केवल तिवारी
पिछले दिनों दो तरह की खबरें आईं। एक तो यह कि मध्य प्रदेश में सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री लेने वाले एक युवक को मनरेगा के तहत मजदूरी करते देखा गया और दूसरे, बेरोजगारी से तंग एक युवक ने जान दे दी। इन दोनों खबरों पर कहीं कोई तवज्जो नहीं दी गयी, क्योंकि न तो इनमें से सुशांत सिंह राजपूत था और न ही कोई विकास दुबे। खैर मध्य प्रदेश के इंजीनियर की कहानी को थोड़ा स्पेस मिलना चाहिए था क्योंकि उसने आत्महत्या के बजाय मेहनत का रास्ता अख्तियार किया, दूसरे युवक को स्पेस नहीं भी मिला तो कोई बात नहीं क्योंकि आत्महत्या कोई विकल्प नहीं। इसी दौरान दिल्ली में एक पत्रकार द्वारा प्रतिष्ठित एम्स की बिल्डिंग से कूदकर आत्महत्या की खबर आई। हालांकि पत्रकार के तमाम मित्र कह रहे हैं कि यह आत्महत्या हो ही नहीं सकती। इसके कई कारण गिनाये गये जिनमें से प्रमुख हैं कि वह बहुत जीवट पत्रकार था। दूसरे उसके संस्थान ने उसे निकाला नहीं था। उसके खाते में जुलाई के शुरू में भी वेतन डाल दिया गया था। आत्महत्या की या नहीं, की तो क्यों? इन सब पर जांच चल रही है। उधर, सुशांत सिंह राजपूत का मामला भी जितनी तेजी से उठा था उतनी ही तेजी से वह ठंडा भी पड़ गया। फिलहाल कुछ दिनों से मीडिया की सुर्खियों में कानपुर वाला विकास दुबे छाया हुआ है। आत्महत्या की खबरों को बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए, साथ ही हर किसी को समझना चाहिए कि परेशानी के कई दौर आते हैं, लेकिन उनसे हार नहीं माननी चाहिए। मौत को गले लगा लिया तो बचा ही क्या। थोड़ी सी परेशानी से रू-ब-रू होंगे तो जल्दी ही उससे उबरेंगे भी। हां कोई ऐसा काम न करें कि आप समाज से आंखें चुराते फिरें। नौकरी से परेशान होना, आर्थिक तंगी कोई नजरें चुराने वाली बात नहीं है। न ही ये भी कि आप कहीं बच्चे की फीस नहीं दे पा रहे हैं या विलासिता का जीवन नहीं जी पा रहे हैं।
लाइफ स्टाइल को बिल्कुल न उलटें
कोरोना महामारी के दौर में कई खबरें सुनने को मिलीं। अनेक लोगों की नौकरी चली गयी। कुछ ऐसे किस्से सुनने को मिले जिससे यह लगा कि अपनी लाइफ स्टाइल को हमने एकदम से बदल दिया और नौकरी गयी तो मौत के सिवा कोई दूसरा रास्ता नजर नहीं आया। एक युवक का किस्सा बताता हूं। करीब चार साल पहले उसकी बहुत अच्छी जॉब लग गयी। मल्टी नेशनल कंपनी में। बेंगलुरू में शिफ्ट हो गया। शादी हुई। मध्यम वर्ग के परिवार से निकले इस युवक ने पहले डेढ़ करोड़ का फ्लैट खरीदा, एक महंगी गाड़ी ली। ड्राइवर रख लिया। घर में दो मेड रख लिये। पत्नी के लिए भी गाड़ी ड्राइवर रख लिया। महीने में जो डेढ़ लाख के करीब सैलरी मिलती थी, वह सब यूं ही उड़ जाती। बहुत मस्त उसका जीवन चल रहा था कि कोरोना संकट आ गया। पहले तो कंपनी ने वेतन आधा किया फिर जून आते-आते नौकरी से चलता कर दिया। बंदा अचानक जमीन पर आ गया। 40 हजार रुपये महीना मकान की किस्त। कारों की किस्त अलग से। समाज में बना झूठा रुतबा भी चला गया। अब करे तो क्या? फ्लैट बिक नहीं सकता, खाने के लिए भी कोई सेविंग्स नहीं। गनीमत रही कि उसने आत्महत्या नहीं की और वह अपने मूल गांव चला गया। फिर से जीवन को संवारने की कोशिश कर रहा है। ऐसे कई मौके आते हैं जब हम अचानक अपनी लाइफ स्टाइल बदल लेते हैं। अगर उक्त युवक भी तत्काल फ्लैट नहीं खरीदता। या सस्ता फ्लैट ले लेता। एक ही कार से काम चला लेता। मेड नहीं रखता। तो संभवत: वह हर माह 50 हजार रुपये तक बचा लेता। चार साल की नौकरी के बाद उसके पास अच्छी खासी रकम होती, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। इसलिए अपनी लाइफ स्टाइल को एकदम उलटिए मत।
पिछले दिनों दो तरह की खबरें आईं। एक तो यह कि मध्य प्रदेश में सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री लेने वाले एक युवक को मनरेगा के तहत मजदूरी करते देखा गया और दूसरे, बेरोजगारी से तंग एक युवक ने जान दे दी। इन दोनों खबरों पर कहीं कोई तवज्जो नहीं दी गयी, क्योंकि न तो इनमें से सुशांत सिंह राजपूत था और न ही कोई विकास दुबे। खैर मध्य प्रदेश के इंजीनियर की कहानी को थोड़ा स्पेस मिलना चाहिए था क्योंकि उसने आत्महत्या के बजाय मेहनत का रास्ता अख्तियार किया, दूसरे युवक को स्पेस नहीं भी मिला तो कोई बात नहीं क्योंकि आत्महत्या कोई विकल्प नहीं। इसी दौरान दिल्ली में एक पत्रकार द्वारा प्रतिष्ठित एम्स की बिल्डिंग से कूदकर आत्महत्या की खबर आई। हालांकि पत्रकार के तमाम मित्र कह रहे हैं कि यह आत्महत्या हो ही नहीं सकती। इसके कई कारण गिनाये गये जिनमें से प्रमुख हैं कि वह बहुत जीवट पत्रकार था। दूसरे उसके संस्थान ने उसे निकाला नहीं था। उसके खाते में जुलाई के शुरू में भी वेतन डाल दिया गया था। आत्महत्या की या नहीं, की तो क्यों? इन सब पर जांच चल रही है। उधर, सुशांत सिंह राजपूत का मामला भी जितनी तेजी से उठा था उतनी ही तेजी से वह ठंडा भी पड़ गया। फिलहाल कुछ दिनों से मीडिया की सुर्खियों में कानपुर वाला विकास दुबे छाया हुआ है। आत्महत्या की खबरों को बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए, साथ ही हर किसी को समझना चाहिए कि परेशानी के कई दौर आते हैं, लेकिन उनसे हार नहीं माननी चाहिए। मौत को गले लगा लिया तो बचा ही क्या। थोड़ी सी परेशानी से रू-ब-रू होंगे तो जल्दी ही उससे उबरेंगे भी। हां कोई ऐसा काम न करें कि आप समाज से आंखें चुराते फिरें। नौकरी से परेशान होना, आर्थिक तंगी कोई नजरें चुराने वाली बात नहीं है। न ही ये भी कि आप कहीं बच्चे की फीस नहीं दे पा रहे हैं या विलासिता का जीवन नहीं जी पा रहे हैं।
लाइफ स्टाइल को बिल्कुल न उलटें
कोरोना महामारी के दौर में कई खबरें सुनने को मिलीं। अनेक लोगों की नौकरी चली गयी। कुछ ऐसे किस्से सुनने को मिले जिससे यह लगा कि अपनी लाइफ स्टाइल को हमने एकदम से बदल दिया और नौकरी गयी तो मौत के सिवा कोई दूसरा रास्ता नजर नहीं आया। एक युवक का किस्सा बताता हूं। करीब चार साल पहले उसकी बहुत अच्छी जॉब लग गयी। मल्टी नेशनल कंपनी में। बेंगलुरू में शिफ्ट हो गया। शादी हुई। मध्यम वर्ग के परिवार से निकले इस युवक ने पहले डेढ़ करोड़ का फ्लैट खरीदा, एक महंगी गाड़ी ली। ड्राइवर रख लिया। घर में दो मेड रख लिये। पत्नी के लिए भी गाड़ी ड्राइवर रख लिया। महीने में जो डेढ़ लाख के करीब सैलरी मिलती थी, वह सब यूं ही उड़ जाती। बहुत मस्त उसका जीवन चल रहा था कि कोरोना संकट आ गया। पहले तो कंपनी ने वेतन आधा किया फिर जून आते-आते नौकरी से चलता कर दिया। बंदा अचानक जमीन पर आ गया। 40 हजार रुपये महीना मकान की किस्त। कारों की किस्त अलग से। समाज में बना झूठा रुतबा भी चला गया। अब करे तो क्या? फ्लैट बिक नहीं सकता, खाने के लिए भी कोई सेविंग्स नहीं। गनीमत रही कि उसने आत्महत्या नहीं की और वह अपने मूल गांव चला गया। फिर से जीवन को संवारने की कोशिश कर रहा है। ऐसे कई मौके आते हैं जब हम अचानक अपनी लाइफ स्टाइल बदल लेते हैं। अगर उक्त युवक भी तत्काल फ्लैट नहीं खरीदता। या सस्ता फ्लैट ले लेता। एक ही कार से काम चला लेता। मेड नहीं रखता। तो संभवत: वह हर माह 50 हजार रुपये तक बचा लेता। चार साल की नौकरी के बाद उसके पास अच्छी खासी रकम होती, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। इसलिए अपनी लाइफ स्टाइल को एकदम उलटिए मत।
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