स्मृति शेष : दिलीप कुमार
साभार : दैनिक ट्रिब्यून
केवल तिवारी
रील लाइफ में ज्यादातर त्रासद-दुखद अभिनय के कारण ट्रेजडी किंग के नाम से मशहूर हुए दिलीप कुमार निजी जीवन में हर रंग से रू-ब-रू हुए। वह भरपूर जीवन जी गये। बीच के थोड़े से समय को छोड़ दें तो उनका जीवन बेहतरीन रहा। उन्हें मोहब्बत हुई, उन्होंने शोहरत की बुलंदियों को छुआ, मुफलिसी का दौर भी झेला, राजनीति के मंच पर चमके, परिवार की जिम्मेदारियों को भी निभाया। 25 साल की उम्र में बतौर अभिनेता अपनी पहचान बना चुके दिलीप साहब ने 54 साल के फिल्मी कॅरिअर में लगभग इतनी ही फिल्में कीं, जबकि उनके अभिनय से बहुत कुछ सीखने वाले कई दिग्गज अभिनेताओं ने अपने करिअर में फिल्मों का शतक लगाया और उससे आगे भी गये। अकसर यह सवाल उठता है कि दिलीप साहब जैसे महान अभिनेता ने कम फिल्में ही क्यों कीं, इस पर स्वयं एक बार उन्होंने एक कार्यक्रम में कहा था कि वह संख्या बढ़ाने पर विश्वास नहीं रखते। फिल्में ऐसी हों जो समाज को कोई संदेश दे। यहां उल्लेखनीय है कि दिलीप साहब ने स्वयं कई फिल्मों में अभिनय करने से इनकार कर दिया। वर्ष 1998 में बनी फिल्म किला के बाद उन्होंने किसी फिल्म में काम नहीं किया। उन्होंने 1961 में ‘गंगा-जमुना’ फिल्म का निर्माण भी किया, जिसमें उनके साथ उनके छोटे भाई नासिर खान ने काम किया। उनकी चर्चित फिल्में हैं-
सुपर-डुपर हिट :
जुगनू, मेला, अंदाज, आन, दीदार, आजाद, मुगल-ए-आजम, कोहिनूर, गंगा-जमुना, राम और श्याम, गोपी, क्रांति, विधाता, कर्मा और सौदागर।
जुगनू, मेला, अंदाज, आन, दीदार, आजाद, मुगल-ए-आजम, कोहिनूर, गंगा-जमुना, राम और श्याम, गोपी, क्रांति, विधाता, कर्मा और सौदागर।
सुपर हिट :
शहीद, नदिया के पार, आरजू, जोगन, अनोखा प्यार, शबनम, तराना, बाबुल, दाग, उड़न खटोला, इंसानियत, देवदास, मधुमती, यहूदी, पैगाम, लीडर, आदमी, संघर्ष।
हास्य अभिनय :
शबनम, आजाद, कोहिनूर, लीडर, राम और श्याम, गोपी।
शबनम, आजाद, कोहिनूर, लीडर, राम और श्याम, गोपी।
दबंग भूमिका :
आन, आजाद, कोहिनूर, क्रांति।
आन, आजाद, कोहिनूर, क्रांति।
नेगेटिव रोल :
फुटपाथ, अमर।
फुटपाथ, अमर।
अधूरी रहीं फिल्में :
काला आदमी, जानवर, खरा-खोटा, चाणक्य-चंद्रगुप्त, आखिरी मुगल।
काला आदमी, जानवर, खरा-खोटा, चाणक्य-चंद्रगुप्त, आखिरी मुगल।
अभिनय से किया इनकार :
बैजू बावरा, प्यासा, कागज के फूल, संगम, दिल दौलत और दुनिया, नया दिन नयी रात, जबरदस्त, लॉरेंस ऑफ अरेबिया, द बैंक मैनेजर।
बैजू बावरा, प्यासा, कागज के फूल, संगम, दिल दौलत और दुनिया, नया दिन नयी रात, जबरदस्त, लॉरेंस ऑफ अरेबिया, द बैंक मैनेजर।
बनने गये थे लेखक, बन गये एक्टर
इसे समय का फेर कहिये या किस्मत का करिश्मा कि मुफलिसी के दौर में दिलीप कुमार बनने तो गये थे लेखक, लेकिन बन गये एक्टर। किस्सा कुछ इस तरह से है। पिता के व्यवसाय में घाटा हो जाने के कारण उनको कॉलेज की पढ़ाई अधूरी छोड़नी पड़ी। उन्होंने पुणे के फौजी कैंटीन में मामूली नौकरी कर ली और फलों का व्यवसाय भी जारी रखा। मुंबई में यूसुफ अपने पिता के व्यवसाय को फिर से बढ़ाने की सोच ही रहे थे कि अब्बा ने उन्हें राय-मशविरे के लिए पारिवारिक मित्र डॉ. मसानी के पास भेजा। डॉ. मसानी को पता था कि यूसुफ की उर्दू अच्छी है और साहित्य में भी उनकी रुचि है, इसलिए उन्होंने उन्हें देविका रानी से मिलने की सलाह दी जो उन दिनों बॉम्बे टॉकीज का संचालन कर रही थीं। बॉम्बे टॉकीज उन दिनों प्रसिद्ध फिल्म निर्माण संस्था थी। यूसुफ ने देविका रानी से भेंट की और लेखक के रूप में काम मांगा। यूसुफ को देखकर उन्होंने उन्हें एक हजार रुपए प्रतिमाह पर अभिनेता के रूप में नियुक्ति दे दी। देविका रानी ने ही उन्हें अपना फिल्मी नाम दिलीप कुमार रखने की सलाह दी थी।
शुरू में घरवालों से छिपायी एक्टिंग
यूसुफ खान से दिलीप कुमार बने इस नये अभिनेता ने बॉम्बे टॉकीज में काम शुरू करने की बात अपने अब्बा को नहीं बतायी। अब्बा की फिल्मी लोगों के बारे में अच्छी राय नहीं थी। इसीलिये दिलीप कुमार ने घरवालों से झूठ बोला। उन्होंने अपने घर पर बताया कि वे ग्लैक्सो कंपनी में काम करने लगे हैं। अब्बा खुश हुए और फरमान सुनाया कि रोज ग्लैक्सो कंपनी के बिस्किट घर में लाना। क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध की वजह से खाद्यान्न का बड़ी किल्लत थी और परिवार भी बड़ा था। इससे दिलीप कुमार एक नयी मुसीबत में फंस गए। ऐसे में कॉलेज का एक मित्र काम आया, जो शहर में जहां भी ग्लैक्सो बिस्किट मिलते दिलीप तक पहुंचा देता। एक दिन राजकपूर के दादा दीवान बशेशरनाथ ने इसका भंडाफोड़ कर दिया। कुछ समय नाराज रहने के बाद अब्बा ने यूसुफ को माफ कर दिया। दिलीप कुमार की फिल्म ‘शहीद’ उन्होंने परिवार के साथ देखी और फिल्म उन्हें पसंद आई। फिल्म का अंत देखकर उनकी आंखों में आंसू आ गए थे और उन्होंने यूसुफ से कहा था कि आगे से अंत में मौत देने वाली फिल्में मत करना। यह भी अजीब इत्तेफाक है कि ‘ट्रेजडी किंग’ कहे जाने वाले दिलीप कुमार ने फिल्मों में जितने मृत्यु दृश्य किए हैं, उतने शायद किसी अन्य भारतीय अभिनेता ने नहीं दिए। फिल्म फेयर अवार्ड में रिकॉर्ड बनाने वाले दिलीप कुमार को वर्ष 1995 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1991 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मभूषण की उपाधि से नवाजा। 1998 मे उन्हें पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-इम्तियाज़ भी प्रदान किया गया।
मोहब्बत भी हुई
दिलीप कुमार अपने जमाने के नंबर वन हीरो थे। व्यक्तित्व आकर्षक था। स्वभाव रोमांटिक। मीना कुमारी और नरगिस से दिलीप कुमार के दोस्ताना ताल्लुकात थे। वैजयंतीमाला और वहीदा रहमान के साथ भी फिल्मों में उनकी भागीदारी अच्छी निभी, लेकिन उनके करीबी जानकारों के हवाले से कहा जाता है कि दो अभिनेत्रियों से दिलीप कुमार ने सचमुच प्यार किया। वे थीं कामिनी कौशल और मधुबाला। 1948 और 50 के बीच दिलीप-कामिनी ने चार फिल्मों में साथ काम किया था। कामिनी कौशल ब्याहता थीं। उनका वास्तविक नाम उमा कश्यप था। बड़ी बहन की असामयिक मृत्यु के कारण दीदी की छोटी बच्चियों की खातिर जीजा से विवाह करके मुंबई आ गई थीं। पति बन चुके जीजा ने कामिनी को फिल्मों में काम करने की आजादी दे रखी थी। सामाजिक ताना-बाना उस वक्त का ऐसा था कि दिलीप साहब और उमा ने अपने प्रेम को दबाया और जरा सी भनक लगने का अहसास हुआ तो कई सालों तक एक दूसरे के सामने भी नहीं पड़े। मधुबाला-दिलीप कुमार ने एक साथ सिर्फ चार फिल्में की। इनमें ‘मुगल-ए-आजम’ (1960) उनकी अंतिम फिल्म है, जिसे लोग इन दोनों की प्रेम कहानी के रूप में ही देखना पसंद करते हैं। दिलीप कुमार के जीवन में प्रेम संबंधों के कई नाटकीय मोड़ आये।
11 दिसंबर, 1922 को पेशावर (अब पाकिस्तान में) में जन्मे दिलीप साहब (यूसुफ खान) ने अभिनेत्री सायरा बानो से 1966 मे विवाह किया। विवाह के समय दिलीप कुमार 44 वर्ष के और सायरा बानो उनसे आधी उम्र की थीं। 1980 में उन्होंने असमा रहमान नाम की एक युवती से दूसरी शादी भी की, हालांकि यह ज्यादा नहीं चली।
46 साल बाद अमिताभ को मिला ऑटोग्राफ
यह बात शायद सबको अटपटी लगे कि उस दौर के बड़े अभिनेता का ऑटोग्राफ अमिताभ नहीं ले पाये थे। दिलीप कुमार का ऑटोग्राफ लेने के लिए अमिताभ को 46 बरस तक लंबा इंतजार करना पड़ा था। यह बात अमिताभ ने खुद अपने ब्लॉग पर लिखी है। बिग बी ने दिलीप साहब को पहली बार 1960 में देखा था। तब वह अपने पिता के साथ मुंबई गए थे। अमिताभ ने लिखा है कि उस समय साउथ बांबे के एक प्रसिद्ध रेस्तरां में वह अपने परिवार के साथ खानपान में जुटे थे कि उस समय के सुपर स्टार दिलीप साहब अंदर आए और अपने कुछ मित्रों से बात करने लगे। अमिताभ, दिलीप कुमार का ऑटोग्राफ लेने के लिए इतने उतावले थे कि रेस्तरां से निकले और भागकर पास की एक स्टेशनरी की दुकान से ऑटोग्राफ बुक खरीद लाये। हांफते हुए वह रेस्तरां के अंदर घुसे और डरते हुए दिलीप साहब के पास पहुंचे। ऑटोग्राफ लेने के लिए बुक उनकी ओर बढ़ा दी। दिलीप साहब की नजर इस बच्चे पर नहीं पड़ी। ब्लॉग में अमिताभ लिखते हैं कि कुछ ही समय बाद दिलीप साहब वहां से चले गये, उन्हें ऑटोग्राफ नहीं मिल पाया। धीरे-धीरे समय गुजरता गया। अमिताभ हिंदी सिनेमा के नए सुपरस्टार बन गए। इस बीच अमिताभ को दिलीप साहब के साथ एक फिल्म में काम करने का मौका मिला। रेस्तरां की घटना के बाद अमिताभ ने दिल्ली में तीन मूर्ति भवन में दिलीप साहब को देखा जहां तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कलाकारों के सम्मान में पार्टी दी थी। उस समय बच्चन परिवार के नेहरू परिवार से बेहद घनिष्ठ संबंध थे और बच्चन परिवार को भी आमंत्रित किया गया था। यहां अमिताभ ने राज कपूर, देव आनंद तथा दिलीप साहब को एक साथ पहली बार देखा था। अमिताभ लिखते हैं कि समय बीत गया। 2006 में वडाला के आईमैक्स में उनकी फिल्म ‘ब्लैक’ का प्रीमियर था। फिल्म समाप्ति के बाद बाहर इंतजार कर रहे दिलीप साहब के पास अमिताभ गये। उन्होंने अमिताभ के दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए। दोनों में से किसी ने कुछ नहीं कहा। अमिताभ लिखते हैं, ‘उसके दो दिन बाद मुझे दिलीप साहब का एक खत मिला, जिसमें मेरी एक्िटंग की तारीफ की हुई थी। इसी खत में नीचे दिलीप कुमार के दस्तखत थे।’
राजनीति से हुआ मोहभंग
भले दिलीप साहब लंबे समय तक कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सांसद रहे, लेकिन राजनीति में उन्होंने लंबी दिलचस्पी नहीं दिखायी। यह अलग बात है कि उन्होंने कई बार नेताओं का प्रचार किया। इस सबके बावजूद जवाहरलाल नेहरू, शाहनवाज खान, मौलाना आजाद और फखरुद्दीन अली अहमद से उनके अच्छे रिश्ते रहे। सन 1980 में दिलीप कुमार को मुंबई का शेरिफ नियुक्त किया गया।
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