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Sunday, April 13, 2025

हेमंत पाल जी : व्यक्तित्व, कृतित्व और फ्लैशबैक

केवल तिवारी

चूंकि यह कोई औपचारिक लेखन नहीं है, इसलिए इसे अपने अंदाज में ही लिखूंगा। इस अनौपचारिक ब्लॉग लेखन में बात वरिष्ठ पत्रकार, लेखक हेमंत पाल की। उनके साथ कुछ 'फ्लैशबैक नाता' है। एक तो यह कि वह मध्य प्रदेश के प्रतिष्ठित दैनिक नईदुनिया में लंबे समय तक रहे, मैं भी उसी अखबार के दिल्ली केंद्र में कुछ समय रहा। उनके लेखन को मैंने पहले भी पढ़ा है। अब वह हमारे अखबार दैनिक ट्रिब्यून के नियमित लेखक हैं। एक साल पहले उनसे इंदौर में मुलाकात हुई। वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार नरेंद्र निर्मल की बिटिया की शादी समारोह में। मुलाकात का जरिया बने हमारे अखबार के सहायक संपादक अरुण नैथानी जी।



अब बात हेमंत पाल जी के फ्लैशबैक की। थोड़ी देरी हुई उनकी इस रचना के बारे में लिखने में। फिल्मी दुनिया पर आधारित उनकी इस किताब को नयी दिल्ली स्थित भारत मंडपम से फरवरी में विश्व पुस्तक मेले के दौरान ही खरीद लिया था, लेकिन बीच में दो किताबें मुझे अपने कार्यालय से मिली थीं, समीक्षा के लिए। उनकी समीक्षा कर दी फिर कुछ पारिवारिक व्यस्तताओं में रहा। इस बीच, समय मिलते ही पूरी किताब पढ़ डाली। किताब के बारे में लिखने से पहले बता दूं कि हेमंत जी अक्सर हमारे अखबार के मनोरंजन मैग्जीन के लिए लिखते हैं। अन्य कई जगह भी उनका लेखन चलता है। वह जितना अच्छा लिखते हैं, उतने ही बेहतर मिलनसार व्यक्ति हैं। पहली औपचारिक मुलाकात में ही छा जाने वाले। अब बात पुस्तक 'फ्लैशबैक' की। 

पुस्तक का पूरा नाम है फ़्लैश बैक (फिल्मी कथानकों के इतिहास का लेखा-जोखा) कवर पेज आकर्षक है। रील जैसी छवि में तीन पोस्टर हैं। कुल 24 अध्यायों वाली इस किताब में लीक से हटकर फिल्मी जानकारी है। कह सकते हैं कि गागर में सागर भर दिया है। फिल्में चल पड़ने कि कोई सेट फार्मूला नहीं है। खूब लंबी फिल्में बनीं, दो-दो इंटरवल वाली। छोटी भी बनीं। कथानकों को लेकर भी विविध प्रयोग हुए। गीतों से भरपूर फिल्में भी बनीं। सच्ची घटनाओं पर भी फिल्म बने, विषयों पर भी विविधता दिखी। बात चाहे होली के रंगों की हो, भूत-प्रेत की कहानियां हों, सस्पेंस की हो या कुछ और... हेमंत जी ने आम जानकारी से हटकर सामग्री पेश करने की सफल कोशिश की है। कुल 24 अध्यायों वाली यह किताब पठनीय और संग्रहणीय है। प्रकाशक का नाम है, न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नयी दिल्ली। मुद्रक, सूरज प्रिंटर्स और लेआउट नितिन पंजाबी (बीएस ग्राफिक्स, इंदौर) फिल्मी दुनिया पर इस बेहतरीन किताब के लिए हेमंत जी को हार्दिक बधाई।






यादों के खजाने में एक और आभूषण, अपनेपन का भव्य समारोह

केवल तिवारी

अपनों का आना, खुशियों को मनाना

कुछ बातें बनाना, कुछ सुनना-सुनाना।

नयी पीढ़ी को संस्कार भी हैं सिखाना

'भव्य' कार्यक्रम में जनेऊ धारण करना।


आगंतुक बने बदलते मौसम के गवाह

सबको भायी चंडीगढ़ की हरियाली राह।

दो-तीन दिन फुर्र हुए, और भी रहीं चाह

अब यादों को समेटे कह रहे हैं वाह-वाह।



उक्त पंक्तियां अभी अनायास निकल गयीं, जब एक पारिवारिक, सांस्कारिक समारोह के संबंध में अपने इस ब्लॉग की रूपरेखा बना रहा था। असल में गत नौ अप्रैल को बालक भव्य जोशी का जनेऊ संस्कार हुआ। भव्य जी के पिता भास्कर जोशी और मेरी पत्नी भावना जुड़वां भाई बहन हैं। इसलिए इस कार्यक्रम की कड़ी ऐसी ही हुड़ती हुई मिलेंगी। इसमें एक और रोचक है कि भव्य और मेरा बेटा धवल लगभग समान उम्र के हैं और अभी एक ही स्कूल और एक ही क्लास में पढ़ते हैं। पहले कार्यक्रम जनवरी में तय था। लगभग तैयारी भी हो गयी थी, हरिद्वार जाने की योजना थी। फिर कहते हैं न कि होई हैं वही जो राम रचि राखा। साथ ही यह भी कि 'ईश्वरं यत करोति शोभनम करोति।' वही हुआ। सब ठीक हुआ, मेरा उपस्थित रहना इसलिए मुश्किल लग रहा था कि मेरा लखनऊ जाने का कार्यक्रम बन चुका था। फिर कुछ ऐसी परिस्थितियां बनीं कि लखनऊ जाना टला और इस कार्यक्रम का गवाह बना। हल्द्वानी से आए साढू भाई सुरेश पांडेजी उनकी माता जी, उनकी पत्नी, बड़ी भाभीजी, उनकी बेटी, शेखरा दा उनकी पत्नी उनके सुपुत्र। गुड़िया दीदी, उनका बेटा और बेटी। (स्पष्ट है कि सभी आगंतुक ससुराल पक्ष की कड़ियों से जुड़ी कड़ी हैं)। साथ में भास्कर और प्रीति के पड़ोसी।


हंसी-मजाक और कुछ सैर सपाटा

कार्यक्रम की शुरुआत से ही हंसी-मजाक चलती रही। पांडेजी और मैं 'सेंट्रल सब्जेक्ट' रहे। फूफा की श्रेणी के हम दोनों ने भी इसे खूब एंजॉय किया। अपने पास कोई खास काम नहीं था, इसलिए बातों में ही ज्यादा मशगूल रहा। हालांकि कभी-कबार मन में कुछ-कुछ चलता रहा, लेकिन इस कुछ-कुछ को हावी नहीं होने दिया। खूब बातें कीं। लोगों के विचार भी जानने को मिले। कुछ कहानियों और कविताओं के सब्जेक्ट भी मिल गये। भव्य चूंकि बहुत हंसमुख, चंचल है तो उसने भी सबका मन लगाकर रखा। धवल और भव्य भले नेचर में थोड़ा अलग हों, लेकिन दोनों में एक बात कॉमन है कि दोनों मेहमानों के आने पर खुश होते हैं और चाहते हैं कि सब एकसाथ कुछ समय रहें। कोशिश भी की गयी कि बच्चे ग्रुप में कुछ समय साथ रहें। ऐसे में नेहा के नेतृत्व में मृत्युंजय, ईशू, श्रद्धा के साथ इन दोनों बच्चों ने अच्छा समय व्यतीत किया। कुछ समय इसमें सिद्धांत जोशी उर्फ सिद्धू की भी भागीदारी रही। बच्चों के लिहाज से इसे 'Quality time expend' कहा जा सकता है। इसी दौरान घूमने का कार्यकम बना। लगभी सभी लोग रॉक गार्डन, रोज गार्डन, सुखना लेक और शाम को प्रेस क्लब गये। विस्तार से लिखने के बजाय इस ब्लॉग के अंत में उसकी कुछ फोटो साझा करूंगा। बातों-बातों में उनकी बातें भी हुईं जो समारोह में नहीं पहुंच पाए।


मनोज पंडित जी द्वारा मेरे घर भी पाठ

जनेऊ संस्कार समारोह को संपन्न कराने के लिए हल्द्वानी से मनोज पंडित जी पहुंचे थे। वह पांडेजी की माताजी, शेखरदा, लवली भाभी और सिद्धू के साथ मुख्य समारोह की पहली शाम पहुंच गए थे। जनेऊ के अगले दिन हम लोग पंचकूला स्थित माता मनसा देवी मंदिर गए। पंडित जी ने रास्ते में मुझसे कहा कि एक छोटा सा पाठ कर देते हैं। अपने बड़े बेटे कुक्कू के निमित्त में ऐसा चाहता भी था। अचानक बने इस कार्यक्रम को संक्षिप्त लेकिन दिल को खुश करने वाला कह सकते हैं। पूर्णमासी, शनिवार की सुबह घर में हुए इस कार्यक्रम से बहुत तसल्ली मिली। ईश्वर से प्रार्थना है कि सबको स्वस्थ रखें। शनिवार को मेरे घर में पूजा के बाद भास्कर के यहां सुंदरकांड पाठ का आयोजन हुआ। समवेत स्वर में सुंदरकांड पाठ से दिन बन गया। प्रीति की बहन गुड़िया दीदी और लवली भाभी द्वारा बजाये गए ढोल की थाप पर सभी ने एक साथ पाठ से जो भक्तिमय माहौल बनाया वह अविस्मरणीय है।


और फिर लग जाना अपने काम में

आखिरकार मनुष्य तो कर्म के अधीन है। कर्म करते रहेंगे तो अगले ऐसे ही किसी यादगार कार्यक्रम के तैयार होंगे। कर्म प्रधान होने के नाते शनिवार शाम होते-होते आगंतुकों के जाने की शुरुआत हो गयी। रविवार सुबह तक एक बड़ी अपने गंतव्य तक पहुंच गयी। हम सब लोग भी अपने-अपने काम में लग गए। लेकिन इस बीच फोटो, वीडियो का आदान-प्रदान जारी हैं। उन्हें देखते-देखते कुछ बातें भी साझा की जा रही हैं। बातें होती रहेंगी। कार्यक्रम सच में यादगार रहा। भव्य को हम सबकी ओर से ढेर सारा प्यार, आशीर्वाद, शुभकामनाएं। भास्कर-प्रीति ऊर्फ राजू-पिंकी को बहुत-बहुत बधाई।






























Monday, April 7, 2025

पर्वों की परंपरा महान, जीवों का भी पूरा ध्यान

केवल तिवारी 



हाल ही में चैत्र नवरात्र संपन्न हो गये। इस अवसर पर अलग-अलग दृश्य देखने को मिले। व्रत के वैज्ञानिक पहलुओं पर तो अनेक बार चर्चा हो ही चुकी है। मौसम के संधिकाल में डीटॉक्स होने के लिए ऐसे मौकों पर व्रत का प्रावधान है। बात चाहे चैत्र नवरात्र या वासंतिक नवरात्र की हो अथवा शारदीय नवरात्र की। बेशक आज व्रत का स्वरूप बदल गया है, लेकिन उसका प्रतीक तो है। इस प्रतीक में ही बहुत कुछ तत्व अब भी छिपा है। इस पर ज्यादा चर्चा नहीं। व्रत के अलावा दूसरा दृश्य है पूजा-अर्चना की। लोग बहुत-बहुत देर तक मंदिर या घर में बैठकर पूजा अर्चना करते हैं। मंदिरों में कतारों में लगते हैं। कोशिश करते हैं कि क्रोध न करें। देर तक ध्यानमग्न होना, किसी को बुरा न कहना या न सोचना, ये सभी अध्यात्म के ही तो रूप हैं। इसके अलावा दूसरे दृश्य में कुछ लोगों को खेतड़ी (घर में उगाया गया पंच अनाजा या सतअनाजा) को विसर्जित करते हुए भी देखा। जानकार कहते हैं कि अंकुरण के कुछ दिन के बाद ऐसे पौधे या उन पौधों की जड़ों को जलीय जीव-जंतु बहुत चाव से खाते हैं। बात चाहे श्राद्ध पक्ष में पंछियों एवं गायों को दिए जाने वाले भोजन की हो या फिर विसर्जन सामग्री में शामिल खेतड़ी, जौ, तिल एवं अक्षत यानी चावल के दाने, ये सब पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम, उनके भोजन की व्यवस्था का भाव ही इसके पीछे छिपा है। कहीं-कहीं रंगोली बनाने के पीछे भी यही भाव है। दक्षिण में नियमति रूप से घर के बाहर गेहूं या चावल के आटे की रंगोली बनाई जाती है, इसे चींटियां या अन्य कीट-पतंगे खाते हैं। इसी तरह उत्तर में भी कई जगह चावल को पीसकर गेरू की लिपाई पर रंगोली बनाई जाती है। कुछ त्योहार विशेष तौर से कौओं के लिए होते हैं। उत्तरायणी पर्व पर अनेक जगह कौओं को खिलाने का रिवाज है। सनातनी धर्म व्यवस्था में पशु-पक्षियों के प्रति स्नेह के ऐसे अनेक उदाहरण हैं। कुछ खास व्रत-पर्वों पर कुत्तों को भोजन देने का रिवाज है। इस नवरात्र पर ऐसे ही अनेक दृश्य देखे, जिनपर मंथन किया। कई साल पहले कन्या पूजन और उनको भोजन देने पर एक जानकारी जुटाई थी, तब भी ऐसा ही ब्लॉग लिखा था, इसके अंत में उसका लिंक साझा कर रहा हूं।


जबरन न खिलाइये गायों को

बेशक पशु-पक्षियों के लिए त्योहारों का महत्व हो, लेकिन ध्यान रहे कि जानकार कहते हैं कि पशुओं को जबरन न खिलाइये। कुछ लोग खास मौकों पर पूड़ी, हलवा, सब्जी बनाकर ले जाते हैं और गाय को खिलाने का जतन करते हैं। ऐसे अवसरों पर उन्हें इतना ज्यादा तला-भुना खिला दिया जाता है कि उनके स्वास्थ्य पर बन आती है। कई जगह गायों को चारा देने का भी रिवाज है। अच्छा हो अगर गौशाला प्रबंधकों को सामग्री दे दें या कुछ धन ताकि वे लोग वैज्ञानिक तरीके से गायों के लिए चारा या अन्न लाकर दे सकें।


पंछियों के घौसलों में मत रखिए दाना

पंछियों के लिए दाना आप पार्कों, खेतों में डाल सकते हैं, लेकिन ध्यान रहे कि उनके घौंसले में इन्हें कदापि न डालें। उनकी दिनचर्या ही है कि वे खुद दानों की तलाश में निकलती हैं और खुद के लिए एवं अपने बच्चों के लिए इसे लेकर आती हैं। कई बार घौंसलों में उनके बच्चे या अंडे होते हैं। मान्यता है कि यदि मनुष्य उन्हें छू ले तो पंछियों को वह घर डर के मारे छोड़ना पड़ता है। इसलिए दाने कहीं बिखेर दीजिए, लेकिन बेहतर हो अगर घौंसले का दीदार दूर से ही कर लें।


पानी के लिए मिट्टी का बर्तन जरूरी

यदि पंछियों के लिए पानी रखना चाहते हों तो मिट्टी का बर्तन सर्वथा उचित माना जाता है। कुछ लोग प्लास्टिक के बर्तनों में पानी रखते हैं जो कतई उचित नहीं है। यूं तो धातु के बर्तनों में भी पानी नहीं रखना चाहिए क्योंकि उनमें रखा पानी बहुत गर्म हो जाता है, लेकिन अगर रखना ही पड़ जाए तो प्लास्टिक से बेहतर स्टील या अन्य धातु के बर्तन हैं, लेकिन सबसे उपयुक्त हैं मिट्टी के बर्तन।

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Sunday, April 6, 2025

यही है जीवन सार

केवल तिवारी



वैसे तो सूखी टहनी हूं, काम के नाम पर पेड़ हूं फलदार
जेहन से उखाड़कर पत्थर पर रोपा था, राहें थीं कांटेदार
संघर्ष ही जीवन है, इस शिक्षा को सुना नहीं, मैंने था देखा
चलते रहो अपने पथ पर, बनेगी जरूर कोई भाग्य रेखा
मां, भाई-बहनों से सीखा, चलते रहने का सबक
जीवन पथ पर चलते रहेंगे, सांसें हैं जब तक
पतझड़ और वसंत बहार, ये तो हैं जिंदगी के यार
सफलता की राह में, कभी इधर तो कभी उस पार।
जीवन का है सार यही, अपनों के साथ रहो सही
गलत-वलत सब भ्रम है, जीवन का मतलब श्रम है।
हम रुकेंगे, पर वक्त नहीं थमेगा
ये जीवन तो चलता रहेगा।
अपनेपन को रखो बरकरार
बातें यूं ही होती रहेंगी दो-चार।
मन में अचानक आए कुछ उदगार
लिखते-लिखते निचुड़ ही गया सार
स्वास्थ्य आपका पहला मित्र, दूजा परिवार
अकेलेपन को क्यों ओढ़ते हो, मिलकर चले संसार।

Friday, April 4, 2025

याद हैं न मनोज कुमार यानी भारत कुमार की फिल्मों के वे सदाबहार गीत... हर कोई कह रहा है, मैं न भूलूंगा, मैं ना भूलूंगी...

केवल तिवारी

मशहूर अभिनेता मनोज कुमार नहीं रहे। उन्हें भारत कुमार भी कहा जाता था। उनकी फिल्में तो लाजवाब थी हीं, फिल्मांकन गीत भी एक से बढ़कर एक। कौन नहीं जानता उन गीतों को।
फोटो साभार: सोशल मीडिया 

 आज एक बार फिर उन गीतों की याद आ गयी है। बताया गया कि यूट्यूब पर भी उनके गीतों को खूब सर्च किया गया। बात परेशानी के समय की हो या खुशी या फिर देशभक्ति की, मनोज कुमार की फिल्मों के गीतों ने सबको मोहा ही है। तब भी और आज भी। एक गीत के बोल थे, 'लग जा गले।' यह 1964 में आई फिल्म 'वो कौन थी?' इसी तरह उनकी एक फिल्म का गीत, 'चांद सी महबूबा होगी मेरी' भी खूब चर्चा में रहा। बाद में इस गाने की तो कई पैरोडी भी बनी। यह गीत वर्ष 1965 में तैयार फिल्म 'हिमालय की गोद में' का था। इसे हिमालय की लुभावनी पृष्ठभूमि में फिल्माया गया था। जोश भर देने वाला गीत 'ओ मेरा रंग दे बसंती चोला' तो आज भी खूब बजता है। वर्ष 1965 की फिल्म 'शहीद' के इस गीत को मुकेश ने गाया था। महेंद्र कपूर, लता मंगेशकर और राजेंद्र मेहता ने भी इस गीत को अपनी आवाज दी है। अब जिस गीत की हम चर्चा कर रहे हैं, वह तो जैसे मनोज कुमार नाम का पर्याय ही बन गया था। गीत के बोल हैं, 'मेरे देश की धरती सोना उगले।' वर्ष 1967 की फिल्म उपकार का यह गीत हर भारतीय की जुबां पर चढ़ गया। अब बात करें रोमांटिक मनोज कुमार की। उनकी फिल्म पत्थर के सनम का सदाबहार गीत, 'तौबा ये मतवाली चाल' लाजवाब था। एक अन्य गीत के बोल हैं, 'पत्थर के सनम।' भारत कुमार के तौर पर उनकी फिल्म का एक और मशहूर गीत है, 'है प्रीत जहां की रीत सदा' वर्ष 1970 में रिलीज फिल्म 'पूरब और पश्चिम' का यह गीत दिल को छू लेने वाला है, जिसके बोल प्रेम धवन ने लिखे हैं। महेंद्र कपूर ने इसे भावपूर्ण ढंग से गाया है। अब एक अन्य गीत को भी सदा और सदा बहार कहा जा सकता है। इसके बोल हैं, 'एक प्यार का नगमा है।' वर्ष 1972 में रिलीज फिल्म 'शोर' में मनोज समुद्र किनारे वायलिन बजाते हुए नजर आ रहे हैं। एक अन्य गीत के बोल तो आज भी मौजूं है, 'महंगाई मार गई।' वर्ष 1974 में रिलीज फिल्म 'रोटी कपड़ा और मकान' के इस गीत को लता मंगेशकर और मुकेश ने गाया है, जो आम आदमी के सामने आने वाली कठिनाइयों पर प्रकाश डालने के लिए लोकप्रिय हुआ। कुल 10 लोकप्रिय गीतों की अंतिम कड़ी का मशहूर गीत है, 'मैं ना भूलूंगा।' सच में आज मनोज कुमार के लिए हर कोई यही कह रहा होगा। सादर नमन

Wednesday, March 12, 2025

धवल का 16वें बरस में प्रवेश

केवल तिवारी

प्रिय धवल, खूब खुश रहो। इस 10 मार्च को तुम 16वें में प्रवेश कर गए हो। यानी 15 साल के हो गए। हर बार की तरह वह दौर याद आता है जब तुम हुए थे। वसुंधरा में हम लोग रहते थे। कुक्कू प्रार्थना करता था कि मेरा भैया हो जाये। मासूमियत का वह दौर। पिछले दिनों किसी मौके पर तुमने कहा था कि मैं बच्चा ही बना रहता चाहता हूं। बिल्कुल। वही बने रहो। फिर हमारे लिए तो हमेशा रहोगे ही। 










खैर... इन सब बातों से सबसे महत्वपूर्ण और हमारे लिए गर्व का पल है कि इस बार तुम दसवीं की बोर्ड परीक्षा दोगे। एक समय होता था जब हम लोग बोर्ड परीक्षा वाले साल में होते थे तो हर कोई समझता था कि बच्चा ठीकठाक कर ले गया। कुछ बच्चे तो इसके आगे पढ़ाई नहीं कर पाते थे। या तो घर के हालात के कारण या फिर कोई प्रोफेशनल कोर्स जैसे आईटीआई या पोलिटेक्निक में एडमिशन लेने के कारण। हमारे लिए सचमुच यह पल भावुक है। इतना भावुक कि शायद शब्दों में उसे बयां न कर पाऊं। धवल, मैं और मम्मा कभी-कभी तुम्हारे कुछ अवगुणों को सुधारने के लिए तुमसे बात करते हैं, कोशिश करो उन पर अमल करने की। इस बार स्कूल में जब हम लोग पीटीएम में गए तो कई बातें ऐसी हैं जिन्हें हम-तुम जानते हैं, लेकिन शायद इग्नोर कर जाते हैं। कुछ चीजों में अब नियंत्रण बहुत जरूरी है। टाइम मैनेजमेंट करना बहुत जरूरी है। जल्दी ही मैं एक रफ टाइमटेबल बनाऊंगा। उसमें तुम कुछ अमेंडमेंट करना चाहो तो ठीक, नहीं तो वही चलने देंगे। उससे पहले तुम्हारा फिटजी या फिजिक्स वाला फाइनल देखना है। यूं तो तुम्हारे पास समय ही कम होगा, लेकिन कैसे मैनेज करना है, वह देखना होगा। ऑफिस में मेरी किसी से बात हो रही थी, कुछ लोगों ने कहा कि सोशल मीडिया से बच्चे को अब दूर रखना होगा। मैंने बहुत गर्व से कहा कि मेरा बच्चा किसी सोशल मीडिया में एक्टिव नहीं है। उसका कोई निजी फोन भी नहीं है। दसवीं के बाद तुम्हें फोन दिलाएंगे ताकि तुम कई जगह खुद ही आना जाना कर सको और हमारे लगातार संपर्क में रहो। अभी ज्यादा नहीं लिख पाऊंगा। भावुक पल हैं। खूब खुश रहो और स्वस्थ रहो। ईश्वर और बड़ों का तुम पर आशीर्वाद बना रहे। आज तुम्हारे बचपन की कई वीडियो देखीं। कुछ पुरानी फोटो भी देखीं। समय यूं ही चलता रहे।

नोट : यह पत्र तुम्हें बर्थडे पर गिफ्ट करने के लिए लिखा था, लेकिन दिल्ली जाने के कार्यक्रम के कारण प्रिंट नहीं निकाल पाया। दिल्ली से आने के अगले दिन तुम्हारा बर्थडे था। मन से बहुत खुश था। इसीलिए पूरे दिन सजावट में लगा रहा। इससे पहले कुक्कू भैया को लेकर अस्पताल जाने तक थोड़ा परेशान था, लेकिन जब डॉक्टर से मिलकर आए तो राहत मिली। खुशी-खुशी बर्थडे मना। रात में एक विवाह कार्यक्रम में तुम्हारे साथ जाना अच्छा लगा और अपने जानकारों से तुमको मिलवाना बहुत अच्छा लगा। ऐसे ही स्वस्थ रहो। खुश रहो। हमारे परिवार में हम सबका आपस में प्यार ही हम लोगों में एक-दूसरे के लिए गिफ्ट है। सुबह-सुबह तुम्हारा फोन देखना और किसी का मैसेज एवं फोन न देखकर उदास होना भी रोमांचक लगा क्योंकि यह रोमांच एक समय तक ही रहता है, लेकिन हमारी ओर से हमेशा बना रहेगा। खुश रहो बेटे। भैया ने तुम्हारे लिए बहुत कुछ मंगाया। यह पल भी मेरे लिए गर्व करने वाला था। दोनों बच्चे स्वस्थ रहें और तुम्हारी मम्मा प्रसन्न रहे, यही कामना है। 
तुम्हारा पापा

Saturday, March 1, 2025

मेरे अंगना भी आया बसंत...






केवल तिवारी 

मेरे अंगना भी आया बसंत
थोड़ा सा गमलों में
कुछ-कुछ क्यारी में
हल्का-हल्का मन में
अंगड़ाई सी तन में
मेरे अंगना भी आया बसंत, थोड़ा सा गमलों...
आम बौराया सा है
चर्चाओं में छाया सा है
राग सुना-सुनाया सा है
मन में समाया सा है
मेरे अंगना भी आया बसंत, थोड़ा सा गमलों...
ससुराल से आया जिरेनियम
नर्सरी से मनी प्लांट
पड़ोस से तुलसी का पौधा
कुछ-कुछ हमने भी रोपा
मेरे अंगना भी आया बसंत, थोड़ा सा गमलों...
गेंदे में मुस्कुराहट है
सरसों में खिलखिलाहट है
गुलाब की आहट है
पुदीने में सरसराहट है
मेरे अंगना भी आया बसंत, थोड़ा सा गमलों...
हल्दी हमने बो दी है
नयी क्यारी खोदी है
पारिजात तैयारी में है
शमी, ब्राह्मी की भी बारी है
मेरे अंगना भी आया बसंत, थोड़ा सा गमलों...
देता बसंत नया संदेश
अपना घर हो या दूर देश
नयापन तो आयेगा ही
फागुनी खुमार छायेगा ही
मेरे अंगना भी आया बसंत, थोड़ा सा गमलों...
फाग की रवानी है
सतरंगी जवानी है
कुदरत भी दीवानी है
यही बात सबने मानी है
मेरे अंगना भी आया बसंत, थोड़ा सा गमलों...

Sunday, February 23, 2025

जी गये कोचर साहब... छोटी-छोटी बातों की है यादें बड़ी

केवल तिवारी

एक फिल्मी गीत में एक-दो पंक्तियां बड़ी दार्शनिक सी हैं। इनके बोल हैं, 'छोटी-छोटी बातों की हैं यादें बड़ी, भूलें नहीं बीती हुई एक छोटी घड़ी।' सच में, जिन महानुभाव का मैं यहां जिक्र कर रहा हूं, उनके संबंध में मेरे लिए छोटी सी घड़ी ही है याद करने की। 


उनका नाम है तिलकराज कोचर और अब नाम के आगे स्वर्गीय जुड़ गया है। उम्र की सुई 94 पर पहुंचने ही वाली थी कि पिछले दिनों वे इस नश्वर संसार से विदा ले गये। मेरे लिए उनका तात्कालिक परिचय है कि वह हमारे संपादक नरेश कौशल जी के समधी थे। उनके बारे में लिखने का मुख्य कारण है उनका जिज्ञासु प्रवृत्ति का होना। दो-तीन साल पहले वह दैनिक ट्रिब्यून न्यूज रूम में पहुंचे थे। अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस वक्त भी वह 91 या 92 के होंगे। ठीकठाक उम्र। वह मेरे बगल में ही बैठे। संक्षिप्त परिचय के बाद अखबारी दुनिया यानी खबर आने से लेकर अखबार के छपने तक की प्रक्रिया को समझने लगे। पता चला कि वह मशीन सेक्शन भी देखने गए। कमाल है। मैं तो दंग रह गया और उन युवाओं पर लानत भेजने लगा जो हमेशा इस मुगालते में रहते हैं 'अहं ब्रह्मास्मि।' यानी मैं तो सबकुछ जानता हूं। सर्वज्ञ कौन होता है। इस बात को मानने वाले भी कितने होते हैं। बातों-बातों में पता चला कि तिलकराज जी अपने जमाने के इंजीनियर रहे हैं। एमईएस में उन्होंने लंबी सेवा दी है। जानकारी जुटाने के शौकीन हैं। अध्यात्म का उन्हें ज्ञान है। दवाओं की बड़ी जानकारी है। नित कई अखबार पढ़ते हैं। प्रथम पृष्ठ से लेकर संपादकी और ओपएड पेज से होते हुए अंतिम पृष्ठ तक। इतनी जानकारी रखने वाले व्यक्ति को जरा भी दंभ नहीं। वह एक बच्चे की तरह जानने की इच्छा रखते हैं। कोचर साहब के भोग कार्यक्रम में, मैं भी गया। उनकी बहू यानी संपादक जी की बेटी शैलजा कौशल का संदेश आया था। शैलजा हरियाणा सरकार में अधिकारी हैं। मेरे लिए उनका यह परिचय है कि वह लिखती हैं और उनकी एक रचना के पुरस्कृत होने के मौके पर उस कार्यक्रम को कवर करने का मुझे मौका मिला था। तिलकराज जी के पुत्र रिजु भी बेहद विनम्र व्यक्ति। विंग कमांडर से सेवानिवृत्त और वर्तमान में इंडिगो में पायलट बेहद मिलनसार हैं। पिता के जाने का दुख हम सब समझ सकते हैं, लेकिन एक 'भरपूर उम्र' में जाने के बाद शायद इसे विधि का विधान ही कहा जा सकता है, लेकिन उनकी इंटीमेसी कितनी रही होगी, यह उस दिन शांति पाठ के दौरान उनके शब्दों से पता चला। उसी दौरान शैलजा ने जब बोलना शुरू किया तो मेरी आंखें भी नम हो गयीं। मैं अपने आंखों की नमी छिपाने के दौरान इधर-उधर देखने लगा तो देखा कि वहां बैठे कई लोग रुमाल से आंसू पोछ रहे हैं। शैलजा ने बताया कि कैसे पिताजी का उनसे दोस्ताना संबंध था। वह ऑफिस में होती थीं तो पिताजी का फोन आता और कुछ मंगाते। अपनी भावनाओं को व्यक्त करते-करते उनका गला रुंध गया और साथ बैठे उनके पति रिजु भी सुबकने लगे। तिलकराज के भाई ने भी अपनी भावनाओं को व्यक्त किया।

प्रार्थनासभा और पंडितजी
प्रार्थना सभा में पंडित जी ने जहां ओम (ऊं) उच्चारण के लाभ गिनाए, वहीं सांसारिक जीवन में कर्मों के महत्व को समझाया। तिलकराज ही और उनकी पत्नी उषा से मिले ज्ञान को साझा किया। उन्होंने बताया कि उषा जी उन्हें किताबें पढ़ने को देती थीं। कुछ साल पूर्व उनका निधन हो गया। पंडित जी ने प्रार्थना के दौरान कबीर, रहीम और अनेक महान हस्तियों का हवाला देते हुए रामराज परिकल्पना का मतलब बताया। उन्होंने कहा-
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥ सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
बेहद मधुर वाणी में उद्गार व्यक्त करते हुए पंडितजी को हर किसी ने बहुत मनोयोग से सुना। सामने रखी तिलकराज की तस्वीर और वहां जल रहा दिया। ऐसा लग रहा था तिलकराज जी तो अपने परिवार के आसपास ही हैं। अदृश्य होकर वह आशीर्वाद दे रहे हैं। ऐसा लगा मानो मुस्कुराते हुए कह रहे हैं, "सिर्फ़ ज़िंदा रहने को ज़िंदगी नहीं कहते।" तिलकराज जी को नमन।

Monday, February 10, 2025

एक महाकुंभ पुस्तकों का... मैंने भी लगाई डुबकी

 


केवल तिवारी

प्रयागराज महाकुंभ की चहुंओर हो रही चर्चा के बीच, पिछले दिनों पुस्तकों के एक महाकुंभ में मैंने भी डुबकी लगाई। नयी दिल्ली स्थिति प्रगति मैदान में बने भारत मंडपम में 25वें विश्व पुस्तक मेले में जाने का मौका मिला। दिल्ली में एक-दो काम थे, साथ ही इंदौर निवासी वरिष्ठ पत्रकार हेमंत पाल जी का भी आग्रह था कि पुस्तक मेला जाना हो तो मेरी पुस्तक 'फ्लैश बैक' भी देखना। पुस्तक मेले में गया तो खुश होने के कई कारण थे। एक तो किताबों के प्रति हर वर्ग के लोगों का अनुराग, दूसरे अनेक विद्वानों से मुलाकात और सार्थक चर्चा। कुछ भावुक बातें और कुछ यादों का भी दौर चला। सिलसिलेवार करता हूं चर्चा।

चंडीगढ़ से जब दोपहर के करीब भारत मंडपम के पास गया तो



















लंबी कतार लगी थी पुस्तक मेले में जाने के लिए। बेशक वह वर्किंग डे यानी कार्यदिवस था फिर भी लोग उमड़ रहे थे। मैं भी लग गया कतार में और पहुंच गया भारत मंडपम में। सबसे पहले मैं हॉल नंबर दस में गया। कुछ किताबें देखीं, फिर हॉल नंबर दो की तरफ चल दिया। वहां कुछ स्टॉल्स से किताबें खरीदीं और वहां आए लोगों से बातचीत करने लगा। घूमते-घूमते जब एक किताब 'उड़न छूं गांव' की खोज में इधर-उधर घूम रहा था तो एक आवाज आई। देखा तो बड़े भाई समान एवं वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार चारू तिवारी जी मुझे बुला रहे थे। उन्होंने 'दुदबोली' पत्रिका भेंट की और गैरोला जी से मुलाकात करवाई। साथ ही कुछ और साहित्यानुरागी मिले। इसके बाद कुछ देर हम लोगों ने वहीं बैठकर चर्चा की और चल दिए पुस्तक मेले का एक और दौरा लगाने। इस बीच कई प्रकाशकों के स्टॉल्स पर हम लोग गये। तभी एक जगह वरिष्ठ साहित्यकार रामशरण जोशी जी मिल गये। चारू जी के जरिये हमारी मुलाकात हुई। आजकल हर हाथ में मोबाइल रूपी कैमरा है तो कुछ फोटो भी खींचे। फिर हम चले गए आगे की ओर। बातों-बातों में मैंने पंकज बिष्ट जी का जिक्र किया। पंकज जी के अनेक उपन्यास पढ़े हैं। उनकी रचनाओं पर अनेक लोगों से चर्चा भी की है। वह लंबे समय से 'समयांतर' पत्रिका निकाल रहे हैं। गैर व्यावसायिक, लेकिन सारगर्भित। उनके साथ कुछ देर बात हुई। मैंने उनके स्वास्थ्य का हालचाल जाना तो उनकी एक पंक्ति में उत्तर देना अच्छा लगा कि जब तक पत्रिका चल रही है, तब तक हम भी चल रहे हैं। यानी लिखने-पढ़ने वालों की यही तो खुराक है। इसी दौरान चारू जी से विभिन्न मुद्दों पर बात होती रही है। चारू जी ने क्षेत्रीय पत्रकारिता के साथ ही उत्तराखंड के विभिन्न विषयों और रचनाधर्मियों पर शोध कार्य किया है। एक तरह से उन्हें उत्तराखंड का इनसाइक्लोपीडिया कहा जा सकता है। अपनी शोध प्रवृत्ति के कारण ही उन्होंने मुख्य धारा की पत्रकारिता जिसे बतौर रोजी-रोटी वह चला रहे थे, उससे किनारा कर लिया। खैर... बातों-बातों में हम लोग अनेक स्टॉल्स पर गये। इसी दौरान वरिष्ठ पत्रकार अनिल तिवारी जी मिले और साथ थीं उनकी बेटी गौरा। बाद में पता चला कि गौरा अच्छा लिखती हैं और एक-दो किताबों से उनको रॉयल्टी भी मिली है। पुस्तकों की इस खरीदारी के बाद मैं राजेश की बताई दो पुस्तकों की खोज में निकला। एक मिल गयी, दूसरी नहीं। समय तेजी से निकलता गया और अंतत: चारूजी से विदा लेकर मैं बाहर निकल आया। पुस्तकों के इस महाकुंभ में थोड़ी सी डुबकी लगाने की इस यात्रा को दिल में सहेजकर मैं लौट आया।

बेटे को किया फोन और वह भावुक पल

पुस्तक मेले में कुछ देर भ्रमण के बाद मैं थोड़ी देर के लिए भारत मंडपम परिसर के लॉन में आकर बैठ गया। तब तक खरीदी हुई पुस्तकों को बैग में ठीक से रखने लगा। इसी दौरान बड़े बेटे कार्तिक से पूछा कि कोई किताब तो नहीं लानी है। वह भी पढ़ने का शौकीन है। हालांकि कहीं भी जाता है तो अपने लिए खुद ही किताबें ले आता है। कई बार कुछ पुस्तकों के कथानक को लेकर मुझसे भी चर्चा करता है। एक-दो किताबें मुझे भी दी हैं। उसने कहा कि अभी फोन पर तो क्या बताऊं। लेकिन साथ ही एक भावुक बात भी की। उसने कहा, 'पापा आपको याद है कि जब बचपन में आप मुझे लाए थे तो मैंने एक मॉडल खरीदवाया था जिसके टुकड़ों को जोड़कर हमने अलग-अलग मॉडल बनाए थे।' (असल में जब वह चौथी या पांचवी में था, मैं उसे लेकर पुस्तक मेले में आया था। यहां बच्चों के एक स्टॉल पर उसे एक क्राफ्ट पीस पसंद आया जिसके टुकड़ों को जोड़कर चांद, बिल्डिंग, नाव आदि बनाई जा सकती थीं। वह कई साल तक उसके साथ प्रयोग भी करता रहा और मैंने उसे कुछ किताबें भी दिलवाईं।) मैं भावुक हो गया और उससे कहा कि हां मुझे याद है। उसने कहा कि देखना वैसा ही कुछ मिले तो धवल (उसका छोटा भाई यानी मेरा छोटा बेटा) के लिए ले लेना। मैं फिर अंदर गया। भरा बैग पीठ पर लदा हुआ था, लेकिन वैसा कुछ इस बार नहीं मिला। पर पुरानी बातों को याद कर मैं कब मेट्रो स्टेशन तक पहुंच गया पता नहीं चला और बैग के भार से कंधे दुखने का भी असर तब महसूस हुआ जब मैं मेट्रो में बैठ गया।

पुस्तक मेला और पैदल चलने के दौरान की कुछ तस्वीरें यहां साझा कर रहा हूं।