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Friday, June 28, 2019

गांव की यात्रा और नयी उम्मीदें (Trip to village Dadoolie, Uttarakhand,

(Ranikhet, Almora, Uttarakhand)
(Dadoolie)
मन किया उन सब दरवाजों-रोशनदानों को खोल दूं
जो उजाला भर दें मेरे घर में
लेकिन, एक अजीब सी आशंका मन में घूम रही थी।
मन मसोस कर रहा मैं और अंधेरे में ताकने लगा
उन कोनों, बक्सों को जहां अब सिर्फ यादें थीं
ऐसी यादें जो अब हमारी तरह धीरे-धीरे उम्र दराज हो रही थीं
कुछ पुराने जानकार मिले, कुछ अपने भी अपरिचित से लगे
गांव की इस यात्रा में उम्मीदों के दीये जगे।
ये पंक्तियां यूं ही मन से निकलीं और कागज पर उतर गयीं। मौका था गांव की यात्रा का।
(Dhooni Mandir) धूनी मंदिर के द्वार पर

 पिछले साल की तरह इस बार भी गांव जाने का मौका लगा। समय इतना मिला कि अपने पुश्तैनी घर का कोना-कोना झांक आया। नींबू, आड़ू के उन पेड़ों की जगह भी देख आया जहां अब जमीन भी ‘बह’ सी गयी है। बचपन के उन संगी-साथियों से भी मिला जिनके चेहरे पर उम्र अपनी छाप छोड़ने लगी है। पलायन का दंश झेल रहे अपने गांव में एक वैसी ही रौनक देखी जो करीब 40 साल पहले दिखती थी जब गर्मियों की छुट्टी में लोग घर आते थे। कुछ निराशा हुई, कुछ उम्मीदें जगीं। कुछ बुजुर्गों का आशीर्वाद मिला, कुछ युवाओं का साथ।
(Kainchi temple) कैंचीधाम मंदिर परिसर


खैर यात्रा विवरण लिखते-लिखते मुझे महान गीतकार गुलजार की चंद पंक्तियां याद आ रही हैं-
खिड़कियां खोल के कुछ चेहरे मुझे देखते हैं !
और सुनते हैं जो मैं सोचता हूँ !
एक, मिट्टी का घर है, शहर है कोई, मेरे सर में बसा है शायद!
बंद कमरे में कभी-कभी जब दीये की लौ हिल जाती है तो
एक बड़ा सा साया मुझको घूँट घूँट पीने लगता है
आँखें मुझसे दूर बैठकर मुझको देखती रहती है
कब आते हो कब जाते हो
दिन में कितनी-कितनी बार मुझको - तुम याद आते हो
खैर मजबूरी है। कोई दिल्ली है तो कोई कहीं और है। लेकिन गांव पहुंचे सैन्य अफसर और रिश्ते में मेरा भतीजा लगने वाले विनोद ने कहा, ‘गर्मियों में तो हर साल कुछ दिन आना चाहिए।’ ऐसे ही कुछ और अल्फाज उम्मीद से जगा गये कि मिलेंगे अपनों से। हरियाली देखेंगे। जीभर ताजी हवा में सांस लेंगे। बदलते पहाड़ दिखेंगे। अपनेपन-परायेपन के बीच नये समाचारों से रूबरू होंगे। खैर सिलसिलेवार बताता हूं इस यात्रा के बारे में-
भागवत पारायण के बाद भंडारा

इस बार भी जून में ही गांव जाने का मौका मिला। रानीखेत। दिल्ली से विपिन का परिवार। लखनऊ से शीला दीदी का परिवार (भांजे सौरभ को छोड़कर, वह दुबई में है)। चोरगलिया से प्रेमा दीदी का परिवार। लखनऊ से दाज्यू लोग नहीं आ पाये क्योंकि उनके मकान का रिनोवेशन चल रहा है। ऐसे ही कई निजी कारणों से गुलाबी बाग दिल्ली से हरीश, दीप आदि का भी कार्यक्रम नहीं बन पाया। यूं तो समस्त कार्यक्रम का सूत्रधार था भतीजा प्रकाश। उसकी योजना भी बहुत अच्छी थी। लेकिन सबको एकजुट रखकर आगे चल पाना भी तो बहुत मुश्किलभरा होता है। अंततः स्वयं प्रकाश हमारे लौट आने के बाद गांव जा पाया। खैर यह तो थी गांव पहुंचने की भूमिका। असल में बात तो अब शुरू होती है। मंगलवार 11 जून की रात नौकरी कर मैं अखबार की गाड़ी से देहरादून के लिए निकल गया। कुछ लोगों ने सलाह दी कि यूपी में गढ़ मुक्तेश्वर (गजरौला के पास) पर बहुत जाम मिलेगा क्योंकि अगले दिन गंगा दशहरा था। इसलिए रूट बदला। देहरादून सुबह 4 बजे देहरादून पहुंच गया। बल्लू चैराहे पर। वहां पहुंचते ही बारिश शुरू हो गयी। एक दुकान पर गया, वहां एक चाय पी फिर ऑटो लेकर बस अड्डे तक आया। वहां दो बसें खड़ी थीं। एक रानीखेत के लिए, दूसरी हल्द्वानी वाली। चूंकि मेरा हल्द्वानी जाना ही पहले जरूरी था वहां से छोटे बेटे को लेना था फिर बड़ी दीदी से मिलना था। मैं उस बस में बैठ गया। वह सफर इतना गंदा गुजरा जिसका बखान भी नहीं कर सकता। हरिद्वार से बाहर निकलने में ही चार घंटे लग गये। पूरे 11 घंटे लगे हल्द्वानी पहुंचने में। वहां पहले भांजी रेनू के यहां गया। सड़क पर ही भांजा मनोज मुझे लेने पहुंचा हुआ था। रेनू के यहां दोनों दीदीयां और जीजाजी भी मौजूद थे। उनके संग भांजी रुचि यानी बड़ी दीदी के यहां आये। कुछ देर में छोटा बेटा धवल भी अपने मामा के साथ वहां पहुंच गया। इससे पहले मेरा कार्यक्रम कुछ और लोगों से भी मिलने का था, लेकिन बस से हुई देरी के कारण सब गड्डमड्ड हो गया। खैर----।
अडगाड़ का शीतल जल

अगले दिन यानी बृहस्पतिवार को सुबह पांच बजे हम लोग तैयार हो गये। हमारी गाड़ियां करीब 6 बजे आयीं। भतीजे विपिन और उनकी पत्नी बीना तो रानीखेत एक्सप्रेस से समय पर पहुंच गये, लेकिन रिजर्वेशन कनफर्म न होने के कारण बच्चे नितिन, दिव्या और मनीषा वोल्वो बस से आ रहे थे। रास्ते में इनकी बस पंक्चर हो गयी। तय हुआ कि बड़ी गाड़ी में बाकी लोग निकलते हैं और एक व्यक्ति बच्चों को लेकर बाद में दूसरी गाड़ी से आएगा। पहाड़ों का दुर्गम सफर, जी मचलने की आशंका के चलते प्रेमा दीदी और अपने बेटे को तो मैंने दवा खिलवा दी, खुद ओवर कान्फिडेंट था कि मुझे तो कुछ नहीं होता, लेकिन जैसा सोचा वैसा हुआ नहीं। सब तो ठीक रहे, मुझे ज्योलीकोट पहुंचते-पहुंचते परेशानी महसूस होने लगी। मैंने ड्राइवर मेहरा साहब से कहा। उन्होंने एक झरने के पास गाड़ी रोक दी। वहां कुछ देर आराम किया। हाथ मुंह धोया और लखनऊ से आये जीजा जी पूरन चंद्र जोशी जी ने मुझे भी एक गोली खाने को कहा। मैंने दवा ली और हमारा सफर फिर शुरू हो गया। भांजा कुणाल मेरे बेटे धवल को गोद में लेकर आगे बैठा था। दूसरा भांजा गौरव पीछे हमारे साथ। कुछ देर बाद कुणाल को भी दिक्कत हुई। खैर धीरे-धीरे सब सामान्य हुआ। इस बीच हमारी बातचीत विपिन से होती रही। (विपिन बच्चों को लेकर दूसरी कार से आ रहे थे) वे लोग भी चल चुके थे। आगे चलकर हम कैंची धाम मंदिर में भी रुके। वहां कुछ देर प्रार्थना की और प्रसाद ग्रहण किया। इसके बाद मेहरा साहब से नाश्तेपानी की बात हुई। वे बोले, आगे फकीरदा की दुकान पर पकौड़ा-रायता अच्छा मिलता है। कुछ देर बाद हम लोग फकीरदा की दुकान पर पहुंच गये। कुछ ने रायता पकौड़े खाये, कुछ ने चना-रायता। भांजों और मेरे बेटे ने बन-मक्खन लिया। कुछ देर यहां विश्राम के बाद हम आगे बढ़े। आगे एक दुकान से गांव के कुछ लोगों को लिए मिठाई खरीदी। उसके करीब आधे घंटे बाद हम लोग ताड़ीखेत पहुंच गये। ताड़ीखेत में ग्वेल देवता के मंदिर में हाथ जोड़े। उसके बाद प्रसाद आदि की खरीदारी हुई। बातों का सफर आगे चले, यह बताना जरूरी है कि शुक्रवार को घर में पूजा-पाठ, शीला दीदी द्वारा बच्चों के नाम की बधाई। ग्वेल देवता के यहां विपिन द्वारा कराई गयी पूजा, धूनी मंदिर में प्रेमा दीदी द्वारा गाया गया भजन, स्कूल के दर्शन बेहद अविस्मरणीय पल रहे।

ग्वेल देवता का मंदिर

खत्म हुआ सड़क वाला सफर
आधा घंटा ताड़ीखेत रुककर हम लोग गांव की तरफ बढ़े। करीब सात किलोमीटर चलकर हम सरना पहुंच गये। हमारी गाड़ी यहीं तक पहुंच सकती थी। वहां सामान उतारा। मेहरा जी को पैसा दिया। वहां कुंदन सिंह की दुकान अमूमन खुली रहती थी, लेकिन पता चला पिछले दिनों उनके चाचा का निधन हो गया था। उस वक्त उनका पूरा परिवार गांव के पास ही एक झरने पर तिलांजलि देने गये थे। खैर अन्य सामान तो सब ले गये, लेकिन बिस्तर का बंडल बहुत भारी था। उसे वहीं रख दिया। पहाड़ों की यह बात तो वाकई बहुत अच्छी है कि कुछ चोरी होने की कोई आशंका नहीं। कुंदन की दुकान बंद थी, घर पर भी कोई नहीं था फिर भी हम लोग बिस्तर बंद को ऐसे ही छोड़ आये। उसके बाद हम लोग पैदल चल पड़े। करीब डेढ़ किलोमीटर की चढ़ाई करनी थी। पहले तल्ला बाखई पहुंचे। वहां कई बुजुर्ग लोग, कुछ साथ के लोग और कुछ नये-नये जवान हुए लोग मिले। उधर, करीब आधे घंटे बाद विपिन लोग भी आ गये। विपिन का बेटा नितिन भी बहुत नेक है। एमएनसी में काम करने वाले इस युवक को भी कोई झिझक नहीं होती। वह पूरे बिस्तर को सिर पर रखकर ले आया।
व्यास जी

पानी की समस्या और सहयोग
गांव पहुंचते ही हम अपने घर में गये। विपिन लोग अपने घर में। विपिन की कैलाश से बात हो चुकी थी। वह खाना बनाने में मशगूल था। कैलाश की पत्नी का स्वास्थ्य ठीक नहीं था, लेकिन उसकी छोटी-छोटी प्यारी बच्चियां पूरे शिद्दत से काम में लगी थीं। थोड़ी देर में कैलाश पहले पानी लेकर आया फिर हम सब लोगों ने उसी के यहां दिन का भोजन किया। कुछ ही देर में हमें खिलगजार में भागवत में जाना था। हम लोग प्रयागदा के परिवार से भी मिले। इन दिनों वह थोड़ा परेशान थे। घर में एक नवजात आया और महीनेभर में ही चला गया।

खिलगजार में भागवत, भतीजे का ओजस्वी प्रवचन, मित्रों से मिलन
हमारी बुजुर्ग भाभी जी के भागवत का ही आमंत्रण मुख्य था कि हम गांव गये। दोपहर में हम लोग खिलगजार पहुंच गये। वहां भागवत चल रहा था। ‘व्यासजी’ उस वक्त भ्रमर गीत प्रसंग और कृष्ण भक्ति की चर्चा कर रहे थे। उन्होंने रसखान की कविता का भी पाठ किया। बेहद ओजस्वी अंदाज। उनकी टीम बीच-बीच में माहौल को संगीतमय बना देती। बेहद आनंद आया। आरती शुरू होने से पहले मैं व्यास गद्दी के पास गया। वहां प्रणाम किया। भाभी जी को प्रणाम किया। थोड़ी देर बाद व्यासजी वहां से आये तो पता चला अरे यह भी तो हमारे भतीजे साहब हैं। ललित। पेशे से अध्यापक। इससे पहले कई बार उनसे बात होती रहती थी। इसी बीच कुछ लोग आये। सबने एक ही सवाल पूछा, ‘पहचाना।’ एक महिला ने पूछा, ‘केवल पहचान।’ मैंने कहा पहचान तो लिया पर पूरी तरह से नहीं। वह तो हिमतपूर पुष्पा दीदी थीं। शीला दीदी की सहेली। एकदम वैसी हीं। सुंदर। सहज। इसी बीच एक महिला ने दूर से पुकारा, ‘ओये केवल इधर आ।’ मैं वहां चला गया। वह बोलीं-पहचान। मैं नहीं पहचान पाया। उस महिला के बालों में हल्की सफेदी थी। चेहरा बढ़ती उम्र की चुगली कर रहा था। मैंने कहा, ‘पहचान फिर हो जाएगी पहले पैर तो छू लूं।’ उन्होंने हाथ पकड़ा और बोलीं, ‘मैं जानकी हूं, तेरे साथ पढ़ती थी।’ मैं हक्का-बक्का रह गया। मैंने सवाल किया, बड़ी जल्दी बालों में सफेदी आ गयी। वह बोलीं, तेरे में भी तो गंजापन आने लगा है। फिर हंसते हुए कहा, ‘नजला रहता है मुझे।’ इसके बाद बच्चे कितने हैं, क्या चल रहा है जैसे मुद्दों पर बातचीत होने लगी। इसी बीच ग्राम प्रधान पान सिंह मिले। उनसे बात कर ही रहा था कि कई महिलाएं आकर पैर छू गयीं। पास में खड़े दीप चंद्र, कृपाल और नवीन परिचय कराते रहे। कुछ बच्चियां ससुराल से आईं थीं। कुछ रिश्ते में बहू लगती थीं। इसी दौरान साथ पढ़ा बबलू मिला। मेरे से एक क्लास जूनियर रहा और अब लेक्चरर पद पर आसीन राजू मिला। थोड़ी देर में हम उमेशा दा, हरीश दा, दीपदा की मांताजी से मिलने गये। वह हमारी भाभी लगती हैं। उम्र 80 से ज्यादा। क्रिकेट की दीवनी। उन्होंने बहुत प्यार से सिर-माथे पर हाथ फेरा। कुछ देर बातकर हम फिर नीचे आ गये। अगले दिन पारायण था ललित से बहुत बातें हुईं। आजकल की और पुरानी कविताओं पर खूब चर्चा हुई। ललित को अपना ब्लॉग भी पढ़वाया।

...और फिर वापसी
शनिवार सुबह मैं फटाफट तैयार हुआ। बेटे को भी तैयार किया। बस पकड़ने के लिए हम 7 बजे नीचे सड़क पर आ गये, लेकिन पता चला कि उस दिन हल्द्वानी वाली बस जा ही नहीं रही है। किसी तरह से बीरू सिंह की जीप में ताड़ीखेत तक आया। इस दौरान भागवत कराने वाली भाभी की बेटी किरन भी मिल गयीं। उसने बताया कि रामनगर के रास्ते ठीक रहेगा। फिर मैं और धवल किरन के साथ ही रामनगर तक आये। रामनगर आकर किरन ने बड़ी मदद की। वह फटाफट बस में सीट घेरने चली गयी और हमें विदा कर चली गयीं। वह रामनगर के पास ही कहीं रहती है। सफर वापसी हो गयी। मनुष्य कर्म के अधीन है। पहुंचना जरूरी था। इस चर्चा को गुलजार के ही गीत से समाप्त करता हूं-
कुछ खो दिया है पाइके, कुछ पा लिया गवांइके। कहां ले चला है मनवा मोहे बांवरी बनाइके।






1 comment:

Unknown said...

वाह चाचू सुपर से ऊपर एकदम विंदास
कोटी कोटी नमन 🙏🙏हरहर महादेव 🙏🙏