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Thursday, September 15, 2016

कहानी कृष्ण पक्ष की चांदनी



कृष्णपक्ष की चांदनी
माथे पर हथेली की छतरी बनाकर वह दूर-दूर तक देखने की कोशिश करती। अभी आये नहीं फिर दौड़कर आंगन से होती हुई घर में दाखिल हो जाती। चूल्हे पर रखी दाल को देखने के लिये। पकने में अभी थोड़ा वक्त लगेगा क्योंकि मिली-जुली दाल जो है। असल में बहू और उसके बच्चों को यही दाल बहुत पसंद है। बेटा तो कुछ भी खा लेता है। वैसे बेटे ने कभी अपनी पसंद भी कहां जाहिर की। छोटा बेटा जरूर नाक-भौं सिकोड़ता। नाराज भी हो जाता। प्यार भी जताने लगता। लेकिन बड़े बेटे की चंचलता का कोई वाकया शायद ही याद होगा। वैसे चंद्रकला देवी उर्फ चांदनी का अतीत में झांकने को कोई मन भी नहीं करता। अगर वह भविष्य की भी चिंता न करती तो शायद महान हस्ती होती। गीता का ज्ञान उसे पूरा हो लेता, कल बीत चुका है, आने वाला कल किसने देखा है, क्यों चिंता कर रहे हो। वर्तमान चल रहा है, उसमें जीयो। बीते कल की बातें वह करतीं जरूर, पर कोई भावनात्मक रूप से नहीं। वर्तमान में खूब जीती, लेकिन भविष्य की चिंता हमेशा रहती। वैसे वह अब इस दौर में थी कि उसे भविष्य की चिंता करनी ही नहीं चाहिए थी। लेकिन मन है, पता नहीं कैसा भविष्य होगा। ऐसे ही खयाल आते। पर यह कभी नहीं सोचा जिस भविष्य की वह चिंता कर रही है, वह कितना बडा होगा और कब आयेगा।
आज चंद्रकला देवी उर्फ चांदनी का बड़ा बेटा अपनी पत्नी और बच्चों के साथ पूरे दो साल बाद आ रहा था। यह बेटा उसके पास रहा ही बहुत कम। दसवीं पास करने के बाद हास्टल चला गया। वहीं से एक नौकरी के लिए परीक्षा दी तो उसमें सफल हो गया और पहली ही पोस्टिंग मिली मुरादाबाद में। छोटा बेटा मस्तमौला। पिता कभी-कबार उसे डांटते, पर बेटा सबकुछ अपने हिसाब से ‘मैनेज’ कर लेता। बड़े की नौकरी लग गयी। छोटा अभी पढ़ रहा था, पिता के काम में भी हाथ बंटाता। वैसे पिता का कोई कारोबार नहीं था। वह तो छोटे-मोटे किसान थे। पंडिताई भी जानते थे तो शादी-व्याह के सीजन में छोटा बेटा भी साथ चल देता। पंडिताई अच्छी चलती थी। बाहर के काम तो इनके पिता अच्छे से करते, लेकिन घर में वह आराम को ही प्राथमिकता देते। चांदनी यानी चंद्रकला देवी आज अपने बड़े बेटे मोहन, उसकी पत्नी सुजाता और पोते मनन और पोती अनु का इंतजार कर रही थी। उसके पति पंडित राधेश्याम पांडेय आज किसी यजमान के बेटे की शादी कराने गये थे। छोटा बेटा भी उनके साथ गया था। छोटा बेटा चंचल तो था, पर पढ़ाई में बुरा नहीं। माता-पिता का हाथ बंटाता, पिता के साथ पुरोहिती करने भी जाता, लेकिन उसका मन कोई एक जगह नहीं लगता था। तमन्ना उसकी भी बाहर जाकर नौकरी करने की होती। चंद्रकला देवी के पति यानी इन्हीं दो बेटों के पिता पंडित राधेश्याम पांडेय परिवार का खर्च चलाने के लिए पुरोहिती तो करते, पर बाकी कुछ नहीं। जैसे कि कभी घर के कामों में हाथ बंटाना, दूर झरने से पानी भरकर लाना, वगैरह-वगैरह। यह अलग बात है कि कभी-कबार हारी-बीमारी में वह काम करते। पर उन्हें अच्छा लगता अगर ऐसे मौकों पर भी गांव का कोई परिवार उनकी मदद कर देता। घर के कामों में चंद्रकला देवी का कोई मददगार भी नहीं होता और कभी उसे इसकी शिकायत भी नहीं रही। ऐसा माहौल उसने बचपन से देखा था। ससुराल में भी ऐसा ही माहौल था। असल में चंद्रकला देवी का जीवन रहा ही ऐसा कि शायद शिकायत, शिकन, परेशानी जाहिर करने वाला कैमिकल उसमें कभी पनप ही नहीं पाया। 9 भाई बहनों में पांचवे नंबर की चंद्रकला को पंडित राधेश्याम पांडे के साथ 17 वर्ष की उम्र में व्याह दिया गया। पिताजी घर-परिवार के तमाम मसलों पर ऐसे उलझे कि असमय ही चल बसे। भाई तीन थे। उनमें से एक चंद्रकला की शादी के चंद वर्षों बाद ही चल बसे। एक का पता ही नहीं चला कि गया कहां? और तीसरे की पत्नी से तकरार हो गयी तो अलग-थलग रहने लगा। चंद्रकला देवी की जिस गांव में शादी हुई, वहां उसकी दीदी और बुआ पहले से ही व्याही थीं। बहुत कम ही उम्र थी शादी के वक्त चंद्रकला देवी की, लेकिन बुआ और दीदी का गांव है, इसलिए चंद्रकला देवी यानी चांदनी थोड़ी सी आश्वस्त थी।
कम उम्र में शादी और उस पर गांव ऐसा कि पहले दिन से ही नयी नवेली बहू को पानी लाना है, खेतों में जाना है, गाय भैंसों को भी देखना है। ये सारे काम तो वह मायके से भी करती आ रही थी, इसलिए दिक्कत नहीं हुई, लेकिन अब इन कामों के अलावा कुछ जिम्मेदारियां और बढ़ गयीं, मसलन, बहू बनकर भी रहना है, पति की इच्छाओं का भी ध्यान रखना है। नये माहौल में खुद को एडजस्ट भी करना है। समय बीतता गया। कभी बुआ से बातें कर ली, कभी दीदी के यहां चली गयी और मौका लगा तो कभी-कबार मायके भी। ससुराल में कई दिक्कतें आईं। पति का फक्कड़ स्वभाव, गाय-भैंसों की खास जिम्मेदारी। यही तो होता है ‘लड़कियों’ के भाग में, यह सोचकर चंद्रकला देवी रम गयी गृहस्थी में। शादी के दो साल बाद एक बेटा हुआ। बधाइयों के तांते लग गये। मायके में बेटियां ही बेटियां थीं। पिता की भी और दादाजी की भी। कहीं उसकी भी बेटियां ही न हों, इस दंश और पति की आशंकाओं से पहली मुक्ति तो मिली। बेटा खूबसूरत था। स्वस्थ भी। दिनोंदिन बढ़ता गया। अपने में मस्त रहने वाले उसके पति पंडित राधेश्याम बेटे का पूरा ध्यान रखते। उसे नहला भी देते, मालिश कर देते। कई बार तो बेटे का इतना ध्यान रखते कि पुरुष प्रधान समाज में हंसी का पात्र भी बन जाते। फिर दिखावे के लिए वह चांदनी को कभी फटकारते भी कि देखो बच्चा गंदगी से सना है, ध्यान नहीं रखती। सच तो यह था कि चांदनी को बहुत जरूरत होती ही नहीं थी बच्चे का ध्यान रखने की। वह उसे दूध पिलाने और अपने साथ सुलाने के अलावा ज्यादा ध्यान नहीं रखती। राधेश्याम जी खुश थे। पति खुश तो सारे जहां की खुशियां चांदनी को मिल गयीं।
तीन साल बाद दूसरा बच्चा हुआ। इस बार भी बेटा ही। फक्कड़ी स्वभाव का पति अब मस्त भी रहने लगा। दो बेटे हो गये। गृहस्थी अच्छी चल रही थी, और क्या चाहिए। इस बीच कुछ बुरी खबरें भी आईं। कभी मायके से तो कभी ससुराल से। ससुराल में पड़ोस में ही व्याही गयी बुआ के पति का अचानक निधन हो गया। छोटे-छोटे बच्चे। भविष्य के प्रति ज्यादा चिंतित रहने वाली चंद्रकला देवी को बुआ और उनके बच्चों के भविष्य के प्रति चिंता होने लगी। लेकिन परिवार को ही अपना संसार मानने वाली चंद्रकला कुछ मदद करने की स्थिति में नहीं थी। शायद थी भी तो कर नहीं पाती। वह चिंता कर लेती, यही क्या कम था। मायके से भी कभी पिता के गुजरने की खबर आयी तो कभी माता के। एक भाई भी चल बसे। तमाम दुखद सूचनाओं को विधि का विधान मान चंद्रकला देवी रमी रही अपनी गृहस्थी में। दोपहर में लोग भोजन के बाद आराम करते, लेकिन वह खेतों में जाती घास काटने के लिए। दो गाय और एक भैंस जो पाल रखी थी। शाम को भोजन बनाना, दूर से पानी लाना और इसी बीच कुछ समय निकालकर पास-पड़ोस की महिलाओं के साथ गप्पें भी मारना। वह अपने संसार में खुश रहती। शायद ही मन में यह बात होगी कि आराम कब मिलेगा। पति बाकी काम करें या न करें, लेकिन बच्चों को पढ़ाने और उनके नहलाने-धुलाने का काम जरूर कर देते। समय बीता और बड़ा बेटा 10वीं पास कर गया। छोटा पहुंच गया छठी में। दसवीं के बाद गांव के करीब वाले स्कूल में विज्ञान की पढ़ाई नहीं होती थी। यानी साइंस साइड नहीं थी। आर्ट्स या कामर्स ही था। बेटा दूर एक जगह हॉस्टल में रहकर पढ़ाई करने लगा। वह पढ़ाई में ठीक था। 12वीं करते-करते एक परीक्षा दी पास हो गया और नौकरी लग गयी। इस बीच पड़ोस में रहने वाली बुआ के पुश्तैनी मकान में रौनक खत्म सी हो गयी। सभी बच्चे बाहर सैटल हो गये। बेटियों की शादी हो गयी और एक दिन बुआ भी दुनिया छोड़कर चल बसी। उस दिन चांदनी बहुत दुखी हुई। ऐसे तो बुआ बुढ़ापे में इधर-उधर जाती। कभी बेटे के पास तो कभी बेटी के पास। घर पर कम ही रहती, लेकिन बुआ के होने का अहसास ही चांदनी के लिए बहुत था। अब वह भी नहीं रही। परेशानियों से जूझने में माहिर चांदनी ने यहां भी बाजी मार ली। बुआ के बच्चों ने उसी को घर दे दिया देखभाल के लिए। चांदनी ने बुआ के घर में कुछ जरूरी सामान रख दिया। एक तरह से स्टोर रूम की तरह घर बन गया। कभी बुआ के बच्चे आते तो वह घर को साफ सुथरा कर देती। चाय पानी की भी व्यवस्था करती। हरदम भागती सी रहने वाली चांदनी कुछ पल बैठकर हालचाल जरूर लेती।
समय तेजी से बीता। चंद्रकला देवी के बड़े बेटे बाहर सैटल हो गये। छोटा बेटा पिता के साथ काम में लगा रहता और नौकरी की तैयारी भी कर रहा था। लेकिन चंद्रकला की भागदौड़भरी जिंदगी में कोई ठहराव नहीं आया। उसे देखकर और लोग थकान महसूस करने लगते, लेकिन चंद्रकला को कभी उफ कहते किसी ने नहीं सुना। वह खुश रहती और वर्तमान में जीती, थोड़ी चिंता करती उसे पता नहीं क्यों भविष्य भयावह लगता। आज वह बहुत खुश थी। बेटा-बहू और बच्चे आ रहे थे।
दाल पक चुक थी। आम की चटनी बनाने की तैयारी करने से पहले एक बार फिर आंगन में गयी। अब दिख गये। बहुत दूर थे। लेकिन वह तो अपनी बहू और बेटे के चलने के अंदाज से ही समझ गयी कि यही लोग हैं। फोन होता तो शायद वह छोटे बेटे को भी तुरंत बुला लेती। ऐसा नहीं हुआ। वह दौड़कर कमरे में आयी। पानी की गगरी उठायी और झरने की ओर भागी। बहू-बेटे को आते ही ठंडा पानी पिलायेगी। बहू-बेटे के घर आने से पहले ही वह एक गगरी पानी भर लायी। झरने पर भीड़ थी, लेकिन वहां लोगों से विनती कर अपनी बारी पहले लगाकर वह घर आ गयी। घर आकर उसने बाहर के कमरे में कालीन बिछा दी। बगल में रखे एक बेड पर चादर बदल ली। यूं तो सब तैयारी उसने पहले से ही कर रखी थी, लेकिन पता नहीं क्या सूझा कि फिर से कालीन और चादर बदल दिये। इसी बीच बच्चे घर पहुंच गये। बेटा तो कम ही बोलता था, लेकिन बहू, पोते-पोती से बहुत देर वह बतियाती रही। सबको ठंडा पानी पिलाया। हालचाल लिया। थोड़ी देर बाद ही सबको भोजन के लिए आने को कहा। आम-पुदीने की चटनी और मिक्स दाल से बहू और बच्चे बड़े खुश हुए। उनको खुश देखकर चांदनी यानी चंद्रकला का तो जैसे एक पाव खून बढ़ गया।
इसी तरह की छोटी-छोटी खुशियों को ही जीने के लिए चंद्रकला शायद हाड़तोड़ मेहनत करती थी। इस बार बड़े बेटे ने अपने साथ चलने की जिद की। चंद्रकला ने कहा छोटे बेटे जतिन की शादी हो जाये तो जरूर चलेगी। चांदनी को ले जाने की जिद ज्यादा बढ़ती, चांदनी ना-नुकर करके शायद मान ही जाती। शायद मन के एक कोने में उसके जाने की इच्छा दबी थी, जो उभर सकती, लेकिन इन सबका मौका नहीं मिला। कुछ दिन रुककर बहू-बेटे चले गये। चांदनी को थोड़ा अजीब लगा, लेकिन अजीब लगने से क्या होता है? वह उसी तरह लग गयी अपने कामों में, जैसे हमेशा से करती आती है। पानी भरना, खेतों में जाना, घास काटकर लाना, वगैरह-वगैरह।
समय बीतता गया। कुछ ही सालों में छोटा बेटा भी राजस्थान में एक कंपनी में नौकरी पर लग गया। बस इसी का तो इंतजार था चंद्रकला देवी को। नौकरी लगते ही शादी तय कर दी और धूमधाम से उसकी शादी कर दी। एक अजब बात थी चंद्रकला देवी में। वह खुद हमेशा गांव में रही। खूब काम किया। लेकिन उसने कभी बहुओं से कोई काम नहीं कराया। शादी के कुछ ही महीनों बाद बहुओं को बेटों के पास भेज दिया। बेटे कहते भी कि कुछ माह बहू को अपने साथ रखो। काम में हाथ बंटा देंगी, लेकिन चंद्रकला को यह कतई गंवारा नहीं था। इस बात को कोई नहीं समझ पाता। वह तो बहुओं को तब भी कुछ नहीं करने देतीं, जब वह कभी-कबार एक या दो महीनों के लिए गांव आतीं। इससे और कुछ समझ आये या न आये, यह तो लगता कि उसके मन में अत्यधिक काम किये जाने की टीस तो है। यदि घर परिवार और भविष्य की चिंता में मरे जाना ही असली जिंदगी होती तो वह बहुओं को इसमें शामिल करती। यदि महिलाओं की यही नियति है, वह मानती तो वह बहुओं से खूब काम कराती। अब तो लगता जैसे वह हाड़तोड़ मेहनत कोई विरोध स्वरूप कर रही हो। उसी तरह जैसे कई देशों में हड़ताल के दौरान श्रमिक दोगुनी मेहनत करते हैं। इस अंदाज में कि ‘देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है।’ पर चांदनी के लिए ऐसा कुछ नहीं था कि वह किसी कातिल को देख रही हो। वह विरोध किसका कर रही थी? न सास, न कोई और। परिवार में और लोग थे, लेकिन सब अलग-अलग रहते थे। तो क्या वह अपनी किस्मत को अपनी मेहनत से पलट रही थी? क्या उसे नियति से रंज था? या फिर मेहनत उसकी नियति बन चुकी थी। क्या उसे आराम पसंद नहीं था। वह भागती रहती। भागती रहती। दोपहर में भी। सांझ को भी। रात में ही जो नींद निकाल पाती होगी। सुबह लोग उठते तो देखते चांदनी न जाने कब भैंस को दुह चुकी है। नहा चुकी है। नाश्ता बना चुकी है। कभी-कभी तो घास काटकर भी ला चुकी है। काम का ऐसा भूत क्यों सवार है चांदनी पर। चाहे कोई कितना भला बुरा कहे, एक बात तो सब कहते, कि यह लंबी उम्र जीयेगी। क्योंकि शारीरिक रूप से फिट है। मेहनत करती है। चांदनी से लोग यह बात सीधे भी कहते, लेकिन वह बस हंसकर रह जाती। कुछ लोग बताते हैं कि शुरू-शुरू में उसके पति उसे तेज काम करने को कहते। डांटते भी। कभी-कभी शायद हाथ भी उठा देते। लेकिन अब वह कुछ नहीं कहते। शायद इसलिए कि चांदनी में अब ढीलापन दिखता ही नहीं। हमेशा चौकन्नी। काम करते दिखती। गांव की देवकी ने एक दिन समझाया, ‘चंद्रकला अब बस कर। अब नाती-पोतों वाली हो गयी हो। कोई तनाव है नहीं। थोड़ा आराम किया कर।’ असल में देवकी कोई सलाहकार नहीं थी। एक दिन भरी दुपहरी उसने चांदनी को देखा था दूसरे गांव में जाते हुए। चांदनी एक पेड़ के नीचे लगभग हांफ सी रही थी। देवकी भी कहीं से आ रही थी। पूछा, ‘कहां जा रही हो।’ ‘सूखी घास लेने।’ असल में गर्मियों के मौसम के लिए कुछ लोग सूखी घास बेचते थे। चंद्रकला को भी लगा कि अभी सही रेट पर मिल जायेगा तो वह अकेले ही चल पड़ी घास लेने। देवकी ने पहली बार आज एक थकी-हारी सी चंद्रकला को देखा तो सलाह दे दी। चंद्रकला यहां भी हंसकर रह गयी और उस गांव तक जाते-जाते करीब 20 जगह बैठकर आराम किया होगा, जहां वह कभी बिना एक बार भी विश्राम किये चली जाया करती थी। करीब 40 किलो घास को बड़े से जाल में बांधकर वह सिर पर रखकर चल पड़ी। थोड़ी देर में हड़कंप मच गया, जब खबर आयी कि चांदनी घास सहित गिर गयी है। पंडित राधेश्याम कहीं गये हुए थे। चांदनी के आस-पास के लोग वहां गये। तब तक वह संभल चुकी थी और किसी तरह घास के जाल को अपने सिर पर रखने की कोशिश कर रही थी। लोगों ने पूछा क्या हुआ। चांदनी ने कहा पता नहीं क्यों अचानक चक्कर आ गया। सिर दर्द हो रहा है। लोगों ने घास को पांच-छह हिस्सों में बांटा और ले आये। चांदनी भी साथ-साथ चली आयी। हमेशा मदद से सीधे इनकार कर देने वाली चांदनी आज इस मदद पर कुछ नहीं बोली। न वह बहुत कृतज्ञता दिखा पायी और न ही उसके चेहरे से खुशी झलकी।
पंडित राधेश्याम शाम को घर पहुंचे। तब तक चांदनी खाना बनाने की तैयारी में लगी थी। आने पर पति को पानी पिलाया। चाय बनायी। आज पता नहीं कैसे चांदनी के चेहरे से छलक रहा था कि वह ठीक नहीं है। पति ने पूछ लिया, क्या हुआ? चांदनी ने फिर सिर दर्द वाली बात बतायी। पंडितजी ने कहा, ‘चल कल दवा ले आयेंगे।’ अगले दिन पंडित जी कुछ दूरी पर स्थित एक दुकान पर गये क्रोसीन लेने। इसी दौरान उन्हें पहले दिन वाले वाकये के बारे में पता चला। वह दवा तो ले आये, लेकिन इस बात से बेहद खफा थे कि चांदनी को चक्कर आया, आसपास के लोग घास लाये यह बात उन्हें बाहर से पता चली। घर आये तो देखा चांदनी लेटी हुई थी। ऐसा कभी नहीं होता था कि सुबह दस बजे के करीब चांदनी सोयी मिले। पंडितजी अपना गुस्सा पी गये। उन्होंने चंद्रकला को क्रोसीन खिलायी और सो जाने को कहा। खुद वह गांव के पास चौपाल पर चले गये। दोपहर को भोजन का वक्त आया तो, पंडितजी को ध्यान आया, अरे आज तो घर पर ही उन्हें रहना चाहिए था। चांदनी अकेले भोजन बना रही होगी। उसका सिरदर्द अलग से हो रहा है। वह घर पहुंचे तो देखा चांदनी चादर ओढ़कर सो रही है। पहले सोचा जगाऊं कि नहीं। लेकिन फिर बोले, ‘चंद्रकला उठो, अब तो बहुत देर सो चुकी है।’ लेकिन चंद्रकला नहीं उठी। पंडितजी अब चिल्लाये, ‘अरे कुछ खाने का तो बताओ।’ चंद्रकला अब भी नहीं बोली। पंडितजी पास गये और चादर हटाई। चंद्रकला को देखा तो घबरा से गये। कोई हरकत नहीं। दौड़कर आसपास के कुछ लोगों को बुला लाये। देवकी भी आ गयीं। नब्ज टटोली गयी। चंद्रकला शायद बहुत थक चुकी थी। वह पूरी तरह सो चुकी थी। ऐसी नींद, जहां उसे न काम की फिक्र है, न गाय-भैंसों की और न ही अपने बहू-बेटों के पसंद के भोजन बनाने की।

1 comment:

Anonymous said...

बेहद मार्मिक कहानी