आम बोलचाल में हम कई बार कह
देते हैं, ‘फलां बड़ा आदर्शवादी बनता है।’ कभी-कभी हम यह भी करते हैं या महसूसते हैं
कि कोई व्यक्ति सप्रयास अपनी हंसी छिपा रहा है या उसे दबा रहा है। हम अपने मन के ‘बच्चे’
को मार देते हैं। कोई लाख ऐसे व्यक्ति को बुरा कहे, लेकिन मैं तो इसके पीछे कई कारण
देखता हूं। कभी असमानता, कभी घरेलू परिस्थितियां और कभी ‘बड़े होने का दंश।’ जी हां!
बड़े होने का दंश। मुंशी प्रेमचंद की कहानी के किरदार ‘बड़े भाई साहब की जैसी स्थिति।’
क्या हम-आप भी नहीं चाहते कि घर में बड़ा बच्चा जिम्मेदारी समझे। क्या ऐसा नहीं होता
कि कई बार छोटों की गलती पर बड़े को डांट पड़ जाती है। जनाब! बड़ा बनना वाकई कठिन होता
है। छोटों-बड़ों सबके लिए बड़ा। प्रेमचंद की इस कहानी ‘बड़े भाई साहब’ में भाई साहब
बहुत बड़े नहीं हैं। लेकिन उनके अंदर ‘बड़ेपन का बोझ’ बहुत है। मुझे इसीलिए यह किरदार
पसंद है कि बड़ेपन के बोझ तले दबे न जाने कितने लोगों को मैंने देखा है। उनके अंदर
कभी-कभी ‘जगते बच्चे’ को देखा है। छोटों के सामने आदर्श प्रस्तुत करने की उनकी ‘क्रांतिकारी
गतिविधियों’ को भी देखा है। उनकी मजबूरियों को महसूस किया है। इच्छाओं को दबाना आसान
बात नहीं है। बड़ा बनना इतना सरल नहीं है। आदर्श प्रस्तुत करना एक दुरुह कार्य है।
आज के परिप्रेक्ष्य में ही देखिये, छोटों को समझाएंगे रेड लाइट जंप मत करना और जब अपनी
बारी आती है तो चारों ओर देखते हैं और निकल लेते हैं फर्राटे से। प्रेमचंद
साहब की इस कहानी में छोटा भाई तो वैसा ही है, जैसे बच्चे होते हैं। वह डांट खाता तो
घर चले जाने का मन होता। पढ़ने के लिए हर बार नयी तैयारी करता। टाइम टेबल बनाता, लेकिन
जल्दी ही बच्चों की तरह सब धरा रह जाता और वही खेल-कूद, इधर-उधर। कहानी में असली किरदार
तो ‘बड़े भाई साहब’ हैं। यह अलग बात है कि शायद वह यह नहीं समझते कि चुप रहकर या खुद
सही काम कर दूसरों के सामने आदर्श प्रस्तुत करना ज्यादा कारगर होता है, उपदेश तो सब
दे लेते हैं। इस कहानी में भी बडे भाई साहब उपदेश बहुत देते हैं, लेकिन ‘सटीक’ तर्कों
के साथ। कहानी में एक ही हॉस्टल में दो भाई रहते हैं। छोटा, मस्तमौला है। खेलकूद में
रमा रहता है। खिलखिलाकर हंसता है। डांट खाता है, लेकिन उस डांट का बहुत लंबे समय तक
उस पर असर नहीं रहता। यानी वह सचमुच बच्चा है। बड़े भाई साहब भी साथ हैं। यूं तो वह
बहुत बड़े नहीं हैं। छोटे भाई से महज तीन क्लास आगे। लेकिन वह गंभीर हैं। हंसी-मजाक
नहीं करते। छोटे को अधिकारपूर्वक डांटते हैं। कर्त्तव्य की याद दिलाते हैं। बड़े भाई
साहब भी बच्चे ही हैं, लेकिन वह ‘बड़े’ हैं। मेरे पसंद के किरदार। क्या करें अगर उनकी
गंभीरता ओढ़ी हुई है? क्या करें अगर जबरदस्त मेहनत के बावजूद वह फेल हो रहे हैं? उन्हें
अहसास तो है ना कि घरवाले उन पर कितना खर्च कर रहे हैं। वह अपने छोटे भाई को उसके कर्त्तव्य
तो सही से बताते हैं ना। उसका खयाल तो रखते हैं ना। एक जिम्मेदार व्यक्ति तो हैं ना।
वह अपने छोटे भाई से कहते हैं, ‘इतने मेले-तमाशे होते हैं, मुझे तुमने कभी देखा जाते
हुए?’ बड़े भाई साहब के पास अनुभवों की खान है। बेशक छोटे भाई तमाम मस्ती के बावजूद
पास हो जाते हैं और बड़े भाई फेल। लेकिन बड़े साहब इसका तर्क देते हुए कहते हैं, ‘महज
इम्तहान पास कर लेना कोई चीज नहीं, असल चीज है बुद्धि का विकास।’ तमाम मेहनत के बावजूद
बड़े भाई साहब फेल हो जाते हैं और खेलकूद में व्यस्त रहने वाला छोटा भाई पास हो जाता
है। छोटे के मन में तो आता है कि अब भाई साहब को आईना दिखा दूं कि ‘कहां गयी आपकी घोर
तपस्या। मुझे देखिये, मजे से खेलता रहा और दर्जे में अव्वल भी हूं।’ पर ऐसा हो नहीं
पाता। छोटा असल में छोटा ही है। बड़ों के सामने ऐसा बोल पाने की हिम्मत कहां? लेकिन
बड़े भाई साहब न सिर्फ देखते या समझते हैं, बल्कि मन को भी ताड़ लेते हैं, तभी तो कहते
हैं, ‘देख रहा हूं इस साल दरजे में अव्वल क्या आ गये, तुम्हारे दिमाग ही खराब हो गये।
भाईजान! घमंड तो बड़े-बड़ों का नहीं रहा। इतिहास में रावण का हाल तो तुमने पढ़ा ही
होगा। उनके चरित्र से तुमने कौन सा उपदेश लिया? या यूं ही पढ़ गये?’ बडे भाई साहब के
पास अपने फेल हो जाने पर अध्यापकों की ‘गलतियों का चिट्ठा’ है तो छोटे के पास होने
और आने वाले समय की ‘कठिनाइयों का अनुभव’ भी। भाई साहब बेचारे फेल होते चले जाते हैं
और छोटा है कि ‘आवारागर्दी’ (बड़े भाई साहब की नजरों में) के आवजूद पास होता चला गया।
दूसरी बार भी छोटे के पास होने और खुद के फेल होने पर भाई साहब थोड़ा नरम पड़ गये।
डांट में वह धार नहीं रही। लेकिन छोटा न बिगड़े, इसका पूरा खयाल था। इस बात का भी अगर
कुछ ‘बुरा’ किया तो छोटे पर असर गलत पड़ेगा। वह पढाई में तल्लीन ही रहे। खेलने-कूदने
न जाते। भाई को भी यदा-कदा समझाते कि घरवाले हम पर कितना खर्च कर रहे हैं। एक दिन छोटे
भाई का बड़े भाई साहब से उस समय सीधे आमना-सामना हो गया जब एक कटी पतंग लूटने छोटा
बेतहाशा दौड़ रहा था। बडे साहब संभवत: बाजार से लौट रहे थे। वहीं छोटे का हाथ पकड़
लिया। गुस्सा होते हुए बोले, ‘उन बाजारी लड़कों के साथ धेले के कनकौए के लिए दौड़ते
तुम्हें शर्म नहीं आती?’ तुम्हें इसका लिहाज नहीं कि अब नीची जमात में नहीं हो, बल्कि
आठवीं जमात में आ गये हो और मुझसे केवल एक दर्जा नीचे हो। एक जमाना था लोग आठवीं जमात
पास करके नायब तहसीलदार हो जाते।... एक तुम हो आठवीं दरजे में आकर भी बाजारी लड़कों
के साथ कनकौए के लिए दौड़ रहे हो।’ बड़े भाई साहब छोटे को उसकी बढ़ती कक्षा और उसकी
जिम्मेदारियों को तो समझा जा रहे हैं, साथ ही उन्हें यह भी अहसास है कि वह खुद मात्र
एक क्लास आगे हैं। इसका भी तर्क है उनके पास। तभी तो कहते हैं, ‘निस्संदेह तुम अगले
साल मेरे समकक्ष हो जाओगे और शायद एक साल बाद मुझसे आगे भी निकल जाओगे। लेकिन मुझमें
और तुममें पांच साल का अंतर है उसे तुम क्या, खुदा भी नहीं मिटा सकता। मैं तुमसे पांच
साल बड़ा हूं और रहूंगा। समझ किताब पढ़ने से नहीं आती अनुभव से आती है। अम्मा और दादा
को हमें समझाने का हमेशा अधिकार रहेगा।’ यहीं पर बड़े भाई साहब और भी दुनियादारी की
कई बातें छोटे को बताते हैं। कहते-कहते थप्पड़ दिखाते हैं और बोलते हैं, ‘मैं चाहूं
तो इसका भी इस्तेमाल कर सकता हूं।’ छोटा भाई भी जैसे यहां कुछ ‘बड़ा’ हो गया। कहता
है, ‘आप सही कह रहे हैं, आपका पूरा अधिकार है।’ यही तो बड़े भाई साहब का कमाल है। यहीं
पर तो वह बात दिखती है जिसके लिए यह चरित्र मुझे बहुत अच्छा लगता है। भाई साहब छोटे
को गले लगा लेते हैं और कहते हैं, ‘मैं कनकौए उड़ाने को मना नहीं करता। मेरा जी भी
ललचाता है, लेकिन करूं क्या? खुद बेराह चलूं तो तुम्हारी रक्षा कैसे करूं? यह कर्त्तव्य
भी तो मेरे सिर है।’ दोनों भाइयों के बीच यह संवाद चल ही रहा था कि तभी एक कटी पतंग
आती है। बाकी बच्चे छोटे पड़ जाते हैं। बड़े भाई साहब थोड़े लंबे हैं और लपककर डोर
पकड़ लेते हैं और हॉस्टल की तरफ दौड़ पड़ते हैं। छोटा भी पीछे-पीछे भागता है। शायद
बड़े भाई साहब के अंदर का ‘बच्चा’ यहां जग गया। शायद उन्होंने सोचा हो, छोटे को बहुत
उपदेश दे दिया। बहुत हो गया छोटे-बड़े का खेल। अब तो दोनों भाइयों को दोस्त बनकर रहना
होगा। सचमुच इस कहानी में जिम्मेदारियों का बोझ महसूस करते हुए सारा काम करने वाले
‘बड़े भाई साहब’ मुझे बहुत पसंद हैं।
किरदार का यह चित्रण दैनिक ट्रिब्यून के किरदार कॉलम में छपा है। क्लिक करें-
http://dainiktribuneonline.com/2018/04/%E0%A4%AC%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%87%E0%A4%AA%E0%A4%A8-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%9D-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%A6%E0%A4%AC%E0%A5%87-%E0%A4%AC%E0%A4%A1/
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