केवल तिवारी
डॉक्टरी सलाह पर सुबह टहलना जरूरी हो गया है। वैसे तो संभव हो तो सभी को सुबह टहलना चाहिए। सुबह उठने, टहलने की जब सिर्फ बात होती है तो ती तरह के नजारों का रेखाचित्र बनता है। एक वे हैं जिनके पास सुबह समय ही नहीं है। हालांकि समय की कमी का रोना महज रोना ही है। समय तो सभी के लिए 24 घंटों का होता है। खैर...। दूसरे वे हैं जिनके पास सुबह-सुबह समय ही समय है, लेकिन या तो देर रात तक जगने के कारण या आलस्य के कारण वे कहीं नहीं जाते। तीसरी श्रेणी वह है जिन्हें डॉक्टर ने सलाह दी है कि समय निकालकर टहलना ही टहलना है या एक्सरसाइज करनी है। तीसरी श्रेणी में खुद को रखते हुए इन दिनों पार्क में नियमित तौर पर जाना होता है। वहां का नजारा देखकर लगा कि फिटनेस को लेकर कितनी जागरूकता है। बुजुर्ग व्यक्ति भी एक्सरसाइज कर रहे हैं। युवा भी योग आदि में व्यस्त हैं। कुछ बच्चों का झुंड भी है। पहले तो देखकर अच्छा लगा कि बच्चे भी सुबह-सुबह टहल रहे हैं फिर मन में सवाल उठा कि इनका तो स्कूल टाइम है, ये कैसे यहां। लेकिन बच्चे मस्त होकर खेल रहे थे। गौर से देखा तो उनकी बातचीत सन्न करने वाली थी। गाली-गलौज। झूलों में तोड़फोड़। कुछ के पास स्मार्ट फोन। उसे लेकर कहीं कोने में बैठे हैं। सोचा, इन्हें कुछ समझा दूं, लेकिन मैं राउंड लगाता रहा। मन में मंथन चलता रहा। तभी एक बुजुर्ग से सज्जन उनके पास आए और पूछा कि उन्हें पार्क में आना कैसा लग रहा है। दो-तीन बोले, बहुत अच्छा। फिर उन्होंने समझाया जब अच्छा लग रहा है तो इसे अच्छा बनाए रखो। झूलों में तोड़ फोड़ करोगे तो फिर कौन ठीक करेगा। कुछ की समझ में बात आयी या डर गए, वे वहां से चले गए। तभी कुछ बच्चे स्कूली ड्रेस में दिखे। कुछ 'जोड़े' भी दिखे। वे टहलने आए हैं, ऐसा तो कदापि नहीं लग रहा था। चलिए सुबह की इस चहचहाहट को कुछ दिन और गौर से देखा जाए। फिर संभवत: कुछ सार्थक लिखना हो पाएगा। अभी तो नजारे बदले हैं और बदलाव में भी नजारे हैं।
No comments:
Post a Comment