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Friday, April 26, 2024

पृथ्वी दिवस पर सार्थक बात, सार्थक प्रयास और सार्थक उम्मीद

केवल तिवारी

चमक है इन आंखों में, हौसला है मन में।
बड़े होने की दहलीज पर, हिम्मत है तन में।
वक्त आने दे बता देंगे ये सब ज़माने को
अभी तो राह पर चले हैं, मंजिल तो आने दो।
इनके लिए हो रहा हर प्रयास होगा सार्थक।
मंजिल मिलेगी और लक्ष्य होगा परमार्थक।
पिछले दिनों अपने पुराने कर्मभूमि परिसर वसुंधरा, गाजियाबाद जाना हुआ। अक्सर जैसा होता है उमेश पंत जी से मिला। कुछ सार्थक बातचीत हुई। साथ ही उन्होंने कहा कि सार्थक प्रयास स्कूल के बच्चों से मिल लीजिए। ऐसे आयोजन के लिए मैं झट से राजी हो जाता हूं। संयोग से उस दिन पृथ्वी दिवस था और इस दिवस की पूर्व संध्या पर उमेश पंत जी ने मुझे अपनी छत की बागवानी दिखाई। बेहद आकर्षक और हरियाली मानो संदेश दे रही कि इरादे नेक हों तो सपने भी साकार होते हैं। आपको मन में ठानना पड़ता है। उस बागवानी की कुछ तस्वीरें साझा करूंगा जो खुद ही सबकुछ बयां करेंगे। बात हो रही थी, सार्थक प्रयास स्कूल के बच्चों से रूबरू की, उसके विवरण से पहले आइए पहले कुछ सार्थक राह के अथक पथिक यानी उमेश पंत जी की बात करें।



सार्थक राह का अविचल राही
ये हैं उमेश पंत। दो दशक से अधिक समय से मेरे परिचित। नि: स्वार्थ मेल मिलाप के बाद एक समिति में साथ जुड़ गए। उन दिनों वसुंधरा का इलाका एक नया शेप ले रहा था। एक अच्छी खासी नौकरी कर रहे पंत जी निर्माण मजदूरों के बच्चों की स्थिति से द्रवित हो गये। और यह सिलसिला ऐसा चला कि लंबी कहानी है। उस पर चार पंक्तियां ऐसे ही आ गयीं, पढ़िए -
चलते रहे, हमें थकने का समय ही कहां मिला।
एक धुन में पकड़ ली राह, न शिकवा, न गिला।
मंशा हो नेक, चाहे राह हो कितनी कठिन।
पथिक तू चलता चल, छालों को न गिन।
इस सफर में अनेक लोग हमसफ़र बनेंगे।
कुछ साथ रहेंगे, कुछ अपनी राह चल पड़ेंगे।
ऐसा ही हुआ। अनेक झंझावातों से जूझते हुए इस वक्त पंत जी के सान्निध्य में अनेक पुस्तकालय, वाचनालय चल रहे हैं। वसुंधरा में सुविधाविहीन बच्चों के लिए दो स्कूल चल रहे हैं। पंत जी पर विस्तृत चर्चा फिर कभी। आइए अब उस कार्यक्रम की बात करें-
हम लोग सुबह पौने आठ बजे स्कूल पहुंच गए। पहले बच्चों ने प्रार्थना की। नयी जगह स्कूल शिफ्ट हुआ था। सार्थक प्रयास से ही निकला आनंद जो अब आनंद सर हो चुके हैं, मुस्तैद थे। टीचर्स की देखरेख में बच्चों ने पेंटिंग्स तैयार की थी। छोटे बच्चों से छोटी सी बात ही हुई। उम्मीद जगी कि ये बच्चे सही राह पर चलेंगे। फिर हुई बड़े बच्चों से मुलाकात। बहुत अच्छा लगा जब उन्होंने अपनी उत्तराखंड यात्रा के बारे में बताया। वह यात्रा जिसे पंत जी ने यह कहकर अयोजित की कि परीक्षा में अच्छा करने वाले बच्चे यात्रा पर चलेंगे। बहुत अच्छा लगा बच्चों की आंखों में चमक देखकर, तभी तो अनेक बच्चे तब भावुक हो गए जब मैंने कहा बच्चो कभी भी अपने इमोशंस को कम मत होने देना। पृथ्वी दिवस क्यों? सवाल पर बच्चों ने बहुत अच्छे जवाब दिए। एक ने कहा, 'पृथ्वी हमें इतना कुछ देती है, हमें भी उसे संवारना चाहिए।' एक अन्य ने कहा, 'जिस तरह मां होती है, वैसी ही हमारी पृथ्वी है।' एक बच्ची ने कहा, 'हमें पृथ्वी को रिटर्न गिफ्ट देना चाहिए।' बच्चों के जवाब को समझें तो ये सभी बातें आपस में मिली हुई हैं। मैंने कहा कि सचमुच पृथ्वी मां ही होती है। एक मां अपने बच्चे से सिर्फ यह उम्मीद करती है कि वह अच्छा इंसान बना रहे। इसी तरह अच्छे इंसान की तरह हम सबका फर्ज है कि पृथ्वी के प्रति अपने कर्त्तव्यों को समझें। मैंने उदाहरण देते हुए कहा कि छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखें जैसे, कुछ देर पहले पंत जी ने स्कूल की ऊपरी मंजिलों की ओर जाते हुए बिना काम के जली हुई लाइट्स को बंद किया, पंखे बंद किए। इसी तरह यदि कहीं नल खुला हो, पानी बेकार बह रहा हो, उसे भी बंद कर दें। अपने हिस्से की जिम्मेदारी अगर हर व्यक्ति पूरा करे तो बहुत कुछ ठीक हो जाएगा। असल में हम लोग उपदेश देते हैं, या औरों की बुराई से जल्दी प्रभावित होते हैं। चिप्स या चॉकलेट के रैपर खुले में नहीं फेंकने हैं, हमें पता है, लेकिन जब देखते हैं कि जगह-जगह तो ऐसे रैपर फैले हुए हैं तो हम भी सोचते हैं, इतने लोगों ने तो फेंक रखे हैं, हम भी फेंक देते हैं। यहां हम अपने हिस्से की जिम्मेदारी भूल जाते हैं। फिर उनसे कुछ घर-परिवार को लेकर बातें हुईं। मन में यकीन हुआ कि इन बच्चों को सार्थक मंच मिला हुआ है, अवश्य ही ये अपनी कल्पनाओं को पंख देंगे और बड़े फलक को छुएंगे। बातों-बातों में बच्चों से कुछ और भी चर्चाएं हुईं। धीरे-धीरे करिअर की दहलीज पर पैर रखने जा रहे इन बच्चों को तमाम चीजों में सामंजस्य बिठाकर आगे बढ़ना होगा। संभवत: ये लोग इन चीजों को समझते भी हैं। इस ब्लॉग के माध्यम से भी कहना चाहता हूं बच्चो, कभी भी तड़क-भड़क को देखकर डिगना मत। राह में परेशान करने वाली चीजें या बिगाड़ने वाली चीजें ज्यादा आएंगी और आकर्षित करेंगी, उनसे बचकर चलना। इस कार्यक्रम में एक टीचर ने सुंदर कविता सुनाई, उन्हें साधुवाद। एक टीचर और पंत जी ने एक स्मृति चिन्ह दिया, उसके लिए भी धन्यवाद। एक बच्ची सार्थक प्रयास के जरिये बीकॉम कर रही है, उसे ढेर सारा आशीर्वाद।








कुछ चर्चा पंत जी की बागवानी की
बात अर्थ डे की थी तो पहली शाम को पंत जी ने अपनी छत की बागवानी दिखाई। मैं असमंजस में था कि तमाम परेशानियों के बावजूद हरियाली से ऐसा लगाव एक जुनूनी व्यक्ति ही रख सकता है। जमीन नहीं होने का बहाना नहीं चलेगा। कबाड़ को भी सोना बना दिया। टूटी टंकियां हों या फिर सीमेंट से बनायी क्यारियां। छत पर आड़ू, अंगूर, भिंडी, पुदीना और मिर्च देखकर मन गदगद हो गया। इसके अलावा अपराजिता के फूल और अन्य पौधे भी। इस चर्चा में उमेश जी की अर्धांगिनी सुषमा जी का जिक्र कैसे भूल सकता हूं। उन्होंने छत में उग रही चीजों से ही चटनी बनायी जो आलू के गुटकों के साथ बेहद स्वादिष्ट बनी। उनकी बिटिया तानी से भी कुछ बातें हुई जो इन दिनों पुणे गए भाई को बार-बार याद कर रही है। भाई यानी तन्मय भी अपनी राह पकड़ चुका है, उसे खूब सफलता मिले यही कामना है। अब यहां बागवानी के कुछ चित्र-








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