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Friday, August 19, 2022

बात से निकली सार्थक बात, जब अनिरुद्ध जी का मिला साथ

 केवल तिवारी 

कुछ दिन पूर्व ऑफिस की कैंटीन में चर्चा के दौरान पंडित अनिरुद्ध से सार्थक बातचीत हुई। उन्होंने कहा कि मुझे कई बार यह लगता है कि आप इस बात का ध्यान ज्यादा रखते हैं कि आपके हावभाव पर दूसरे लोग गौर करते हैं और शायद इसीलिए आप चलने, फिरने और बैठने के अंदाज के प्रति सतर्क रहते हैं। यही नहीं बोलने में भी बहुत संतुलित होकर बोलते हैं। इसी के साथ उन्होंने जोड़ा कि आप अति एनर्जिक रहते हैं। एनर्जिक यानी ऊर्जावान बने रहना बहुत अच्छा है, लेकिन अति एनर्जिक अच्छा नहीं। इसी तरह चिंतन-मनन अच्छा है, लेकिन अति ठीक नहीं। 

पंडित अनिरुद्ध शर्मा 


उन्होंने यह टिप्पणी मेरे कमजोर होते शरीर को देखते हुए कही। मैं भी मानता हूं कि पिछले कुछ समय से मेरा वजन कम हुआ है। उसका पहला कारण तो यही है कि मैं बहुत ज्यादा सोचता हूं। पहली सोच पारिवारिक मसले पर होती है और दूसरी सोच कामकाजी मसले पर। दूसरा कारण है शुगर कंट्रोल रखने की जुगत। इसके तहत प्रतिदिन जहां करीब चार किलोमीटर की सैर है, वहीं मीठे से एकदम परहेज। खैर पंडितजी की कुछ बातों से मैं इत्तेफाक रखता हूं और मानता हूं कि शायद मेरे शरीर पर 'अति' का असर है। शादी-ब्याह में हंसी-ठिठोली का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि मन की किया करें। यानी कभी जोर-जोर से हंसना है, कभी गुनगुनाना है और बिना परवाह किए कभी चुटकुले सुनना और सुनाना है। मैं इन सारी बातों से इत्तेफाक रखता हूं, लेकिन ऑफिस परिवेश में कुछ तो डेकोरम होता है। जहां तक एनर्जिक रहने की बात है, मेरी इच्छा है कि हर व्यक्ति ऐसा रहे। कोई लुंज-पुंज जैसा न हो। काम दिया और पहला शब्द हां होना चाहिए, शिकायतें बाद में। वैसे पंडित जी के साथ कई बातें होती हैं। पूजा-पाठ में भी उनके साथ कई बार भागीदारी रही है। परोपकार और निस्वार्थ यथासंभव सेवा के प्रति उनके भाव अनुकरणीय हैं। यह इत्तेफाक है कि जिस दिन उन्होंने ये बातें बताईं, उससे कुछ दिन पूर्व ही एक डॉक्टर से काउंसलिंग के बाद मैंने 'मस्त' रहने का फैसला किया था। असल में कई बातें होती हैं, जिन्हें जानते सब हैं, लेकिन व्यवहार में कई कारणों एवं किंतु-परंतुओं के चलते पालन नहीं कर पाते।

मैं अपने सोच के स्तर की कुछ कमियां गिना दूं। पहला, परिवार में अगर कोई ठीक से बात नहीं करता तो मैं घंटों, महीनों मंथन करने लगता हूं। कोई व्यक्ति अगर कहीं अपनी कार पार्क करता हो और किसी दिन वहां कोई और व्यक्ति कार पार्क कर दे तो मैं तनाव में आ जाता हूं, जबकि मेरा दोनों में से किसी से कोई खास लगाव या ताल्लुकात नहीं। ऑफिस का काम हो या किसी पारिवारिक समारोह का, सारा काम खुद पर उड़ेल लेता हूं, जाहिर है इससे दिक्कतें ही बढ़नी हैं और बढ़ती हैं। कभी हंसी-मजाक कर लूंगा तो फिर सोचने लगता हूं कि कहीं इस मजाक का नकारात्मक असर तो नहीं। कई बार सोचता हूं कोई ऐसा काम ही न करूं जिस पर पछतावा हो, फिर मानवीय स्वभाववश करता भी हूं तो फिर महीनों तक सोचता रहता हूं। कोई मेरी नमस्ते पर अच्छा रेस्पांस न दे तो उस पर भी सोचने लगता हूं। फिर अपनी तरफ से कोशिश करता हूं कि मैं तो ठीक बना रहूं। ऐसे ही बेवजह की बातें हैं। वैसे अब मैंने खुद को बहुत बदला है और उस बदलाव का असर भी मुझे महसूस हो रहा है। खैर...

यह भी इत्तेफाक है कि इसी चर्चा के दौरान मुझे पुस्तक 'बड़ा सोचें, बड़ा करें' पढ़ने को मिली थी। समीक्षार्थ। उसमें भी कुछ बातें बड़ी गजब की हैं। कुछ-कुछ पंडित अनिरुद्ध जी से बातचीत से मिलती जुलती हैं। उसकी कुछ बातें यहां लिख रहा हूं। उसमें एक महत्वपूर्ण संदेश है, 'अहं एक बुलबुला है। इसे फोड़कर सच्चाई जानने के बजाय हम अपनी ज्यादातर ऊर्जा इसकी रक्षा करने में लगा देते हैं।' मैं चाहता हूं कि इस बात को हर कोई समझे। साथ ही यह भी सोचता रहता हूं कि कई बार कुछ लोग क्यों मुझसे द्वेष रखने लगते हैं। फिर इसे भी पार्ट ऑफ लाइफ मानकर खुद को शांत करता हूं। इसी पुस्तक में एक जगह लिखा गया है, 'आदतें हमें उर्वर बनाती हैं, लक्ष्य हमें बंजर बनाते हैं।' लेखक कहता है लक्ष्य छोड़ो आदत बनाओ। आदत पढ़ने की, आदत जानकारी जुटाने की। एक जगह लेखक ने लिखा है, 'शिकायत करने से कभी किसी की समस्या नहीं सुलझती है।' यह बात मुझे अच्छी लगती है और आज तक किसी की शिकायत नहीं की। बल्कि कई बार दूसरों की गलती को अपने माथे पर मढ़ा है।

बातों-बातों से बातें निकलती हैं, ऐसी ही यह बात भी थी। कुछ समझने और कुछ सीखने का अवसर मिल जाए और वह सार्थक हो तो क्या बात। यही दुआ है कि ये बातें होती रहें।

गुरुजी की वह बात याद है, जब उन्होंने कहा था वाह वाह मेरा मन

यहां बता दूं कि एक बार अनिरुद्ध के सौजन्य से ही डीएवी कॉलेज के कार्यक्रम में जाने का मौका मिला। वहां गुरुदेव ब्रह्मर्षि गुरुवानंद जी मुख्य अतिथि थे। उन्होंने बच्चों से दोनों हाथ फैलाकर खुलकर बोलने के लिए कहा, वाह वाह मेरा मन। एक दो बार की कोशिश के बाद सबको ऐसा करने में आनंद आया। उन्होंने कहा कि अपने मन से बढ़कर कुछ नहीं। मन की सुनिए। मन की कीजिए और अपने नजरों से कभी मत गिरिए। इसी दौरान उन्होंने कहा कि संकल्प लें तो उस पथ पर पूरी निष्ठा से चलें क्योंकि संकल्प में विकल्प नहीं होता। यहां मैंने महसूस किया है कि मैंने कई बार संकल्पों में विकल्प ढूंढ़ा है। उस कार्यक्रम के बाद खुद को कई बार अलर्ट किया है और गुरुजी को याद किया है। वाकई उनके स्मरण से कई सकारात्मक चीजें हुई हैं।

1 comment:

Anonymous said...

बेहतरीन पोस्ट । शुभकामनाएँ