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Sunday, June 20, 2010

कहानी बचपन

कहानी बचपन

शेखर वर्मा अपनी वर्तमान स्थिति से इस अर्थ में संतुष्ट है कि नौकरी अच्छी है। एक बच्चा है। बीवी भी घर पर ट्यूशन पढ़ाती है। लेकिन नौकरी की व्यस्तता और शाम बच्चों को न दे पाने की कसक उसके मन में जरूर रहती। मात्र तीसरी में पढ़ने वाला उसका बच्चा रुद्र कई बार सवाल कर बैठता, पापा हमारे साथ घूमने-फिरने के लिए आपके पास कभी वक्त नहीं होता है। इतनी नन्ही सी जान और ऐसे बोल ले रहा है, शेखर को आश्चर्य होता और खुशी भी कि आजकल के हिसाब से लगता है बच्चा ठीक है। तेज है। फर्राटेदार बोलता है। स्कूल से भी कंप्लेन नहीं आती। शेखर अपने बचपन के दिनों को याद करने लगता, जब पापा के सामने ज्यादा बोलने की हिम्मत भी नहीं होती थी। बोलना तो छोड़ो, सामने पड़ने से भी कतराते थे। कुछ कहना होता तो मां को माध्यम बनाया जाता। या फिर छोटी बहन को। खैर अब जमाना बदल रहा है। बाप-बेटों का वैसा रिश्ता नहीं रहा, यह सोचकर शेखर रुद्र की बातों पर हंस देता और आने वाले ऑफ के दिन कहीं ले चलने का वादा करता। घर में वक्त नहीं देने की शिकायत पत्नी रीमा भी करती थीं, कुछ समय पहले तक। लेकिन अब जो भी शिकायत होती वह रुद्र की ही ओर से होती। सीधे भी और अप्रत्यक्ष रूप से भी। जैसे कभी अगर रुद्र ने कुछ नहीं कहा होता तो रीमा बोल देती, रुद्र कह रहा था पापा मॉल कब ले चलेंगे। इस बार हम लोग नाना जी के जाएंगे तो पापा कितने दिन हमारे साथ रहेंगे आदि...आदि। कभी-कभी शेखर को लगता है कि रीमा ही रुद्र से ऐसा कहने के लिए कहती होगी। आखिर तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे के जेहन में इतने सारे सवाल कैसे आ सकते हैं। वह इतनी फरमाइशें कैसे कर सकता है। फिर पापा साथ हैं या नहीं, इससे बच्चे को क्या। उसके लिए हर चीज तो घर पर आ ही जाती है। इन सब बातों को सोचते-सोचते शेखर अपने बचपन की यादों में खो गया। उसे लगा कि अभी ही वह कौन सा बूढ़ा हुआ है। अभी आठ-नौ साल पहले की ही तो बात है वह कैसे बचपना करता था, अपने मित्रों के साथ। आज भी तो वैसा ही है। पिताजी को अगाध स्नेह करता है, लेकिन पता नहीं क्यों सामने जाने से कतराता है। आज रुद्र को उसके पापा कितना प्यार से खिलाते हैं। बल्कि कभी-कबार शेखर अपनी मां से मजाक में सवाल पूछ ही बैठता है, मां देखो पापा रुद्र को कितना प्यार करते हैं। कभी मुझे भी ऐसे लाड़ किया है। मां के ऐसे सवालों के दो ही उत्तर होते। या तो वह हंस देती और बताने लगती कि कितना प्यार करते थे, उससे। बस बिगड़ जाने के डर से जब से स्कूल भेजा, सामने कभी कुछ नहीं कहा। दूसरा उत्तर कभी-कभी मां का यह होता कि नहीं, तुझे कभी प्यार नहीं किया। तू बिना प्यार किए ही इतना बड़ा हो गया है। फिर सब हंस पड़ते। शेखर के साथ कुछ दिक्कतें हैं। जैसे पहली तो यह कि ऑफिस में छुट्टी का बड़ा संकट। बड़ी मिन्न्त के बाद मिलती भी तो एकाध दिन की। ऑफ भी रेगुलर नहीं मिल पाता। जिस दिन मिला तो दोस्त यार घेर लेते। क्या कर रहा है शाम को। घर में आधे घंटे की मोहलत लेकर निकला शेखर कभी चार घंटे में लौटता और कभी देर रात। दोस्त वही होते। जिनके साथ कुछ साल पहले तक उसकी ऐसे ही शाम कटा करती थीं। अब किसी की नौकरी अच्छी लगी हैै। सप्ताह में दो दिन छुट्टी होती है। किसी ने व्यवसाय शुरू कर लिया है। ऐसे दोस्त अक्सर शेखर से पूछते कहां है, एक ही जवाब होता, ऑफिस में। सबको मालूम था कि कभी-कबार शेखर रविवार को घर पर रहता है। उस दिन सब चाहने वाले यार-दोस्त पकड़ ही लेते। रीमा का यही तर्क होता कि सब घरवालों को इतना समय देते हैं। शाम बच्चों के संग रहते हैं। घूमने-फिरने भी जाते हैं। लेकिन धीरे-धीरे रुद्र के होने के बाद उसने शिकायतें करनीं कम कर दीं। बल्कि उसने अब कहना बिल्कुल बंद कर दिया था। बस रुद्र ही यदा-कदा वैसी शिकायतें करता, जैसा कुछ साल पहले रीमा करा करती थीं। इसीलिए शेखर को लगता कि हो न हो अब रीमा रुद्र के जरिये अपनी बात करती है। एक दिन तो हद हो गई। रुद्र ने अपने पड़ोस में रहने वाले रोहित शर्मा के बारे में पूछ लिया। पापा, अन्न्ू के पापा (रोहित शर्मा) क्या नौकरी करते हैं। क्यों बेटा, शेखर ने सवाल पूछा। पापा वो रोज शाम को घर आ जाते हैं। अन्न्ू के साथ घूमने जाते हैं। सनडे को भी घर पर रहते हैं। बेटा वो बैंक में हैं। बैंक की नौकरी दिन की होती है। रुद्र सपाट बोलता, पापा आप भी बैंक में नौकरी कर लो। अब उसे कौन समझाए कि नौकरी अपने मन से नहीं मिलती। वह रुद्र को समझाने की कोशिश करता, बेटा हमारे बीच जितने लोग हैं सब एक जैसी नौकरी नहीं कर सकते। कोई फैक्टरी में काम करता है, कोई बैक में करता है और कोई दूसरी कंपनियों में काम करता है। रुद्र की समझ में कुछ नहीं आए तो बोलता लेकिन पापा आपको हमारे लिए समय निकालना चाहिए। शेखर को लगता कि कम से कम ऑफ के दिन तो अब बच्चों के साथ रहना ही पड़ेगा। वह दोस्तों के साथ पार्टी-शार्टी कभी-कबार देर रात कर लेता। यार राजन आज में 10 बजे छूट जाऊंगा फिर बैठते हैं यार। सनडे को कुछ काम है। एक दिन तो हद हो गई। उसके दोस्त ने फोन किया, कहां है। शेखर ने झूठ बोल दिया कि वह ऑफिस में है। दोस्त को उसकी बात झूठ लगी। उसने ऑफिस में फोन लगा दिया। पता लगा, वह ऑफ पर है। फिर वह शेखर के घर आ धमका। उसे ले गया अपने साथ। क्योंकि दो-तीन दोस्त बैंगलुरू से आए थे। थोड़ी सी लगाने के बाद शेखर ने अपना दुखड़ा सबको सुना दिया। सभी ने कहा, चलो यार अब बैठकी कम किया करेंगे।
एक दिन रविवार को शेखर ने ठान ली कि आज सिर्फ परिवार के बीच रहना है। दिन में बिस्तर पर लेटे-लेटे वह अखबार के पन्न्े पलट रहा था। रुद्र वहीं पर अपने पड़ोस के एक दोस्त तिजिल के साथ खेल रहा था। शेखर अपने बचपन के दिनों की याद करने लगा। पापा शाम को ऑफिस से आ जाते थे। कुछ न कुछ खाने के लिए लाते लेकिन कभी अपने हाथ से कुछ नहीं देते थे। मां ही सबको साथ बिठाकर देती। पापा के पास फटकनेभर से उसे डर लगता था। कभी चले भी गए तो सीधे पढ़ाई की बात होती। जिस दिन पापा की छुट्टी होती, घर में स्पेशल खाना बनता इस बात की खुशी होती थी, लेकिन वह दिन जाता बहुत सूना-सूना। हां गर्मियों की छुट्टियों में जब गांव जाते तो आजादी ज्यादा मिल जाती। वहां कभी दुकानदार का खेल खेलते। गत्ते से तराजू बनाते। कच्चे आम को बेचने का खेल खेलते। कागज के टुकड़ों को रुपए बनाते। कभी-कभी पापा बनकर ऑफिस जाने का भी खेल खेलते और कभी स्कूल-स्कूल का। ऐसा ही मौका तब भी मिलता जब किसी रिश्तेदारी में शादी व्याह में जाते। उस दौरान भी अपेक्षाकृत आजादी ज्यादा मिल जाती। पापा का रुख अन्य दिनों के मुकाबले बदला-बदला होता। थोड़ा बड़े हुए तो पापा जेब खर्च के लिए कुछ पैसे दे देते, लेकिन सीधे नहीं मां की मार्फत।। दोस्त-यार घर पर आते तो पापा उनसे हंसकर अच्छे से बोलते। ऐसा ही माहौल हमें अपने दोस्तों के घर पर भी मिलता। बल्कि एक-दो दोस्त तो ऐसे भी थे, जिनके पापा खूब मजाकिया थे। इधर शेखर अपने बचपन के दिनों में खोया था और उधर रुद्र अपने दोस्त तिजिल के साथ खेल रहा था। शेखर ने देखा रुद्र अपने दोस्त से कह रहा है चलो वायरलेस टू पर तुरंत मैसेज करो। दोस्त ने प्लास्टिक का एक खिलौना उठाया और बोला, हेलो...कहां हो ओवर। शेखर हैरत से उन दोनों को देख रहा था। फिर रुद्र बोला, तिजिल तुमने उस रोबोट पर खास चिप लगाई थी कि नहीं। तिजिल बोला, जी चिप तो मैंने लगाई थी, वह इस कैमरे में भी दिख रही है। फिर अचानक रुद्र बोला कि तुमसे कहा था कि इनविजिबल चिप लगाना। आइंदा ध्यान रखना। चलो अपनी स्पेशल बाइक को तैयार करो, हमें जाना होगा। उनकी बातें चल ही रहीं थीं कि किचन से रीमा की आवाज आई, रुद्र पापा के लिए चाय ले जाओ। रुद्र का ध्यान टूटा। शेखर बोला, तुम लोग खेलो मैं ही ले आता हूं। किचन में जाकर शेखर रुद्र के खेल के बारे में रीमा को बताने लगा। रीमा बोलीं, इन लोगों का दिनभर ऐसा ही रहता है। सब कार्टून का असर है। शेखर बोला रीमा मैं समझता था कि मेरी छुट्टी को लेकर तुम इसे भरती हो, लेकिन आज देखकर लगता है मैं गलत हूं। रीमा हंस दी, बोली ये आजकल के बच्चे हैं, इनके बचपन में कुछ और भरा ही नहीं जा सकता है ये पहले से भरे हैं। शेखर अपने और अपने बेटे के बचपन के बीच तुलना करने में मगन हो गया। रुद्र की तकनीकी भाषा में खेल-खेल जारी था।

केवल तिवारी

1 comment:

vandana said...

ye khani achi h aur pita-putr ke riste ka jarori sara masala isme h par.. agar bete ki aur se toda sa emotion bhi dala jata to pita ki mansthisti aur bhi ache ban padti