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Friday, December 6, 2019

फर्राटेदार सफर की यादगार बातें

रविवार की उस भोर में सूरज खिला-खिला था। सुबह करीब साढ़े आठ बजे चंडीगढ़-अंबाला हाईवे पर डॉक्टर चंद्र त्रिखा साहब की गाड़ी रुकी। पुराने एयरपोर्ट चौक के पास। स्वभाव से बेहद विनम्र त्रिखा साहब को पढ़ता बहुत पहले से रहा हूं, मुलाकात पिछले कुछ वर्षों से है। उनसे कई बार दवा (होम्योपैथ) भी ले चुका हूं। हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू भाषा के जानकार डॉ. त्रिखा फिलवक्त हरियाणा उर्दू अकादमी के उपाध्यक्ष हैं। उनसे कई बार हमारे अखबार में ‘अचानक’ कुछ लिखवाया गया। उनकी हस्तलिखित कॉपी को देखकर हैरान रहता था। एक तो कुछ ही मिनटों में उनका लेख आ जाता, दूसरे उसमें कहीं कोई कट नहीं होता। यानी धारा प्रवाह बोलने की कला की मानिंद उनमें लिखने का भी वैसा ही गुण। इन दिनों यूट्यूब पर समसामयिक और रोचक मुद्दों पर उनका एक चैनल भी चलता है, जहां बिना नागा रोज एक नया विषय फ्लैश करता है। खैर...
साहित्य सभा में अपनी बात रखते डाॅ त्रिखा
त्रिखा साहब (Dr. Chandra Trikha) के साथ बैठा। बैठते ही एक किताब की चर्चा कर डाली। उसकी समीक्षा जल्दी ही हमारे अखबार में छपेगी। थोड़ी दूर जाने पर हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक डॉ मुक्ता भी उसी गाड़ी में बैठीं। औपचारिक परिचय के बाद कुछ पलों की खामोशी रही, फिर बातों का सिलसिला शुरू हो गया। असल में हम लोग कैथल के लिए निकले थे। कैथल साहित्य सभा का सालाना कार्यक्रम था। डॉ. त्रिखा साहब दो पुरस्कारों को अपनी ओर से देते हैं। मैंने कुछ बातें कहीं। फिर त्रिखा साहब ने कुछ रोचक किस्से बताये। असल में एकदम ईमानदारी से कहूं तो मैं उन्हें सुनना ही चाह रहा था। एक तो उन्हें कई अखबारों में पढ़ता रहता हूं। दूसरे विभाजन के दर्द और उस समय की विभीषिका का उन्होंने देखा है। कई कार्यक्रमों में उनको सुन चुका हूं। उन्होंने अपने लाहौर यात्रा का जिक्र करते हुए एक बुजुर्ग महिला का जिक्र किया, जो एक होटल वाले से अक्स पूछतीं, उधर से कोई आया है क्या? उधर से उनका आशय भारत से होता था। पूरे किस्से का जिक्र करते हुए उन्होंने उस महिला की ‘गंगा तो हमारी संस्कृति’ है वाली बात को बताया तो हम लोग कुछ देर को चुप रहे। डॉ. मुक्ता ने कहा, ‘हिंदू-मुस्लिम तो सियासत कराती है, हम सब इंसान हैं।’ इसी दौरान मैंने उनकी किताब ‘सूफी लौट आए हैं’ का जिक्र किया। इसके अलावा उन्होंने उस कहानी को सुनाया जिसमें विभाजन के दौरान पाकिस्तान से एक परिवार भारत लौट आता है, लेकिन घर की बुजुर्ग महिला नहीं आती। उधर, वह मकान किसी को अलॉट हो जाता है। बुजुर्ग महिला उस परिवार को घर में घुसने नहीं देती और अंतत: धीरे-धीरे इंसानी जज्बातों और प्यार का ऐसा उमड़-घुमड़ होता है कि बुजुर्ग महिला सबकुछ उन्हें दे जाती है।
साहित्य सेवी उर्मि कृष्ण का सम्मान।

समय के साथ करें कदमताल
साहित्य सभा के कार्यक्रम में डॉ. त्रिखा साहब ने बेहद बेबाकी से कहा कि महज लिखने के लिए नहीं लिखें। उन्होंने कहा कि एक कार्यक्रम कर चंद लोगों के बीच फोटो खिंचाकर फिर तालियां बजाने से कुछ नहीं होता। उन्होंने कहा कि समय के साथ बदलें। डिजिटल प्लेटफॉर्म पर आयें। स्तरीय लिखें। वाकई कुछ बातें बेशक ‘चुभने’ वाली हो सकती हैं, लेकिन यह सत्य है कि समय के साथ नहीं बदले तो सब गड्डमड्ड हो जाएगा।
हास्य विनोद...मैं ऑटो से चला जाता हूं
कैथल से लौटते वक्त जीरकपुर के पास डॉक्टर मुक्ता ने कहा कि वह पटियाला चौक के पास उतर जाएंगी। यहां से ऑटो से चली जाएंगी। मैंने कहा अगर आपका रूट दूसरा हो तो मैं यहां उतर जाता हूं, आप पंचकूला के रास्ते चले जाइयेगा। यहां से मुझे सीधे ऑटो मिल जाएगा। डॉ त्रिखा हंसे.. बोले आप लोग गाड़ी में ही रहें, मैं ऑटो से चला जाता हूं। इस दौरान सभी लोग मुस्कुरा दिए।
उनका ड्राइवर को प्यार से समझाना
इस सफर में कई बार ऐसे मौके आए जब डॉक्टर साहब को ड्राइवर साहब को मनाना पड़ा। वह उन्हें प्यार से समझाते। एक बार वह फोन पर लंबी बात करने लगा तो डॉक्टर साहब ने ताकीद दी कि या तो रोकककर बात कर लो या फिर संक्षेप में बात करो। ऐसे ही एक-दो मौकों पर उसे समझाया, लेकिन विनम्रता से। वाकई ऐसे ही लोगों के बारे में कहा गया है, ‘फलों से लदा पेड़ झुका रहता है।’

डॉ मुक्ता का किताबों के प्रति स्नेह दिखाना
सफर के दौरान बातचीत के क्रम में डॉक्टर मुक्ता जी ने कई किताबों की बात की। अंत में उन्होंने समीक्षा के संबंध में भी अपनी रुचि दिखाई जिसे मैं अपने ऑफिस में दर्ज करा चुकुा हूं।
मीनाक्षी जी से अक्सर होती है चर्चा
डॉक्टर साहब की चर्चा अक्सर उनकी बेटी और ऑफिस में हमारी बॉस मीनाक्षी जी से होती रहती है। ट्रिब्यून में आने के बाद मीनाक्षी जी उन चंद लोगों में से हैं, जिन्होंने बहुत मदद की। ऑफिस के बाहर भी कई बार परिवार सहित मीनाक्षी जी और उनके पति सुनील जी से मिला तो बेहद अपनापन मिला। सुनील जी भी बहुत नेकदिल इंसान हैं।
और मेरा वह सम्मान...

कैथल में मुझे धीरज त्रिखा पत्रकारिता सम्मान से नवाजा गया। धीरज के बारे में बेहद मार्मिक कहानी है। इस बारे में फिर कभी जिक्र होगा। कार्यक्रम में कैथल के संवाददाता ललित शर्मा से मुलाकात हुई। साहित्य सभा में ढाई दशक से सक्रिय भूमिका निभाने वाले मदान साहब से मुलाकात हुई। भल्ला जी मिले। अनेक अन्य साहित्य अनुरागियों, पत्रकारों से मिला। हमारे समाचार संपादक हरेश जी के पिताजी दामोदर जी का अनेक लोगों ने जिक्र किया।
कार्यक्रम के बाद संस्कृत के अध्यापक एवे रेडियो पत्रकार दिनेश के साथ फल्गू तीर्थ भी जाने का मौका मिला। वह सफर मेरे लिए सचमुच यादगार है। इस याद और इस सम्मान से जुड़े सभी को साधुवाद।

3 comments:

Kewal तिवारी said...

अति सुंदर सजीव वर्णन

दिनेश शर्मा said...

सुन्दर शाब्दिक चित्रण। साधुवाद।

Santosh Garg said...

आदरणीय श्री केवल तिवारी जी ! संस्मरण अच्छा लगा बधाई शुभकामनाएँ 🙏 जी! धीरज जी के बारे में जानना है ...