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Wednesday, December 17, 2025

अब उम्दा भी चले गए... उस जहां में भी आनंदित रहना उमेश

केवल तिवारी

एक माह के भीतर ही फिर एक मनहूस खबर आई कि खिलगजार उमेश दा इस जहां को छोड़कर चले गए। मैं भी उमेश दा कहता था। बल्कि उम्दा कहता था। इसमें मुझे अच्छा भी लगता था। उम्दा मतलब बेहतरीन। यह अलग बात है कि रिश्ते में वह मेरे भतीजे लगते थे। उनका अभिवादन का तरीका होता था, 'चाचसैप नमस्कार।' मुझे याद है वह जब पहली बार गांव में प्रधान चुने गए थे तो इत्तेफाक से मैं भी उन दिनों लखनऊ से गांव गया था। उनका चुनाव चिन्ह संभवत: कुर्सी था। उन दिनों शायद एक ही ग्रामसभा थी हमारे गांव में। अब तो दो गयी हैं। सरना और मलोटा। हो सकता है इन बातों में कुछ तथ्यात्मक गलतियां हों क्योंकि बेशक हमारे रिश्ते चाचा-भतीजा वाले हों, लेकिन वह मुझसे लगभग 15 साल बड़े थे। करीब पांच साल पहले जब भतीजा प्रिय विपिन कोविड की लहर में काल कलवित हुआ तो उम्दा का फोन आया था, सांत्वना जताने। क्योंकि उम्दा से चाहे जितना पुराना संबंध हो, विपिन के साथ गांव आने-जाने के क्रम में यह मित्रता बढ़ गयी थी। हम खिलगजार उनके घर जरूर जाते थे। वैसे भाभी जी (उम्दा की माता जी) और दाज्यू (उम्दा के पिताजी) से हमारे स्नेहिल संबंध रहे। उनके घर में होने वाली कथा और अन्य पूजन कार्यक्रमों की मुझे बहुत याद है। उनका आदेश देना और अन्य बातों पर बातों को साझा करना अच्छा लगता। खैर इस वक्त बात उम्दा की। प्रधानी के समय के अलावा मुझे उम्दा की दूसरी बात याद है जब वह डाबर घट्टी में 'सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान' के प्रोपराइटर थे। हम कहीं से भी आते तो वह दुकान हमारा अड्डा होती। ज्यादा सामान हुआ तो उनके दुकान पर रख दिया और घर को चल दिए। मैं तो उन दिनों चाय नहीं पीता था, लेकिन अगर मेरे साथ कोई होता तो वह जरूर वहां चाय पीता। उम्दा की कई बातें जेहन में उमड़-घुमड़ रही हैं। इसी क्रम में उनकी एक कमी का भी जिक्र करना जरूरी है। वह बहुत जल्दबाज सरीखे थे। मानो संदेश दे रहे हों कि भागते रहे, भागना ही जिंदगी है। कभी मेरा मन करता कि उनसे कहूं कि भागना, नहीं चलना ही जिंदगी है, लेकिन चूंकि उम्र में बड़े थे, इसलिए कहते हुए संकोच होता।

उम्दा संबंधी बातों का जिक्र होते-होते एक प्रकरण याद आ रहा है। करीब दो साल पहले हल्द्वानी में मैं और मेरी पत्नी पीली कोठी के लिए ऑटो में बैठे। उसी वक्त एक सुंदर युवक भी हमारे साथ बैठा। मैं और पत्नी कुछ बोल ही रहे थे कि उसने कहा कि आप लखनऊ वाले हो। मैंने कहा हां। वह बोला, मैं खिलगजार उमेश जी... अच्छा...अच्छा। मैंने समझा कि उनका कोई रिश्तेदार है। मैंने कहा, आपका नाम। वह बोला, विनोद तिवारी। भाजपा के किसी सम्मेलन की तैयारी में जुटा हूं। हमने नंबरों का आदान-प्रदान किया। उसके बाद विनोद कुछ प्रेस रिलीज और जानकारियों को भेजने लगा। अब जब पिछले दिनों उम्दा के निधन की खबर आई तो मैंने दिल्ली में अपने भतीजे प्रकाश से कहा कि उम्दा के बच्चों का नंबर दो। दो बोल सांत्वना के बोल दूंगा। उसने नंबर भेजा और कहा कि यह उनके बेटे का नंबर है। मैंने जैसे ही क्लिक किया, वह नंबर पहले से सेव था। तब पता चला कि जिसे मैंने भाजपा नेता के नाम पर सेव किया था, वह तो विनोद है, उम्दा का बेटा। असल में उम्दा के भाइयों हरीशदा, दीपदा या चचेरे भाइयों मदन, कृपाल एवं नवीन से तो बात होती रहती थी, लेकिन बच्चों से ज्यादा बातचीत का सिलसिला नहीं चल पाया। विनोद और पूरे परिवार को दिल से सांत्वना। दुख की इस घड़ी में मैं परिवार के साथ हूं। उम्दा अब तो आप चले ही गए हो, उस जहां में खुश रहना...।

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