेम्स फॉर किड्स, यूनिकॉर्न शेफ, ड्रेसअप, कलरिंग एंड लर्न, लिटिल पांडा, चिल्ड्रेन्स डॉक्टर, फायर फेरी, द घोस्ट पेपर चेंज, ऑल्टो एडवेंचर, ऑल्टोज ऑडिसीज, कास्टिंग अवे सिनामोन चैलेंज, आइस एंड सॉल्ट चैलेंज या फिर कुछ हद तक ब्रेन डॉट्स, कैंडी क्रश।

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अरबों का है कारोबार

पिछले दिनों एक खबर आई कि गेमिंग कंपनी नजारा टेक्नोलॉजीज ने ब्रिटेन स्थित आईपी-आधारित गेमिंग स्टूडियो फ्यूजबॉक्स गेम्स को 228 करोड़ रुपये में खरीदने का ऐलान किया है। खरीदने के संबंध में कंपनी की तरफ से बयान आया, 'हम एक आईपी आधारित वैश्विक गेमिंग व्यवसाय बनाने में बड़ा अवसर देखते हैं, जिसे भारत में हमारे मुख्य आधार से लाभ मिलेगा।' यह तो एक गेम डील की बात हो गयी। एक अनुमान के मुताबिक दुनियाभर में ऑनलाइन गेम का कारोबार कई सौ खरब डॉलर का है। भारतीय रुपयों के संदर्भ में देखें तो माना जाता है कि इस वक्त ऑनलाइन गेम्स का कारोबार करीब 2340 करोड़ रुपयों का है। दिन-प्रतिदिन नये-नये गेम्स आ रहे हैं। इस संबंध में कंपनियों की ओर से रिसर्च करवाई जाती हैं और जैसा ट्रेंड या पसंद उनके सामने आती है उसी तरह से सॉफ्टवेयर डेवलप कराकर नये गेम्स बनाए जाते हैं।

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क्या आप रखते हैं स्क्रीन टाइम का ध्यान

यूं तो हर वर्ग के लोगों को अपने स्क्रीन टाइम, यानी कितनी देर मोबाइल, टीवी, लैपटॉप, डेस्कटॉप पर लगे हैं, पर ध्यान देना चाहिए, लेकिन बच्चों के मामले में इस पर ज्यादा सतर्कता जरूरी है। बेशक कोविड के बाद बच्चों के स्क्रीन टाइम में इजाफा हुआ है। यह जरूरत भी बन गया है, लेकिन फिर भी इसे लिमिटेड करना बहुत जरूरी है। विशेषज्ञों के मुताबिक स्क्रीन टाइम बच्चों को सीखने, रचनात्मकता विकसित करने और सामाजिक संपर्क और कनेक्शन का समर्थन करने में मदद करता है। लेकिन बहुत अधिक स्क्रीन टाइम नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। एक शोध के मुताबिक दो से पांच साल के बच्चों के लिए एक घंटे से ज्यादा स्क्रीन टाइम नहीं होना चाहिए। पांच से 17 वर्ष की आयु तक स्कूल के काम के अलावा दो घंटे से अधिक स्क्रीन टाइम नहीं होना चाहिए। लेकिन ज्यादातर मामलों में इस समयसीमा की अवहेलना ही होती है। जानकार कहते हैं कि अधिक स्क्रीन टाइम वाले बच्चों में बिना सोचे-समझे खाने और अधिक खाने की आशंका होती है। जब बच्चे स्क्रीन पर होते हैं, तो वे अपने मस्तिष्क से पेट भर जाने के बारे में मिलने वाले महत्वपूर्ण संकेतों को ग्रहण करने से चूक सकते हैं। कई बच्चे ऐसे मौकों पर जंक फूड खाना पसंद करते हैं। ऐसे में कई विकार पनपने की आशंका रहती है। अमेरिका, आयरलैंड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस के बाद अब हाल ही में स्वीडन ने भी स्क्रीन टाइम के लिए सख्त परामर्श जारी किया है

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मैदान के खेल भी मोबाइल पर

‘इस दौर में मोबाइल ने बचपन को खा लिया, आसमान उदास है कि पतंगें नहीं आतीं।’ किसी शायर की ये दो पंक्तियां सटीक बैठती हैं, उस बचपन पर जो मोबाइल में सचमुच गुम हो गया है। आज अन्य खेलों के अलावा मोबाइल पर वे गेम्स भी उपलब्ध हैं जो मैदान में खेले जाने चाहिए। क्रिकेट, फुटबॉल, वालीबॉल, बेसबॉल, हॉकी, तीरंदाजी जैसे अनेक गेम्स बच्चे मोबाइल या टैब पर खेलते दिख जाते हैं। और तो और किशोरावस्था में पहुंच रहे बच्चे ड्राइविंग भी ऑनलाइन करते हैं। एक रिसर्च के मुताबिक यही बच्चे जब असल जिंदगी में वाहन चलाते हैं तो उनके अवचेतन मन में गेम्स की बातें घूमती हैं और कई बार वे हकीकत की जिंदगी में गलती कर बैठते हैं। मैदान में खेलों की जरूरत का ही एक सुखद नजारा पिछले दिनों चंडीगढ़ में देखने को मिला जब एक सरकारी स्कूल में बच्चों को खेल किट बांटे गए। इसका उद्देश्य बच्चों को मैदान में खेलने के लिए प्रेरित करना था। पंजाब के राज्यपाल और यूटी प्रशासक गुलाब चंद कटारिया ने उभरते खिलाड़ियों को उनके कोच सहित स्पोर्ट्स किट्स भेंट की। फाउंडेशन अध्यक्ष संजय टंडन हैं। टंडन यूटी क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं।

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क्या कहते हैं विशेषज्ञ

डॉ. तनुजा कौशल

कंलसटेंट क्लीनिकल साइकोलोजिस्ट

जानी-मानी क्लीनिकल साइकोलोजिस्ट डॉ. तनुजा कौशल कहती हैं कि अति हर चीज की बुरी होती है। उनका कहना है कि ऑनलाइन गेम्स से बच्चे कुछ चीजें सीखते भी हैं जैसे टीम वर्क, समस्या का समाधान निकालना, तनाव को कम करना आदि। लेकिन गेम्स में डूबे रहना खतरनाक हो सकता है। डॉ. तनुजा ने कहा कि हम सबको स्क्रीन टाइम का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए। अत्यधिक स्क्रीन टाइम के कारण बच्चों में कई विकार आ सकते हैं। उन्होंने बताया कि मनोवैज्ञानिक डॉक्टरी भाषा में इसे ‘अटेंशन डेफिसिट हाइपर एक्टिविटी डिसऑर्डर’ (एडीएचडी) कहते हैं। इसके अलावा वर्चुअल ऑटिज्म की आशंका भी बनी रहती है। यह कोई प्रत्यक्ष बीमारी नहीं होती, लेकिन इसमें लक्षण अजीबोगरीब होते हैं जैसे बच्चा किसी से बात न करे, वह अत्यधिक रोशनी बर्दाश्त न कर पाए, वह चिड़चिड़ा हो जाए, वगैरह-वगैरह। इसके अलवा एंजाइटी, डिप्रेशन, आंखों में रोशनी की समस्या, एडिक्शन जैसे दुष्प्रभाव भी हो सकते हैं। डब्ल्यूएचओ इसे गेमिंग डिसऑर्डर की बीमारी के रूप में परिभाषित कर चुका है। डॉ. तनुजा ने आगाह किया कि ऑनलाइन गेम्स में डूबा बच्चा साइबर बुलिंग का भी शिकार हो सकता है।

यह पूछने पर कि आज के समय में गेम्स पर पूरी तरह प्रतिबंध तो लगाया नहीं जा सकता, अभिभावक क्या करें, डॉ तनुजा ने कहा, पहले हमें बच्चों को स्वस्थ तरीके से चीजों को समझाना आना चाहिए। उन्होंने कहा कि हेल्दी उपाय बेहद जरूरी हैं। शॉपिंग पर चले जाना, बाहर खाने जाना आदि अनहेल्दी उपाय हैं। उन्होंने कहा कि अपनी 'बला' टालने के लिए हम खुद ही बच्चों को जाने-अनजाने स्क्रीन टाइम में धकेल देते हैं। 'इलाज से बेहतर रोकथाम है' मुहावरे का हवाला देते हुए डॉ तनुजा कौशल ने कहा कि हम बच्चों के साथ ज्यादा समय बिताएं। उनके साथ खेलें। अगर उन्हें ऑनलाइन गेम्स की अनुमति दें भी तो वह फिक्स टाइम के लिए हो और उन पर नजर रखी जाए। उनके अभिभावक उनके साथ संगीत सुनें, हंसी-मजाक भी करें। पैरेंटिंग टिप्स पर चर्चा करते हुए डॉ. तनुजा ने कहा कि हद से ज्यादा नियंत्रण भी बच्चों को बिगाड़ देती है। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ नियम बनाए जाने जरूरी हैं जैसे कि घर में 'गेमिंग फ्री जोन' हों। उदाहरण के लिए बेडरूम में बच्चा गेम न खेले, खाना खाते वक्त बच्चा गेम न खेले। बच्चों को डायरी लेखन की ओर भी आकृष्ट करना एक बेहतरीन तरीका है। बच्चा दिनभर की गतिविधियों या स्कूल एक्टिविटी को डायरी में लिखे, उसे समझे। डॉ. तनुजा ने एक और बात पर गौर करने की जरूरत पर बल दिया कि आजकल छोटे बच्चे जब खाना खाते वक्त आनाकानी करते हैं या कभी परेशान करते हैं तो कई पैरेंट्स उन्हें मोबाइल पकड़ा देते हैं, उन्होंने कहा कि ऐसे तो हम खुद ही बच्चे को गर्त में धकेल रहे हैं। इससे बेहतर है कि उसे पसंद का खाना खिलाया जाये। कई बार बच्चों संग बच्चा बनकर रहा जाये। उसे स्वस्थ माहौल दिया जाये।

बदलने पड़ेंगे महीनों के नाम, भादो हरे न सावन सूखे

 


केवल तिवारी 

सावन से संबंधित अनेक गीत हैं। मुहावरे हैं। सावन शब्द मन में आते ही रिमझिम फुहार, हरियाली और भी कई बातें मसलन, नाचे मन मोरा...। सावन की ये मस्ती आदि चीजें मन में उमड़ती-घुमड़ती हैं। सावन बीत गया, भादो भी बीत ही गया, लेकिन कुदरती नजारा ऐसा है, मानो सावन शुरू हो रहा हो। ये देखकर मन में आता है कि क्या हिंदी महीनों के नाम बदल दें। हास्य विनोद। ऐसा कर दें तो फसल को हो रहे नुकसान का क्या? मैं नाम बदलने को कह रहा हूं लेकिन अनेक लोग होंगे जिन्हें शायद नाम ही पता न हों। चलिए पहले इनके नाम जान लें।

चैत्र 

वैशाख 

ज्येष्ठ 

सावन 

भादो 

कुआर (उत्तराखंड में इसे असोज भी कहते हैं)

कार्तिक 

अगहन (कहीं मंगशीर या मार्गशीष भी कहते हैं।)

पौष

माघ

फाल्गुन 

यूं तो सतही तौर पर 12 महीनों में दो ऋतुएं यानी सर्दी और गर्मी होती हैं, लेकिन भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो कुल 12 महीनों में 6 ऋतुएं होती हैं। हमारी माता जी ने इनको याद करने का एक फार्मूला बताया था, चैत्र - वैशाख ग्रीष्म ऋतु... सावन भादो बरखा ऋतु आदि। मौसम चक्र इस कदर बरस रहा है कि फसल कटने के सीजन में बारिश हो रही है।

अब मौसम के नये मिजाज में सावन को भादो और भादो को सावन कर दें तो कैसा रहे। मौसम चक्र बदल रहा है, समय बदल रहा है। फसल चक्र को भी बदलने की बात हो रही है। बदलाव तो अवश्यंभावी है। होकर रहेगा। अब दिन, वार और महीनों के नाम तो नहीं ही बदलेंगे।

फिल्मी जगत में हिट रहा है सावन

भले कितने बदलाव आए हों, लेकिन भारतीय फिल्म जगत में सावन हमेशा हिट रहा है। कुछ गीत तो आपको भी पता होंगे। मसलन 

सावन का महीना पवन करे सोर 

आया सावन झूम के 

सावन के झूले पड़े 

कुछ कहता है ये सावन 

अब के सजन सावन में 

लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है 

रिमझिम गिरे सावन 

सावन को आने दो 

हाय हाय ये मजबूरी 

मैं प्यासा तू सावन   वगैरह वगैरह 

सावन पर अनेक मुहावरे और लोकोक्तियां भी हैं। आप जानते ही हैं। जैसे सावन के अंधे को हरा... सावन हरे न भादो सूखे आदि।

Tuesday, August 27, 2024

परंपरा और आधुनिकता की जुगलबंदी से मधुर होंगे भारतीय साज और आवाज

साभार : दैनिक ट्रिब्यून 



केवल तिवारी

इसे सुखद संयोग ही कहेंगे कि एक तरफ चंडीगढ़ में 'वर्षा ऋतु संगीत संध्या' चल रही थी, दूसरी तरफ बाहर रिमझिम फुहार। गीतों के बोल भी ऐसे ही थे, मसलन 'गरजे घटा घन कारे-कारे', 'घन घनन घनन घन घोर', 'गरजत आये री बदरवा', 'बूंदनीया बरसे', 'झुक आयी बदरिया सावन की' वगैरह-वगैरह। पिछले दिनों इस कार्यक्रम में प्रस्तुति देने पहुंचे थे शास्त्री संगीत में साज और आवाज के तीन दिग्गज। 'दैनिक ट्रिब्यून' के साथ बातचीत में इन लोगों ने साज, संगीत और आज के वातावरण पर विस्तार से बातचीत की। पेश है तीनों कलाकारों से हुई बातचीत के चुनींदा अंश-
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दादा से सीखा, पिता की परंपरा को आगे बढ़ाया : विदुषी मीता पंडित
विदुषी मीता पंडित, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की एक अग्रणी और लोकप्रिय गायिका हैं। उन्होंने भारत और 25 से अधिक देशों में श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया है। विदुषी मीता ऑल इंडिया रेडियो की एक शीर्ष श्रेणी की कलाकार हैं। सूफी, ठुमरी, भक्ति और सुगम शैलियों में उनकी प्रस्तुति समान रूप से भावपूर्ण है। ग्वालियर घराने से ताल्लुक रखने वाली विदुषी मीता पंडित का मानना है संगीत के प्रति अनुराग किसी के भी तन-मन को झंकृत करता है। उन्होंने कहा कि यह शास्त्रीय संगीत की सुमधुरता ही है कि देश के कोने-कोने के अलावा विदेशों में भी इसको लेकर कार्यक्रम होते हैं और लोग बहुत चाव से इसे सुनते हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के पुरोधा रहे पद्म भूषण पं. कृष्णराव शंकर पंडित की पोती एवं पं. लक्ष्मण कृष्णराव पंडित की बेटी मीता पंडित का भी रुझान बचपन से ही संगीत की ओर रहा। उन्होंने अपने पुश्तैनी परंपरा को तो आगे बढ़ाया ही, आज की पीढ़ी को भी संगीत के सुरों को समझाया। मीता आज के तड़क-भड़क के गीत संगीत और शास्त्रीय संगीत के बीच किसी तरह की तुलना करने से ही इनकार कर देती हैं। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि दोनों संगीतों और दोनों के श्रोताओं में तुलना का सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने यह दावा जरूर किया कि अगर शास्त्री संगीत की समझ रखी जाये और इसे गौर से सुना जाये तो लोग इसके मुरीद होते हैं। उन्होंने कहा कि संगीत के शौक का उम्र से कोई लेना-देना नहीं।
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शास्त्रीय संगीत में प्रयोग की पूरी संभावना : डॉ. अविनाश कुमार
दिल्ली विश्वविद्यालय के डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी कॉलेज में संगीत के शिक्षक डॉ. अविनाश कुमार मानते हैं कि शास्त्रीय संगीत में प्रयोग की पूरी संभावना है। वह कहते हैं न केवल संभावना है, बल्कि ऐसा किया जाना जरूरी है। क्योंकि आज के समय में एक ही राग पर आधारित किसी गीत को घंटों सुनने का लोगों के पास वक्त नहीं। कुमार मानते हैं कि आज युवा शास्त्रीय संगीत की तरफ पूरी तरह से आकर्षित हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि शास्त्रीय संगीत के माहौल में पले-बढ़े बच्चों का चित्त शांत रहता है। युवा हिंदुस्तानी शास्त्री गायक डॉ. अविनाश कुमार ने साधना चटर्जी और पूर्णचंद्र चटर्जी से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली। बाद में उन्होंने रामपुर सहसवान घराने के उस्ताद आफताब अहमद खान से उन्नत प्रशिक्षण प्राप्त किया। उन्होंने आगरा और किराना घराने के पंडित तुषार दत्त और किराना घराने के पंडित सोमनाथ मर्दुर से संगीत का भी प्रशिक्षण लिया।
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मां से सीखा तबला बजाना : पं. राम कुमार मिश्र
शीर्ष तबला वादक पंडित राम कुमार मिश्र का मानना है कि भारतीय साज और आवाज को आगे बढ़ाने में युवाओं को आगे आना चाहिए। जाने-माने तबला वादक पंडित अनोखे लाल मिश्र के पौत्र एवं पद्म विभूषण पंडित छन्नू लाल मिश्र के पुत्र राम कुमार को तबले की तालीम उनकी मां मनोरमा मिश्र से मिली। उन्होंने कहा कि अब इस परंपरा के उनके पुत्र आगे ले जा रहे हैं। बनारस घराने के तबला वादक कुमार कहते हैं कि कार्यक्रमों के दौरान प्रत्येक दर्शक से वह कनेक्ट होते हैं और जिस तरह गायन शैली में परिवर्तन हो रहा है, प्रयोग हो रहे हैं, तबले की ताल में भी प्रयोग की हमेशा गुंजाइश बनी रहती है। वह आधुनिक वाद्य यंत्रों के साथ ही परंपरागत यंत्रों की जुगलबंदी को भी जरूरी मानते हैं।

Friday, August 23, 2024

ऊना के अंब का शानदार सफर और यादगार रहगुजर

 केवल तिवारी

15 अगस्त का दिन। राष्ट्रीय पर्व। ऐसा दिन, जब हम सभी यानी अखबार में काम करने वाले सभी मित्रों को एक साथ छुट्टी मिल सकती है। कभी-कभी ऐसी छुट्टियों का कुछ पारिवारिक प्रोग्राम बन जाता है, लेकिन कभी-कभी ‘खुद के लिए जीने’ का सबब। 
अंब में हम तीन
अगस्त महीने की शुरुआत में ही ‘कहीं चलने’ की चर्चा हुई। मित्र जतिंदरजीत सिंह, नरेंद्र कुमार और रवि भारद्वाज के साथ मेरा कार्यक्रम बनने लगा। क्या कसौली चलें, क्या मोरनी चलें। मोरनी और कसौली की चर्चा के बीच रवि जी का सुझाव आया कि मेरे घर चलो। हिमाचल प्रदेश के ऊना जिले में अम्ब गांव में। तैयारी हो गयी, लेकिन जतिंदरजीत जी पारिवारिक कारणों से चलने में असमर्थ थे। तैयारी पूरी हो गयी, लेकिन मौसम ने थोड़ा डराया। एक दिन पहले तक तेज बारिश हो रही थी। पहाड़ों पर बारिश में कुछ घटनाओं से भी खौफ था। घरवालों को ताकीद कर रही थी कि किंतु-परंतु मत करना। क्योंकि मेरी माताजी कहती थी कि कोई भी शुरुआत, खासतौर पर कहीं जाने के बारे में हां, ना फिर हां, फिर ना नहीं करनी चाहिए। उनको इतना समझा दिया कि बच्चे नहीं हैं, कहीं लगेगा कि मौसम ज्यादा खराब है या तो जाएंगे ही नहीं या फिर लौट आएंगे। सच में मौसम ने हमारा साथ दिया और ऐसा साथ दिया कि उस गीत की पंक्तियां हम लोग गुनगुनाने लगे जिसके बोल हैं, ‘सुहाना सफर और ये मौसम हसीं।’
सुबह करीब आठ बजे हम लोग चल पड़े। सफर की शुरुआत पर उन पंक्तियों को याद करता हूं जो किसी शायर ने इस तरह से व्यक्त किए हैं-
जिंदगी को यादगार बनाते चलिए, इसलिए सफर पर जरूर चलिए।


सबसे पहले पौधरोपण और कुछ मिलना-जुलना
हम लोग करीब 12 बजे रवि जी के मूल निवास स्थान पर पहुंच गए। हमारा कार्यक्रम सबसे पहले मंदिर जाने का था। वहां हमने बेल के पौधे को रोपना था। (संबंधित वीडियो साझा कर रहा हूं।) उससे पहले रवि जी ने कुछ इलाके दिखाए। एक बरसाती नदी को देखा। उनके कुछ जानकार मिले। उनसे नमस्कार आदि हुई। फिर शिव मंदिर प्रांगण में पौधरोपण मैंने और नरेंद्र जी ने किया। लग रहा था कि कुछ देर पहले ही वहां कोई हवन करके गया है क्योंकि अग्नि प्रज्जवलित थी। दीपक जल रहे थे। हम लोगों ने पौधे को रोपा। मंदिर में प्रणाम किया और फिर चल पड़े सफर के दूसरे पड़ाव की तरफ।
करोगे सफर तो मिलेंगे नए दोस्त, राही बनोगो तो मिलेगा हमसफर,
जिंदगी के सफर में तू है मुसाफिर, हमेशा चलते रहना जिंदगी की खातिर।
वादियां तो खूबसूरत थी ही, उतने ही अच्छे वहां के लोग भी। जैसे एक गीत के बोल हैं, धड़कते हैं दिल कितनी आजादियों से, बहुत मिलते-जुलते हैं इन वादियों से। रवि जी के कुछ जानकारों के पास गए। एक जगह एक सज्जन की पुरानी मिठाई की दुकान पर पहुंचे। उन्होंने थोड़ी सा चखाया। मिठाई अच्छी लगी कुछ खरीद भी ली। उसका स्वाद अल्मोड़ा में बनने वाली सिंगौड़ी मिठाई की तरह लगा। आप लोग कभी सिंगौड़ी मिठाई सर्च करेंगे तो पता चल जाएगा। यह एक खास मिठाई होती है जिसे पत्ती में लपेटकर दिया जाता है। यह मिठाई जल्दी खराब नहीं होती। ऐसे ही कई लोग मिले बातें होती रहीं और हम लोग ऊपर एक शांत एवं सुरम्य स्थल पर पहुंच गए। वहां एक पेड़ पर लगे आम देखकर लालच आया और एक सज्जन ने हमारे लिए काफी आम तोड़े। उन आमों की चटनी का स्वाद अब भी हम ले रहे हैं। शाम को रवि जी के ही कुछ जानकारों के यहां कहीं चाय और कहीं भोजन की व्यवस्था हुई।
जो दुनिया नहीं घूमें, तो क्या घूमा, जो दुनिया नहीं देखी, तो क्या देखा।
जब भी सफर करो, दिल से करो, सफर से खूबसूरत यादें नहीं होतीं।
न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं। अजब सफ़र है कि बस हम-सफ़र को देखते हैं
आए ठहरे और रवाना हो गए, ज़िंदगी क्या है, सफ़र की बात है
तिलिस्म-ए-ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा ओ दाम-ए-बर्दा-फ़रोश, हज़ार तरह के क़िस्से सफ़र में होते हैं
कुछ खास लोगों की बात जरूरी
यूं तो इस सफर में अनेक लोग मिले और सभी से अपना अपनत्व मिला। उनमें से कुछ लोगों का जिक्र यहां करना जरूरी समझ रहा हूं। प्रिंसिपल अजय कुमार जी से बेहद सार्थक बातचीत हुई। तय हुआ कि अगली बार विस्तार से बातें होंगी और फिर मुलाकात होगी। उनके अलावा संजीव कुमार, नीतीश कुमार, राहुल कुमार, लाड्डी शर्मा सभी से मुलाकात बहुत शानदार रही। चूंकि यह दौरा बेहद संक्षिप्त था। अगले दिन हमने आना था। कुछ बातें हुईं और अगले दिन हम लोग लौट आए। रास्ते में आईआईटी रोपड़ से अपने बेटे कार्तिक को भी साथ ले लिया। दोपहर में घर पहुंचे और फिर शुरू हो गयी वही रोज की आपाधापी। ऐसे कार्यक्रम बनते रहने चाहिए। मित्र नरेंद्र और रवि का बहुत-बहुत धन्यवाद। अगला कार्यक्रम भी जल्दी बनेगा।
कुछ और तस्वीरें साझा कर रहा हूं 





Monday, August 5, 2024

इस फोन का भावुक पल भी तो यादगार है, कुक्कू की ओर से बड़ा गिफ्ट

केवल तिवारी






मेरे इस बार के जन्मदिन (18 जुलाई 2024) के कुछ दिन बाद और बेटे कुक्कू यानी कार्तिक के जन्मदिन (27 जुलाई) से कुछ दिन पहले का वाकया है। बेटा माइक्रोसॉफ्ट में इंटर्नशिप करके लौटा था। रंग में भंग थोड़ा सा इसलिए पड़ा था कि मेरे पैर में प्लास्टर चढ़ा था, लेकिन मेरी उत्सुकता इस कदर थी कि मैं फिर भी एयरपोर्ट गया। खैर... उस रात हमेशा की तरह मैं करीब साढ़े ग्यारह बजे घर पहुंचा। भावना, कुक्कू और धवल सभी जगे हुए थे। मैं हाथ-पैर धोकर सभी से बातचीत करने लगा तो भावना ने कहा कि कुक्कू तुम्हारे बर्थडे का गिफ्ट चॉकलेट लेकर आया है। धवल भी बोला, हां पापा दो चॉकलेट हैं। कुक्कू हमेशा की तरह हल्का मुस्कुराया। गिफ्ट चूंकि उसी की ओर से था तो मैंने कहा कि चॉकलेट तो मैं खाता ही नहीं, लेकिन चलो शुक्रिया। वह बोला- आप खोलो हम खा लेंगे। मैंने रैपर खोला तो उसमें पहले चार्जर निकला फिर एक फोन। सैमसंग m35 5G. मैं अवाक रह गया। ये क्या? कुछ पल भावुक हुआ फिर बोला, अभी मेरा फोन सही तो था क्यों मंगा लिया। कुक्कू बोला, कितना तो हैंग मारता है आपका फोन? एक कॉल लगाने में भी इंतजार करना पड़ता है। मेमोरी भी फुल है। मैं बहुत ही ज्यादा भावुक हो गया और बहुत खुश भी कि बच्चे अब ऐसी चिंता करने वाले हो गये हैं। फोन की कीमत तो नहीं बताऊंगा क्योंकि गिफ्ट तो गिफ्ट है, लेकिन मेरे हिसाब से बहुत महंगा है। इससे पहला फोन धवल ने कहीं से मिली पुरस्कार राशि से दिलाया था। मैं उठा कुछ बहाने से मंदिर वाले कमरे में गया और ईजा की तस्वीर की तरफ देखकर दो आंसू निकल आए। यह फोन ही नहीं, कुक्कू ने इंटर्नशिप के पैसे से एक मिक्सी, घर के कुछ अन्य सामान और कुछ अपने लिए भी लिया और एक कर्ज माफी का अमाउंट भी दिया। इसी के साथ मुझे भी बच्चों ने अगले कुछ दिनों के बीच सीख दी। अच्छा लगता है जब बच्चे कुछ समझाने की स्थिति में आ जाते हैं। तनाव नहीं लेने को कहते हैं। खान-पान अच्छा करने को कहते हैं। ईश्वर बच्चों को सही राह पर ले जाना, यही प्रार्थना है। खुश रहो बच्चो। 

Friday, July 26, 2024

कार्तिक @21 : उम्र का नया पड़ाव, खुशियों का नया सोपान और जरूरी है सेहत

 


पिता का पत्र पुत्र के नाम 

प्रिय कुक्कू। सदा खुश रहो। ईश्वर की कृपा सदा तुम पर बरसती रहे। तुम स्वस्थ रहो। हमारा आशीर्वाद सदा तुम पर बना रहे। आज तुम 21 वर्ष पूर्ण कर चुके हो। पीछे की ओर देखता हूं तो अब भी याद आता है वह मासूम सा कुक्कू, जिसे हम आइसक्रीम की कोन पकड़ाते थे और वह खुश हो जाता था। वह कुक्कू जो मेरे पीछे-पीछे पूरे पार्क के चक्कर लगा लेता था। वह कुक्कू जिसके लिए अम्मा भुट्टा लेकर आती थी। वह कुक्कू जिसे उसके नाना गोबर गणेश कहते थे। वह कुक्कू जिसके लिए पुष्पा बुआ कहती थी कि इसकी तरक्की को मैं ऊपर से देखूंगी। वह कुक्कू जो तीसरे फ्लोर पर स्थित अपने घर से नीचे उतरते समय इतना बोलता था कि पूरे मोहल्ले को पता चल जाता था। वह कुक्कू जो स्कूल में टॉप आता था। वह कुक्कू जिसकी वजह से हमें भी पहचान मिली। वह कुक्कू जो पढ़ाई संबंधी अपने किसी भी प्रोजेक्ट की जिद पूरी कराकर छोड़ता था। वह कुक्कू जिसका आधार कार्ड बनवाने का वाकया याद है, भारी बारिश और बाइक पंचर। वह कुक्कू जिसे कोचिंग छोड़ने का लंबा सिलसिला चला। वह कुक्कू जो दस-दस रुपये बचाने के लिए कई बार पैदल चलता था। वह कुक्कू जिसे गिनकर 30-40 रुपये मिलते थे। वह कुक्कू जो स्टूडेंट ऑफ द ईयर बना। स्कूल का हेड बॉय बना। वह कुक्कू जिसे एक-दो बार भयानक रूप से डांट भी पड़ी। वह कुक्कू जिसने खुद को साबित किया। और अब यही कुक्कू 21 वर्ष का युवा हो गया है। सिर्फ युवा नहीं हुआ, सिर्फ मोटा-ताजा नहीं हुआ, वह एक मुकाम पर पहुंचा है। हालांकि यह स्थायी पड़ाव नहीं है, अभी और तरक्की करनी है। लेकिन जहां वह पहुंचा है, उसने हमें एक पहचान दी है। हमारे लिए तो ऐसे मुकाम पर इस उम्र में पहुंचना कल्पनाओं से भी परे है। आईआईटी में प्रवेश पाते ही मुझे जो बधाइयां मिली हैं, वे मेरे लिए लाइफ टाइम अचीवमेंट हैं। इसी दौरान माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनी में इंटर्नशिप, फिर वहीं से जॉब ऑफर। सचमुच कुक्कू यानी कार्तिक तुमने फिर एक बार खुद को साबित किया है। मैं मानता हूं इस सबमें तुम्हारी बहुत मेहनत है, लेकिन साथ ही याद रखना कि अम्मा का आशीर्वाद, हमारे घर के सभी बड़े लोगों की शुभकामनाएं, हमारे कुल देवताओं की कृपा भी इस तरक्की पथ पर पग-पग में हमारे साथ है। अब अनेक बातों को तुमसे शेयर करता रहता हूं। साथ ही मैं और तुम्हारी मम्मी तुमसे स्वास्थ्य संबंधी जिक्र भी करते हैं। उम्मीद है अच्छा पहनने के साथ-साथ तुम अच्छा यानी हेल्दी फूड खाने की कोशिश करोगे। इसके बारे में हम-तुम जिक्र करते ही रहते हैं। इस बीच, तुमने बहुत हाथ बंटाया है, वह तो होते रहना चाहिए। भविष्य की योजनाएं भी हमने मिलजुलकर करनी है, बाकी सब तो ईश्वर के हाथों में है। आज तुम्हारा दिन है। खूब मस्त रहो। खूब तरक्की करो। हम सब पर भगवान की कृपा बनी रहे। फिर से जन्मदिन की हार्दिक बधाई। खुश रहो।
तुम्हारा पापा और साथ में पूरा परिवार
केवल तिवारी

Monday, July 15, 2024

सबसे स्नेह, राग-द्वेष मिटाने, सबकी मंगल कामना और प्रकृति को सहेजने का पर्व हरेला

 केवल तिवारी 

यूं तो हर पर्व और त्योहार हमें कुछ न कुछ संदेश देते हैं। फिर भी मानवीय गुण दोष ऐसे होते हैं कि हम इन संदेशों को या तो आत्मसात नहीं कर पाते या फिर जल्दी भूल जाते हैं। ऐसा क्यों होता है, हम थोड़ा आत्ममंथन करेंगे तो कुछ समझ पाएंगे। अब बात करें उत्तराखंड की तो पहाड़ तो गजब संदेश देते हैं। आप पहाड़ पर चढ़ेंगे तो आपको थोड़ा सा झुककर चलना पड़ेगा। झुककर धीमी गति से चलने पर मंज़िल मिलेगी। इसी धीमी गति या पहाड़ का संदेश यहां की नृत्य और गायन शैली में है। होली के गीत हों या फिर झोड़ा, चांचरी जरा याद कीजिए कितने सुरीले अंदाज में ये गीत और नृत्य हमें सुहाते हैं। इसी महान परंपरा का ही एक रूप है हरेला का पर्व।

जी रये, जागि रये, तिष्ठिये, पनपिये, दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये, हिमाल में ह्यूं छन तक, गंग ज्यू में पांणि छन तक, यो दिन और यो मास भेटनैं रये, अगासाक चार उकाव, धरती चार चकाव है जये, स्याव कस बुद्धि हो, स्यू जस पराण हो। अर्थात तुम जीते रहो और जागरूक बने रहो, हरेले का यह दिन-बार आता-जाता रहे, वंश-परिवार दूब की तरह पनपता रहे, धरती जैसा विस्तार मिले आकाश की तरह उच्चता प्राप्त हो, सिंह जैसी ताकत और सियार जैसी बुद्धि मिले, हिमालय में बर्फ रहने और गंगा यमुना में पानी बहने तक इस संसार में तुम बने रहो…। साथ ही मेल मुलाकात करते रहो।

आज के व्यस्त जीवन में भले मेल मुलाकात का समय कम हो, लेकिन हम सोशल मीडिया पर तो बिना गणित लगाये, बिना तोल मोल करे संवाद बनाए रख सकते हैं। हरेला पर्व प्रकृति को सहेजने का भी संदेश देता है। पहाड़ के लोगों से ज्यादा प्रकृति को कौन समझ सकता है। लेकिन आज अनेक लोगों ने नासमझ बनने का बीड़ा उठा रखा है। गाड़ गधेरे भी अतिक्रमण की जद में आ गए हैं। परिणाम सबके सामने है। ये सब बातें ऐसी हैं जो हम सब जानते हैं। बस त्योहारों की भांति एक चर्चा जरूरी है। आप सबको हरेला की हार्दिक शुभकामनाएं। सभी स्वस्थ रहें और प्रसन्न रहें। अपनों से खूब बातें कीजिए। सीधे नहीं तो आभासी दुनिया के जरिए ही सही। जय हो