भ्रष्टाचार एक वायरस की तरह आज पूरी व्यवस्था में घुस चुका है। इसकी गहरी जड़ों का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई बार आधिकारिक रूप से लिए गए निर्णय और उसके बाद कार्रवाई पर भी इसका चाबुक बीस साबित हो जाता है। व्यवस्था में बने रहने की बात हो या उसी का हिस्सा बनने की, भ्रष्टाचार का गोल चक्कर ऐसा है कि यह जुमला बन गया कि 'मुफ्त में कुछ नहीं होता।"
मृत्यु प्रमाणपत्र बनाने की बात हो या फिर शवों की अंत्येष्टि का मामला, शल्य चिकित्सा और दवा आपूर्ति का मामला हो सामान्य ट्रैफिक चालान से लेकर एफआईआर दर्ज करने की बात या फिर कोर्ट में चल रहा ट्रायल, राशन कार्ड से लेकर भू रिकॉर्ड की बात हो या पार्किंग से लेकर रेहड़ी-पटरी की बात हो। निर्माण की अनुमति का मामला हो या फिर तोड़फोड़ कार्रवाई की बात, खरीद मामला हो, फाइल आगे बढ़ाने की बात हो, चेक भुगतान का मामला हो, विकास कार्य या कल्याण योजना की बात हो, विभिन्न् तरह के अनापत्ति प्रमाणपत्र की बात हो या फिर कर निर्धारण का मामला। बात किसी की नियुक्ति या प्रोन्न्ति का हो, स्थानांतरण या फिर दंडित करने की बात। या यह कहें कि कोई भी सरकारी कामकाज, सबमें आज स्थिति यह है कि लेने-देने की बात को जैसे आत्मसात कर लिया गया हो। शायद ही कोई ऐसा काम होगा जहां लेन-देन की प्रकिया या इसकी बात न होती हो।
भ्रष्टाचार के वायरस का एक भयावह पहलू यह भी है कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा व्यक्ति इससे बच निकलने का रास्ता भी जानता है। कैसे वह पकड़ से बाहर रहे और यदि पकड़ा भी जाए तो कैसे उससे बचा जाए उसे भलीभांति आता है। व्यवस्था के कई चक्र ऐसे हैं कि जांच में भी मुश्किल आती है। असल में लंबी न्यायिक प्रणाली, गवाहों की खरीद-फरोख्त और लंबा समय निकलने के बाद यह युक्ति का चल जाना कि 'वह तो अब तक दोषी साबित नहीं हुआ" इस मामले को और घातक बनाता है। लगता है हमारे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जोश-ओ-खरोश दिखाने में कुछ हिचकिचाहट है। इससे इतर स्कैंडिनेवियाई जैसे न्यूजीलैंड या ऐसे ही कुछ और देशों में इसके स्तर को दसवें हिस्से तक लाया जा चुका है। अपने यहां हम यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि इस मामले में 'शून्य सहनशीलता" का फार्मूला अपनाएं या इसे छोड़ देने का। हमारे यहां भ्रष्टाचार मिटाने की दिशा में उत्साही कदम बढ़ाने के बजाय ज्यादातर ध्यान और शक्ति दिखावे के कामों में बर्बाद हो रही है।
कितना दुखद पहलू है कि सार्वजनिक सेवा में आने के बाद शपथ लेने वाले अगले ही पल उसका अनुपालन भूल जाते हैं। वह शपथ लेते हैं कि 'हम भारत के सार्वजनिक सेवा में जुड़े लोग सत्य और निष्ठा से शपथ लेते हैं कि अपने हर तरह के कार्य में पारदर्शिता बरतते हुए एकता को कायम रखते हुए भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए कार्य करते रहेंगे।" आज यह सर्वविदित है कि कितने लोग शपथ पर कायम रह पाते हैं।
भ्रष्टाचार उन्मूलन के मामले में एक महत्वपूर्ण बात सबके लिए विचारणीय है कि भ्रष्टाचार के विष को खत्म करने में अगर हम खुद को असमर्थ पाते हैं तो कम से कम उसके प्रसार को रोकने में तो कुछ भूमिका निभाई जा सकती है। इस संबंध में जोसेफ पुलित्जर ने संभवत: सही कहा है, 'किसी भी अपराध, चकमेबाजी, चाल, ठगी, अनैतिक कार्य गोपनीय नहीं रह सकते। इन सब चीजों को खुले दिमाग से मीडिया के माध्यम से सबके सामने रखें, गलत पर प्रहार करें, उनका तिरस्कार करें फिर देखिए जल्दी ही जनमत उन्हें साफ कर देगा।" यानी भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को सामाजिक बहिष्कार का कड़वा घूंट देना होगा। समाज को इस दिशा में अपना रुख बदलना होगा तभी सदियों पुरानी इस बीमारी का मुकाबला करने में कुछ सफलता मिल सकेगी।
हमारे समाज में भ्रष्टाचार कोई एक दिन में पनपा विषाणु नहीं है। चाणक्य ने भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए कई कदम उठाए। अकबर ने भ्रष्टाचारियों पर अंकुश लगाने के लिए कई सख्त फैसले सुनाए। इसी तरह अंग्रेजों के शासनकाल में वारेन हेस्टिंग और रॉबर्ट क्लाइव के भ्रष्ट आचरण की बात सब जानते हैं। इस कारण ईस्ट इंडिय कंपनी को हुए नुकसान और भ्रष्टाचार मसले पर उनको दिए दंड की बहुत चर्चा होती है। आजादी के बाद डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था कि स्वशासन के लिए प्राप्त आजादी में कई लोगों के बलिदान, नैतिक समर्थन आदि को भुलाकर कुछ लोग निजी स्वार्थों के लिए तंत्र का उपयोग कर रहे हैं।
भ्रष्टाचार को लेकर हमारे समाज में अजीब तरह का विरोधाभास है। एक तरफ सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी की उम्मीद की जाती है, दूसरी तरफ भ्रष्ट लोगों को एक खास किस्म का सम्मान मिलता है। भ्रष्टाचार के कुछ बड़े मामले जैसे पशुपालन, जेएमएम घूसकांड, संसद में सवालों के लिए पैसा, ताज कॉरिडोर आदि इसके उदाहरण हैं। इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि समाज का एक विशेष बड़ा तबका (सफेदपोश) ज्यादा खतरनाक भ्रष्ट लोगों में शुमार है। जनता के पैसे डकारना और सरकारी पैसे को चबा जाना जैसे आयकर की चोरी, स्टांप शुल्क, सीमा शुल्क आदि की चोरी या अधिनियम का उल्लंघन बहुत घातक है। इस तरह के मामलों में छोटी सी चोरी करने वाला तो पकड़ा जाता है, बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, लेकिन चारों ओर से मशीनरी का दुरुपयोग करने वाले को या तो बख्श दिया जाता है या फिर उसे पकड़ने की नीयत साफ नहीं होती। कभी पकड़ होती भी है तो ऐसे लोग एक जनसमूह को अपने पक्ष में ला खड़ा करता है।
ऐसा नहीं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कदम नहीं उठाए गए। बड़े-बड़े प्रयास हुए, अधिनियम आए लेकिन समय-समय पर बदली परिस्थितियों और अन्य कमियों के चलते वे कारगर नहीं हो पाए। असल में हमारी मशीनरी इस शक्तिशाली वायरस (भ्रष्टाचार) से लड़ने के लिए पर्याप्त रूप से सफल नहीं हो पाई। 1947 के पीसी अधिनियम की धारा 5 के तहत तीन साल की सजा का प्रावधान रखा गया। एक आशावादी धारणा थी कि भ्रष्टाचार पर इस तरह की सख्ती से अंकुश लग जाएगा। ऐसा नहीं होने पर 1950 में इसे पांच साल किया गया। 1952 में सजा के नाम पर इसे दस साल का प्रावधान किया गया। लेकिन सिर्फ प्रावधान बना देने से कुछ नहीं होता। फिर हुआ वही जिसकी आशंका थी, यह वायरस बढ़ता ही रहा।
ऐसा नहीं कि पूरी व्यवस्था में भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार व्याप्त है। लेकिन बाहुबलियों, सार्वजनिक सेवकों और कुछ नेताओं का ऐसा गठजोड़ है कि भ्रष्टाचार का भूत ज्यादा शक्तिशाली हो गया है।
भ्रष्टाचार के कई कारण हो सकते हैं लेकिन पिछले दशकों में यह बात सामने आई कि महंगा चुनाव राजनीतिक भ्रष्टाचार के कारणों में प्रमुख है।
भ्रष्टाचार के बड़े पैमाने पर भांडा फोड़ने की जब हम बात करते हैं तो सबसे पहले तहलका का स्टिंग हमारे सामने आता है। मार्च 2001 में उसके खुलासे ने सनसनी फैला दी थी। रक्षा सौदों में घोटालों की यह बात उजागर होने से लोगों को गहरा धक्का लगा। फिर बीएमडब्लू हिट एंड रन मामले में न्यायिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार का खुलासा एनडीटीवी ने किया।
भ्रष्टाचार के संदर्भ में अगर हम धोखाधड़ी की बात करें तो कई मामले सामने आते हैं। जैसे परिवहन विभाग में लाइसेंस धोखाधड़ी, एमसीडी से संबंधित नालों से गाद निकालने का मामला, सामाजिक कल्याण विभाग में आवंटित धन की बंदरबांट। इन सबमें वरिष्ठों द्वारा मातहत के कंधे पर बंदूक रखकर रिश्वत लेने के कई मामले सामने आए। संगठनात्मक रूप से भी भ्रष्टाचार के कई मामलों को पिछले कुछ समय में खुलासा हुआ। जैसे नई दिल्ली नगर पालिका परिषद में दो दर्जन के करीब लोगों का स्टिंग हुआ। ट्रैफिक पुलिस का भांडा फूटा। खुलासे होने के क्रम में एक परिवर्तन यह सामने आया कि कई पीड़ित अपनी ओर से टैप या रिकॉर्ड करके भ्रष्टाचार निरोधक शाखा या ब्यूरो के पास आने लगे। असल में शाखा या ब्यूरो की सफलता भी इस पर निर्भर करती है कि तमाम मामलों को गुप्त रखते हुए त्वरित कार्रवाई की जाए।
भ्रष्टाचार रूपी वायरस को खत्म करने या इसको धीरे-धीरे अपनी व्यवस्था से हटाने का कोई सेट फॉर्मूला नहीं बना है। नोटिस देने, पैंफलेट चिपकाने, होर्डिंग्स बनाने या भ्रष्टाचार निरोधक सप्ताह मनाने भर से कुछ नहीं होगा। शपथ लेना या उक्त अन्य कार्य हमारी मानसिकता को नहीं बदल सकते। हमें अरुणाचल प्रदेश या इसी तरह की कई अन्य इलाकों की कुछ प्रथाओं से सबक लेना चाहिए। वे ऐसे मामलों में अपने रीति-रिवाजों के हिसाब से दंडित करते हैं। भ्रष्टाचार के बारे में पता लगने पर ऐसे व्यक्ति का सामाजिक बहिष्कार किया जाता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ तमाम कार्रवाई के साथ ही भ्रष्ट के सामाजिक बहिष्कार की भावना को बलवती करना होगा। ईमानदार लोगों को एक सामाजिक पुल के रूप में काम करना होगा। भ्रष्टाचार इसी गति से बढ़ता रहा तो यह उन चंद लोगों के विश्वास को डिगाएगा जिन्हें इस वायरस ने अभी नहीं छुआ है।
लेखक डॉ. एन दिलीप कुमार वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी और वर्तमान में दिल्ली पुलिस के संयुक्त आयुक्त हैं उनके इस लेख को मैंने अनुवाद किया था : केवल तिवारी। साभार : नईदुनिया
1 comment:
बहुत सही लिखा है आपने।
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