केवल तिवारी
मनोज भल्ला की ऐसी तस्वीर (जिसमें रस्म पगड़ी की तारीख और समय लिखा हो) भी कभी देखनी पड़ेगी, कभी नहीं सोचा था। जिंदादिल, हर परिस्थिति से जूझने वाला भी अचानक काल का ग्रास बन गया। हिसार में जब मनोज भल्ला था (हम हमेशा एक-दूसरे को दोस्ती वाले शब्द तू-तड़ाक से बात नहीं कर सम्मान से करते थे। वह मुझे तिवारी जी और मैं भल्ला जी कहते थे, लेकिन अब तू ही लिखूंगा, खुश थोड़े किया है भल्ला जी आपने) तो उसने मुझे भी वहां बुलाया। उन दिनों मैं भी इधर-उधर हांड रहा था। नौकरी थी, लेकिन समय पर वेतन नहीं। किसी तरह गुजर-बसर चल रही थी। मैं वहां चला गया। मेरे जाते ही भल्ला तीन दिन के लिए छुट्टी लेकर दिल्ली स्थित अपने घर आ गया। तीन दिन मैंने संपादकीय लिखे। जरूरी काम निपटाए। लेकिन पहले घंटे से ही मुझे लग गया कि मैं वहां नहीं रह पाऊंगा। लाख कोशिश करने पर भी उस इवनिंगर का नाम मुझे याद नहीं आ रहा। किसी व्यवसायी का था। नभछोर अखबार के दफ्तर के आसपास ही कहीं। पास में ही भल्ला को कमरा दिया गया था। भल्ला के लौटते ही मैंने वापसी की इच्छा जताई। मालिकों ने शाम को मिलने की बात कही और शायद वह भी चाहते थे कि मैं वहां न ही रहूं। उन दिनों भल्ला कविताएं लिख रहा था। कभी जिंदगी तुझसे क्या चाहूं... कभी हां मुझे भी हो रहा है जीने का मन... वगैरह। मैं वापस दिल्ली आ गया। कुछ ही माह बाद भल्ला ने भी वह नौकरी छोड़ दी। वह दैनिक जागरण में चला गया। मैं दिल्ली में एक न्यूज एजेंसी में था। एक-दो अखबारों से भटकते-भटकते वहां पहुंचा। जिक्र करना बनता है कि मुफलिसी के उस दौर में राष्ट्रीय सहारा अखबार और आकाशवाणी दिल्ली ने बहुत साथ दिया। कालांतर में स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया से भी कुछ काम मिला और काम चलता चला गया। खुलकर खर्च करने की तमन्ना धरी रही, लेकिन खर्च के मामले में मरे-मरे से भी नहीं रहे। खैर इस वक्त फोकस भल्ला पर ही। अब क्या? कार्यक्रम बना कि दुर्भाग्य को साझा करने घर चला जाये। कार्यक्रम था रविवार को जाने का। लेकिन सूचना आई कि रस्म पगड़ी शनिवार 23 अगस्त को है। फिर मित्रों- राजेश, सुरेंद्र, हरिकृष्ण, धीरज आदि से सूचना साझा हुई और चल दिए। इस वक्त ट्रेन में बैठकर ही बातों को साझा कर रहा हूं। हिसार जागरण में नौकरी के दौरान ही भल्ला ने मुझे फोन किया। उन दिनों मोबाइल सीमित लोगों के पास ही होता था। भल्ला ने मेरे office में लैंडलाइन पर फोन किया। मैं अगले दिन बताये अनुसार नोएडा सेक्टर 8 स्थित दैनिक जागरण के दफ्तर चला गया। वहां निशिकांत जी ने मना कर दिया। साथ ही कहा कि उन्हें खुद जालंधर भेजा जा रहा है। लंबा किस्सा है। खैर कुछ दिनों में मैंने जागरण join कर लिया। वहां भल्ला जी की जबरदस्त खबरें आने लगीं। मुझे गर्व होता यह बताते हुए कि मेरा मित्र हैं। सालभर बाद ही मैं हिंदुस्तान चला गया। भल्ला को भी जागरण छोड़ना पड़ा। हमारी बातों और मुलाकातों का सिलसिला चलता रहा। पिछले कुछ सालों से मिलने की चर्चा होती रही। लेकिन मुलाकात तो नहीं हुई, दुर्भाग्य देखिए आज उसकी रस्म पगड़ी में जा रहा हूं।
मौत की जब सूचना आई और जो उद्गार निकले
बृहस्पतिवार अपराह्न जब प्रिय मित्र एवं छोटे भाई समान मनोज भल्ला के निधन की सूचना आई तो मन व्यथित हो गया। ऑफिस में शांत होकर काम करता रहा, लेकिन मन अशांत था। रात को घर आया तो उसके नाम पर चार आंसू छलकने से नहीं रुक पाए। हर परिस्थिति में खुश रहने वाले मनोज भल्ला ने बेहतरीन रिपोर्टिंग की है, डेस्क पर उसी तरह से काम किया और तमाम तरह के झंझावतों को भी झेला है। वह उम्र में मुझसे कम था, लेकिन वर्ष 1996 में अखबारी नौकरी के दौरान ही जब मैं भी जर्नलिज्म करने चला तो हम सहपाठी हो गये। फिर वह पंजाब केसरी जालंधर चला गया। बाद में हिसार, दिल्ली-एनसीआर, रोहतक कई जगह विभिन्न अखबारों, पत्रिकाओं में रहा। हम लोगों का मिलन यदा-कदा होता रहा, फोन पर अक्सर बातें होतीं। हर तरह की बात। उसकी शादी में मित्र मंडली की हंसी मजाक से लेकर हर मौके पर उसकी हाजिर जवाबी के अनेक किस्से हमेशा याद रहेंगे। चार दिन पहले ही मनोज ने फेसबुक पर गजब टिप्पणी की थी। क्या मौत का उसे अहसास हो गया था। इस पोस्ट को आपसे साझा कर रहा हूं। मनोज, इतनी जल्दी क्या थी, अब चले ही गये हो, उस जहां में भी खुश रहना मित्र....
अलविदा मित्र
1 comment:
भावुक। सादर नमन
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