केवल तिवारी
उनके दर्द को महसूस करने के लिए भावुक (emotional) दिल (heart) जरूरी है। यह कहना बहुत सहज है कि वे निकल ही क्यों पड़े हैं। पैरों में छाले, कंधे पर बोझ, कांख में गृहस्थी का कुछ सामान समेटे कोई यूं ही नहीं निकलता। भूखे प्यासे। रात को जब घर की ओर जा रहा होता हूं तो छोटे-छोटे बच्चों का हाथ थामे मां-बाप और उनके साथ चल रही एक भीड़ दिखती है। कितना चलेंगे। कभी खबर आती है कि एक मजदूर ने 800 किलोमीटर तक हाथ गाड़ी में अपनी पत्नी और बेटी को घसीटा। कितना सुकून मिला होगा जब वह अपनी देहरी पर पहुंच गया हो।
जीवित रहने के लिए कुछ कमाना ही है, यही सोच उन्हें घर से हजारों किलोमीटर दूर ले गयी और अब जीवित रहना है तो घर चलो की सोच उन्हें पैदल चलने को मजबूर कर रही है। इस तकलीफदेह की स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है। जिम्मेदारी तय करने से पहले यह तो हो कि इनकी सुध लेगा कौन? राज्य सरकारें दावा करती हैं कि उन्होंने अपने लोगों को वापस बुला लिया है। केंद्र सरकार का दावा है कि ट्रेनें चलवाई हैं। ऐसे में ये परेशान भीड़ कहां से निकल रही है। क्या वाकई इनसे हजारों रुपया किराया मांगा जा रहा है? सचमुच हृदय विदारक दृश्य हैं। इनको कोई तो भरोसा दिलाये कि आप जहां हो, वहीं रुको, आपको पहुंचाया जाएगा, जहां आप जाना चाहते हैं। रास्ते में खाना बांटने वाले कई शिविरों की बात की जाती है, लेकिन अनेक शिविर ऐसे हैं जो बस फोटो खिंचवाने तक रहते हैं फिर उनका तंबू उखड़ जाता है। कोरोना ने हर किसी को तकलीफ दी है। चिंताएं भविष्य को लेकर भी हैं। महज भोजन और निवास की ही नहीं, सामाजिक दायरे की भी। क्या मेलजोल का पुराना दायरा लौट पाएगा। क्या शादी-व्याह जैसे तमाम रीति-रिवाज पहले की तरह निभ पाएंगे। क्या मित्र-यारों से उसी बेतकल्लुफी से मिला जा सकेगा। क्या ट्रेनों का वैसा ही सफर होगा। पता नहीं क्या होगा, लेकिन अपनी देहरी पर जा रही इस भीड़ को संभालना जरूरी है। अगर सब जगह से ये कामगार चले ही जाएंगे, तो भविष्य की आर्थिक स्थिति कैसी होगी। उम्मीद तो करनी चाहिए कि सब अच्छा होगा, सब अच्छे के लिए कदम भी उठाने जरूरी हैं। तो चलिए इसी अच्छाई की उम्मीद में आगे बढ़ें।
उनके दर्द को महसूस करने के लिए भावुक (emotional) दिल (heart) जरूरी है। यह कहना बहुत सहज है कि वे निकल ही क्यों पड़े हैं। पैरों में छाले, कंधे पर बोझ, कांख में गृहस्थी का कुछ सामान समेटे कोई यूं ही नहीं निकलता। भूखे प्यासे। रात को जब घर की ओर जा रहा होता हूं तो छोटे-छोटे बच्चों का हाथ थामे मां-बाप और उनके साथ चल रही एक भीड़ दिखती है। कितना चलेंगे। कभी खबर आती है कि एक मजदूर ने 800 किलोमीटर तक हाथ गाड़ी में अपनी पत्नी और बेटी को घसीटा। कितना सुकून मिला होगा जब वह अपनी देहरी पर पहुंच गया हो।
भावुक तस्वीर : साभार : इंटरनेट |
9 comments:
कम शब्दों में कई स्थिति परिस्थिति को मार्मिक ढंग से रखा है आपने
धन्यवाद।
Bahut acha likha hai sir..Marmik hai
ये हैं कविता का कमेंट
Very good and emotional writing
अरविंद ऋतुराज जी का कमेंट
😪कोई माई बाप नहीं ।सरकारी दावे हक़ीक़त से दूर,मर गयी opposition.करोना क्या कर लेगा भूख का? पेट किसी lockdown को नहीं मानता । well written !!
शारदा जी का कमेंट
अत्यंत मार्मिक वर्णन
Bilkul sahi likha hai apne, bahut jada dukhi karne wala haal hai in logo ka, rote bache, bhookhe log, bina chappal ,khana, pani ke ,Kalyug hi to hai ye .
Thanks for commenting mam.
Thanks for commenting mam.
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