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Friday, November 22, 2024

जवानी की दहलीज पर खड़े हो तो पढ़ो ये प्यारा संदेश- इस परीक्षा में हार जाओ बच्चो !


केवल तिवारी

अक्सर हम कामना करते हैं बच्चों की सफलता की। उनके जीतने की। जीवन की तमाम परीक्षाओं में विजयी होने की। लेकिन जीवन की इस आपाधापी में कुछ परीक्षाएं ऐसी होती हैं जिनमें हार जाने की सीख यदि बच्चों को दी जाये तो माहौल ही सुखद हो जाएगा। असल में कुछ समय पहले चंडीगढ़ के आसपास ही एक अनौपचारिक कार्यक्रम में जाने का मौका मिला। वहां कुछ हमउम्र लोग अपने जवान होते बच्चों की बातें कर रहे थे। कोई अति तारीफ कर रहा था, कोई संयत था। किसी के पास सिवा शिकायत के कुछ था ही नहीं। इन्हीं बातों के सिलसिले में एक बात निकलकर आई कि बच्चे जब बड़े हो जाएं। यानी किसी धंधे-पानी में लग जाएं या फिर गृहस्थी की दहलीज पर कदम रखने वाले हों तो उन्हें एक सीख दीजिए कि परिवार की परीक्षाओं में हार जाओ। हार जाओ यानी जितना संभव हो अपने से बड़ों या बुजुर्गों की बातों में टोकाटाकी न करें, उनकी बात को सुनें। अति जानकार न बनें और उनके सामने हर जाएं। याद रहे बच्चो, हर मां-बाप की तमन्ना होती है कि उनके बच्चे कम से कम इतनी तरक्की करें कि उनसे आगे निकल जाएं। यह आगे निकलना सेहत की दृष्टि से है। यह आगे निकलना पढ़ाई को लेकर है और पेशेवर तरक्की को लेकर भी है।

अब ये असफल होना या हार जाना क्या है

जनरेशन गैप का मामला हमेशा रहता है। नयी पीढ़ी को लगता है कि जमाना हमारा है और चीजें भी हमारे हिसाब से होनी चाहिए। उधर, बुजुर्गों का तर्क होता है उनके पास अनुभव का खजाना है, इसलिए उनकी चलनी चाहिए। अब चलनी चाहिए, नहीं चलनी चाहिए तो दूसरी बात है, अहम बात है हारने या असफल होने का। एक छोटा सा उदाहरण समझिए। मान लीजिए परिवार के किसी बुजुर्ग से हम बात कर रहे हैं। बात आगरा शहर की हो रही हो। वह बोलें, मैं भी उस इलाके में कुछ दिन रहा हूं। दो बड़े-बड़ चौक वहां पर बने थे। कोई युवा तपाक से बोल उठे, वहां कोई चौक कभी था ही नहीं। इतने साल से मैं ही देख रहा हूं। मैं कहता हूं हो सकता है युवा ही सही हो, लेकिन अगर इसकी जगह वह चुपचाप सुन ले या यह कह दे कि हां बदल तो अब सारे शहर गए हैं। कहीं मेट्रो आ गयी है और कहीं फ्लाईओवर बन गए हैं। लेकिन कई बार देखने में आया है कि कुछ युवा अड़ जाते हैं। ऐसे कई मसले हैं। खान-पान की बातों पर भी। कुछ और बातें भी हैं। बड़ों के रुटीन से भी अगर दिक्कत हो तो कई बार उसे इग्नोर करना कितना अच्छा होता है। आपको मालूम भी हो कि मैं जो कह रहा हूं, सही कह रहा हूं फिर भी आप उसे जाहिर नहीं करते तो यही है असफल होना। परिजनों के बीच ऐसी असफलता बहुत सुकून देती है। नयी पीढ़ी को भी पुरानी पीढ़ी को भी।

फलों से लदा पेड़ बनिये

कार्यस्थल पर आपकी शैली अलग हो सकती है, लेकिन घर में उस शैली को मत अपनाइये। घर तो घर है। यहां फलों से लदे पेड़ सरीखे बन जाइये। यानी विनम्र और सरल। साथ में सहजता भी। धौंस जमाने की आदत भी कई बार युवाओं में होती है। धौंसपट्टी से काम बिगड़ते ही हैं, बनते नहीं हैं। साथ ही परिवार के बीच सबसे खुशी की बात है फैमिल फर्स्ट। अपने सबसे नजदीकी परिवार के साथ हमेशा संपर्क में रहिए, फिर धीरे-धीरे उसे विस्तारित कीजिए। इस संबंध में अपरे अखबार के 'रिश्ते' कॉलम में मैंने बहुत कुछ लिखा था, जैसे जो मां जैसी वह मौसी। पापा का बचपन जानने वाली यानी बुआ। ताऊ-चाचा यानी इनको है सब पता। इनसे जानिये पापा के बचपन की कहानियां। ताई तो होती ही है न्यारी। मामा यानी दो बार मां। मतलब मां से भी ज्यादा प्यार करने वाला रिश्ता। तो चलिए आज कुछ ज्ञान की बातें हो गयीं। अगले ब्लॉग में कुछ और...। 

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