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Thursday, July 22, 2021

अतीत से घबराना और अतीत को ही सहेजना

 केवल तिवारी

कुछ बुजुर्गों और कुछ ‘झिलाऊ’ लोगों की तरह कुछ-कुछ अपनी भी आदत है अतीत के कुछ किस्सों को सुनाने की। गनीमत है कि बीबी और बच्चे धैर्य से सुनते हैं और कभी-कभी लगता है इंट्रेस्ट भी ले रहे हैं। हां अनेक बार ऐसा भी हुआ है कि मैं किस्सा शुरू करता हूं और बच्चे उसे पूरा करते हुए कहते हैं, ‘आप इस बात को कई बार बता चुके हैं।’ फिर लगता है किस्सागोई में क्या मैं गरीब हो चुका हूं। फिर अपनी आत्मा से ही बात करते हुए कहता हूं कितनी बातें तो मैं एडिट करके बताता हूं। किस्से भी क्या होंगे मेरे जीवन के। आज इन बातों को लिखने का असल में एक खास कारण बना। अपने बचपन की बातों को याद करते हुए पत्नी भावना बोली, भगवान अगर मुझसे पूछे क्या चाहती हो मांगो तो मैं बोलूं, एक बार बचपन के उन दिनों में ले चलो। बड़े बेटे कार्तिक ने जवाब दिया, ‘फ्यूचर में जाना तो हो सकता है कभी संभव हो जाये, लेकिन भूतकाल में जान संभव नहीं।’ छोटा बेटा धवल बोला, ‘क्या मम्मा आपको अच्छा लगेगा नानी जी बीमार थीं, नाना जी भी बीमार थे।’ भावना बोली बेटा में बचपन की बातें कर रही हूं, जब हम भाई बहन लड़ते थे। पापा यानी आपके नाना जी हर हफ्ते दही-जलेबी लाते थे। हर इतवार को त्योहार जैसा होता था क्योंकि नानाजी शनिवार को आते थे और सोमवार को निकल जाते थे। असल में वह उन दिनों की बात कर रही थी जब वह आठवीं या नौवी में पढ़ती होगी। उनके पिता मनोहर दत्त जोशी नैनीताल में पोस्टेड थे। वे health department में जॉब करते थे। भावना की बात खत्म हुई तो फिर वैसा ही सवाल मुझसे भी हुआ। क्या कहता? मैंने कहा नहीं बच्चो मैं तो भविष्य की ओर देखने वाला व्यक्ति हूं। मैं अपने अतीत में जाना नहीं चाहता। फिर ज्यादा मैं कुछ नहीं बोला। धवल और कार्तिक एक साथ बोले, पुराने दिनों की अलग-अलग यादें होती हैं। जैसे हम कहेंगे कि हम लोग कैसे साथ खाना खाते थे। कभी-कभी प्रेस क्लब जाते थे। पापा पहले नाइट ड्यूटी करते थे तो हम लोगों से मुलाकात भी रोज कहां होती थी। पापा जब उठते थे हम स्कूल जा चुके होते थे। पापा जब रात को आते थे, हम सो चुके होते थे। बच्चों की यह बात तो यहीं खत्म हो गयी, लेकिन मैं न जाने क्यों अतीत की ओर झांकने लगा। दिमाग पर जोर देकर कि देखता हूं कहां तक पहुंचता हूं। पिताजी की छवि तो मेरे दिमाग में बिल्कुल भी नहीं है। हां पहाड़ में अपने घर की खिड़की पर बैठकर एक व्यक्ति सब्जी काटता हुआ मेरे जेहन में बचपन से है। शायद वो पिताजी ही होंगे। वैसे मैंने नाना-नानी भी नहीं देखे। जब पिताजी को नहीं देखा तो दादा-दादी की बात क्या करूं। असल में इसमें संपूर्ण दुर्भाग्य मेरा ही तो है। पहली बात तो मैं धरती पर आया, यही आश्चर्यजनक है, फिर जिंदा रहा यह भी आश्चयर्जजनक। ईजा बतातीं थी कि पिताजी जब अंत समय के दौर में थे तो कहते थे, भुवन ‌(बड़े भाई साहब) को इंटर ज़रूर करा देना, बेटियां अपनी किस्मत से खाएंगी और इसको (मेरे लिए) बचना नहीं है। खैर मैं बच गया और देखते-देखते जीवन के 50 बरस पूरे करने जा रहा हूं। खैर... अतीत में झांकने की कोशिश में मैं चला गया हूं कक्षा चार में। नयी किताबें ला नहीं सकते। माता जी करीब 10 किलोमीटर पहाड़ी सफर तय कर कहीं किताबें लेने गयीं, ‘सेकेंड हैंड।’ पहले दिन जवाब मिला, हम किताब बेचते नहीं.... दूसरे दिन फिर वही सफर। इस बार वो पिघल गये जिन्होंने एक दिन पहले किताबें देने को मना किया था और इस तरह मेरी ‘नयी’ किताबें आ गयीं। यह किस्सा में बच्चों को हर साल तब सुनाता हूं जब उनके लिए नयी कॉपी-किताबें आती हैं। मुझे याद है मैं और शीला दीदी कहीं शादी-व्याह में जाते थे तो जब कोई हमसे पूछता तुम किसके बच्चे हो तो हमारा जवाब होता हम ‘भुवन के भाई-बहन हैं।’ यानी बड़े भाई साहब भुवन चंद्र तिवारी के छोटे भाई-बहन हैं। यही तो पहचान थी हमारी। यही अब भी है। फिर एक धुंधली सी याद आती है प्रेमा दीदी की शादी की। मुझे आधी रात को बिस्तर से उठाया गया ताकि मैं खील देने की परंपरा का निर्वहन कर सकूं। फिर कई बातें। अभी शायद मेमोरी ठीक है, फिर तो कई किस्से याद हैं जो मैं बच्चों को बताता रहता हूं। मसलन, कक्षा 6 बाल विकास मांटेसरी स्कूल में मेरा एडमिशन और काउ (गाय) पर निबंध की बात। मैं तो काव मतलब काल समझता था। पुष्पा दीदी का मुझे कमांड हास्पिटल दिखवाने ले जाना। जीजा जी यानी स्व. ख्यालीराम जोशी का मुझे भगत कहना, आठवीं में बड़े भाई साहब द्वारा मेरा एडमिशन लखनऊ मांटेसरी में करवाना और मुझे खुद लिस्ट देखने के लिए भेजना और पीछे-पीछे चुपचाप उनका आना, लखनऊ मांटेसरी तक कई बार पैदल जाना, अनेक बार डॉ. अग्निहोत्री द्वारा लिफ्ट दिया जाना, पूरे तेलीबाग में कुछ ही घरों में टेलीविजन होना, बाद में हमारे घर में भी टीवी आना, छत पर जाकर एंटीना को ठीक करने में ही विशेष मजा आना, वो किस्से भी जब भाई साहब मुझे आकाशवाणी लेकर जाते थे। इसके बाद वह किस्सा भी जब मैं आठवीं में पढ़ता था जब भाभीजी को लेने गांव गया। फिर बाद में एक बार किस तरह हमने ट्रेन पकड़ी, फिर टिकट लेने लालकुआं स्टेशन पर उतरा। तब तक ट्रेन चलने लगी। भाभीजी और छोटा सा भतीजा दीपू उसमें बैठे थे। भाग-भागकर ट्रेन पकड़ी। अगले स्टेशन पर उस डिब्बे को ढूंढ़ने लगा जिसमें भाभीजी और भतीजा बैठे थे। बड़ी मुश्किल से वहां तक पहुंचा। ऐसे ही एक किस्सा जब मैं शाहजहांपुर से गांव गया तो रानीखेत से आगे बसें शाम सात बजे बाद नहीं चलती थीं, तब मैंने ठिठुरते-ठिठुरते रानीखेत में पूरी रात बिताई। ऐसे ही अनेक किस्से। शाहजहांपुर में विमला दीदी के यहां निवास के, बाद में भानजे पंकज का केंद्रीय विद्यालय मे एडमिशन की जद्दोजहद। उसके बाद यानी करिअर पथ के अनेक किस्से। फिर अपने बारे में सोचता हूं या जब कोई आत्मीय हो जाता है और मेरे बारे में पूछता है तो कहता हूं-

न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,

डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता।

 

गालिब साहब के इस शेर की अगली पंक्तियां हैं-

हुआ जब ग़म से यूं बे-हिस तो ग़म क्या सर के कटने का,

न होता गर जुदा तन से तो ज़ानू पर धरा होता।

हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है,

वो हर इक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता।


क्या-क्या याद किया जाये। अतीत में जाना नहीं चाहता, यह मैं कहता जरूर हूं, लेकिन अतीत को सहेजते भी रहता हूं। वर्ष 1996 में जब दिल्ली आया तो डायरी लेखन को नियमित कर दिया। पहले भी लिखता था, लेकिन तब कुछ किंतु-परंतु उठ गये तो बंद सा किया। अब तो करीब 15 डायरियां भरी हुई रखी हैं। बाकी जारी हैं। दिल्ली आने के कुछ समय बाद मुझे लगा यह डायरी लेखन नहीं, यह तो ईश्वर से मेरा सीधा संवाद है। इसलिए जब परेशान होता हूं या खुश होता हूं तो डायरी तक खुद-ब-खुद कदम बढ़ जाते हैं। डायरी लेखन को कोई नियत समय नहीं। कभी भी, कहीं भी।

अब तक के जीवन पर नजर डालते हुए एक बात पर सचमुच आश्चर्य होता है कि मुझे मित्र बहुत अच्छे मिले हैं। कुछ बड़े भाई की तरह, कुछ छोटे भाई की तरह और कुछ जुड़वां भाई की तरह। मेरा अतीत शायद जानते हों या शायद न जानते हों, लेकिन मेरा वर्तमान तो उनके सामने ही रहा, हमेशा ही। यह अलग बात है कि कुछ ऐसे लोग भी मिले जिनसे मेरा सीधे कोई नाता नहीं, लेकिन एक अजब सी चिढ़ या कंपटीशन की भावना उन्होंने मेरे साथ रखी। कुछ को गलतफहमियां भी हुईं। उनमें से कुछ मित्रों की गलतफहमियां दूर करने का मेरा मन है, लेकिन कुछ का नहीं। उन्हें उसी अंदाज में चलते रहने देना चाहता हूं।

जरा सी बात पर मैं कहां से कहां चल दिया। वैसे मेरा मानना है कि छोटी-छोटी बातों को याद रखना चाहिए, लेकिन उन्हीं बातों को जो खुशी देती हों। जैसे परिवार संग कहीं घूमने गये तो कई बार उसकी चर्चा की। मित्रों संग घूमने गए तो कई यादें सहेज लीं, तभी तो गीत बना छोटी-छोटी बातों की है यादें बड़ी... भूलें नहीं बीती हुई एक छोटी घड़ी... लगता है कुछ ज्यादा लिख दिया है। स्वांत: सुखाय के लिए इससे ज्यादा लिखना ठीक नहीं। अपने आप को बहलाने के लिए कुछ और शेर और कॉपी पेस्ट कर देता हूं जिन्हें इंटरनेट से उठाया है जो मशहूर भी हैं-

ज़माना तो बड़े शौक से सुन रहा था, हम ही रो पड़े दास्तां कहते कहते..

 

मेरे जीवन का बस इतना फसाना है, कागज़ की हवेली है बारिश का ज़माना है..

 

कर लो एक बार याद मुझको, हिचकियां आए भी ज़माना हो गया...

तमाम बातों को याद करते हुए अंत में उसी गीत को याद करूंगा जिसके बोल हैं-ये जीवन है, इस जीवन का यही है यही है यही है रंग रूप, थोड़े गम हैं, थोड़ी खुशियां हैं...

6 comments:

Prakash Tiwari said...

बचपन की खट्टी मीठी यादें

kewal tiwari केवल तिवारी said...

शीला दीदी ने audio भेजकर प्रतिक्रिया दी जो यहां अपलोड नहीं हो पा रही।

kewal tiwari केवल तिवारी said...

वाह..... गजब है अतीत की गहराईयां। राजू यानी भास्कर जोशी की प्रतिक्रिया।

kewal tiwari केवल तिवारी said...

सभी लोग whatsapp पर प्रतिक्रिया देते हैं। ये है नेहा की प्रतिक्रिया 👏🏻👍🏻

kewal tiwari केवल तिवारी said...

प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद।

kewal tiwari केवल तिवारी said...

अतीत में जाकर उन लम्हों को दोबारा जीकर फिर उन पलों का सुंदर वर्णन, बहुत खूब|
ये कमेंट लवली भाभी जी का है। whatsapp पर