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Thursday, January 4, 2024

परिवार, संस्कार की बात और फिर बातों से निकली बात

 

सफर के राही, राहों के सफर

केवल तिवारी

कभी-कभी आपस में बात कर लेने से भी बहुत कुछ हासिल हो जाता है। यह भी तो कहा ही जाता है कि बात ही किसी समस्या का समाधान है। हमें किसी से शिकायत है, हो सकता है उसे इसका भान ही न हो। या मुझसे किसी को कोई दिक्कत है, लेकिन मुझे पता ही न हो। या फिर यह भी तो कि संस्कार, परिवार मामले में हम क्या थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी। जो हुए, वह क्यों? क्या सुधार की गुंजाइश बची है, यदि हां तो कितनी। या समय के बहाव के साथ बहते हुए कुछ चीजों को बचाकर रखना होगा। बोलेंगे, सुनेंगे तो सब होगा। ऐसी ही एक सार्थक बातचीत पिछले दिनों हुई। एक अनौपचारिक था और दूसरा औपचारिक। एक रात की बातचीत थी और दूसरी दिन की। रात था नये साल के स्वागत का और दिन था फिल्म संबंधी एक राष्ट्रीय स्तर के किसी कार्यक्रम के सिलसिले में। रात वाली तो ज्यादातर बातें रात गयी, बात गयी में तब्दील हुई, लेकिन मेरे लिए यह बातचीत भी सार्थक रही क्योंकि पुराने मोहल्ले के अनेक लोग मिले। ऑफिस के भी कई ऐसे लोग मिले जिनके चेहरे पहचानता हूं, नाम नहीं। कुछ जानकारियां मिलीं। किसी को किसी कारण सांत्वना दी और कुछ योजनाओं का पता चला। कुछ अपनी राय दी, कुछ दूसरों की सुनी। मोगा से ब्रदर इन लॉ सतीश जोशी उर्फ सोनू सपरिवार पहुंचे थे, उनके साथ गुफ्तगू हुई। चूंकि नये साल के स्वागत की बात थी इसलिए ऑफिस से काम निपटाकर जाना संभव हो पाया। दूसरा मसला था दिन का। दो दिन बाद। वहां लघु फिल्मों के कार्यक्रम को लेकर कुछ बातें हुईं। इस मुख्य मुद्दे से पहले कुछ लोगों ने और बातें भी की।
शादी-व्याह, परिवार और संस्कार
औपचारिक बैठक से पहले घर, परिवार और संस्कार की बातें हुईं। कुछ लोगों ने माना कि ज्यादातर मामलों में हम अभिभावक ही जिम्मेदार होते हैं। जैसे कि कहीं कार्यक्रम में जाना हो तो बच्चों के मना करने पर हम मान जाते हैं। कायदे से उन्हें ले जाना चाहिए। इसी तरह पहले परिवार के लोग शादी-व्याह में काम में हाथ बंटाते थे, लेकिन अब तो पर्यटन जैसा मामला हो गया। हर कपल को एक निजता चाहिए। हर दो-तीन घंटे में नये कपड़े चाहिए। संस्कारों में भी बाजार हावी हो गया। हालांकि यह भी माना गया कि स्थिति बहुत ज्यादा निराशाजनक भी नहीं है।
विज्ञापन और उनका संदेश
बातों, बातों में कुछ विज्ञापनों का जिक्र हुआ। साथ ही इस बात की जरूरत भी समझी गयी कि संयुक्त परिवारों या इसी तरह के कुछ अन्य मसलों पर विपरीत प्रभाव डालने वाले विज्ञापनों के खिलाफ आवाज उठनी चाहिए। कुछ आवाजें उठीं तो ऐसे विज्ञापन बंद भी हुए। मैं एक बात कहते-कहते रुक गया था कि कुछ विज्ञापन तो बहुत अच्छे भी आते हैं जिन्हें देखने में आनंद आता है। ऐसे ही एक विज्ञापन में दो दोस्त कार में जा रहे होते हैं, पीछे एक दूसरी कार वाला गलत तरीके से ओवरटेक करते हुए निकलता है। उस कार में बैठा एक शख्स कार चला रहे अपने दोस्त से कहता है कि अरे हमारी गाड़ी उससे बड़ी और अच्छी है, पीछा कर। दोस्त समझाता है भाई हमारी गाड़ी ही बड़ी नहीं है, हम भी बड़े हैं, हमारी सोच भी बड़ी है। जाने दो उसे, सफर का आनंद लो। ऐसे ही एक विज्ञापन में मां का विश्वास दिखता है कि उसके बच्चे झूठ बोल ही नहीं सकते। मैंने अनेक लोगों से बाद में कहा कि गलत मैसेज दे रहे विज्ञापनों के खिलाफ आवाज उठनी चाहिए। आजकल तो बस एक मेल करना है या फिर अन्य माध्यमों से संदेश भेजना होता है।
कार्यक्रम, मीडिया, रिपोर्टिंग और डेस्क
बातचीत के दौरान ही मीडिया कवरेज की बात उठी। सवाल यह भी कि किसे बुलाया जाये। फिर तय हुआ कि कार्यक्रम की कवरेज के लिए बीट रिपोर्टर को बुलाना चाहिए। संपादक मंडल को अलग से न्योता जाये और संभव हो तो डेस्क के अन्य वरिष्ठ साथियों को भी बुलावा भेजा जाये। इसमें कुछ किंतु-परंतु भी उठे, लेकिन कुछ लोगों ने कहा कि रुटीन कवर करने वाले से कई बार अचानक कवरेज के लिए भेजा व्यक्ति अच्छा कर सकता है। फिर उन लोगों की शिकायतें भी दूर होती हैं कि उन्हें नहीं बुलाया गया। खैर ये तो संस्थागत, व्यवस्थागत मसले हैं। सिर्फ कवरेज ही जरूरी नहीं, प्रबुद्धजनों को रायशुमारी के लिए भी बुलाया जा सकता है। रायशुमारी की बात पर ही लोगों की कला को परखने का भी मसला उठा। कुछ उदाहरण भी दिए गए कि सोच को ठीक रखनी होगी। पत्रकारिता में आ रहे बच्चों में जानकारी के स्तर पर भी कुछ समस्याएं हैं। फिर पेंटिंग्स और पेंटिंग से जुड़े नामचीन लोगों की 'छोटी सोच' पर भी अफसोस जताया गया।
कश्मीर, खानपान वगैरह... वगैरह
कश्मीर में बदलावों पर भी जिक्र हुआ। यहां अनुभवी से इतर उत्साही युवाओं को ले जाने के किसी कार्यक्रम पर भी बात बनी। माना गया कि वहां जाकर स्थिति का आकलन किया जाये। साथ ही यह भी कि कई लोग खानपान को धर्म से जोड़ देते हैं जो ठीक नहीं। शाकाहार या मांसाहार तो परिस्थितियों पर निर्भर था। यह अलग बात है कि देखादेखी बाद में बहुत कुछ बदल गया। बातें कुछ और भी हुईं जिन पर कहानी बन सकती है, कविताएं लिखी जा सकती हैं। विचार मंथन हो सकता है। कहानी कविताओं से ही याद आया कि इस बातचीत के दौरान बुजुर्गों द्वारा बच्चों को कहानी सुनाने के सिलसिले के खत्म सा होने पर अफसोस भी जताया गया। कुछ हंसी-मजाक भी हुई और पागल और बेवकूफ का कहानीनुमा फर्क भी समझने को मिला। जैसा कि सभी ने माना कि ऐसा मेलजोल होते रहने चाहिए। लोग भले कम हों, लेकिन बातों को समझकर समझाने वाले हों। जये हो।

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