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Saturday, September 5, 2009

गुदडी के लाल और प्रतियोगिता

पिछले दिनों एक स्कूल में दो प्रतियोगिताओं में निर्णायक mandal में मुझे भी बुलाया गया। पहले दिन भाषण प्रतियोगिता थी। दो वर्गों की। तमाम स्कूलों के बच्चे थे। सरकारी स्कूल के भी। आत्मविश्वास से लबरेज पब्लिक स्कूल के बच्चों के सामने सरकारी स्कूल के बच्चे कुछ सहमे-सहमे नजर आ रहे थे। कुछ के चेहरे से गरीबी साफ़ झलक रही थी। एक एक कर जब मंच पर बच्चे आने शुरू हुए तो में आश्चर्य चकित हो गया। बच्चों की तयारी तो अच्छी थी ही गुदडी के लाल भी चमक रहे थे चहक रहे थे। दो जगह मेरा मन बेईमानी करने को हुआ एक तो सीनियर वर्ग के एक बच्चे को देखकर। वो गरीब तो लग ही रहा था। कुछ और दिक्कत भी उसे थी। मसलन आंखों का भेंगापन कपड़े फटे हुए से और पुनर्वास कालोनी का लेबल। उससे पहले अनेक बच्चे अपनी योग्यता का परिचय दे चुके थे। दो जगह ऐसा मौका आया की बच्चे दो-चार लाइन बोलने के बाद अटकने लगे में उन्हें बोलने के लिए प्रोत्साहित कर रहा था लेकिन इस कार्य को निपटाने के लिए आए तमाम लोग मुझे ऐसे घूर रहे थे जैसे में इन्हें बोलने का वक्त देकर कुसूर कर रहा हूँ। उनकी नोकरी को लंबा खींच रहा हूँ। खैर दो-तीन घंटे में प्रतियोगिता खत्म हो गयी। परिणाम आया तो वो सरकारी स्कूल का छात्र सीनियर वर्ग में थर्ड आया। मेरे पक्षपात के कारण या अन्य जजों की इमानदारी के कारन यह में नहीं जान पाया।
करीब एक हफ्ते बाद फ़िर एक वाद-विवाद प्रतियोगिता में मुझे इसी भूमिका में बुलावा आया। दो वर्ग। यहाँ या तो हिम्मत न होने की वजह से या रूचि न लेने की वजह से सरकारी स्कूल की भागीदारी न के बराबर रही। प्रतियोगिता टक्कर की थी। कोई अपने को कम नहीं समझ रहा था। बल्कि एक दूसरे से ख़ुद को बड़ा समझ रहा था। तयारी अच्छी थी। बदकिस्मती से दो तीन बच्चियां सरकारी स्कूल से आयी थीं लेकिन उनमें यदि पक्ष वाली ठीक से तर्क देतीं तो विपक्ष कमजोर पड़ जाता। विपक्ष तगड़ा रहता तो पक्ष की कमजोरी उसे खा जाती। रिजल्ट आने के बाद ११ कक्षा की एक बछि रोने लगी। वाकई वो अच्छा बोली थी लेकिन यहाँ निर्णायक मंडल की एक मजबूरी ये थी की नम्बर ग्रुप में ही देने थे।
कुछ सुझाव में बिना मांगे इन स्थानों पर दे आया हूँ। मसलन वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में पक्ष विपक्ष को अलग जीत या हार का खिताब दिया जाए और सरकारी और पब्लिक स्कूल की प्रतियोगिता अलग अलग कराकर फ़िर कोम्बिनेद प्रतियागिता कराई जाए। निपटाने के अंदाज में ऐसी प्रतियोगिताओं का आयोजन न किया जाए। ya
to इन सुझाओं को अमल में लाने के लिए हो सकता है कोई कागज पत्तर आगे चलें या फ़िर हो सकता है आगे से मुझे निर्णायक मंडल में बुलाया ही न जाए। पर मुझे उम्मीद है कुछ न कुछ होगा जरूर।

1 comment:

सुधीर राघव said...

jo kiya bahut achch kiya. kafi din bad apke blog par kuch dikha.