कौस्तुब के हाथ में जब स्मार्ट फोन आया तो उसे लगा जैसे
अपने परिवार में सबसे पहले उसी के हाथ में एक ऐसी वस्तु आ गयी है जिसमें फेसबुक है,
जिसमें व्हट्सएप है और जिसके जरिये अब वह हर समय ऑन लाइन रह सकता है। कुछ पल के लिये
वह ऑफिस का तनाव भी भूल गया। असल में ऑफिस में भी उससे कई बार कहा गया कि स्मार्ट फोन
ले लो, अर्जेंट मेल देखने के लिये ठीक रहता है। वीडियो, ऑडियो, टैक्ट्स मैटर सबकुछ
तो अब उसकी तुरंत प्रभाव से पहुंच में था। इस बीच जिन लोगों को पता चला उन्होंने व्हटसएप
मैसेज भेजने शुरू कर दिये। वह खुश होकर घर में कभी बच्चों को तो कभी पत्नी को बताता
देखो फलां ने मैसेज भेजा है। उसे कैसे पता चल गया, यह सवाल उठता? इससे पहले कि वह कोई
जवाब देता बच्चे ही बोल पड़ते, अरे मम्मा आजकल पता चल जाता है कि किसके पास स्मार्ट
फोन है और किसके पास नहीं। इस बीच मोबाइल कंपनियों के भी फोन आये कि आप 3 जी ले लो,
4जी ले लो। ये स्कीम है वगैरह-वगैरह। मित्र लोग तो कौस्तुब को कब से ताकीद कर रहे थे,
जल्दी से स्मार्ट फोन ले लो फिर हम लोग अपना ग्रूप बनायेंगे। देखते-देखते कई ग्रूप
बन गये। कुछ को तो वह जानता भी नहीं था। लोगों ने कहा जानकार नहीं हैं तो ग्रूप से
एग्जिट हो जाओ। अब तक तो ग्रूप बनाने में जैसे कौस्तुभ खुद को माहिर मानने लगा।
उसके मन में आया कि वह भी एक ग्रूप बनाये। इस बीच उसे
पता चल चुका था कि उसके तो परिवार में ही कई लोग स्मार्ट फोन वाले हैं। कई लोग व्हट्सएप
इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे पहले कौस्तुब को कई बार तब ग्लानि होती थी जब बच्चे के स्कूल
में टीचर्स कहते कि आप व्हट्सएप पर हैं। इसमें ये जानकारी शेयर कर देंगे, वो जानकारी
शेयर कर देंगे वगैरह-वगैरह। लेकिन तब स्मार्ट फोन उसके पास था ही नहीं। बहुत जरूरत
भी महसूस नहीं हुई। अब स्मार्ट फोन आने पर कौस्तुभ ने अपने परिवार के लोगों में उन
लोगों की सूची बनायी जिनके पास स्मार्ट फोन था और जो व्हट्सएप इस्तेमाल कर रहे थे।
इसमें उसने नजदीकी या दूरी जैसा कोई पैमाना नहीं बनाया। व्हट्सएप ग्रूप का नाम उसने
रखा ‘मेरा परिवार।’ इसमें वह अपने सगे संबंधियों को धड़ाधड़ जोड़ने लगा। कुछ लोगों
को यह पहल बहुत अच्छी लगी। किसी ने लोगो भेजकर सुझाव दिया कि इसे प्रोफाइल पिक्चर बना
लो तो किसी ने इसे बेहतरीन पहल बताया। कुछ लोग सुस्त भी लगे। कोई रेस्पांस नहीं। धीरे-धीरे
इसके सदस्यों का दायरा बढ़ता गया। इसमें कौस्तुभ के ससुराल के लोग थे, कौस्तुभ के भतीजे-भतीजी
थे, भांजे-भांजी थे। ससुराल के रिश्तेदारों के रिश्तेदार थे, तो भाई के रिश्तेदारों
के रिश्तेदार भी। बस ग्रूप में जोड़ते वक्त वह यही देखता कि उनके पास स्मार्ट फोन है
कि नहीं। इन्हीं में से किसी ने अपने भाई का नंबर दिया जोड़ने के लिये तो कुछ ने अपनी
पत्नी का। फेसबुक पर लाइक, कमेंट के रोग की तरह ही अब कौस्तुभ एक दिन में कई बार अपना
परिवार ग्रूप में नजर दौड़ाता। कोई भी मैसेज, वीडियो या टैक्स्ट आता तो वह तुरंत घरवालों
को बताता। देखो-देखो फलां ने यह मैसेज भेजा है। अरे देखो ललित ने आज अपने प्रोफाइल
में चिंटू की फोटो डाली है। अरे मुन्ना जी तो आज बड़े स्मार्ट लग रहे हैं। नितिन ने
देखो समुद्र किनारे की फोटो डाली है। घर में रोजमर्रा की चर्चाओं में अब मेरा परिवार
की ग्रूप की बातें होना भी शामिल हो गयी। कभी-कभी तो बच्चे भी कहते पापा आज ये फोटो
परिवार ग्रूप में डाल दो। कभी छोटा बच्चा कोई डांस करता तो उसकी वीडियो बनाकर डाल देता।
धीरे-धीरे एक अजीब सा परिवर्तन आने लगा ग्रूप में। इस ग्रूप में ही जैसे ग्रूपबाजी
होने लगी। एक दिन कौस्तुभ की पत्नी ने उसे बहुत उदास सा देखा। ऐसा तब भी होता जब कभी
ऑफिस के मामले में कौस्तुभ का मूड उखड़ा होता। उस दिन कौस्तुभ से पत्नी ने पूछ ही लिया,
क्या बात है। पहले वह टालता रहा फिर बोला आज दो लोगों ने ग्रूप छोड़ दिया। पत्नी बहुत
तेज हंसी। ये भी कोई बात है उदास होने की। हो सकता है फोन खराब हो। हो सकता है कोई
डिस्टरबेंस महसूस हो रहा हो। चलो एक-एक कप चाय पीते हैं, अपना वो प्रोजेक्ट पूरा कर
लो। पत्नी की बात सुनने के बाद कौस्तुभ अपना डेस्कटॉप खोलकर कुछ काम करने लगा। लेकिन
अंदर की एक उदासी उसे छोड़ न सकी। हालांकि ग्रूप छोड़ने वाले लोगों में से ज्यादातर
वे थे जो मिलने पर तो खूब अपनापन दिखाते थे, शायद कौस्तुभ का एडमिन होना और उसके द्वारा
बनाया गये ग्रूप से वे खुद को नहीं जोड़ना चाहते थे। कुछ दिन शायद ऐसे ही बने रहे,
फिर उससे अलग हो गये। तमाम तरह के तर्क-वितर्कों से खुद को संयत कर धीरे-धीरे कौस्तुभ
सामान्य हो गया। अब फिर से ग्रूप में परिवार के अन्य लोगों की बातें शुरू होने लगीं।
कभी कौस्तुभ को ही तारीफ मिलने लगती। कभी उसको छोटों का प्रणाम और बड़ों का आशीर्वाद
मिलने लगता। इस बीच एक वाकया और हुआ कि कुछ लोगों ने आपसी बातें भी उसी में शुरू कर
दीं। कुछ ऐसी बातें जो अपने-अपने निजी व्हट्सएप पर भी हो सकती थीं। ये बातें लगभग वे
ही लोग कर रहे थे जो उम्र में न भी सही तो रिश्ते में कौस्तुभ से छोटे थे। एक दिन कौस्तुभ
ने खुद को बड़ा समझते हुए ऐसी अपील कर डाली कि उसके रिएक्शन का उसे भी गुमान नहीं था।
उसकी अपील थी, ‘यह ग्रूप परिवार का है। निजी बातों के बजाय हम लोग सामूहिक चीजों को
उठायें। प्रहसन भेजें। आरोप-प्रत्यारोप के लिये और भी फोरम हैं। उम्मीद है सब ध्यान
रखेंगे कि परिवार के लोग रोचक चीजों का आदान-प्रदान करेंगे। नेगेटिव चीजों से बचेंगे।’
कौस्तुभ के इस बयान पर कई प्रतिक्रियाएं आयीं। किसी ने इस तरह का निशान पोस्ट किया
जिससे लगा कि उन्होंने सहमति जताई है। कुछ ने कोई रेस्पांस नहीं दिया और कुछ तो आक्रामक
मुद्रा में आ गये। जिनको कौस्तुभ अपना बेहद करीबी मानता था, जिनसे वह कोई ऐसे किसी
जवाब की उम्मीद नहीं रखता था, जिनको लेकर वह अक्सर दंभ भरता था, उन्होंने ही बड़ी प्रतिक्रिया
दी। एक का जवाब ऐसा आया जिसका लब्बोलुआब था कि ग्रूप है तो ऐसा होगा ही। बेहतर हो दो
ग्रूप बन जायें। फिर कुछ लोगों ने आपस में तय किया कि इसमें अब कोई पोस्ट नहीं भेजनी
है, कोई रेस्पांस नहीं देना है। कौस्तुभ कभी सोचता शायद सभी व्यस्त होंगे, इसलिये कोई
मैसेज नहीं आ रहे हैं। शायद ये, शायद वो। धीरे-धीरे कौस्तुभ का मन भी पक्का हो चला।
वह उन दो-तीन लोगों की तारीफ करता जो तुरंत रिएक्शन नहीं करते थे। कभी-कभी उनके मैसेज
आते, लेकिन वह नेगेटिव या पॉजिटिव पर कोई जोर नहीं देते। जैसे उधो न माधो। कौस्तुभ
अपने काम में रहता। व्हट्सएप के इस अनुभव से उसे अब अच्छा-अच्छा सा लगने लगा। रहीम
के उस दोहे की तरह – रहिमन रहिला की भली जो थोड़े दिन होय, हित अनहित या जगत में जान
परत सब कोय। अब तो बस वह देखना चाहता था कि इस ग्रूप में आखिर उसके साथ रह कितने जाते
हैं। किसी की बात किसी से खराब लगे, असहमति हो सकती है, लेकिन इस ग्रूप का सारा दारोमदार
तो कौस्तुभ खुद पर समझता था। शायद था भी। बल्कि कभी-कभी उसे परिवार के बहुत छोटे से
सदस्य का वह मैसेज बहुत अच्छा लगता जिसमें लिखा होता-चाय वाला पीएम बन गया, दसवीं फेल
सीएम बन रहे हैं और एमबीए पास व्हट्सएप ग्रूप एडमिन बनकर सोच रहे हैं जैसे बहुत बड़ा
तीर मार लिया। कौस्तुभ की यही इच्छा रहती कि उसके ग्रूप में इसी तरह के प्रहसन हों।
उसे लेकर भी हों। लेकिन उसके साथ कभी भी कहां हुआ ऐसा। इस ग्रूप की बातों के बहाने
वह अपनी बातें रखना चाहता, दूसरों की सुनना चाहता। इस ग्रूप के कई ग्रूप बन गये। कुछ
पर गुजारिश काम आई कि अब इसमें मैसेज मत भेजा करो। कुछ पर किसी के करीबी होने के बावजूद
कोई असर नहीं रहा। वह लगातार इसके संपर्क में बने रहते। कभी गुड मार्निंग तो कभ गुड
नाइट और कभी-कभी कोई जोक। बीच-बीच में कुछ अतिवादी मैसेज आ जाते। कौस्तुभ का मन करता
कि ऐसे लोगों को टोके, लेकिन ‘नाकवालों’ की चिंता उसे होती। बुरा न मान जायें। फिर
भी वह कभी-कभी अपनी बात कह जाता। ‘अतिवादी मैसेज न भेजें, यह तो प्रहसन का मंच है।’
इस तरह के मैसेज वह फारवर्ड कर देता। धीरे-धीरे अन्य चीजों की तरह ही इसका क्रेज भी
कम होता चला गया। जरूरी मैसेज पर वह नजर डालता। परिवार ग्रूप में मैसेज आते, जानकारी
आती। कौस्तुभ भी कभी-कभी अपने मैसेज या कभी कोई खास लिंक भेज देता। अब रुटीन का दुखी
होना उसने छोड़ दिया। कोई ग्रूप छोड़ रहा है, कोई जोड़ने के लिए कह रहा है। किसी ने
बातचीत बिल्कुल बंद कर दी है। इन सब बातों का अब कौस्तुभ पर असर नहीं पड़ रहा था। वह
तो अब इस आभासी दुनिया से अलग हकीकत की दुनिया में लोगों के सही बने रहने की दुआ करने
लगता। क्योंकि व्हट्सएप पर ज्ञान की जितनी बातें होतीं, वह पढ़ने में लगतीं तो अच्छी,
लेकिन कई लोगों ने ज्ञान की बातों का उलटा ही किया। अब वह हकीकत की दुनिया में जी रहा
है। ग्रूप में आये मैसेज को पढ़ लेता। कभी खुश होता है तो एकाध मैसेज खुद भी डाल देता
कभी उदास होता तो दूसरे लोगों के भेजे जोक्स को पढ़ लेता। वह समझ गया था कि एक आभासी
दुनिया के ग्रूप से वह परिवार को पूरी तरह तो नहीं जोड़ सकता। किसी पर जोर जबरजस्ती
भी कैसे करे, अब तो सब सयाने हो गये हैं, बिल्कुल फोन की तरह स्मार्ट।
-केवल तिवारी
4 comments:
बहुत सटीक आलेख...धीरे धीरे व्हाट्सएप्प आदि अपना आकर्षण खोते जा रहे हैं..
Thanks kailash ji
Thanks kailash ji
बहुत खूब
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