केवल तिवारी
प्रथम पूज्य गणेश भगवान की पूजा, अर्चना के इस विशेष पर्व यानी गणेश चतुर्थी के मौके पर मन में अनेक प्रकार की उमड़ घुमड़ हुई। घर के रुटीन काम की निवृत्ति के बाद मन कुछ अशांत अशांत सा रहा। फिर अपने ही अंदर से आवाज आई, उठो और सकारात्मक सोच रखो। फिर ईश्वर संवाद में आगे बढ़ा। डायरी लेखन, बेहद छोटा सा संवाद, मानो गणपति कह रहे हों, जीवन आशा और निराशा का संगम है। इसी में विष और इसी में अमृत है। मंथन करो, ढूंढ़ो और सफर पर चल निकलो। यही उत्साह का संचार ही तो है गणेशोत्सव।
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी ने लोगों को एकजुट कर उत्साही बनाने के लिए ही तो शुरू किया था। उत्साह कितने समय तक? उठा मेरे मन में यह सवाल। कुछ लिखने, व्यक्त करने के दौरान ही फिर कुछ कुछ निराशा सी। किसी की हरकत से, किसी के कमेंट से, आर्थिक हालात से, स्वास्थ्य की दृष्टि से, जिम्मेदारी की फेहरिस्त से... ऐसे ही अनगिनत कारणों से। गणपति समझाते हैं, हमारे मन में बैठकर, भूलकर भी किसी का बुरा न सोचो, बुरा करना तो फिर अकल्पनीय ही हो, मत उम्मीद रखो, अपनी वाणी को मधुर ही बनाए रखो। फिर मानव मन हावी, इतना सबकुछ कैसे संभव? आखिर इंसान ही तो हैं। इसीलिए तो इस इंसानी फितरत को बनाए रखो। कुछ समय बाद उनसे मिलना है, उसकी तैयारी। चर्चा। खरीदारी। लेकिन सबकुछ आपके मन मुताबिक होगा, यह उम्मीद ठीक नहीं। आप अपने मन मुताबिक करो। संकल्प आया कि नकारात्मक बातों में खुद को ज्यादा मत उलझाओ। सार्थक चर्चा के बीच, जिम्मेदारी का अहसास भी हो। फिर ये, फिर वो चलता ही रहेगा।
गजब संयोग है कि गणेशोत्सव के इस आत्मसंवाद के दौरान ही मित्र मनोज भल्ला का ईश्वर के प्रति आस्था और अनास्था का द्वंद्व भरा मैसेज आया। इतना सामान्यीकरण कैसे हो सकता है। मैं आस्तिक हूं, पर अंधविश्वासी नहीं। मैं यह दावा नहीं करता कि मैं ही सही हूं, लेकिन बिना किसी को कष्ट पहुंचाए मैं अपनी श्रद्धा से जी रहा हूं। चंडीगढ़ में एक दशक तक जिस घर में रहा उसके ठीक सामने शिव मंदिर है। मैं रोज घर के मंदिर में पूजा अर्चना करने के बाद एक लोटा जल मंदिर में भी चढ़ाया करता था, लेकिन सावन के महीने में नहीं जाता। ठीक ठाक भीड़ होती थी, मेरे जाने से शायद किसी का नंबर कट जाता, यही भाव मन में रहता। सामान्य दिनों में भी अगर कोई देवी या सज्जन मंदिर में ध्यानमग्न होता तो मैं लौट आता। आखिर जो व्यक्ति पूजा कर रहा है, वह भी तो सर्वे भवन्तु सुखिन: ही कहता होगा। ऐसे ही जब मैं मित्रों के साथ रहता था, मुझे पूजा के लिए मंदिर की जरूरत नहीं होती थी। समय-समय की बात होती है। कुछ समय के हिसाब से बदल जाते हैं, कुछ गजब का राग द्वेष पाले रहते हैं, जबकि सब जानते हैं कि यह किसी को नहीं पता कि अगले पल क्या होने वाला है। जब हमारा शरीर एक जैसा नहीं रहता तो हमारी आदतें शाश्वत कैसे हो सकती हैं। मेरा मानना है कि पूजा पाठ, आस्तिक या नास्तिक नितांत निजी मामला है। आप ईश्वर के अस्तित्व को मानते हैं तो नहीं मानने वालों को मानने के लिए फोर्स मत कीजिए। नहीं मानने वाले हैं तो मानने वालों की खिल्ली मत उड़ाईये। नितांत पारिवारिक मसलों पर यह नियम थोड़ा लचीला हो सकता है। आप बच्चों से कहते हैं ऐसा करना चाहिए, ऐसा नहीं। बहुत व्यापक विषय है यह। गणपति बप्पा के संदेश को समझिए, यह मैं अपने लिए कह रहा हूं... आशा, निराशा ईश्वर का साथ, आपकी बातों के साथ अपनी बात। .... जारी है चर्चा।
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