केवल तिवारी
इन यादों के अलावा इन पत्रिकाओं से बहुत पुरानी यादें भी जुड़ी हैं। हमारे गांव में पंडित जी थे। पांडे जी। प्रकाश पांडे जी के पिता। मैं जब छठी-सातवीं में पढ़ता था और गर्मियों की छुट्टियों में घर जाता था तो पांडे जी को नंदन और कादंबिनी पढ़ते हुए पाता था। यही नहीं वह इन पत्रिकाओं में छपी कहानियों और चुटकुलों को भी सुनाते। उनका सेंस ऑफ ह्यूमर पहले से ही बहुत उम्दा था, उस पर दोनों पत्रिकाओं के वह नियमित पाठक थे। दूर रानीखेत से उन्हें मंगवाते थे। दिल्ली से छपकर रानीखेत आने तक ही पत्रिकाओं को कई दिन लगते थे।
इससे पहले एक मशहूर पत्रिका पराग छपा करती थी। करीब 15-20 साल पहले मेरे बारे में किसी ने जिक्र किया होगा तो मुझे एक ऑफर मिला था। कहा जा रहा था कि पराग, चंदामामा आदि पत्रिकाएं फिर शुरू हो रही हैं। मैं वहां मिलने तो गया, लेकिन ज्वाइन नहीं कर पाया। अंतत: इन मशहूर पत्रिकाओं के फिर से शुरू होने की योजना पाइपलाइन में ही रह गयी।
बेशक आज जमाना बदल रहा है, डिजिटल युग आ गया है, लेकिन ऐसी मील का पत्थर के मानिंद इन पत्रिकाओं को यकायक बंद नहीं किया जाना चाहिए था। उनको डिजिटल फार्मेट या अखबार के साथ जोड़कर भी तो जारी रखा जा सकता था। यदि माहौल अच्छा बनता तो उसे फिर शुरू कर सकते थे। लेकिन प्रबंधन कहां घाटे की बात सहता है। दोनों पत्रिकाओं के बंद होने का वाकई दुख है।
13 comments:
कादम्बिनी, नंदन का बंद होना पाठकों के लिए बड़ा झटका है। आपने सही कहा कि इसे किसी अन्य फार्मेट में जारी रखा जा सकता था।
राजेंद्र धवन
जी धवन साहब। हम आप कुछ करेंगे
बेहद दुखद है सर
Very sad
Haan
Really
अत्यंत हृदय विदारक
Ji
ये दुखद है केवल जी, इन दोनों पत्रिकाओं के साथ कई पीढ़ी बड़ी हुईं हैं
हरेश जी का कमेंट।
इन पुस्तकों के बंद होने से तुम्हारी बहुत पुरानी यादें ताजा हो गई केवल
शीला दीदी का कमेंट
23 बरस इन दोनों मैगजीन के साथ संस्थागत के अलावा लिखने-पढ़ने का सिलसिला चला। इससे पहले भी छात्र जीवन में इन मैगजीन से पाठक होने का नाता जुड़ा रहा। इस लंबी यात्रा में बहुत कुछ सीखने और गुणने का मौका इनकी मार्फत मिला। आज भी कुछ चुनिंदा संस्करण संजोये हुए हैं। कादम्बिनी के जरिए तमाम उम्दा लेखकों की किताबें पढ़ने और उसके बाद उनका रिव्यू करने का मौका मिला। जीवन को जीने की कलाओं की कई विधाओं से इनके जरिए हुनर को तराशने का साधन भी मिला। कोरोना काल तो एक बहाना है लेकिन एक के बाद एक यूं ही भारतीय साहित्य को लब्ध प्रतिष्ठित करने वाली ऐसी पत्रिकाओं का अकाल वजूद खत्म हो जाना मन का पीड़ा से भर देता है। नई पीढ़ी इस साहित्यिक यात्राओं के बिना जिस दहलीज पर कदम रखने जा रही है, उससे अनजाना सा डर भी सालता है। हालांकि मान्यता यही बलवती होती जा रही है कि भविष्य और भी अधिक ऊंचाइयों को छुएगा लेकिन गहराई मापने वाले साधन ही खत्म हो जाएं तो ऐसी ऊंचाइयों से वाकई वो सब मिलेगा भी या नहीं, यह भविष्य ही बताएगा।
भावुक कमेंट अनिल जी
[29/08, 14:05] Poonam Ji Sati Ji: कटु किन्तु सत्य। 😊 par bachho ko kitna bgi force karo they prefer english books..Diwas ko maine prem chand ki ek kahani sagrah diya tha last year summers me ..usaki bhasha samajh nahi aayi use ..jabki wo 9th me tha..and he argued for the issues like ki ..ek story me ek aurat ka pati mar gaya to dever se shadi kaise kara di forcefully..bola badi cheap book hai..badi mushkil se samjhaya..
Yahi karan hai ki in sabki hindi bahut week hai..
[29/08, 14:05] Poonam Ji Sati Ji: Bachho ki kya hamari khud ki bhasha na hindi rahi na english😓🙏🏻
[29/08, 15:35] Kewal Tiwari: जी वर्तमान पीढ़ी में ये दिक्कत है।
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