केवल तिवारी
एक मुद्दत से मेरी मां सो नहीं पायी
मैंने इक बार कहा था मुझे डर लगता है।
मां को समर्पित यह मशहूर शेर आज जैसे मौजूं लगता है। मां ममतामयी होती है। मां साहसी होती है। बच्चे पर आंच आये तो वह जान की भी परवाह नहीं करती। ऐसा ही हुआ दिल्ली के शकरपुर इलाके में। पूरी कहानी से पहले मैं उस मां को सलाम करता हूं। और उन पड़ोसियों को भी, जो मदद की गुहार सुनते ही जैसी अवस्था में थे, वैसे ही दौड़ पड़े। वर्ना आज कहां कोई किसी की मदद के लिए दौड़ता है। खासतौर पर दिल्ली में तो कई बार ऐसे किस्से सामने आये हैं कि लोग तमाशबीन तो खूब बने, लेकिन आगे आकर मदद की बात तो बस फिल्मों में ही देखते थे।
खैर, अब आते हैं पूरे मामले पर। दिल्ली के शकरपुर इलाके में। यहां दो बाइक सवार बदमाश आये। उनमें से एक स्टार्ट बाइक पर बैठा रहा। दूसरा किसी के घर में घुसा। चार साल की बच्ची को उठाया और स्टार्ट बाइक के पीछे बैठने ही वाला था कि बच्ची की मां तेजी से घर से निकली और बदमाशों से भिड़ गयी। साथ ही शोर मचाती रही। मां की हिम्मत देख बच्ची को उठाने वाला शख्स तेजी से बाइक छोड़कर आगे भाग गया। थोड़ी दूर जाकर वह अपने बैग में कुछ तलाशने लगा। शायद हथियार निकालने की कोशिश कर रहा था। इसी बीच शोर सुनकर दो-तीन लोग निकले। इन सभी लोगों को सलाम कि वे मदद की गुहार सुनते ही दौड़े आये। सबसे बड़ी बात तो यह है कि जो जिस अवस्था में था उसी अवस्था में दौड़ आया। एक व्यक्ति कच्छे में ही था। हो सकता है वह नहाने के लिए जा रहा हो। या हो सकता है सोकर उठा हो। जो भी हो, उसने परवाह नहीं की और दौड़ पड़ा बदमाश के पीछे। तभी दूसरी तरफ भी दो-तीन लोग निकल आये और बदमाशों को घेर लिया। बदमाश डर के मारे बाइक वहीं पर छोड़ भाग गये। इस बीच, एक बदमाश को चोटें भी आयीं। बदमाश का पीछा करना वाकई खतरे से खाली नहीं था। क्योंकि बाद में पता चला कि उनके पास हथियार भी थे। लेकिन लोगों ने हौसला दिखाया। बाद में इसी बाइक के बलबूते पुलिस पूरी साजिश का पर्दाफाश कर पायी।
सगे चाचा ने रची थी साजिश
पुलिस के मुताबिक बाइक के नंबर प्लेट से उसके मालिक का पता चला। तय पते पर गये तो उसने कहा कि यह साजिश बच्ची के सगे चाचा ने ही रची थी। वह बच्ची के बदले फिरौती लेना चाह रहा था। यह सुनकर मन और द्रवित हो गया और उस बात की एक बार फिर ताकीद हुई कि अपराध करने वाले ज्यादातर तो अपने ही इर्द-गिर्द के लोग होते हैं। एक बार क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के हवाले से कहा गया था कि बच्चियों से कई तरह के अपराध में ज्यादातर मामले अपनों से ही होते हैं। इसी के बाद यह बात भी कही गयी कि बच्चों को बेड टच और गुड टच के बारे में समझायें। इसका एक पहलू था कि बच्चियों को चौकन्ना बनाया जाये, दूसरा दुखद पहलू यह भी रहा कि भरोसे का रिश्ता धीरे-धीरे कम होता गया।
दिल्ली में मदद को कम ही लोग आते हैं
मैंने दिल्ली के जीवन में करीब 17 साल बिताये हैं। ब्लू लाइन बसों की खूब सवारी की है। उन दिनों बसों में जेब काटने की बहुत वारदात होती थीं। कई लोगों को पता होता था कि जेब कतरों का गैंग बस में घुस चुका है, लेकिन कोई कुछ बोलता नहीं था। एक बार मैंने एक सज्जन से धीरे से कहा कि अपनी जेब का ध्यान रखना, जेब कतरे घूम रहे हैं, लेकिन वह व्यक्ति जोर से चिल्ला उठा, 'जेब कतरे कहां हैं।' तभी एक जेब कतरा मेरे पास आया, बोला-बहुत सयाना बनता है, तेरे मुंह पर ब्लेड ऐसा मारूंगा कि आइंदा भूल जाएगा। सच मानिये मैं कई हफ्तों तक उस रूट की बस में गया ही नहीं। धीरे-धीरे दिल्लीवाला जैसा बनता चला गया। बाद में ऑफिस की कैब मिली तो आते-जाते सड़क हादसों में कई लोगों की मदद अन्य मित्रों के साथ की। मैं देखता था लोग सड़क पर दुर्घटना देखने के बावजूद निकल पड़ते थे। हम लोग करीब 20 लोगों को अलग-अलग समय पर अस्पताल ले गये। कई बार पुलिस के बेजा सवालों से भी दो-चार हुआ। खैर शकरपुर की इस घटना से जहां स्तब्ध हूं, वहीं खुशी है कि कुछ लोग मदद को तुरंत आगे आये तो। उस मां को तो बड़ा सैल्यूट है। दिल्लीवालों को भी। नहीं तो एक आम धारणा तो ऐसी थी कि-
इस वक्त कौन जाए वहां धुआं देखने
आग कहां लगी, कल अखबार में पढ़ लेंगे।
एक मुद्दत से मेरी मां सो नहीं पायी
मैंने इक बार कहा था मुझे डर लगता है।
मां को समर्पित यह मशहूर शेर आज जैसे मौजूं लगता है। मां ममतामयी होती है। मां साहसी होती है। बच्चे पर आंच आये तो वह जान की भी परवाह नहीं करती। ऐसा ही हुआ दिल्ली के शकरपुर इलाके में। पूरी कहानी से पहले मैं उस मां को सलाम करता हूं। और उन पड़ोसियों को भी, जो मदद की गुहार सुनते ही जैसी अवस्था में थे, वैसे ही दौड़ पड़े। वर्ना आज कहां कोई किसी की मदद के लिए दौड़ता है। खासतौर पर दिल्ली में तो कई बार ऐसे किस्से सामने आये हैं कि लोग तमाशबीन तो खूब बने, लेकिन आगे आकर मदद की बात तो बस फिल्मों में ही देखते थे।
सीसीटीवी फुटेज। |
खैर, अब आते हैं पूरे मामले पर। दिल्ली के शकरपुर इलाके में। यहां दो बाइक सवार बदमाश आये। उनमें से एक स्टार्ट बाइक पर बैठा रहा। दूसरा किसी के घर में घुसा। चार साल की बच्ची को उठाया और स्टार्ट बाइक के पीछे बैठने ही वाला था कि बच्ची की मां तेजी से घर से निकली और बदमाशों से भिड़ गयी। साथ ही शोर मचाती रही। मां की हिम्मत देख बच्ची को उठाने वाला शख्स तेजी से बाइक छोड़कर आगे भाग गया। थोड़ी दूर जाकर वह अपने बैग में कुछ तलाशने लगा। शायद हथियार निकालने की कोशिश कर रहा था। इसी बीच शोर सुनकर दो-तीन लोग निकले। इन सभी लोगों को सलाम कि वे मदद की गुहार सुनते ही दौड़े आये। सबसे बड़ी बात तो यह है कि जो जिस अवस्था में था उसी अवस्था में दौड़ आया। एक व्यक्ति कच्छे में ही था। हो सकता है वह नहाने के लिए जा रहा हो। या हो सकता है सोकर उठा हो। जो भी हो, उसने परवाह नहीं की और दौड़ पड़ा बदमाश के पीछे। तभी दूसरी तरफ भी दो-तीन लोग निकल आये और बदमाशों को घेर लिया। बदमाश डर के मारे बाइक वहीं पर छोड़ भाग गये। इस बीच, एक बदमाश को चोटें भी आयीं। बदमाश का पीछा करना वाकई खतरे से खाली नहीं था। क्योंकि बाद में पता चला कि उनके पास हथियार भी थे। लेकिन लोगों ने हौसला दिखाया। बाद में इसी बाइक के बलबूते पुलिस पूरी साजिश का पर्दाफाश कर पायी।
सगे चाचा ने रची थी साजिश
पुलिस के मुताबिक बाइक के नंबर प्लेट से उसके मालिक का पता चला। तय पते पर गये तो उसने कहा कि यह साजिश बच्ची के सगे चाचा ने ही रची थी। वह बच्ची के बदले फिरौती लेना चाह रहा था। यह सुनकर मन और द्रवित हो गया और उस बात की एक बार फिर ताकीद हुई कि अपराध करने वाले ज्यादातर तो अपने ही इर्द-गिर्द के लोग होते हैं। एक बार क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के हवाले से कहा गया था कि बच्चियों से कई तरह के अपराध में ज्यादातर मामले अपनों से ही होते हैं। इसी के बाद यह बात भी कही गयी कि बच्चों को बेड टच और गुड टच के बारे में समझायें। इसका एक पहलू था कि बच्चियों को चौकन्ना बनाया जाये, दूसरा दुखद पहलू यह भी रहा कि भरोसे का रिश्ता धीरे-धीरे कम होता गया।
दिल्ली में मदद को कम ही लोग आते हैं
मैंने दिल्ली के जीवन में करीब 17 साल बिताये हैं। ब्लू लाइन बसों की खूब सवारी की है। उन दिनों बसों में जेब काटने की बहुत वारदात होती थीं। कई लोगों को पता होता था कि जेब कतरों का गैंग बस में घुस चुका है, लेकिन कोई कुछ बोलता नहीं था। एक बार मैंने एक सज्जन से धीरे से कहा कि अपनी जेब का ध्यान रखना, जेब कतरे घूम रहे हैं, लेकिन वह व्यक्ति जोर से चिल्ला उठा, 'जेब कतरे कहां हैं।' तभी एक जेब कतरा मेरे पास आया, बोला-बहुत सयाना बनता है, तेरे मुंह पर ब्लेड ऐसा मारूंगा कि आइंदा भूल जाएगा। सच मानिये मैं कई हफ्तों तक उस रूट की बस में गया ही नहीं। धीरे-धीरे दिल्लीवाला जैसा बनता चला गया। बाद में ऑफिस की कैब मिली तो आते-जाते सड़क हादसों में कई लोगों की मदद अन्य मित्रों के साथ की। मैं देखता था लोग सड़क पर दुर्घटना देखने के बावजूद निकल पड़ते थे। हम लोग करीब 20 लोगों को अलग-अलग समय पर अस्पताल ले गये। कई बार पुलिस के बेजा सवालों से भी दो-चार हुआ। खैर शकरपुर की इस घटना से जहां स्तब्ध हूं, वहीं खुशी है कि कुछ लोग मदद को तुरंत आगे आये तो। उस मां को तो बड़ा सैल्यूट है। दिल्लीवालों को भी। नहीं तो एक आम धारणा तो ऐसी थी कि-
इस वक्त कौन जाए वहां धुआं देखने
आग कहां लगी, कल अखबार में पढ़ लेंगे।
6 comments:
Bahut khoob likha hai sir , very touching
इंसानियत अभी भी थोड़ी बहुत जिंदा हैं
Thanks mam
जी इसी इंसानियत पर दुनिया कायम है
बढ़िया लिखा है चाचू
Thanks betoooo
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