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Friday, June 22, 2018

जो मां सी वह मौसी

केवल तिवारी
‘आपकी मम्मा मुझे बहुत डांटती थीं।’ ‘अच्छा फिर आप किससे शिकायत करती थीं।’
‘किसी से नहीं, मैं इतना चिल्लाती थी कि उन्हें खुद ही बड़ों की डांट पड़ जाती।’ हा, हा, हा (सब खिलखिलाकर हंस पड़े)।
‘एक बार तो मैंने दीदी यानी आपकी मम्मा की एक किताब छिपा दी। वह रोने लगीं। फिर मैंने कहा, मुझे आइसक्रीम खिलाने का प्रोमिस करो तो मैं ढूंढ़ दूंगी। उन्होंने प्रोमिस किया और मैंने किताब दे दी। लेकिन बाद में उन्हें मेरी शरारत का पता चल गया और बहुत डांटा।’
उक्त वार्तालाप है चौथी और छठी में पढ़ने वाले कोमल, हितेश की अपनी मौसी गीता के साथ। बच्चे जिद कर रहे हैं, ‘मौसी कुछ और बातें बताओ ना।’ ‘क्या बताऊं बच्चों, जब दीदी की शादी हुई, मैं इतना रोई कि पूछो मत।’ उसके बाद तो जब भी दीदी घर आती मैं रोने लगती।’ कहती, ‘कुछ दिन और रुक जाओ।’ बच्चों का मासूम सा सवाल, ‘जब आपको अपनी दीदी के जाने का इतना ही बुरा लगा तो फिर पहले लड़ते क्यों थे।’ मौसी हंस पड़ी। बोली, ‘बड़े होकर समझोगे, अभी जैसे तुम भाई-बहन भी खूब लड़ते हो ना, जब बड़े हो जाओगे तो एक-दूसरे को खूब याद करोगे।’ बच्चों ने फिर एक सवाल किया, ‘अच्छा बताओ आप दोनों में से नाना-नानी किसे ज्यादा प्यार करते थे?’
अजीब सवाल, पर बच्चे हैं, पूछेंगे ही।
सवाल पूछने और उनका जवाब सुनकर कभी हंसने और कभी भावुक होने का जो मजा मौसी के साथ है, वह और कहां। अपनी मां की बचपन की बातें सुनना। मां जैसा ही प्यार पाना। यही तो है वह प्यारा सा रिश्ता। मौसी यानी मां सी। मां जैसी। सचमुच कितना भावुक, खूबसूरत रिश्ता है मासी या मौसी का। धीरे-धीरे ‘आंटी’ शब्द में सिमट रही ‘मौसी’ की अहमियत शायद कभी कम न होगी। कभी शक्ल-सूरत में मां जैसी तो कभी प्यार-दुलार में मां जैसी। मां के बारे में मां जैसी से ही सुनने का अलग लुत्फ है। यहां अनुशासन की ‘गांठें’ नहीं होती, कहानियों में ‘बनावट’ नहीं होती। माहौल में ‘बोझिल गंभीरता’ नहीं होती। बच्चे तब और खुश होते हैं जब मौसी ‘पोल खोल’ अभियान में जुटी रहती है और उनकी (बच्चों की) मां इशारों-इशारों में चुप रहने का संकेत करती हैं। कभी-कभार तो बच्चे भी सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि मौसी और मम्मी जब बचपन में इतना लड़ते थे तो आज अकेले में घंटों क्या बातें करते हैं। कभी एक दूसरे की गोद में सिर रखकर और कभी कुछ खाते-खाते। कभी-कभी तो हद हो जाती है जब दोनों एक-दूसरे से कहते हैं कि ‘थोड़ा आराम कर लो।’ दोनों एक-दूसरे का इतना खयाल रख रहे हैं। बच्चों को चाहे गंभीरता से कोई बात समझ न आये, लेकिन उन्हें मजा बहुत आता है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि बच्चों को इस तरह के रिश्तों के बारे में बताना चाहिए और ऐसे परिवेश में रखना चाहिए कि उन्हें भी अपने भाई-बहन के प्रति प्रेम हो। बच्चे जब अपनी मौसी को मां की पोल खोलने वाली के तौर पर देखते हैं तो उन्हें मजा आता है। वही मौसी जब मां की केयर कर रही होती है तो उससे सीख मिलती है। रो रही होती हैं तो भावुकता का एहसास होता है। जिम्मेदारी का एहसास कराने वाली मौसी, बच्चों को पुरानी यादों से रू-ब-रू कराने वाली मौसी, मां को डांटने वाली मौसी, मां का खयाल रखने वाली मौसी… सचमुच यह रिश्ता है अद्भुत। छुट्टियों के दौरान मौसी के घर जाने का कार्यक्रम हो या फिर मौसी का अपने घर में स्वागत करने समय, बच्चों की उत्सुकता देखते ही बनती है। ऐसे में पापा की उनके साथ हंसी-ठिठोली एक अलग रौनक भरती है। आज भी कई जगह लोग खास अवसर पर पूरे कुनबे को जोड़ने की कोशिश करते हैं ताकि बच्चों को उनकी मौसी या मौसियां मिल सके। ऐसे अवसर मिल सकें जहां हो किस्सागोई। हंसी-ठिठोली। पुरानी बातें। सबके केंद्र में हो मौसी यानी मां के साथ मां जैसी।
(यह लेख दैनिक ट्रिब्यून के रिश्ते कॉलम में छपा है)

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