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Thursday, October 5, 2023

मोगा यात्रा, बातें-वातें और कुछ अलग सा अहसास

 केवल तिवारी

सच में वही होता है जो शायद ईश्वर ने तय किया होता है। इसीलिए कहा गया कि जो भी होता है अच्छा होता है। अच्छा ही रहा कि मोगा गए, फिर जालंधर-कपूरथला। कोई कार्यक्रम नहीं था। छुट्टी ली थी वृंदावन जाने के लिए, फिर कार्यक्रम बना कसौली बाबा बालकनाथ मंदिर जाने का और अंतत: गया मोगा। सोनू यानी सतीश जोशी के पास। भावना (मेरी पत्नी) का चचेरा भाई। संयोग है कि सतीश की पत्नी का भी नाम भावना है। सहज और सरल महिला। तो आइये मेरे साथ चलिए इस सफर पर। सफर की शुरुआत से पहले आइये दो शेर हो जाएं। मेरे नहीं हैं, इधर-उधर से टीपे हैं, बोल हैं-
अपनापन छलके जिसकी बातो में, सिर्फ कुछ ही लोग ऐसे होते है लाखो में।
होने वाले ख़ुद ही अपने हो जाते हैं, किसी को कहकर अपना बनाया नहीं जाता।



असल में उक्त शेर मैंने इसलिए इस यात्रा से जोड़ दिए कि सोनू से उतना ही पुराना नाता है जितनी पुरानी मेरी शादी हो गयी। शादी समारोह के दिन से ही उससे बातचीत का सिलसिला चल निकला। थोड़ा-थोड़ा टेस्ट समान था। वह भी लिखने-पढ़ने वाला था और मैं भी। फिर नौकरी की व्यस्तताएं। इत्तेफाक से फौज में रहते हुए वह कुछ समय दिल्ली में रहा, तब मुलाकात हुई। काठगोदाम जाने पर सोनू के घर में भी हमारी आवभगत अच्छी होती। इत्तेफाकों का यह सिलसिला गाजियाबाद में मकान लेने को लेकर भी हुआ। हालांकि मेरा मकान वाला संबंध अब जल्दी ही दिल्ली-एनसीआर से खत्म हो जाएगा।
खैर.... जब सारे प्लान बंद होते गए तो बुधवार सुबह सोनू को फोन किया। नमस्कार का आदान-प्रदान होते ही मैंने सवाल दागा, 'इस बार लंबा वीकेंड है, कहां जा रहे हो।' 'कहीं नहीं, जीजाजी घर पर ही हूं। शनिवार को मेरी छुट्टी नहीं है।' 'तो फिर हम आ जाएं?' 'अरे वाह, कल ही आ जाओ।' 'कल तो नहीं शनिवार को मिलते हैं।' पक्का हो गया कि सोनू कहीं जा नहीं रहा है और रविवार और सोमवार को छुट्टी पर है। वैसे तो मेरे जैसे अखबारनवीसों के लिए शनिवार, रविवार छुट्टी लेना मुश्किल होता है, लेकिन इस बार राजू (भास्कर जोशी) के कहने पर छुट्टी ली थी और साथ वृंदावन जाने का कार्यक्रम बना था। हम लोग शनिवार सुबह करीब सवा ग्यारह बजे मोगा के लिए रवाना हो गए।
हरियाली और ये रास्ता...







किसी से भी कहता कि मोगा जा रहा हूं तो पहला सवाल होता मोगा में क्या है? फिर जब बताता कि वहां सतीश जोशी हैं तो फिर बात बनती कि जाते वक्त नजारे अच्छे दिखेंगे। सचमुच हाईवे के दोनों ओर खेतों में हरियाली और पीलिमा दिखी। सड़क किनारों पर अलग-अलग रंग के फूलों की अंतहीन कतार। रास्ते में पड़े लुधियाना और चुन्नी जैसे कुछ शहर। चंडीगढ़ में आए एक दशक के दौरान इस रूट पर कुछ दूरी तक तो जाना तब से होता है जब से कुक्कू (मेरा बड़ा बेटा कार्तिक) का आईआईटी रोपड़ में दाखिला हुआ है। इस बार देखा कि रोपड़ की तरफ जाने वाले रास्ते से पहले ही मोगा के लिए कट मिल जाता है। हम लोग ढाई बजे सोनू के ऑफिस के बाहर पहुंच गए। दो मिनट में सोनू बाइक पर आया और घर ले गया। घर पर लजीज व्यंजन हमारा इंतजार कर रहे थे। जाते ही पहले तो डूग्गू (सतीश का बड़ा बेटा) और अक्षित (छोटा बेटा) बेहद खुश हो गए। डुग्गू को कुछ माह पहले काठगोदाम में हुई मुलाकात की बात याद आ गयी, लेकिन अक्षित से दोस्ती होने में कुछ समय लगा। भोजन से पहले हमें घर देखने की इच्छा हुई। सचमुच घर बहुत अच्छा है। बेहतरीन ढंग से चीजों का समायोजन। बाहर हरियाली। पूरी कालोनी ही हरी-भरी। डिनर के बाद और अगली सुबह भी हमने कालोनी के चक्कर लगाए। घर और कालोनी के साथ-साथ बच्चों (कुक्कू और छोटे बेटे धवल) को सोनू का परिवार भी बहुत अच्छा लगा। सोनू का बड़ा बेटा डुग्गू तो कुक्कू के साथ ही लगा रहता।  

बच्चों के साथ फुल मस्ती
रविवार सुबह हम लोग पुष्प गुलजार साइंस सिटी के लिए निकले। हमारे साथ सोनू के ऑफिस में साथ काम करने वाले मंदीप जी भी चले। मंदीप जी भी बेहद कल्चर्ड व्यक्ति हैं। उनकी पत्नी और बेटा विवान भी बेहद हंसमुख स्वभाव के हैं। विवान का तो यह आलम था कि वह मेरे साथ बहुत देर तक बातें करता रहा। मैं उनको कहानियों और जादूगरी (बड़े जो बच्चों के कोमल मन के साथ झूठ का सहारा लेते हैं) में उलझाता रहा। कभी झूले में मस्ती तो कभी डायनासोर पार्क में। सच में पूरा दिन कैसे निकल गया पता ही नहीं चला। शाम को घर आने पर मंदीप ने घर चलने का आग्रह किया, लेकिन थकान इतनी थी कि हम लोग उनके इस आग्रह को नहीं मान पाए। लेकिन उनके साथ एक लंबा समय अच्छा बीता।

बातचीत के दायरे में दो-तीन और लोग
रविवार शाम को घर लौटने के बाद हम लोगों की चाय-पानी चल ही रही थी कि नवीन जी और मुनीष जिंदल भी आ गए। उनके साथ भी कुछ देर बैठकी हुई। बातों-बातों में पता चला कि उनका चंडीगढ़ आना-जाना लगा रहता है। अगली सुबह नवीन जी के भाई भी मिले। सोनू ने बताया कि ये लोग उन लोगों में शामिल हैं जिनसे अपनापन मिला है। उम्मीद है कि ये मुलाकातें होती रहेंगी।

उम्मीदें रहें कायम
उस गीत की मानिंद फिर अजीब तो लगता ही है, सबसे ज्यादा बच्चों को, जिसके बोल हैं- 'हर मुलाकात का अंजाम जुदाई क्यों है?' फिर खुद को समझाया जाता है कि जुदा होंगे तभी तो अगली बार मिलेंगे। बेहद खूबसूरत सफर का अंजाम भी अच्छा रहा। आजकल हम वहीं की बातें करते हैं। उम्मीद है कि सोनू के माता-पिता भी जल्दी मोगा जाएंगे, भले ही कुछ समय के लिए। साथ ही उम्मीद है कि हमारी मुलाकातें भी होती रहेंगी। चले चलें....
देखिए कुछ और तस्वीरें










2 comments:

Anonymous said...

Bhagwan ke aashirwad se jaldi hi dubara mulaqaat hogi.....sadar naman didi aur jijaji ko.....itna kuch kahne ke liye Dil se aabhaar......

kewal tiwari केवल तिवारी said...

शुक्रिया। ये दिल से निकले उद्गार है